Saturday, June 23, 2007

नन्ही सचाई



एक डॉक्टर मित्र हमारे
स्वर्ग सिधारे।
असमय मर गए,
सांत्वना देने
हम उनके घर गए।

उनकी नन्ही-सी बिटिया
भोली-नादान थी,
जीवन-मृत्यु से
अनजान थी।
हमेशा की तरह
द्वार पर आई,
देखकर मुस्कुराई।
उसकी नन्ही सचाई
दिल को लगी बेधने,

बोली-
अंकल!
भगवान जी बीमार हैं न
पापा गए हैं देखने।

Thursday, June 14, 2007

बूता और जूता


क्या कहा

उनको झेलने का बूता?

अजी,

उन्हें तो वही झेल सकता है

जो पहन सकता है

नौ नंबर के पैर में

सात नंबर का जूता।

सिल से सिलीकॉन तक संदेशों के सिलसिले

आपके दोनों हाथों में नन्हा सा मोबाइल है। दोनों अंगूठे अपने अनूठे अंदाज़ में द्रुत गति से एसएमएस संदेश टाइप कर रहे हैं। मैसेज सैंड कर लीजिए, फिर मैं आपको एक दृश्य दिखाता हूं।

दृश्य क्या होगा अभी मुझे मालूम नहीं है, पर कुछ इस तरह का हो सकता है..... जैसे, मान लीजिए.... कुंभकर्ण चश्मा लगा कर सो रहा है। सॉरी, चश्मा नहीं, स्पैक्टिकल्स... और वहां खर्राटों का महारौरव हो रहा है। अगेन सॉरी, स्पैक्टिकल्स भी नहीं, स्पैक्टिकलश! कुम्भकर्ण के युग में चश्मा और स्पैक्टिकल्स थोड़े ही हो सकते हैं! स्पैक्टिकलश हो सकते हैं। स्पैक्टिकलश यानी, आंखों पर रखे हुए दो पारदर्शी कलश! तभी रावण का याहू याहू मार्का मैसेंजर अपनी टिंग ध्वनि से कुम्भकर्ण को डिस्टर्बित कर देता है। कुम्भकर्ण की मूंछें भैंस की पूंछ की तरह झटके से पीछे आती हैं और स्पैक्टिकलश के दोनों कलश फूट जाते हैं। कुम्भकर्ण की आंखों की कोरों से पानी बहने लगता है। ऐसा लग सकता है कि कुम्भकर्ण रो रहा है।
कमाल है, कुम्भकर्ण रो रहा है और आप हंस रहे हैं! अरे! आपके अंगूठे तो फिर सक्रिय हो गए! अब किसे एसएमएस कर रहे हैं? मैं आपको एक शानदार दृश्य दिखाने वाला हूं, और आप...। खैर, वह दृश्य इस कुछ तरह का भी हो सकता है...... जैसे, गदाधारी भीम द्रुपदसुता की प्रतीक्षा में अत्यधिक उतावले और लगभग-लगभग बावले होते हुए बार-बार अपने उसी हाथ में बंधी रिस्टवाच देखते हैं जिसमें कि गदा है। सॉरी, रिस्टवाच नहीं, शिष्ट-समय-वाचिका.... लेकिन नियति में भी जाने क्या बदा है! द्रुपदसुता अन्यत्र व्यस्त हैं। गदाधारी भीम का हौटमेल संदेश नहीं जा पा रहा है। सॉरी, हौट-मेल संदेश नहीं, ऊष्ण-मिलन संदेश। वे अपनी शिष्ट-समय-वाचिका को कलाई से उतार कर पत्थर पर रख देते हैं और गदा के एक प्रहार से उसे चूर-चूर कर देते हैं।
समय चूर-चूर हो गया। बड़ी सुई चोट खाकर छोटी हो गई और छोटी फैल कर बड़ी। कांटे बिखर गए और काल गड्ड-मड्ड हो गया। भाषाएं एक दूसरे में गुंथ गईं। शब्द नए-नए रूप अख्तियार करने लगे। वह पत्थर भी चटक गया जिस पर शिष्ट-समय-वाचिका रखी थी। प्रस्तर-संधि से आने लगीं एक नए दृश्य की आवाज़ें। वो दृश्य सुनाता हूं आपको। मोबाइल एक तरफ रखकर आप कान से देखिए।
अब से पांच हज़ार वर्ष पहले का
अपूर्व वैदिक ज़माना,
मौसम वसंताना।

उस युग में एक युगल गल कर रहा था आपस में। अभी अतीत में चलिए जहां से वर्तमान में ले आऊंगा वापस मैं।

तो, सघन आम्र-वृक्ष-कुंज,
ऊपर एक डाली लुंज-पुंज।

नीचे बैठे थे आर्य चिराग्यवल्क और उनकी पत्नी विचित्रलेखा कि अचानक उन्होंने देखा...... क्या देखा? देखा कि हाथ-गाड़ी को ठेलते हुए पोस्टमैनाचार्य आ रहे हैं। हाथगाड़ी पर पत्थर की बड़ी-बड़ी सिल ला रहे हैं। पत्थर की वे सिल वस्तुत: उस युग की चिट्ठियां हैं। चिराग्यवल्क ने आवाज़ लगाई--

-- पोस्टमैनाचार्य! भंते, भो तात! क्या हमारा कोई लैटर्य है?
-- हां है, आपका एक लैटर्य! आर्य चिराग्यवल्क, आप पहुंचें अपने सदन पर। वहीं करूंगा लैटर्य डिलीवरायमान।
-- आयुष्मान, आयुष्मान! क्यों करते कष्ट, समय नष्ट। लैटर्य यहीं डिलीवरित करें। कार्य त्वरित करें।
-- भंते! लेकिन, किन्तु, परन्ते! लैटर्य आपको ही उठाना होगा, स्वयं।
-- स्वीकार्यम्‌ स्वीकार्यम्‌। किसका लैटर्य है पता करें! आर्या विचित्रलेखा! लैटर्य उठाने में सहायता करें। ...पोस्टमैनाचार्य, वैसे तो आपको न करता विवश। पर सदन पर ही छोड़ आया हूं अपने स्पैक्टिकलश। लैटर्य पढ़ने में असुविधा है। आप पढ़ दें... कोई दुविधा है?

विचित्रलेखा से न रहा गया। उनके द्वारा कहा गया— ‘ह: ह:, पढ़ने में असुविधा! भूल जाते हैं कि मैं भी हूं आपके साथ। आप कॉंन्वैंटशाला ही कब गए हैं नाथ।‘

चिराग्यवल्क : क्या कहा विचित्रलेखा!
विचित्रलेखा : पोस्टमैनाचार्य, ये सत्य पर किस प्रकार कुपित होते हैं, देखा!
पोस्टमैनाचार्य: ओह, ह: ह: ह:.... भंते, आर्य चिराग्यवल्क! लिखा है-- अत्र कुशलम्‌ तत्रास्तु!
चिराग्यवल्क : आगे पढ़ें।
पोस्टमैनाचार्य: आगे लिखा है- आर्यपुत्र! मदनोत्सव आने वाला है। आर्यपुत्री विचित्रलेखा को अगले पुष्पक विमान से कौशम्बी भेज दें।....
चिराग्यवल्क : बस....बस....बस! क्या शब्द बाण दागे। हम जानते हैं क्या लिखा होगा आगे। इसका उत्तर अभी देते हैं झटपटिया। निकालिए नई पत्र-पटिया! पैन्य है?
पोस्टमैनाचार्य : आर्य, लेखन सामग्री में नहीं कोई दैन्य है, छैनी-हथौड़ित पैन्य है। खट-खट-खटाखट चलेगी हथौड़ी, छैनी अभी सिल पर दौड़ी। बोलिए!
चिराग्यवल्क : लिखिए! तात विचित्र पितार। आप आर्यपुत्री विचित्रलेखा को त्रेता युग में बुला चुके हैं तेतीस बार। अब द्वापर आ गया है।
पोस्टमैनाचार्य: आ गया है।
चिराग्यवल्क : आपका ग्रांडपुत्र फ्यूचरोत्तम आर्यपुत्री को नहीं जाने देगा। आप भी यहीं आ जाइए। मदनोत्सव यहीं पर मनेगा। ....इधर पैट्रोल्य के दाम बढ़ गए हैं। भाव आकाश में चढ़ गए हैं। अतः नहीं आएंगी आर्यपुत्री विचित्रलेखा़....
फ्यूचरोत्तम : जाएंगे जाएंगे, नाना श्री के घर जाएंगे।
चिराग्यवल्क : नहीं जाएंगे! नहीं जाएंगे!! नहीं जाएंगे!!!
फ्यूचरोत्तम : जाएंगे! जाएंगे!! जाएंगे!!!
चिराग्यवल्क : भविष्योत्तम! चैन से नहीं बैठता है घर पे। मारूं चिट्ठी तेरे
सर पे।

पत्थर का पत्र सचमुच अगर सिर पर दे मारा होता तो....? क्या? आप तीसवां एस.एम.एस कर रहे हैं! ओ हो... दुखी हैं! जो उत्तर आया है वह शायद सिल से भी भारी है। आर्यपुत्री नहीं आ रही हैं मिलने। आपकी आवाज़ नहीं सुनी उसके दिल ने! गुल कहीं और जा रहा है खिलने। ऐसा हर युग में होता आया है, कोई बात नहीं।

हर युग में प्रतीक्षाओं के लिए या दीक्षाओं के लिए, शिक्षाओं के लिए या भिक्षाओं के लिए सन्देश दिए-लिए जाते रहे हैं। प्रस्तर युग में छैनी हथौड़ी से शिलाओं पर लिखा गया। छाल युग में कुल्हाड़ी से पेड़ काट-काट कर भोज-पत्रों पर मोरपंखों से लिखा गया। फिर रेशे गलाए गए, कागज़ बनाए गए। कबूतरों के पैरों में चिट्ठियां बांधी गईं। घोड़ों पर या पैदल-पैदल हरकारे भगाए गए। फिर पोस्टकार्ड आए। सब न पढ़ लें इसलिए अंतर्देशीय आए। लिफ़ाफ़े आए। टिकिट लगीं, स्टैम्प छपीं। फिर संचार में नया दूरभाष चमत्कार आया। पतिया न भिजवाइए, सीधे बतियाइए। अब तो इंटरनेट ने सब कुछ सैट कर दिया है। आपके पास कोई और काम ही नहीं रह गया है। बैठे रहिए बारह बाई सोलह की स्क्रीन के आगे। धका-धक दौड़ाए रखिए अपनी उंगलियां को की-बोर्ड पर।

पत्थर की एक सिल को पत्र बनाने में हफ्तों नहीं महीनों लगते थे। उसको एक जगह से दूसरे स्थान तक पहुंचाने में महीनों नहीं बरसों लगते थे। लम्बे इंतेज़ार और चौड़ी बेकरारी के बाद जब वह सिल आती थी तो अतीत से भविष्य को जोड़ने का एक सिलसिला बनती थी। और अब सिलीकॉन युग में, जब आप हर पल एक दूसरे को उपलब्ध हैं, तो न तो कोई सघन प्रतीक्षा है न कोई मगन सिलसिला है। न कोई तिलमिलाहट है न कोई दिलमिलावट है। सिर्फ एक दैहिक वर्तमान है।

मीलों की दूरियों के बाद जो मिलन का आनन्द होता था अब सुलभ-सहज मिलन के कारण दिलों की दूरियों में बदल गया है। दिव्य है टैक्नोलोजी की सुविधा, लेकिन बढ़ा रही है नई दुविधा। अफसोस कि ये चिप संवेदनों को कर रही है चिपचिपा। एमएमएस शर्मनैस में कुछ तो रखें छिपछिपा। चिप से आने वाले संदेश चिपचिपे संबंधों में बदल रहे हैं। पत्थर युग के पत्थरों की तरह मज़बूत नहीं रहे हैं। पत्थर की अहिल्या वर्षों की प्रतीक्षा के बाद नारी बन गई थी। आज की नारी प्रतीक्षा विहीनता में पत्थर बनती जा रही है। गलत कहा हो तो माफ करना। मुझ मेहतर का काम है साफ करना।

Sunday, June 10, 2007

पोल-खोलक यंत्र


(एच०जी० वेल्स ने तरह-तरह के यंत्रों की कल्पना की थी। ऐसे यंत्र जिनका अभी तक अविष्कार ही नहीं हुआ। उन्होंने ऐसे ही एक यंत्र के बारे में लिखा कि यदि वह यंत्र किसी के पास हो तो उसके सामने वाला आदमी क्या सोच रहा है, ये उसे पता लग जाएगा। .....और अब इसे हमारा सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य कि एक दिन जब हम अपनी श्रीमती जी के साथ बाज़ार जा रहे थे तब हमारा पांव किसी चीज़ से टकराया और हमने जब उस चीज़ को उठाया तो पाया कि ये तो वही यंत्र है।)



ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
....इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।

और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा...भी....जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्‌
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभीजी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।

लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।

एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।

ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
- वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
- और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।

ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!

Thursday, June 07, 2007

तुम से आप


तुम भी जल थे
हम भी जल थे
इतने घुले-मिले थे
कि एक दूसरे से
जलते न थे।

न तुम खल थे
न हम खल थे
इतने खुले-खुले थे
कि एक दूसरे को
खलते न थे।

अचानक हम तुम्हें खलने लगे,
तो तुम हमसे जलने लगे।
तुम जल से भाप हो गए
और 'तुम' से 'आप' हो गए।

छोड़ना

जब वो जीवित था
तो उसने मुझे
कई बार छोड़ा,
और मर कर
उसने मुझे
कहीं का नहीं छोड़ा,
क्योंकि मेरे लिए
कुछ भी नहीं छोड़ा।
वैसे
बहूत ऊंची-ऊंची छोड़ता था।

ससुर सुरीला दामाद नुकीला

इस संसार के भारत नामक देश में ससुर नामक मनुष्यों की दो प्रजातियां पाई जाती हैं। पहली प्रजाति, लड़की का ससुर और दूसरी, लड़के का ससुर। कहा जाता है कि यदि दहेज का लालची न हो तो लड़की का ससुर अपनी बहू को बेटी मानता है। सास अपनी बहू को क्या मानती है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय पर ऐसे बहुत सारे अश्रुधारा-प्रवाहिक धारावाहिक चल रहे हैं, जिनसे सास-बहू के सांस्कृतिक संबंधों पर आवश्यकता से अधिक प्रकाश नहीं, अँधेरा डाला जा चुका है। चर्चा करना ही व्यर्थ है। कुछ भी हो, सास की तुलना में ससुर अपनी बहू को ज़्यादा बेटी मानता है। माफ करिएगा।

दूसरी ओर लड़के का ससुर है। यदि उस ससुर के अपने लड़के न हों तो वह दामाद को अपना लड़का मान सकता है। लेकिन अगर उसके अपने लड़के हैं और उसे उनके हितों की रक्षा करनी है तो दामाद पुत्रवत् न लगेगा तो दुश्मन भी न लगेगा। एक मधुर-मनोहारी सम्बंध उनके बीच में बना रह सकता है बशर्ते दोनों के बीच एक सुरक्षित दूरी बनी रहे। एक कहावत है--

दूर जमाई आवक भावक, पास जमाई आधा,
घर जमाई गधा बराबर, जित चाहे धर लादा।

प्रेमचन्द ने कायाकल्प में लिखा है-- ‘ससुराल की रोटियां मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है’। प्रेमचन्द की यह बात मनुष्यों पर लागू होती है, भगवानों पर नहीं। भगवान शिव और विष्णु दोनों अपनी-अपनी ससुरालों में आज तक रोटी तोड़ रहे हैं। उनकी बुद्धि भी ठीकठाक मानी जाती है, तभी तो संसार को ऐनी हाउ चला रहे हैं।

असारे खलु संसारे सारं श्वशुर मन्दिरम्।
हरो हिमालये शेते, हरि: शेते महोदधौ॥

अर्थात्, इस संसार में श्वशुर का मन्दिर (ससुराल ही) सार है। देखो, महादेव जी हिमालय में रहते हैं और श्री हरि क्षीरसागर में शयन करते हैं।

ससुर का विकट अथवा निकट स्वरूप तब दिखाई देता है जब दामाद घर में पूर्ण रूप से प्रवेश करने की कामना रखे। वहीं बसने की गोपनीय तमन्ना रखे। काका हाथरसी ने ऐसे दामादों के लिए ससुर की ओर से लिखा था--
बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद,
सास-ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद।
कितना भी दे दीजिए, तृप्त न हो यह शख्स,
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर-बक्स।
अथवा लैटर-बक्स, मुसीबत गले लगा ली,
नित्य डालते रहो, किंतु ख़ाली का ख़ाली।
कह काका कवि, ससुर नरक में सीधा जाता,
मृत्यु समय यदि, दर्शन दे जाए जामाता।
यह तो कमाल हो गया! ऐसी घृणा तो किसी संस्कृति में न दिखेगी। दामाद अगर मृत्यु समय उपस्थित है तो उसे नरक मिलेगा। यह धारणा पूरे हिन्दू समाज में आज भी घुसपैठ किए हुए है। मुझे लगता है इसके मूल में सम्पत्ति और विरासत का मामला है। यह षड्यंत्र बेटों ने प्रारंभ किया होगा कि कहीं मरते-मरते पिताजी जीजा जी को जी से न लगा लें। हमारे हिस्से का उन्हें न थमा दें। दामाद को अत्यधिक चाहने वाला ससुर भी अंतिम समय में उसके दर्शनों से बचता है। औलाद ने जीते-जी नरक दिखा दिया, दामाद कहीं परलोक भी न बिगाड़ दे। ससुर कितना भी सुरीला क्यों न हो, दामाद नुकीला दिखाई देता है। आर्थिक पारिवारिक समीकरणों में साले-साली के मधुर लगने वाले सम्बंध भी गले तक गाली के हो जाते हैं।

ससुर बनना पिता बनने से बिल्कुल भिन्न है। पिता बनने में जहां आप प्रकृति की नियामत के रूप में अपने बालकों को प्राप्त करते हैं। ससुर उस प्राप्ति को गैर प्राकृतिक लेकिन पारंपरिक और सांस्कृतिक रूप से प्राप्त करता है। जो बालक दामाद बन कर अथवा बालिका बहू बनकर उसके घर में आए वे प्रकृति ने नहीं दिए, प्रकृति की आवश्यकताओं ने दिए। वे लोग महान होते हैं जो प्राकृतिक प्राप्ति और पारंपरिक प्राप्ति में भेद नहीं करते। औलाद और बहू-दामाद दोनों को समान प्यार देते हैं। आदरास्पद होते हैं। ऊंच-नीच को ढकने के लिए चादरास्पद हो जाते हैं और रक्त सम्बंध न होने के बावजूद फादरास्पद बने रहते हैं। बहरहाल, अन्य सम्बंधों की तुलना में यह सम्बंध मधुर होता है।

गावों में प्राय: कम उम्र में ही ससुर बनने का अवसर मिल जाता है। दामाद दोस्त बन जाते हैं लेकिन बहुएं बेचारी घबराई रहती है। किसी अनुभवी और पारदर्शी लोक-कवि ने कहा था –

‘जिधर बहू कौ पीसनौ, उधर ससुर की खाट।
निवरत आवै पीसनौ, खिसकत आवै खाट’।

बहू चक्की पीस रही है, पुत्र गया हुआ है खेत पर और ससुर घर पर हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। जैसे-जैसे पीसना खत्म हो रहा है, वैसे-वैसे ससुर जी अपनी खाट खिसकाते ला रहे हैं।

हमारे समाज के पारिवारिक परकोटों में कितने दैहिक अपराध होते हैं, उसका लेखा-जोखा उपलब्ध करना असंभव है। प्रतिष्ठा और झूठी मर्यादाओं की दुहाई के कारण महिलाएं प्राय: बोलती नहीं हैं। मामले को दफन करने के चक्कर में कई बार बहू के लिए कफ़न खरीदना पड़ जाता है। बहुएं आत्महत्या करती हुई पाई जाती हैं न कि दामाद।

ससुर की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। मैंने पहले ही कहा कि ससुर दो प्रकार के होते हैं-- एक लड़के का और एक लड़की का। लड़के का ससुर है अधिक मानवीय होता है और लड़की का ससुर होते ही न जाने कौन सी हमारी परंपराएं हैं जो उसके ज़हन को प्रदूषित कर देती हैं। लड़की के ससुर को लड़के के ससुर जैसा बनना चाहिए। ऐसा मैं मानता हूं। ससुर लोग ऐसा मानेंगे तो स्वर्ग में जाएंगे, अगर स्वर्ग कहीं होता हो।
--अशोक चक्रधर

Tuesday, June 05, 2007

नारी के सवाल अनाड़ी के जवाब




1। कोख में बच्ची को क्यों मारते हैं उसके मां-बाप? अनाड़ी जी! बताइए आप?

कृष्णा देवी
नई दिल्ली

बच्ची जब हो जाएगी
शोख हसीना
तब दहेज मांगेगा कोई कमीना,
और आ जाएगा हमें पसीना!
--यह सोच कर मां-बाप
निठारी जैसी निठुराई अपनाते हैं।
शोख बालिका कहीं हमारी
खुशियां न सोख ले
इसलिए कोख को ही
उसकी कब्रगाह बनाते हैं।
धिक्कार है ऐसे मां-बाप को
कृष्णा जी!
और क्या बताएं आपको।

2. हमेशा अपनी उम्र छिपाती है नारी, ऐसा क्यों है अनाड़ी? क्या आपके अनुभव में कोई आई, जिसने अपनी उम्र छिपाई?


प्रतीक्षा खरे
म.प्र.


उम्र की सड़क पर महिलाएं
मील का पत्थर नहीं लगवाती हैं,
उस पर संख्याएं नहीं खुदवाती हैं।
अगर क़ुदरत ही खोद दे
तो उसके आगे
घना पौधा लगवाती हैं।
बहुत पूछने पर
एक आदरणीया ने किया स्वीकार
कि कर चुकी हैं तीस पार।
मैंने कहा-- बालिके!
माना कि तीस पार कर चुकी हो,
पर लगता है कुछ पड़ावों पर
कुछ ज़्यादा ही देर रुकी हो।
चलो मेरी शुभकामना है कि
साँसों की सवारी को अविराम खेती रहो,
और उम्र की सड़क पर
मौक़ा पाते ही यू-टर्न लेती रहो।


3. आपके हिसाब से शादी का लड्डू खाना अच्छा है या नहीं खाना अच्छा है?

कु. नीतू सिंह
नई दिल्ली


शादी का लड्डू खाने के लिए नहीं
बांटने के लिए होता है,
पारिवारिक दूरियों को
पाटने के लिए होता है।
आप तो अपने लिए ढ़ूंढिए
कोई बजरबट्टू,
और अपने लड्डू सिंह को
घुमाइए बना कर लट्टू।


4. बचपन में पचपन की उम्र अच्छी लगती थी और अब जब पचपन की हो गई हूं तो बचपन की उम्र अच्छी लगती है। मन हो गया है बावला, क्या करूं अनाड़ी जी?

सरोज चुनगोरिया
नई दिल्ली


पचपन की हो गईं
तो किस बात का मलाल है?
अपन छप्पन के हो गए,
अपना भी यही हाल है।
अनाड़िन अभी तिरेपन की हैं,
उन्हें यहां पहुंचने में दो साल लगेंगे,
तब हम दोनों आंख-मिचौनी,
छुआ-छाई खेला करेंगे।
और अगर आपके बलमा नहीं हैं छोटे,
तो दीजिए उनको मुहब्बत के झोटे।



5. अनाड़ी जी, इस तस्वीर में तो आप खूब जमते हैं, क्या कहिएगा अगर मैं कह दूं आप काका (राजेश खन्ना) जैसे लगते हैं?

सरिता गुप्ता
महोबा (उ.प्र.)



श्रीयुत राजेश खन्ना को बताइए
वे ज़रूर लगाएंगे एक ठहाका।
उनसे कहिए—
‘तुम इतने समझदार हो
फिर अनाड़ी जैसे क्यों लगते हो काका’?



6। जब महिलाओं के लिए हैं संस्थाएं और कानून सारे, तब कहां जाएं नारी उत्पीड़न के शिकार पुरुष बेचारे?


स्मृति खरे
नई दिल्ली

पुरुष जानता है कि
संस्थाओं और कानून की शरण में जाना
समय और धन की बरबादी है,
और वैसे भी वह सदा से
नारी के स्नेहिल उत्पीड़न का आदी है।
और इसलिए भी
कानून की शरण में नहीं जाता है,
क्योंकि नारी की तुलना में
खुद ज़्यादा सताता है।


7। अनाड़ी जी यहां सभी के पास मोबाइल है अगर भगवान के पास मोबाइल हो तो क्या हो?


ज्योत्स्ना जैन
सूरत (गुजरात)

भगवान के पास
बेशुमार जीवधारियों की
बेशुमार शिकायतें हैं।
मंत्र हैं, प्रेयर हैं, आयतें हैं।
गिनीं न जाएं इतनी सारी हैं फाइल,
उस पर अगर उन्होंने रख लिया मोबाइल
तो माना कि वो
नहीं किसी का भी खौफ़ रखेंगे,
लेकिन मोबाइल ट्वैंटी फोर आवर्स
स्विच्ड ऑफ रखेंगे।

Monday, June 04, 2007

त्रिनिदाद में हिन्दी का स्वाद


त्रिनिदाद में हिन्दी का स्वाद

कितना आनंदकारी होता है सुदूर देशों में वहां के निवासियों और प्रवासियों से हिन्दी सुनना। अपने देश में ही हिन्दी के विभिन्न रूपों की कमी नहीं है, जब बाहर जाते हैं तो हिन्दी की ध्वनियां और भी लुभावनी हो जाती हैं। पहली बार जब मॉरिशस गया था तब जो हिन्दी सुनी, बहुत निराली थी। जीवन की मिक्सी-ग्राइंडर में भोजपुरी, फ्रेंच, अंग्रेज़ी, और क्रियोल को डालकर घुमाने के बाद ऐसी भाषा निकली जो जहां-तहां ही समझ में आती थी, पर लगती थी मीठी और अनूठी।

पांच बरस पहले त्रिनिदाद जाने का मौका मिला। मिला भी कैसे? बताता हूं। भूमिका में आत्मश्लाघा लगे तो क्षमा करिएगा। हुआ यूं कि अचानक हिन्दी जगत में कुछ ऐसी हवा फैली कि अशोक चक्रधर नाम का जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया का हिन्दी का प्रोफेसर इन दिनों काफी कम्प्यूटर-कम्प्यूटर खेल रहा है। लैपटॉप, प्रोजैक्टर और पर्दा लेकर कुछ ऐसी चीज़ें दिखाता फिर रहा है जिससे पता चलता है कि कम्प्यूटर में हिन्दी किस रफ्तार से प्रवेश पा रही है।

मैं कम्प्यूटर की आंतरिक तकनीक के बारे में अधिक नहीं जानता था, लेकिन ये सच है कि हिन्दी से जुड़े सॉफ्टवेयर्स का अच्छा प्रयोक्ता बन चुका था। माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी ने सन 2000 में जब ऑफिस 2000 बाज़ार में उतारा तब पॉवर-पाइंट का प्रयोग करते हुए मैंने उनके लिए जो प्रस्तुतियां बनाईं और जगह-जगह दिखाईं उससे हिन्दी के उन हल्कों में, जहां सूचना प्रौद्योगिकी की प्यास थी, मेरी अच्छी-खासी पूछ होने लगी। कोई चीज़ थी ‘यूनिकोड’, जिसका बड़ा हल्ला था। माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेयर इंजीनियर समझाते थे कि भाषाई कम्प्यूटिंग के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ जाएगा। अब तो यूनिकोड की महत्ता सब जानते हैं लेकिन मैं सन 2000 में ही उसका नया-नया मुल्ला बन गया था। अपने सद्य:ज्ञान से हिन्दी प्रेमियों को यूनिकोड की महत्ता समझाता था। पर हाय! उन दिनों कंप्यूटर में यूनिकोड तब तक सक्रिय नहीं होता था जब तक कि ऑपरेटिंग सिस्टम भी विंडोज़ 2000 न हो। और हिन्दी के अधिकांश लोग बमुश्किल तमाम विंडोज़ 98 पर ही अटके हुए थे। विंडोज़ एक्सपी के बाद तो कोई कठिनाई ही न रही। जब त्रिनिदाद से बुलावा आया तब मैं विंडोज़ एक्सपी का भरपूर उपयोग कर रहा था। माइक्रोसॉफ्ट के लोग मुझे अपने हिन्दी उत्पादों का पहला प्रयोक्ता घोषित करते थे। त्रिनिदाद से बुलावा कब और कहां आया, ये भी सुनिए।

मैं माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित भाषाई कम्प्यूटिंग पर आधारित एक सेमिनार में भाग लेने के लिए भोपाल गया हुआ था। वे दिन बड़े मज़ेदार थे। कम्प्यूटर ज्ञाताओं को हिन्दी अधिक नहीं आती थी और हिन्दी-वादियों का कम्प्यूटर से भला क्या लेना-देना। हम चार-पांच गिने-चुने ही लोग थे, जैसे प्रो. सूरजभान सिंह, डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, डॉ. वी. रा. जगन्नाथन, हेमंत दरबारी, जो हर सभा-संगोष्ठी में दिख जाते थे। डॉ. वी. रा. जगन्नाथन के साथ मिलकर मैं जिस समय एक पॉवरपाइंट प्रस्तुति पर काम कर रहा था, मेरे मोबाइल पर त्रिनिदाद से डॉ. प्रेम जनमेजय का फोन आया— ‘दोस्त! त्रिनिदाद आना है। हम यहां सत्रह से उन्नीस बीस मई के बीच अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। सम्मेलन में एक पूरा सत्र हमने सूचना प्रौद्योगिकी पर रखा है। इन दिनों तुम्हारे खूब हल्ले सुनने में आ रहे हैं। आ जाओ डियर! एक धांसू कविसम्मेलन भी रखेंगे। भारतीय उच्चायोग के साथ हमारी यूनिवर्सिटी, जहां मैं पढ़ा रहा हूं, मिलकर ये आयोजन कर रहे हैं। हिन्दी विद्वानों और साहित्यकारों के नाम तय हो चुके हैं, तुम्हारा सारा खर्चा हम उठाएंगे। मैंने यहां तुम्हारी काफी हवा बना दी है कि बंदा बड़ी मुश्किल से मिलता है, बहुत बिज़ी रहता है, कविसम्मेलनों के ज़रिए बहुत कमाता है, ऐसे फोकट में नहीं आएगा। तो मैंने तुम्हारे लिए एक हज़ार डॉलर की अलग से व्यवस्था भी कराई है... लेकिन डियर, किसी को बताना मत’।

मैं मोबाइल ले कर कमरे से बाहर आ गया, कहीं वी. रा. जगन्नाथन ही न सुन लें, शायद जा रहे हों। अन्दर-अन्दर मैं बेहद खुश। एक फोन पर सब कुछ तय हो गया। बाहर से अन्दर आया, यह दिव्य समाचार पचा नहीं पाया। जगन्नाथन जी को बताया तो ज्ञात हुआ कि वे त्रिनिदाद जा चुके हैं। वहां हिन्दी पढ़ा चुके हैं। मैं और खुश, ये हुई सोने पर सुहागे वाली बात। त्रिनिदाद में अपना नक्शा जमा सकूं इसके लिए संयोग देखिए कि वहां का नक्शा मनुष्य शरीर में मेरे सामने ही बैठा है। मैंने प्रोफेसर से कहा— ‘प्रस्तुति तो अपनी लगभग तैयार है जगन्नाथन जी! आप ज़रा त्रिनिदाद के बारे में बताइए’। उन्होंने बताया-- ‘त्रिनिदाद के लोग हिन्दी फिल्मी गीतों के बड़े दीवाने हैं और एक म्यूज़िक चलता है वहां, चटनी’। उदारमना प्रोफेसर ने दिल्ली आने पर मुझे चटनी संगीत के छ: ऑडियो कैसेट दिए। अपनी कार में भरपूर सुने मैंने। क्रीस रामखेलावन की स्किनर पार्क की त्रिनिदाद स्टाइल चटनी, सॉसी रामरजी की चटनी, चटक-मटक चटनी, गुलारी के फूल, जानीया जानीया चटनी और बाबला कंचन की मानूं ना मानूं ना चटनी। साद्रो की अफ्रीकन रिद्म और नरेश प्रभू की ढोलक।
कुछ नमूने बताता हूं—

‘मैं तो जाऊंगी अकेला, मैं तो लागी तेरी हो, मैया, जाऊंगी अकेला’।

‘होलीया सताए रे, आए ना बलमवा। पहली बुलाव ससुर मोरे ऐले, लागेला सरमवा नजरिया घुमैले। आए ना बलमवा’।

‘ना रही सै छांव मंगलवा, झारू सै झारै अंगनवा। उसपे बैठे न बा, कैसे के मारो नजरिया। झारू सै झारै अंगनवा।

त्रिनिदाद में हवाई अड्डे से जिस कार में हम होटल की ओर जा रहे थे उसमें बज रहा था वही कैसेट। भोजपुरी चटनी संगीत-- ‘मैं तो जाऊंगी अकेला...’। मॉरिशस की हिन्दी से अलग प्रकार की हिन्दी। भोजपुरी और अफ्रीकन भाषाओं का मिलाजुला रूप। बेहद कर्णप्रिय, बेहद लुभावना।

जहां ठहराया गया वह कोई होटल नहीं था। कोई व्यक्तिगत गैस्ट हाउस था। नाम था उसका— मॉर्टन। भरपूर हरियाली से घिरी एक सहज सी दुमंज़िला इमारत, जिसके ऊपर टीन की छत थी। छत को चारों ओर से घेरे हुए थे ऊंचे-ऊंचे वृक्ष। सामने एक छोटा सा चर्च। मॉर्टन का बड़ा सा अहाता। अन्दर जाने के लिए लोहे का स्लाइडिंग डोर और लोहे की ही सीढ़ियां।

गाड़ियों से प्रतिभागियों का सामान उतर रहा था। मेरे साथ डॉयमण्ड पब्लिकेशन के स्वामी नरेन्द्र कुमार थे। मैंने उनसे कहा— ‘सामान की फिक्र छोड़िए, कमरा देखते हैं अपने लिए बढ़िया सा। ऊपर ठहरेंगे हरियाली का मज़ा लेंगे’। मैं लोहे की सीढ़ियों पर खटा-खट ऊपर चढ़ गया। नरेन्द्र जी आराम से आए। सामने बाल्कनी में आरामकुर्सी पर बैठी थीं हंगरी से आई हुई डॉ. मारिया नेज्येशी। मैं उनसे परिचित था। उनके सामने रखी मेज़ पर चाय की केतली थी और बिस्कुट की प्लेट। मिलकर खुश हुईं। प्यार से हम दोनों को बिठाया। स्वयं किचिन से कप लेकर आईं। ऐसा स्नेहिल व्यवहार था कि हम भला चाय के लिए कैसे मना करते। मैंने पूछा— ‘यहां कौन सा कमरा अच्छा है मारिया जी’? वे बोलीं— ‘ऊपर एक-दो कक्ष खाली हैं, लेकिन बताया गया है कि ऊपर सिर्फ महिलाएं रुकेंगी। मॉरिशस से डॉ. रेशमी रामधुनी आने वाली हैं और भारत से भी तो आपके साथ कुछ महिलाएं आई होंगी’।

इतना सुनने के बाद हमसे चाय न पी गई। धड़धड़ाते हुए नीचे आए। तब तक नीचे के सारे अच्छे कमरे लुट चुके थे। हमारे पल्ले पड़ा एक टुइयां सा नौ बाई नौ का कमरा। नरेन्द्र जी मेरे प्रकाशक थे और मैं उनका लेखक। मित्रता ऐसी की रॉयल्टी का मामला कभी आड़े नहीं आया। लॉयल्टी बनी हुई थी एक-दूसरे के प्रति। विमान में ही तय कर चुके थे कि एक साथ ठहरेंगे। हिस्से में आया ये नौ बाई नौ का दड़बा। मज़े की विडम्बना ये कि अन्य प्रतिभागियों की तुलना में हम दोनों के पास सामान ज़्यादा था। उनके पास किताबों के बड़े-बड़े बंडल और मेरे पास लैपटॉप, प्रोजैक्टर और तकनीकी तामझाम। उन दिनों एल.सी.डी. प्रोजैक्टर इतने आम नहीं हुए थे। मैं अपनी रिस्क पर जामिआ का प्रोजैक्टर लाया था।

कमरे में किताबों के गट्ठरों ने मेज़ का काम दिया और मेरे उपकरणों ने पलंग पर पार्टीशन का। स्थान कम था, हौसले बड़े थे। मैंने एक ही रात में अपना पॉवर-पाइंट प्रैज़ेंटेशन बनाया फिर नरेन्द्र जी के लिए दूसरा। सुबह-सुबह उन्हें प्रशिक्षित भी किया— ‘हिन्दी के प्रकाशक को हाई-टैक दिखना चाहिए नरेन्द्र जी! लीजिए, अब आपको कुछ नहीं करना है। बस, राइट ऐरो वाला बटन दबाते रहना है और बतियाते रहना है’। वे मुझ से अधिक उत्साह में थे।

मेरी अपनी प्रस्तुति पहले से ही लगभग तैयार थी। उसमें मुझे सिर्फ स्थानीय रंग भरना था। मॉर्टन के आसपास के कुछ चित्र अपने डिजिटल कैमरे से लिए। एक नज़ारा मेरे कैमरे को भाया। कंक्रीट और तारकोल की सड़क पर बीच-बीच में घास निकली हुई थी। मेरी प्रस्तुति को प्रस्थान-बिन्दु मिल चुका था। मैंने सोच लिया कि इच्छा-शक्ति का बीज यदि शक्तिशाली है तो नन्हा अंकुर कोमल धरती को ही नहीं सीमेंट और तारकोल को भी फोड़ कर बाहर आ सकता है।

आयोजन तीन दिन चलना था। उद्घाटन सत्र में त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री मौजूद थे। प्रधानमंत्री यद्यपि अंग्रेज़ी में बोले लेकिन अपने भाषण में उन्होंने भौजी, दादी मां, का उल्लेख कई बार किया। ‘निमकहराम’— उन्होंने बताया कि यह शब्द राजनीति में हमारे यहां भी चलता है।

भारतीय दल के नेता थे सांसद श्री जगदम्बी प्रसाद यादव। उद्घाटन सत्र में उनका लिखित भाषण कई पन्नों का था। काफी बुज़ुर्ग थे वे। अटक-अटक कर धीरे-धीरे पूरा का पूरा भाषण पढ़ दिया। वहां के श्रोता और प्रतिभागी उबासियां लेने लगे। जब बताया गया कि अब इस भाषण का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रस्तुत किया जाएगा तो भारत से गए प्रतिभागियों की मूर्छित हो जाने की इच्छा हुई होगी— ‘लीजिए अब फिर से वही सुनिए’। बहरहाल, स्थानीय तरुणियों के कत्थक नृत्य से राहत मिली। सभागार में ऊपर से लटकाए हुए, पेपरमैशी से बने, हिन्दी वर्णमाला के कुछ अक्षरों ने बालिकाओं को आशीष दिया होगा।

भारत सरकार की तरफ से भेजा गया प्रतिनिधि मंडल वहां के पांच-सितारा होटल में ठहरा था। विदेश सचिव श्री जगदीश शर्मा और जगदम्बी जी के साथ कुछ अन्य सरकारी अथवा सरकार-सम्मत लोग थे। सारे के सारे सत्रों में उस प्रतिनिधि मंडल में से उद्घाटन समारोह के बाद इक्का-दुक्का लोग ही दिखे लेकिन त्रिनिदाद में भारत के उच्चायुक्त श्री वीरेन्द्र गुप्ता लगभग हर सत्र में मौजूद रहे।

मेरी गुरुआनी डॉ. निर्मला जैन ने भाषा के सामाजिक पहलुओं पर चर्चा की तो श्री कन्हैया लाल नन्दन ने हिन्दी की विभिन्न विधाओं का परिचय दिया। डॉ. मधुरिमा कोहली का पर्चा दिलचस्प था। उन्होंने बताया कि विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी को सीखने-सिखाने में क्या परेशानियां आती हैं। लंदन से आए पद्मेश ने हिन्दी और अन्य विदेशी भाषाओं के लिए शिक्षण-प्रविधियां बताईं।

हमारा सूचना प्रौद्योगिकी वाला सत्र हुआ तो उसके लिए दरकार थी एक अदद प्रोजैक्टर की। सभागार में पता नहीं कौन सा प्रोजैक्टर लगा था जो अंग्रेज़ी कार्यक्रम दिखाओ तो चलता था, हिन्दी आते ही बन्द हो जाता था। भला हुआ जो मैं अपना, यानी जामिआ का, प्रोजैक्टर ले गया। वही सी-डैक के हेमंत दरबारी के काम आया, उसी पर डॉ. कुमार महावीर ने अपनी प्रस्तुति दिखाई और उसी पर नरेन्द्र जी ने लैप-टॉप का इकलौता बटन दबा कर हिन्दी पुस्तकों के झण्डे गाड़ दिए।

एक सत्र हुआ जिसका शीर्षक था ‘हिन्दी ऐवरी व्हेयर’, इसमें डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण ने जापान, मारिया ने हंगरी, अनिल शर्मा और तेजेन्द्र शर्मा ने लंदन (यू.के.), रेशमी रामधुनी ने मॉरिशस और अनुराधा जोशी ने गयाना में हिन्दी शिक्षण के अपने-अपने अनुभव बताए। एक पूरा सत्र तुलसी और कबीर के नाम था जिसमें डॉ. नरेन्द्र कोहली, गोविंद मिश्र, सूर्यबाला और डॉ. पुष्पिता ने बताया कि किस प्रकार मध्यकालीन कवियों की रचनाओं ने कैरेबियन देशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। चटनी गीतों में नन्दलाल बेहद लोकप्रिय हैं—‘दधीया मोरी लै ले हो लै ले नन्दलाल’। ‘नन्दलाल’ के उच्चारण में अंग्रेज़ी की ध्वन्यात्मकता ज़रूर महसूस की जा सकती है।

डॉ. सिल्विया मूडी कुबला सिंह इस समारोह की मुख्य आयोजिका थीं। पतली-दुबली, छरहरी सौम्य-शांत स्वभाव की विदुषी। कविताएं लिखती थीं, पर अंग्रेज़ी में। प्रेम ने बड़े प्रेम से कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने में उनकी सहायता की। वाणी इतनी मधुर की प्रेम ने उनका उपनाम ‘कोकिला’ रख दिया। श्यामलवर्णी मूडी को अपना नाम ‘कोकिला’ बहुत पसन्द आया। डॉ. दिविक रमेश और गिरीष पंकज की रचनाएं उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के लिए मांगी। वे सब का भरपूर ध्यान रखती थीं।

यादों में बहुत चीज़ें घुमड़ रही हैं। प्रो. हरिशंकर आदेश का आश्रम, उनका पुस्तकालय, जहाजी चालीसा का विमोचन, चंका सीताराम का भव्य महल, समंदर के किनारे उनका शानदार बंगला, लहरों का शोर, मन्दिर की घण्टियां और अज़ान के स्वर, मनोहारी समंदर के तट, स्थान-स्थान पर क्रिकेट खेलते बच्चे, कमल के फूलों से सम्पन्न बॉटेनिकल गार्डन, रंग बदल कर लाल हो जाने वाले पक्षी, बाबा मौर्या का आम के पेड़ पर चढ़ना, नारियल का पानी, प्रतिभागियों की पिकनिक, चंका सीताराम के स्विमिंग पूल के किनारे विदाई समारोह के समय हल्की सी रिमझिम, न थमने वाले नृत्य, नरेन्द्र जी का पुस्तक विक्रेता, जर्जर हिन्दी भवन, दशहरा मैदान की पालकी, दो मंज़िला भवन जितनी ऊंची विवेकानंद की मूर्ति, प्रेम के घर के पिछवाड़े आम के पेड़, उनके दो प्यारे-प्यारे लड़ाकू पिल्ले, सिंह साहब की गार्मेंट्स की फैक्ट्री, ‘पिच लेक’ का काला दलदल. समुद्र के बीच बने मन्दिर पर लगे रंग-बिरंगे झंडे, बड़े-बड़े झुरमुटों में नन्ही-नन्ही चिड़िया, आकाश के बदलते रंग, उच्चायुक्त वीरेन्द्र गुप्ता के वृहत सरकारी निवास पर संगीत की महफ़िल, संदलेश और भारद्वाज जी की रैड वाइन और न जाने क्या-क्या।

बस एक बात और बताकर अपना फ़साना समाप्त करता हूं। अंतिम दिन हुए कवि-सम्मेलन में जहां लगभग सभी प्रतिभागियों ने अपनी कविताएं सुनाईं, संचालन मैंने किया। और अपनी शरारती कविताई से बाज़ नहीं आया। मैंने मंच पर बैठे-बैठे कुछ पंक्तियां गढ़ीं और श्रोताओं के कानों में जड़ दीं। मुझे ठहाकों और तालियों की ध्वनि अबतक सुनाई दे रही है। वे पंक्तियां थीं---
गुप्ता जी के प्रेम ने ऐसा किया कमाल,
सात-समंदर पार भी हिन्दी करे धमाल।
हिन्दी करे धमाल, तीन दिन बीते ऐसे,
जैसे भरे बज़ार, बीत जाते हैं पैसे।
कह चकरू चकराय, धन्य अपने जगदम्बी,
जब वे बोले, प्यारे मित्रो, सोए हम भी।

स्वर्ग में जगदम्बी जी भी मुस्करा रहे होंगे। न मुस्कराएं तो क्षमा करें।
ओहो! ये तो अपन त्रिनिदाद में ही अटक कर रह गए। टोबैगो के बारे में तो कुछ बताया ही नहीं, जहां प्रकृति में चुम्बक होती है। चलिए फिर कभी सही।

--अशोक चक्रधर

Sunday, June 03, 2007

अशोक चक्रधर की चकल्लस


बड़ा रस है चकल्लस में

विश्व हिन्दी सम्मेलन सिलसिले

बच्चे क्यों जल्दी सीख जाते हैं? क्योंकि अपनी जिज्ञासाओं को तत्काल शांत कर लेते हैं। वयस्क होते ही बंदा दस बार सोचता है कि मन में जो सवाल उठा है उसे पूछें कि न पूछें। पूछ लिया तो हेठी तो न हो जाएगी, अज्ञानी तो न माने जाएंगे। इसी चक्कर में मैंने डॉ. इन्द्रनाथ चौधुरी से वह जिज्ञासा नहीं रखी जो एक संगोष्ठी में उन्हें सुनकर मेरे अंदर कुलबुला रही थी। उन्होंने कहा था— ‘हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है’। मुझे नहीं मालूम था कि एल. डब्ल्यू. सी. क्या होता है। संगोष्ठी के बाद मिले, पूछने को हुआ तो उन्हें किसी और ने घेर लिया। अपने अगले किसी भाषण में उन्होंने फिर वही बात दोहराई कि हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है। भला हो उनका कि उन्होंने खुद ही बता दिया-- एल. डब्ल्यू. सी. का मतलब है ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’।

सचमुच हिन्दी ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’ है। इस समय विश्व में काफी फैली-पसरी भाषा। मीडिया-प्रभु के हाथों में शंख, गदा, चक्र, कमल, परशु, वीणा और स्वर्ण-मुद्राओं के विविध रूपों में हिन्दी विराजमान है। मीडिया-प्रभु के चेहरे पर हिन्दी की वैश्विक मुस्कान है।

उन्नीस सौ पिचहत्तर से विश्व हिन्दी सम्मेलनों का सिलसिला चला। पहला नागपुर में हुआ। दूसरा सम्मेलन उन्नीस सौ छिहत्तर में मॉरीशस में हुआ। फिर सात वर्ष के अंतराल के बाद सन उन्नीस सौ तिरासी में नई दिल्ली में आयोजित हुआ। चौथा इसके दस साल बाद उन्नीस सौ तिरानवै में पुन: मॉरीशस में हुआ। पांचवां उन्नीस सौ छियानवे में त्रिनिदाद में छठा उन्नीस सौ निन्यानवे में लंदन में, सातवां दो हज़ार तीन में सूरीनाम में आयोजित हुआ और आठवां अब न्यूयार्क में होने जा रहा है। पिछले तीन बार से सरकार इस बात का ध्यान रखने लगी है कि विश्व हिन्दी सम्मेलनों का अंतराल तीन-चार वर्ष से अधिक न हो।

सात सम्मेलनों का क्या लाभ हुआ
सवाल ये है कि क्यों जाते हैं लोग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में? क्यों होते हैं विश्व हिन्दी सम्मेलन? यह आठवां है। सात सम्मेलनों का क्या निचोड़ निकला, क्या लाभ हुआ? इस बात के उत्तर में सवाल किया जा सकता है कि किसी मेले, त्यौहार या पर्व का क्या लाभ होता है। अगर लाभ-हानि उसी तरह से देखेंगे जिस तरह से विभिन्न अनुदान आयोग देखते हैं तब तो बात न बनेगी। वस्तुत: विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पूरी दुनिया में हिन्दी बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने वाले लोगों का मेला जुड़ता है। उन लोगों से मिलने का मौका मिलता है जो भारत से सुदूर स्थित देशों में किसी न किसी प्रकार से हिन्दी से जुड़े हुए हैं। वे भारतवंशी मिलते हैं जो आज से ड़ेढ़ सौ वर्ष पहले ये भूमि छोड़ कर गए थे और साथ ले गए थे रामचरितमानस का एक गुटका और पोटली में सत्तू। इन सम्मेलनों का घोषित उद्देश्य विदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना है।

हिंदी का बरगद
देखना यह है कि हिंदी जिन जड़ों से निकली है, उसका बरगद पूरे विश्व में कहां-कहां तक फैला है और उसने कहां-कहां अपनी जड़ें जमाई हैं। हिंदी का यह बरगद सात समंदर पार तक अपनी डालों को ले गया। कुछ मजबूत डालों ने केरेबियन देशों में अपनी जड़ें गिराईं कुछ ने गल्फ में तो कुछ ने एशिया में। अब उन जड़ों को वहां विकसित वृक्ष के तनों के रूप में देखा जा सकता है। वे जड़ें जहां गिरीं वहीं से खाद-पानी लेने लगीं।

पिछले बीस बरस में मैंने काफी दुनिया देखी है। इस दौरान प्रवासी भारतीयों में धीरे-धीरे एक चिंता को विकसित होते देखा है। पश्चिम की दुनिया में अब लोगों को ख्याल आ रहा है कि उनके बच्चे बड़े हो गए और अफसोस कि वे उन्हें अपनी भाषा न सिखा पाए। अफसोस कि उन्हें अपनी संस्कृति न दे पाए। इस मरोड़ का तोड़ क्या हो? विश्व हिन्दी सम्मेलनों में इस प्रकार की सामूहिक चिंताएं एक मंच पर आती हैं और निदान खोजती हैं। निदान का अर्थ संस्थाएं चलाने के लिए केवल आर्थिक मदद करना नहीं होता।

आस्ट्रेलिया में माला मेहता अगर हिन्दी स्कूल चला रही हैं तो उसके लिए भारत का कोई संस्थान उनकी आर्थिक मदद नहीं करता है। अपने संसाधन स्वयं जुटाती हैं। दरअसल, हिन्दी स्कूल वहां के लोगों की निजी आवश्यकता है। वे जिस भाषा और संस्कृति से प्यार करते हैं, अपने बच्चों को भी सिखाना चाहते हैं। ‘हिन्दी समाज’ की डॉ. शैलजा चतुर्वेदी और ‘भारतीय विद्या भवन’ के गम्भीर वाट्स न केवल हिन्दी शिक्षण से जुड़े हैं बल्कि स्थानीय संसाधनों से सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित कराते रहते हैं। इसी तरह अमरीका में ‘भारतीय विद्या भवन’, ‘अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति’ और ‘हिन्दी न्यास’ के तत्वावधान में हिन्दी के बहुमुखी कार्यक्रम चलते रहते हैं। रूस, नेपाल और गल्फ के कई देशों में ‘केन्द्रीय विद्यालय’ हिन्दी सिखाते हैं। इनका खाद-पानी भारत की जड़ों से जुड़ा है। भारत सरकार की सहायता से मॉरीशस में ‘विश्व हिन्दी सचिवालय’ की स्थापना हो गई है, डॉ. वीनू अरुण हाल ही में उसकी निदेशिका बनी हैं। खाद-पानी एकल भूमि से मिले या संयुक्त मिट्टियों से, दुनिया भर में हिन्दी की हरियाली फैलाने के प्रयत्न निरंतर बढ़ रहे हैं।

मॉरीशस, त्रिनिदाद और सूरीनाम ऐसे देश हैं जहां भारतवंशी बहुतायत में रहते हैं। उन्होंने हिन्दी को अपने पूर्वजों से प्राप्त करके सुरक्षित रखा। स्थानीय भाषाओं के प्रभाव में कितनी सुरक्षित रख पाए, यह अलग बात है। नई पीढ़ी को भाषा-प्रदान की यह प्रक्रिया सहज ही घटित होती रही। इसमें माताओं की भूमिका अधिक रही, क्योंकि परंपरागत रूप से महिलाओं ने भाषा नहीं छोड़ी। इन तीनों ही देशों के भारतवंशी परिवारों में भोजपुरी बोली जाती है। उनकी भोजपुरी ठीक वैसी भोजपुरी नहीं है जैसी भारत के भोजपुरी अंचल की है। उनकी भोजपुरी में उनकी स्थानीय भाषाओं के शब्द भी घुल-मिल गए हैं। मॉरीशस में बोली जाने वाली भोजपुरी में फ्रैंच और क्रियोल भाषा के शब्द हैं।

विदेशों में हिन्दी से रागात्मक लगाव को बढ़ाने में हिन्दी फिल्मों और हिन्दी गानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी गाने अपनी मधुर धुनों और पारंपरिक तरानों के कारण भारतवंशियों को बहुत अच्छे लगते हैं। गाना एक बार नहीं, बहुत बार सुना जाता है, और जो बंदिश अनेक बार सुनी जाती है वह कंठस्थ हो जाती है। मैंने पाया कि भले ही पूरे गीत का अर्थ वे नहीं समझते हैं, लेकिन त्रिनिदाद और सूरीनाम के युवा मस्ती से ये गाने गाते हैं। ‘सुहानी रात ढल गई ना जाने तुम कब आओगे’ एक ऐसा गीत है जिसे त्रिनिदाद में इस आस्था से गाते हैं जैसे वह उनका दूसरा राष्ट्र-गीत हो। कोई एक व्यक्ति गाना प्रारंभ करता है, सभी सुर मिलाने लगते हैं। हिन्दी सम्मेलनों ने भारतवंशियों के अन्दर आत्मविश्वास का सुरीला संचार किया है।

आज के ज़माने में टीस की बात ये है कि आदमी तीस दिन में बदल जाता है, सूरीनाम के भारतवंशी तो एक सौ तीस साल पहले जो लोक-भाषा और लोक-संस्कृति लेकर गए थे आज भी वहां उन्हीं धुनों में गा रहे हैं और भारत को प्यार करते हैं बेशुमार। युग बीत गए पर वे ज़्यादा नहीं बदले। ऐसे भारतवंशियों को देखकर मन में अपार स्नेह उमड़ता है।

पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा
श्रीमती इंदिरा गांधी का भाषण कितने ही लेखों में इन दिनों दोहराया जा रहा है। उन्होंने पहले सम्मेलन में कहा था कि विश्व हिन्दी सम्मेलन किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रश्न अथवा संकट को लेकर नहीं, बल्कि हिन्दी भाषा तथा साहित्य की प्रगति और प्रसार से उत्पन्न प्रश्नों पर विचार के लिए आयोजित किया गया है। वे मानती थीं कि हमारी जितनी भी भाषाएं हैं उनके रहते हम एक संयुक्त परिवार जैसे हैं। वे सब की सब हमारी मातृभाषाएं हैं और चूंकि हिन्दी सब से बड़े भाग द्वारा बोली जाती है इसलिए हमारी राष्ट्र भाषा है। इंदिरा जी का वक्तव्य हिन्दी की आंतरिक ताकत को बताता है।

बाहर से और शासन की ओर से जो ताकत उसे मिलनी चाहिए हिन्दी को अभी भी उसकी दरकार है। माना कि वह राजभाषा है लेकिन राजभाषा के रूप में उसका कितना महत्व है और राजकाज में कितना प्रयोग में आती है, ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम दबा लेते हैं। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक दुरिइच्छाओं और अंग्रेज़ियत के लालों की लाल फीताशाही से हिन्दी व्यापक तबाही का शिकार हुई।

बहरहाल, पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन में तीन मुद्दे थे लेकिन प्रमुख पहला ही था—
1। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए। 2। वर्धा में विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना हो। 3।हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अत्यंत विचारपूर्वक एक योजना बनाई जाए


हिन्दी अपने ही देश में अपने अधिकार खोने लगी थी और हम बात कर रहे थे संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी की आधिकारिकता की। ऐसा हमारे मोहल्ले-समाज में भी होता है। जब घर में कोई कमतरी हो तो हम मोहल्ले के सामने अपनी अन्दरूनी कमज़ोरियां नहीं बताते। मोहल्ले से अपनी अपेक्षा बनाए रखते हैं कि वह हमारी श्रेष्ठता स्वीकार करे।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषा की ‘श्रेष्ठता’ स्वीकार कराने के लिए कुछ निर्धारित मानक थे। हिन्दी से जुड़े आंकड़ों को लेकर हम वहां खरे नहीं उतरे। आचार्य विनोबा भावे ने पहले सम्मेलन में ही अपने देश की भाषागत विडम्बनाओं का उल्लेख किया था— ‘यूएनओ में स्पेनिश को स्थान है, अगरचे स्पेनिश बोलने वाले पंद्रह-सोलह करोड़ ही हैं। हिन्दी का यूएनओ में स्थान नहीं है, यद्यपि उसके बोलने वालों की संख्या लगभग छब्बीस करोड़ है। इसका कारण यह है कि बिहार वालों ने अपनी भाषा सेंसस में मैथिली, भोजपुरी लिखी है। राजस्थान वालों ने अपनी भाषा राजस्थानी बताई है। इन कारणों से हिंदी बोलने वालों की संख्या पंद्रह करोड़ रह गई। अगर हम इन सबकी गिनती करते तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या कम से कम बाईस करोड़ होती। इसके अलावा उर्दू भी एक प्रकार से हिंदी ही है, जिसे बोलने-वालों की संख्या करीब चार करोड़ है’। आचार्य ने इस बात पर भी अपनी हैरानी जताई कि यूएनओ ने चीनी मंदारिन जानने वालों की संख्या सत्तर करोड़ कैसे दर्ज करा दी।

दरअसल, हुआ क्या कि चीन में भाषा के प्रति राजनीतिक सदिच्छा रही और लाल झंडे तले लालफीताशाही ने देश के सारे नागरिकों से भाषा के कॉलम में एक ही नाम भरवा लिया— ‘मंदारिन’। हालांकि, वहाँ भी तीस-चालीस भाषाएं अस्तित्व और चलन में थीं। सत्तर के दशक के प्रारंभ में उनकी आबादी लगभग सत्तर करोड़ थी। जनगणना के भाषागत सर्वेक्षण के आधार पर यूएनओ ने स्वीकार कर लिया कि चीनी बोलने वाले सत्तर करोड़ हैं। और उन्होंने ‘मंदारिन’ को मान्यता दे दी।

अनेक महनीय विद्वान मानते हैं कि हिन्दी की महनीयता तभी मानी जाएगी जब वह संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता पा जाएगी।

दूसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन : बालक भी नहीं शिशु
मैं अठहत्तर में मॉरीशस में गया था। दूसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन में तो शरीक नहीं हुआ, लेकिन महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट के हिंदी विभाग में जाने का अवसर मिला। नए-नए बने प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ के निजी न्योते पर हम दो कवि, मैं और श्री ओम प्रकाश आदित्य वहां गए और यह पाया कि पूरा मॉरीशस इस बात पर गर्व करता था कि हमारे देश में दूसरा विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ।

उस सम्मेलन में हमारे देश के हिंदी के बड़े-बड़े विद्वान गए थे, कवि और लेखक गए थे। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का सम्मेलन की अंतिम गोष्ठी में दिया गया भाषण अद्भुत था। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत यह कहते हुए की कि आप इतनी देर से धैर्य के साथ सुन रहे हैं। मुझे आप पर दया भी आ रही थी। आपको भी मेरे ऊपर थोड़ी-थोड़ी दया आती होगी। प्राय: ऐसा कुछ छूटा नहीं है जो विद्वानों ने आपको बताया न हो। उनसे अछूती कौन सी बात कहूं मुझे समझ में नहीं आ रहा है। उनकी इस प्रस्तावना से लगता था जैसे वे अधिक नहीं बोलेंगे लेकिन वे लगभग एक घंटा बोले और सब ने बहुत एकाग्रता से सुना। उन्होंने कहा— ‘यह जो विश्व हिन्दी सम्मेलन है इसका अभी दूसरा ही वर्ष है। बहुत बालक भी नहीं शिशु है। अभी तो यह पैदा ही हुआ है, एक दो साल का बच्चा है। लेकिन इसको देखकर लगता है कि एक महान भविष्य का द्वार उन्मुक्त हो रहा है’।

द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन को हुए अब इकत्तीस वर्ष हो चुके हैं। आचार्य द्विवेदी की भविष्य दृष्टि सब कुछ जानती थी। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन अब बत्तीस वर्ष का परिपक्व जवान होने वाला है। यह युवक ऊर्जावान है, इसकी क्षमताएं अपार हैं।

आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन पहली बार इतने विराट फलक पर आयोजित होने जा रहा है। उसका उद्घाटन सत्र भी यू. एन. की इमारत में होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी नहीं है का दर्द पाले हुए हमारे आदरणीय बुजुर्ग श्री मधुकर राव चौधरी चिंतित न हों। जिस इमारत में आठवें हिंदी विश्व सम्मेलन का उद्घाटन होना है उसी इमारत में शायद ये मधुर घोषणा सुनने को मिले कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा है। आधिकारिक भाषा क्यों नहीं होगी भला? बताइए! जब बुश, भले ही अपनी सुरक्षा के लिए, अपने पूरे देश को प्राथमिक स्तर से हिंदी सिखाने पर आमादा हैं, जब सारे मल्टीनेशनल्स बहुत बड़ा बाजार देखकर हिंदी के सॉफ्टवेयर निर्माण में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं, जब प्रयोक्ताओं के सूचना प्रौद्योगिकी के सद्य:विकसित ज्ञान के कारण हिंदी में सूचना समाचारों का आदान-प्रदान और प्रेमाचार हो रहा है और जब हमारे पास माशाअल्ला पैसे की भी वैसी कमी नहीं है तो फिर हिन्दी क्यों नहीं होगी संयुक्त राष्ट्र में एक आधिकारिक भाषा। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय हमारे देश के सामने विदेशी मुद्रा की उपलब्धि का सवाल था। आज वैसी चिंताएं नहीं हैं।

संस्कृति, भाषा और नई सूचना प्रौद्योगिकी
अब जबकि हम इंटरनेट के युग में हैं पूरा विश्व अपनी भौगोलिक दूरियां समाप्त करते हुए बकौल डॉ. सुधीश पचौरी एक ग्लोकुल बन चुका है-- ‘ग्लोबल गोकुल’। गोकुल एक गांव है पर गांव से कुछ ज़्यादा है। मुहब्बत फैलाता है। ‘ग्लोकुल’ बनने के बाद एक अच्छी बात यह हुई है कि अब से सात-आठ साल पहले हिंदीवादियों का जो अहंकार था वह अब युवा-शक्ति की नई आशाओं और आकांक्षाओं के कारण धीरे-धीरे नमित हुआ है। प्रारंभ में जो लोग कंप्यूटर और तकनीक को साहित्य विरोधी, संस्कृति विरोधी और पाश्चात्य सभ्यता का आक्रमण मानते थे वे भी अब मानने लगे हैं कि कंप्यूटर तो एक माध्यम भर है। यह संस्कृति नहीं है, इसके माध्यम से संस्कृतियां आ-जा सकती हैं। दूसरी संस्कृति को रोकने का प्रयास करेंगे तो अपनी संस्कृति को अन्यत्र कैसे पहुंचाएंगे।

हिन्दी को लेकर जो कुंठाएं थीं वे समाप्त हो गई हों ऐसा नहीं कह सकते। कई बार घर की कलह को बाहर की ताकतें ठीक करती हैं। अपना महत्व तब पता चलता है जब बाहर के लोग बताएं। हम हनुमान जी के देश के लोग हैं और अतुलित बलधामा है हिन्दी। इसको जाना माइक्रोसोफ्ट ने, गूगल ने, याहू ने और आज इंटरनेट पर सूचना भण्डारण कोई समस्या नहीं रही। गति इतनी कि आप मिली सैकिण्ड में सूचनाएं पा सकते हैं। सर्च की जो सुविधा हिन्दी में आई है उसने हिन्दी के परिवार को अचानक बहुत बड़ा किया है। आज अपनी संस्कृति और भाषा को व्यापकतम स्तर पर फैलाने का माध्यम है- नई सूचना प्रौद्योगिकी। दिन-ब-दिन नए-नए जनसंचार माध्यमों से, प्रौद्योगिकी से, हिन्दी का पाट चौड़ा हो रहा है, उसका प्रवाह तीव्र हो रहा है और लगने लगा है कि वह इस भूमंडल की एक महत्वपूर्ण सम्पर्क भाषा बन सकती है। भारतवंशी पूरे विश्व में फैले हुए हैं, वे हिन्दी के चलन को विश्वव्यापी बना सकते हैं।

लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था
न्यूयार्क में यह सम्मेलन जो अब होने जा रहा है, यह निन्यानवे में भी हो सकता था वहां। प्राथमिक प्रयास अमरीका के ही चल रहे थे, लेकिन छोटे-छोटे अहंकार और भविष्य की दूरगामी दृष्टि न होने के कारण अमरीका स्थित हिन्दी सेवी संस्थाएं प्रस्तावित आयोजन को साकार रूप न दे सकीं। अचानक लंदन के नौजवानों ने वह कार्यक्रम लपक लिया। देखते ही देखते सम्मेलन लंदन में सम्पन्न हो गया, और अच्छी तरह से हुआ। लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था। इससे पहले त्रिनिदाद और भारत में भी हो चुके थे। लंदन में काफी अफरा-तफरी रही। मैं भी गया था, मेरी तो तफरी रही। न तो मुझे किसी सत्र में बोलना था, न कोई शैक्षिक ज़िम्मेदारी थी, मात्र एक कविसम्मेलनी कवि की हैसियत से बुलाया गया था। जग का मुजरा लेता रहा और लोगों को सुनता रहा। कैमरा साथ ले गया था, फोटो खींचता रहा। लंदन की हिंदी की खूबसूरती पर मैंने ग्यारह रोल खर्च कर दिए। किन्हीं विद्वान को, जिन्होंने उस सम्मेलन में भाग लिया हो और अपना फोटो न मिला हो तो मुझसे संपर्क कर सकते हैं, शायद मैं उन्हें उनका चित्र दे पाऊं। मेरे पास डॉ. नामवर सिंह और डॉ. विष्णु कांत शास्त्री के घुट-घुट कर बतियाते हुए चित्र हैं। शिवानी जी के ऐसे चित्र हैं जिन्हें पाकर डॉ. मृणाल पांडे खुश हो सकती हैं।

तो, छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने फोटोग्राफर की हैसियत से भाग लिया। और वहीं से मेरी रुचि सम्मेलनों में बढ़ी। लगा जैसे यह है हिंदी का एक अद्भुत मेला, एक कुंभ। जहां आप अपनी हिन्दीगत, व्यावहारिक, सांस्कृतिक भड़ांस निकाल सकते हैं। कह सकते हैं, सुन सकते हैं और अपनी कलंगी में एक पंख जोड़ सकते हैं- देखा हम भी गए थे कुंभ करने, हम भी वहां थे।

वहां मैंने देखा कि आयोजक प्रिय पद्मेश गुप्ता, तितीक्षा शाह, उषा राजे सक्सेना, के़.बी़.एल़. सक्सेना, कृष्ण कुमार, महेन्द्र वर्मा और ब्रज गोयल परेशान थे क्योंकि सम्मेलन में ‘पांच बुलाए पंद्रह आए’, मुहावरा बेमानी हो गया। वहां तो पांच सौ से ज़्यादा आ गए। इतने प्रतिभागियों की व्यवस्था कैसे हो? कहां टिकाया जाए? कहां खिलाया जाए? लेकिन मैंने देखा कि नौजवान अगर किसी चीज़ में लग जाएं तो हर समस्या हल हो सकती है। बड़ी ही निष्ठा से उन लोगों ने अधिकांश के ठहरने, खाने और मनोरंजन का इंतजाम किया। सारा पैसा भारत सरकार ने दिया हो ऐसा तो नहीं था। उन्होंने अपने-अपने संसाधनों और सम्पर्कों का इस्तेमाल किया। किसी से भोजन स्पौन्सर कराया किसी से स्टेशनरी। स्वयं कितना करते! जहां से फोकट में मिल सकता था, हिन्दी के हित में लिया। किस से ले रहे हैं इस पर ध्यान नहीं दिया। एक भोजन सत्यनारायण मंदिर में क्या हो गया, भारत के अख़बारों में कोहराम मच गया कि देखिए सम्मेलन का स्वरूप धार्मिक है, इसे कट्टरवादी दक्षिण पंथी शक्तियों ने हथिया रखा है।

मैं समझता हूं कि अपनी-अपनी विचारधाराएं अपने-अपने साथ हैं, लेकिन हिंदी के मामले को लेकर दक्षिण-पंथी और वाम-पंथी होकर नहीं सोचना चाहिए। हिन्दी के लिए न कोई पक्ष हो और न प्रतिपक्ष, हिन्दी तो सबकी है। जो सरकार में हैं उन्हें भी हिंदी के हित में होना चाहिए, जो विपक्ष में हैं उन्हें भी। वस्तुत: हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में विश्व में स्थापित करना है जो एक ओर हमारे देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहिका बने दूसरी ओर हमारी साझा संस्कृति की संवाहिका।

सातवें का 'सम्मेलन समाचार'

अगला यानी सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन दो हज़ार तीन में सूरीनाम में हुआ। सम्मेलन में जो काम मुझे दिया गया, उसमें मुझे श्रम तो ख़ूब करना पड़ा, लेकिन आनंद भी बहुत आया। पिछले विश्व हिन्दी सम्मेलनों में प्रायः मुझे लगता था कि मैं इससे ज़्यादा कुछ कर सकता हूं। कविसम्मेलन तो एक रात में कुछ घंटों का मामला होता है और सम्मेलन चलता है तीन-चार दिन। बाकी समय में क्या करिए! सिर्फ प्रतिभागी बनकर फाइलें उठाए-उठाए घूमने में भला क्या मज़ा!

आई० सी० सी० आर० ने मेरे सामने एक प्रस्तावनुमा सवाल रखा कि क्या मैं सम्मेलन के दौरान, प्रतिदिन, एक चार पेज की न्यूज़-बुलेटिन निकाल सकता हूं? सुनकर मैं तो परम प्रसन्न हो गया। उत्साह से भरकर मैंने कहा- 'जी, चार पृष्ठ क्या, मैं प्रतिदिन सोलह-पृष्ठीय समाचारपत्र निकाल दूंगा। मेरे पास अपना लैपटॉप है। साथ में डिजिटल कैमरा, जिससे मैं तस्वीरें खींचकर सीधे कंप्यूटर पर डाउनलोड कर सकता हूं। स्कैनिंग का कोई झंझट नहीं। एक टाइपिस्ट मिल जाए तो अच्छा है, वैसे मुझे टाइपिंग भी आती है। पेजमेकर और फोटोशॉप का पिछले कुछ वर्षों से इस्तेमाल कर रहा हूं। चित्र बना सकता हूं, बाइंडिंग भी जानता हूं। ये सब तो मैं जानता हूं कि जानता हूं, लोगों का मानना है कि मैं लिख भी लेता हूं।'

बहरहाल, प्रस्ताव पाकर मैं उल्लास से भरा हुआ था। एक चुनौतीपूर्ण कार्य मिला तो मैं अपनी पूर्व तैयारियों के साथ इस सम्मेलन में गया। मुझे ख़ुशी है यह बताते हुए कि पांच तारीख़ से लेकर दस तारीख़ तक श्री घनशाम दास, अनिल जोशी, राजमणि, के. बी. एल. सक्सेना और भुत सारे साथियों के सकर्मक सहयोग से मैंने न्यूज़-बुलेटिन के पांच अंक निकाले। नाम रखा 'सम्मेलन समाचार'। पांच जून को 'सम्मेलन समाचार' का स्वागतांक निकाला, छः जून को निकाला उद्घाटन के समाचारों को प्राथमिकता देते हुए। कोई दस पेज का, कोई बारह पेज का, कोई चौदह पेज का। सामग्री हर दिन आवश्यकता से अधिक होती थी। सोचते थे कि बची हुई सामग्री को अंतिम दिन के 'विदाई अंक' में डाल देंगे। ये पांच अंक निकालकर मुझे बहुत-बहुत आनंद आया। आनंद आया रिपोर्टिंग का, फोटोग्राफी का, पेज-सैटिंग का, प्रस्तुति-कला का, नई टीम के गठन का, घनघोर श्रम का और थकान का।

मेरे अचानक जन्मे इस उत्साह और उल्लास के पीछे कुछ कारण और भी थे। पहला तो यह कि मैं विगत सम्मेलन की अख़बारी रिपोर्टों से मन ही मन थोड़ा खिन्न था। मुझे वे एकांगी लगी थीं। अगर मैं उस सम्मेलन में नहीं गया होता तो मुझे क्या पता चलता कि सचमुच क्या हुआ! मैं तो अख़बारों की रिपोर्ट को ही अंतिम मान लेता। लेकिन मैं तो वहां था। सब कुछ मैंने देखा था, सुना था। और सब कुछ वैसा नहीं था जैसा कि कुछ ख़ास अख़बारों में बताया गया था। मैंने उस सम्मेलन में लगभग दस रोल फोटो खींचे। व्यक्तिगत वितरण के अतिरिक्त वे कहीं छपे नहीं। तब मन करता था कि इन चित्रों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट बनाऊं ताकि सम्मेलन की पूरी झांकी दिखा सकूं। उस दबी हुई कामना को पूरा होने का मौका मिला तो फिर मैं ख़ुश क्यों न होता।

कई बार जब दाल में कंकड़ी आ जाती है तो मुंह में किरकिराहट भर जाती है। लेकिन जैसा मैंने बचपन से देखा है हम दाल नहीं फेंकते कंकड़ी थूक देते हैं। पल दो पल खाना बनाने वाले पर नाराज़ होते हैं और भूल जाते हैं। छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन के मामले में दाल-भात का तो ज़िक्र नहीं हुआ, कंकड़ी पुराण पर रोदन चलता रहा। मैं जानता था कि दाल में एक-दो कंकड़ियां थीं लेकिन भोजन सुस्वादु था। ज़माने ने तो यही जाना कि सारा गुड़-गोबर था।

एक और भी पीड़ा थी मेरी। इस पीड़ा को वर्तमान पत्रकारिता से मेरी शिकायत भी माना जा सकता है कि प्रायः सारे अख़बार दृश्य के एक बहुत बड़े हिस्से को अनदेखा कर देते हैं। ऐसे जैसे- 'मूंदहु नयन कतहुं कछु नांही'। पत्रकारिता निर्णयात्मक ज़्यादा हो जाती है विवरणात्मक कम। पाठकों का अधिकार है कि पहले उन्हें सम्पूर्ण दृश्य दिखाया जाए। मुझे लगा कि मुझे यह मौका मिल रहा है। सो अंदर ही अंदर बहुत प्रसन्न था।

तीसरी बात ये कि जामिआ मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में हम पिछले दो दशक से किसी न किसी रूप में पत्रकारिता पढ़ाते आ रहे थे। यह अवसर था जब मुझे पत्रकारिता के सैद्धांतिक पक्ष के साथ व्यावहारिक प्रयोग करने का अवसर मिल रहा था। 'सम्मेलन समाचार' प्रतिदिन शाम को छापना बड़ा रोमांचकारी लगा। सोचा, पहले ये काम कर दिया जाए फिर विद्यार्थियों को उदाहरण के रूप में दिखाया जाए। कह सकता हूं कि 'सम्मेलन समाचार' की परिकल्पना से मेरे अंदर का विद्यार्थी सजग हो गया जो मेरे अंदर के गुरु को बहुत सारे नंबर लाकर दिखाना चाहता था। यानि मेरा उत्साह मेरे अंदर के विद्यार्थी का उत्साह था।

चौथा कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पिछले सात-आठ साल से कम्प्यूटर के साहचर्य में रहते रहते यह बात शिद्दत से महसूस होने लगी कि नई सूचना प्रौद्योगिकी का पूरा-पूरा लाभ अभी हम हिन्दी में नहीं उठा पा रहे हैं। कम्प्यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए हैं कि कम्प्यूटर कलम जैसा ही एक औज़ार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढ़ा देता है। प्रतिदिन अख़बार निकालने के पीछे मुझे अपने कम्प्यूटर जैसे साथी पर बड़ा भरोसा था। 'सम्मेलन समाचार' के रूप में मैं कम्प्यूटर की क्षमताओं का एक 'डैमो' देना चाहता था।

कई बार ऐसा हुआ कि टाइप करने तक का समय नहीं मिला। डिजिटल कैमरे ने अलादीन के जिन्न की तरह हुकुम बजाया। आठ जून को सायंकालीन सत्र के बाद सम्मेलन में गए बारह सांसदों ने ‘सूरीनाम संकल्प’ के रूप में एक प्रस्ताव का प्रारूप बनाया। लिखा था— ‘सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारतीय संसद की ओर से अधिकृत रूप से उपस्थित हुए संसद सदस्यों का यह प्रतिनिधि मंडल विश्व हिन्दी सम्मेलन के समग्र परिवेश का अध्ययन करने के पश्चात भारत सरकार से यह आग्रह करता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा की मान्यता दिलाने के लिए संसद एक संकल्प पारित करे और उसे शीघ्रातिशीघ्र क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक क़दम उठाए’। संकल्प के नीचे सर्वश्री लक्ष्मी पांडे, नवल किशोर राय, बालकवि बैरागी, वरलु, दीना नाथ मिश्र, सरला माहेश्वरी, एपीजे, राम रघुनाथ चौधरी और सत्यव्रत चतुर्वेदी के हस्ताक्षर थे। पत्र का चित्र खींचा, आधा घंटे बाद अंक लोगों के हाथ में था।

अलग ताप-तेवर से होगा आठवां
प्रथम सम्मेलन को हुए बीत गए बरस बाईस। सात सम्मेलन हो चुके, चीज़ें होने लगी पारदर्शी। आंकड़े अब बदल चुके हैं। कमोवेश ये बात साफ है कि आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कुछ अलग ताप, तेवर और मिजाज़ का होना चाहिए। इसके आयोजनकर्ताओं के संकल्प भी छिपे नहीं हैं, साफ हैं। विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा के निजि घनत्वपूर्ण रुचि लेने के कारण सम्मेलन की तैयारियां एक सार्थक दिशा लेने का प्रयास रही हैं। यह बात पता चलती है विश्व हिन्दी सम्मेलन की वेबसाइट www.vishwahindi.com से जिसका मीडिया लॉन्च उन्नीस मार्च को हुआ था। यह वेबसाइट श्री बालेन्दु शर्मा दाधीच के नेतृत्व में तैयार हुई है। वेबसाइट तो पिछले सम्मेलन में भी बनी थी पर ये वाली बात न थी।
इस बार आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की आधिकारिक वेबसाइट पूरी तरह यूनिकोड में बनी है और नवीनतम तकनीक पर आधारित है। इस की विषय वस्तु में निरंतर विस्तार होता रहेगा। इस वेबसाइट के चार खंड हैं। पहला खंड है सूचनात्मक, दूसरे में ऐतिहासिक महत्व की संदर्भ सामग्री है, तीसरा खंड पाठकों के साथ सम्पर्क की सुविधा प्रदान करता है यानी इंटरऐक्टिव है, चौथा डायनमिक खंड है जो निरंतर अपडैट होता रहेगा। लिखित चित्रात्मक और दृश्य श्रव्यात्मक सामग्री के अतिरिक्त इसमें ऐसी पी.डी.एफ फाइल भी होंगी जिन्हें डाउनलोड किया जा सकता है। यह वेबसाइट प्रतिदिन अपडैट होती है। स्थान की कोई समस्या नहीं है।

आज अगर किसी को जानना है कि आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलनों में क्या होने जा रहा है, शेष सात सम्मेलनों में क्या हुआ था। कितने सत्र होंगे, उनका विषय क्या है तो कृपया अपने कम्प्यूटर खोलें, नेट पर जाएं और सेट कर लें।

अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन
विदेश मंत्रालय ने प्रारंभ से इसकी ज़िम्मेदारी उठाई है। जिस देश में सम्मेलन होता है वहां का कोई एक स्थानीय निकाय मेज़बानी करता है और विदेश मंत्रालय उसे न केवल वित्तीय सहायता देता है बल्कि आयोजन में सकर्मक रूप से सक्रिय रहता है। पिछले छ:-सात बरस में अनेक देशों से इस प्रकार की मांग उठी कि अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन उनके देश में कराया जाए।

विश्व हिन्दी सम्मेलन मान लीजिए किसी देश के अनुरोध पर वहां नहीं किया गया तो उन लोगों ने अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर लिए। त्रिनिदाद में एक बार विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ था। दोबारा न हो सका तो वहां के विश्वविद्यालय ने 2002 में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया। इसी प्रकार कुछ देशों की मांग पर विदेश मंत्रालय ने कहा कि हम विश्व हिन्दी सम्मेलन तो नहीं करा सकते पर क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन करा सकते हैं। पिछले दो वर्षों में अबूधाबी, दुबई, जापान, आस्ट्रेलिया और मॉस्को में हिन्दी सम्मेलन हुए। ये समझिए कि महाकुंभ से पहले होने वाले अर्द्धकुंभ थे। महाकुंभ में तसल्ली से बात करने का मौका शायद न मिले पर क्षेत्रीय सम्मेलनों ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जितने भी क्षेत्रीय सम्मेलन हुए उनमें हिन्दी शिक्षण को लेकर गंभीर चर्चाएं हुईं। जापान के क्षेत्रीय सम्मेलन में नाट्य विधा रेखांकित हुई। वहां मिज़ोकामी और तनाका ने नाटकों के माध्यम से हिन्दी को फैलाया है। उज़्बेकिस्तान के लोग भारतीय धारावाहिकों से हिन्दी को संवर्धित कर रहे हैं। डॉ. फैज़ुल्लायेव ने रामानंद सागर की रामायण का रूसी में अनुवाद किया और पूरा धारावाहिक लोगों ने बड़े मज़े से देखा। कहना न होगा कि फिल्मी गीत, फिल्मी संवाद और धारावाहिकों ने हिन्दी को सम्पूर्ण विश्व की भाषा बना दिया है।



आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन
तेरह जुलाई को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के परिसर में प्रात: दस बजे उद्घाटन होगा फिर चलेंगे नौ समानांतर शैक्षिक सत्र। शैक्षिक सत्रों के विषय हैं-- संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी, विदेशों में हिंदी शिक्षण समस्याएं और समाधान, विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन (प्रवासी हिंदी साहित्य), हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका, वैश्वीकरण, मीडिया और हिंदी, हिंदी के प्रचार प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका, हिंदी, युवा पीढ़ी और ज्ञान-विज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य- विभिन्न आयाम, साहित्य में अनुवाद की भूमिका, हिंदी और बाल साहित्य और देवनागरी लिपि। समापन सत्र में देश और विदेश के हिंदी विद्वानों का सम्मान किया जाएगा तथा पुराने अधूरे संकल्पों को दोहराया जाएगा, नए संकल्प पारित किए जाएंगे। इस बार सम्मेलन आयोजित करने की ज़िम्मेदारी पहले से ज़्यादा बड़ी है। भारतीय विद्या भवन के निदेशक डा. पी. जयरमन प्राणपण से व्यवस्थाओं में जुट गए हैं।

हर सत्र में दस बोलने वाले भी रखे जाएं तो नब्बे तो वक्ता ही हो गए। वे कितना बोलेंगे यह इस पर निर्भर करता है कि हिन्दी के समाज में उनकी हैसियत कितनी है। कितने ही लोगों को टोका जा सकता है, बीच में रोका जा सकता है। कितनी ही आत्माएं कुलबुलाती रह जाएंगी, जिनको बोलने का अवसर नहीं मिल पाएगा। प्रतिभागी बनकर सुनने में भी क्या बुराई है। अनुमान है कि लगभग चार-पांच सौ लोग तो भारत से ही इस सम्मेलन में भाग लेने जाएंगे।

संसार का मुश्किल से ही ऐसा कोई देश होगा जहां कोई हिन्दीभाषी न हो। हिन्दी के विकास में सरकार और स्वैच्छिक संस्थाओं से अधिक योगदान आज बाज़ार और मनोरंजन कर्मियों का है। संभवत: यही सोच कर आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का केन्द्रीय विषय रखा गया है- ‘विश्व मंच पर हिन्दी’।

सम्मेलन की तिथियां उद्घाटित होने के बाद से विश्वभर के हिन्दी-सेवियों में हलचल है। कौन नहीं चाहेगा अमरीका घूमना, कौन नहीं चाहेगा हिन्दी-सेवियों की जमात में शामिल होना और अपना किसी भी प्रकार का योगदान देना। अमरीका जाने का किराया और वहां ठहरने का खर्चा कम नहीं है फिर भी लोग उत्साहित हैं। देखते हैं यह उत्साह न्यूयार्क पहुंच कर हिन्दी के पक्ष में किस प्रकार का रूपाकार लेगा।

विश्व हिन्दी सम्मेलन के बारे में इतना कहना चाहूंगा कि अब यह सम्मेलन हिन्दी का एक पर्व बनता जा रहा है। एक ऐसा मेला जहां हम दुनिया भर के हिन्दी वाले हंसते-खिलखिलाते हैं, मिलते-मिलाते हैं। एक ऐसा अवसर जब हिन्दी की विभिन्न प्रकार की बोली-शैलियां जीने वाले लोगों का आपस में मिलन होता है। भाषा किसी समाज में विभिन्न जीवन-शैलियों की जनक होती है- ये कोई ऐसी बात नहीं है जो लोगों को पता न हो। सब जानते हैं कि हमारे देश में अलग-अलग रंग, गोत्र, जाति, वर्ण और धर्म के लोग एक ही भाषा बोलते हैं। भाषा तो बोलने वालों के समुदाय की सतत निर्झरिणी है। एक समाज जिस भाषा में गुफ़्तगू करता है, जिसमें एक दूसरे से सम्प्रेषित होता है वो उस समाज की साझेदारी होती है।

विषयों का निर्धारण हो चुका है, खुला निमंत्रण है हिन्दी सेवियों को कि वे अपने विचार भेजें। उन आलेखों के चयन में कोई चूक न हो और हमारा मीडिया अन्यथा न ले क्योंकि अन्यथा लेने के सिवाय उसे विशेष आता नहीं है। सत्प्रयत्नों को रेखांकित कर देंगे तो गेन नहीं कर पाएंगे क्योंकि बारगेन नहीं कर पाएंग़े। अपनी रणनीति बदलें और प्रयत्नों को सैल्यूट करें और देखें कि आगे क्या होता है।

Saturday, June 02, 2007

बोल मेरी मछली कितनी हिन्दी

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का व्यग्रता से इंतेज़ार है। कुंडली देख कर फलित की चिंता है। कुंडली कह रही है कि इस बार हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनेगी। न बन पाई तो कह देंगे कि कुछ ग्रह वक्र दृष्टि से देख रहे थे, सो न बन पाई। ज्योतिष में यह बड़ी सुविधा है। दरअसल, लक्ष्य-प्राप्ति के लिए सुविधाएं हम जुटा नहीं पाते और दूसरों पर दोष मढ़ देते हैं। देखना यह है कि वे कुग्रह कौन से हैं जो वक्र दृष्टि डाल रहे हैं। वस्तुत: अंदर झांकना होगा। गड़बड़ हिन्दी के बहिर्लोक में नहीं उसके अंतर्लोक में है।

चीनी आबादी जब सत्तर करोड़ थी, तो सारी आबादी ने जनगणना के दौरान अपनी भाषा को मंदारिन बताया। और चीनी संसार में सर्वाधिक लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषा के रूप में स्वीकृत हो गई। संयुक्त राष्ट्र संध ने तत्काल मान्यता दे दी। जबकि सच्चाई ये है कि चीन में उस समय 30-40 भाषाएं बोली जा रही थीं। चित्रलिपि होने के कारण एक जैसी लगती ज़रूर थीं पर एक जैसी थीं नहीं। ऐसा ही हमारे यहां है, उर्दू को छोड़कर हमारी लगभग सभी भाषाओं की आधारलिपि देवनागरी है, पर हम स्वयं को एक भाषाभाषी नहीं मानते। जनगणना में प्रांतीयता के आधार पर किसी ने अपनी भाषा राजस्थानी लिखवाई, किसी ने भोजपुरी या मैथिली। इसी अंतर्लोक को दुरुस्त करना है।

हिन्दी की दुर्दशा पर रोने से कोई लाभ नहीं होने वाला। दुर्दशा तो है, लेकिन जहां हिन्दी में रौनक है, ताल है, तेवर है, सौन्दर्य है, मुस्कान है, उन इलाक़ों में भी जाना चाहिए। ज़ाहिर है, हिन्दी रोज़गार के क्षेत्र में पैर नहीं पसार पाई है, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भी नहीं। तो फिर कहां है? बाकी सारे हिस्सों में हिन्दी है। घर में है, दफ्तर की कचर-कचर में है, प्रेमियों के अधर-अधर में है, दुश्मनों की गालियों के स्वर में है, गांव कस्बे और शहर की डगर-डगर में है, बॉलीवुड की जगर-मगर में है, फिर भी अगर-मगर में है।

मैं न तो हिन्दी की दुर्दशा पर रोना चाहता हूं, न ही उसकी महनीय स्थिति पर हर्षित होना चाहता हूं, पर हिन्दी के भविष्य और भविष्य की हिन्दी के प्रति पर्याप्त आशावान हूं। आशावादी व्यक्ति आकड़ों को अपनी निगाह से देखता है और अपने अनुकूल निष्कर्ष निकालता है। इस बात को स्वीकार करते हुए मैं ये मानता हूं कि इस समय हिन्दी विश्व में सबसे ज़्यादा बोले और सुने जाने वाली भाषा है। पुन: कहूं, हिन्दी को सुनने वाले और हिन्दी को बोलने वाले संसार में सबसे ज़्यादा हैं। हां, लिखने और पढ़ने का आंकड़ा इकट्ठा करेंगे तो संख्या काफी पिछड़ जाएगी, लेकिन हिन्दी कान और मुख के ज़रिए संप्रेषण का सुख दे रही है।


किसी भी भाषा का विस्तार और लोकाचार बाजार से होता है। बाजार, जहां हमें जरूरी चीजें खरीदनी हैं या बेचनी हैं। बेचने वालों को खरीदने वालों की जुबान आनी चाहिए, खरीदने वालों को वह जबान आनी चाहिए जो बेचने वाले बोलते हैं। नहीं आती है तो दोनों प्रयत्न-पूर्वक सीखते हैं। यह प्रक्रिया बिना किसी भाषा-प्रेम के उपयोगितावादी दृष्टि से सम्पन्न होती है। अब जब कि भारत में तरह-तरह के बाजार पनप रहे हैं और हम देख रहे हैं कि विज्ञापन से लेकर ज्ञापन तक हिंदी व्यवहार में लाई जा रही है। ऐसी स्थिति में उसके प्रयोक्ताओं की संख्या का बढ़ना स्वाभाविक है। उन हठधर्मियों का क्या किया जाए जो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हिंदी एक ताकत है।

सबसे ज्यादा कौन-सी भाषा बोली जाती है इस बात को लेकर हम कुछ मित्रों में बहस छिड़ी। परम हिंदीवादी एक मित्र बोले—‘अभी हिंदी संसार में चौथे स्थान पर है’। मैंने पूछा-- ‘पहले दूसरे और तीसरे स्थानों पर कौन-सी हैं?’ हर किसी के समान उन्होंने पहले स्थान पर मैंडरिन यानी चीनी भाषा का नाम लिया, उसके बाद अंग्रेजी का फिर स्पेनिश का, चौथे नंबर पर हिंदी।

सवाल ये है कि अपने देश में हिंदी को कैसे परिभाषित किया जाए। क्या ब्रजभाषा, बुंदेली, मगही बोलने वाला, भोजपुरी मैथिली पंजाबी गुजराती बोलने वाला हिंदीभाषी नहीं है? क्या उर्दू को हिंदी से अलग रखा जाएगा, जबकि व्याकरणिक संरचना एक जैसी है, वाक्य-विन्यास एक जैसा है। परस्पर सुनने-समझने में किसी को कोई परेशानी आती नहीं। उर्दू शब्दों के प्रति इन दिनों हिंदी काफी उदार हो रही है। आजकल जो पुस्तकें छप रही हैं उनमें नुक्तों तक का प्रयोग चलन में आ गया है। वे लोग जो उर्दू को हिंदी से अलग करके हिंदी भाषियों की संख्या निकालते हैं, उनकी दृष्टि को संकीर्ण माना जा सकता है।

आंकड़ों की टोह में मैंने अपने भाषाशास्त्री मित्र विजय कुमार मल्होत्रा की मदद ली। उन्होंने 1995 में ‘गगनांचल’ के ‘विश्व हिन्दी अंक’ में प्रकाशित हुए लक्ष्मी नारायण दुबे के लेख का हवाला देते हुए बताया कि विश्व में चीनी बोलने वाले 90 करोड़, अंग्रेज़ी बोलने वाले 80 करोड़ और हिन्दी बोलने वाले 70 करोड़ हैं। लेख में यह भी बताया गया है कि विश्व के उनत्तीस देशों में हिन्दी तिरानवे विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है।

थोड़ी देर बाद उनका दूसरा ई-मेल आया। उसमें उन्होंने मेरिट रलेन की पुस्तक ‘अ गाइड टु द वर्ल्ड लैंग्वेजैज़’ (स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1987) का संदर्भ देते हुए बताया कि अकेले चीन में एक बिलियन लोग मैंडरिन बोलते हैं, लगभग एक बिलियन ही अंग्रेज़ी, तीसरे स्थान पर हिन्दी-उर्दू के बोलने वाले-- चार सौ मिलियन। स्पेनिश और रूसी के तीन-तीन सौ मिलियन।

पुन: कहूं, चीन की पूरी आबादी मैंडरिन बोलती है, यह एक भ्रामक धारणा है। यह भ्रामक धारणा शायद चीन की दीवार के कारण बनी, जिसके आर-पार सही तथ्य न तो आ पाते हैं, न जा पाते हैं। भारत के समान चीन में भी विभिन्न प्रकार की बोलियां और भाषाएं बोली जाती हैं। उनमें से कुछ हैं— शंघाई, कैंटन, फुकीन, हकका, तिब्बती और तुर्की आदि, चीन के इन अन्य भाषा-भाषियों को निकाल दें तो मैंडरिन के बोलने वाले अस्सी प्रतिशत ही रह जाएंगे। पर हमें क्या! क्यों पचड़े में पड़ें?

तीसरे नम्बर पर हिन्दी को स्वीकार करने में हम हिन्दी वालों को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि हम सदैव तीसरे दर्जे से यात्रा करते रहे हैं, तीसरी श्रेणी के कर्मचारी बनकर जिए हैं और तीसरी दुनिया के लोग कहाते हैं। वह गर्व अभी तक पैदा ही नहीं हुआ जो यह महसूस करा दे कि नहीं, तुम तीसरे स्थान पर नहीं हो, पूरे विश्व में पहले नम्बर पर भी हो सकते हो। गिनतियों को ज़रा फिर से इकट्ठा करो।

एक हैं डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल। वे पिछले कई साल से यह सिद्ध करने के लिए भिड़े हुए हैं कि पूरे विश्व में हिन्दी का स्थान सबसे उपर है। उन्होंने एक सर्वेक्षण 1981 की विश्व जनगणना के आधार पर किया और बताना चाहा कि हिन्दी जानने वालों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। किसी ने उनकी नहीं सुनी। प्रतिक्रिया में मौन साध लिया गया। कुछ ने सोचा होगा कि पाकिस्तानी लोगों को भला हिन्दी जानने वालों में कैसे शरीक़ किया जा सकता है।

हिन्दी को लेकर डाक्टर नौटियाल का दृष्टिकोण व्यापक था, वह उर्दू को भी हिन्दी में शामिल करके देखते थे और इतना ही नहीं वे विभिन्न प्रदेशों की बोलियों को भी हिन्दी में सम्मिलित मानते थे, जैसे-- ब्रज, अवधी, राजस्थानी वगैरह। विदेशों में बोले जाने वाली हिन्दी यद्यपि विभिन्न रूप रखती है, जैसे मॉरिशस, सूरीनाम, फिज़ी में, वह विशुद्ध खड़ी बोली जैसी नहीं भी है, लेकिन हिन्दी का ही एक रूप है। नौटियाल साहब ने उसे भी हिन्दी में सम्मिलित किया। उन्होंने कोशिश की अपने शोध और अध्ययन के परिणामों को वर्ल्ड ऑरगनाइज़ेशन्स को भेजें, मनोरमा ईयर बुक को दें और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग को बाध्य करें कि इस तथ्य को स्वीकार किया जाए, लेकिन उनके प्रयास नक्कारखाने में तूती बन के रह गए।

हार नहीं मानी नौटियाल साहब ने, वे 1999 की विश्व जनसंख्या के आधार पर फिर से आंकड़े एकत्र करने में जुट गए और सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दी का सम्पूर्ण विश्व में पहला स्थान है। उनको मिली जानकारी के अनुसार हिन्दी जानने वालों की संख्या 1103 मिलियन है और चीनी भाषा जानने वालों की सिर्फ 1060 मिलियन।

कौन नम्बर एक है, कौन नम्बर दो, कौन नम्बर तीन और कौन नम्बर चार, इस पर विचार अभी तक डावांडोल है। असली आंकड़े राजनीतिक दुरभिसंधियों और संकीर्ण मानसिकताओं के कारण मिलने मुश्किल हैं। बहुत से लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिन्दी बोलते हुए कहेंगे कि हमें हिन्दी नहीं आती। उन्हें कुल संख्या में कैसे शामिल करेंगे?

एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले इस देश में आंकड़े इकट्ठा करने में दृष्टिकोण आड़े आते हैं। हिंदी के प्रति कड़े होकर आंकड़े इकट्ठा करेंगे तो चालीस प्रतिशत आबादी से ज्यादा को आप हिंदी भाषी नहीं बताएंगे, लेकिन अगर जनसंचार माध्यमों के विस्तार के बाद हिंदी की स्थिति का आकलन अनुमान से भी करेंगे तो मानेंगे कि अस्सी प्रतिशत तक भारतीय जनता हिंदी जानती हैं। यानी केवल भारत में अस्सी करोड़ लोग हिन्दी जानते हैं। और पाकिस्तान को भी शामिल किया जाए तो ग्राफ जिराफ की गरदन सा हो जाएगा। तब यह मानना होगा कि पूरे विश्व में लगभग एक अरब लोग हिंदी बोलते हैं। अगर हिंदी नाम से चिढ़ होती हो तो उसे हिंदुस्तानी कहिए या भाउसंभा। ‘भाउसंभा’ बोले तो भारतीय उपमहाद्वीप संपर्क भाषा।

एक आशावादी व्यक्ति होने के नाते मैं देखता हूं कि पूरे संसार में हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जिसका फैलाव और विस्तार हो रहा है। अंग्रेजी भी लगातार फल-फूल रही है। सचाई तो ये है कि जिस चीज पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है कि हिंदी सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षो के बाद हम न कर पाएं, क्योंकि अंग्रेजी उससे ज्यादा मात्रा में फैल रही है। वे देश जो अपने निज भाषा प्रेम के कारण अंग्रेजी से नफरत करते थे अब बाजार-व्यवहार के कारण अंग्रेजी के प्रति उदार होते जा रहे हैं। चीन, जहां अंग्रेजी घुस नहीं पाई, जापान, जहां अंग्रेजी को प्रवेश लेने में मशक्कत करनी पड़ी, वहां अब उसके लिए घर-द्वार खुले हुए हैं, जबकि ऐसी स्थिति हिंदी के लिए नहीं है। पिछले वर् जापान गया था। पचास वर्ष से जापान में हिंदी शिक्षण चल रहा है लेकिन जापानियों की कोई उल्लेखनीय संख्या नहीं बताई जा सकती जो हिंदी सीखते हैं। अंग्रेज़ी का दब-दबा कुछ इस तरह लगातार बढ़ा है कि हिन्दी दबी-दबी सी दिख रही है। सांस्थानिक दृष्टि से देखें तो हिन्दी कमज़ोर है, स्थानिक दृष्टि से देखें तो पुरज़ोर है।

भाषा के स्वत:विकास के साथ अगर प्रयास भी जुड़ जाएं तो सितंबर महीने में हिंदी पर प्रमुदित हुआ जा सकता है। मेरे आशावाद को कंप्यूटर से बहुत भरोसा मिलता है। यूनिकोड पर्यावरण में हिंदी के आ जाने के बाद और आईएमई के प्रयोगों के चलन के बाद हिंदी का लिखना बहुत तेज गति से बढ़ सकता है। हम यदि आईएमई का जोरदार प्रचार करें और उसकी सहजता से लोगों को परिचित कराएं तो एक क्रांतिकारी और गुणात्मक परिवर्तन हिंदी के प्रयोग में आ सकता है।

कविमन की अनुमान छूट लेते हुए एक तथ्य बताता हूं तो लोग मुस्करा देते हैं, लेकिन तथ्य तो तथ्य है, सुन लीजिए-- चीन ने आबादी पर नियंत्रण किया, हम नहीं कर पाए। हम इस क्षेत्र में पर्याप्त उर्वर हैं। यह एक तथ्य हिंदी के पक्ष में जाने वाला तथ्य है। इस एक तर्क से ही सभी को ध्वस्त किया जा सकता है। मत इकट्ठा करिए आंकड़े, सिर्फ यह देखिए कि आज भारत की पैंतालीस प्रतिशत आबादी शिशुओं और किशोरों की है, उनका शोर किस भाषा में होता है। वे सब के सब चाहे दक्षिण में हैं, चाहे उत्तर में, जनसंचार माध्यमों की सुविधा के बाद हिंदी बोल रहे हैं। समझ रहे हैं और उससे प्यार कर रहे हैं, क्योंकि वह उनके थिरकने, ठुमकने, उमगने और विकसने की भाषा बन गई है। जी हां, हिन्दी बोलने वाले संसार में सबसे ज़्यादा हैं। हर मिनट हिन्दी बोलने वाले पचास लोग बढ़ रहे हैं। अब बोलिए! बोल मेरी मछली कितनी हिन्दी!

-अशोक चक्रधर