Friday, December 26, 2008

सूमो टिंगो हमारे सूम को नहीं पछाड़ सकता

—चौं रे चम्पूस! कोई ऐसी बात हतै तेरे पास जाते मन खुस है जाय?
—क्यार दोगे अगर ऐसी कोई बात बताई?
—आसीरवाद दिंगे और का!
—बड़े कंजूस हो चचा! चलो एक खुशी की बात बताता हूं कि अंग्रेज़ी की एक किताब में ‘कंजूस मक्खीडचूस’ शब्दच को आदरपूर्वक स्थांन दिया गया है।
—कौन-सी किताब ऐ?
—बड़ा हल्लाच है किताब का। ब्रिटिश राइटर एडम जाको द बोइनोद ने बनाई है।
—बड़ौ बिचित्र नाम ऐ।
—विचित्र तो किताब है चचा। तीस साल श्रम करके उसने पूरी दुनिया की विभिन्नय भाषाओं से ऐसे शब्दत तलाश किए जो अनोखे हैं और ऐसा अर्थ देते हैं जिन्हें सुन कर झुरझुरी-सी आ जाए, जुगुप्साि हो या भय का कंपन व्या प्तस हो जाए, शरीर में। किताब का नाम है— ताउजोर्स टिंगो।
—किताब कौ नाम ऊ बिचित्र ऐ। मतलब का भयौ?
—एस्टबर आईलैंड में प्रचलित एक शब्दा है ‘टिंगो’। टिंगो एक प्रवृत्ति है। आप अपने पड़ोसी से कुछ मांगने जाओ, मिल जाए तो फिर कुछ मांगने जाओ और तब तक मांगते रहो जब तक कि उसका घर ख़ाली न हो जाए। देखा, शब्दा ज़रा-सा है और अर्थ सोचने बैठो तो कितनी ही कहानियां जन्म ले सकती हैं। मांगने वाले से कोई दुःखी हो जाए तो हमारे यहां कहते हैं— ‘आंती आना’। होते हैं कुछ लोग ऐसे, जो मांगते ही रहते हैं। देने वाला आंती आ जाता है, पर अपने दानशील स्वेभाव के कारण देने से मना नहीं करता। पर चचा, भाषाएं कभी आंती नहीं आतीं। वे उदार होती हैं। अफसोस है कि एडम ने हिंदी से केवल दो शब्द-युग्मा लिए। अगर उसका टिंगोनुमा इरादा होता और हमसे हमारे मुहावरे और हमारी कहावतें मांगता, हम देते जाते, देते जाते, फिर भी हमारा घर खाली नहीं होता। हमारी भाषाओं के पास लोकोक्तियों, मुहावरों और कहावतों का अथाह भंडार है। ताउजोर्स टिंगो का हल्ला हो गया। ऐमेज़ॉन डॉट कॉम पर धकाधक बिक रही है। इधर हमारे अरविंद कुमार के थिज़ारस की मामूली-सी चर्चा होकर रह गई। शब्दोंह का जितना शोध अरविंद कुमार ने किया है आधुनिक युग में उतना संसार के कुछ गिनेचुने भाषा-शास्त्रियों ने ही किया होगा। वे भी चालीस साल से समांतर कोश बनाने में लगे हुए हैं। कंजूस के कितने ही पर्यायवाची प्रसंग उनके कोश में मिल जाएंगे। संसार का सबसे बड़ा थिज़ारस है। इसी तरह डा. भोलानाथ तिवारी ने हिंदी का बृहत लोकोक्ति कोश बनाया। शब्दों के अनुसंधान पर ज़िंदगी खर्च‍ कर दी। हिंदी के दिग्गलज लोग भोलानाथ का भाषा-विज्ञान के लिए ‘भाषा नाथ का भोला-विज्ञान’ कहकर मज़ाक बनाते रहे। हमारे यहां प्रशंसा में बेहद कंजूसी बरती जाती है।
—एडम कूं कंजूस-मक्खींचूस में का खास बात दिखी भैया?
—ख़ास बात हमें नहीं दिखती, क्यों कि हम बचपन से सुनते-सुनते इसके आदी हो गए हैं, लेकिन कोई विदेशी अगर अपनी भाषा में मक्खी चूस का अनुवाद पढ़ेगा तो मक्खी के चूसने की कल्पवना से ही उसे ज़बरदस्ती झुरझुरी आ जाएगी। कंजूस के लिए एक शब्दे है सूम। सूम की कहानी दो दोहों में सुनो चचा— ‘जोरू बोली सूम की, क्यों् कर चित्त मलीन। का तेरौ कछु गिर गयौ, का काहू कछु दीन?’ सूम जवाब देता है— ‘ना मेरौ कछु गिर गयौ, ना काहू कछु दीन। देतौ देखौ और कूं, तांसू चित्त मलीन’। कोई किसी को कुछ दे रहा है, इसी से सूम दुःखी हो जाता है। कितना भी सूमो जितना बलशाली टिंगो हो हमारे सूम को नहीं पछाड़ सकता। वह सूम से कुछ लेकर तो दिखा दे। बहरहाल, एडम की किताब तो टिंगो-टैक्नीक से बन ही गई।
—हिंदी कौ दूसरौ कौन सौ सब्दर लियौ?
—ये कहानी भी दिलचस्पस है चचा। दो दिन पहले एक टी.वी. चैनल से मेरे पास एक फोन आया, इस खुशखबरी का कि हमारे दो शब्दर लंदन में आदर पा रहे हैं। कंजूस-मक्खीैचूस तो उनकी समझ में आ गया था, दूसरा रोमन में लिखा होने के कारण समझ में नहीं आया। और जैसा उनकी समझ में आया, वैसा मेरी समझ में नहीं आ पाया। वे पूछने लगे— ‘काती कहरी’ क्याज होता है? मैंने कहा कि भैया ‘काती कहरी’ मैंने तो सुना नहीं। वे कहने लगे— शेर की खाल से काती हुई किसी चीज़ को नापने जैसा कोई भाव है। मैंने दिमाग दौड़ाया। व्यांघ्र-चर्म तो सुना था पर शेर की खाल का धागा…. वह तो बनता नहीं, जिसे कात-बुन कर नापा जाए। और दिमाग दौड़ाया। सोचने लगा कि ‘काती कहरी’ को रोमन में कैसे लिखा गया होगा? झट से समझ में आ गया। शब्दे रहा होगा ‘कटि-केहरी’। शेर की कमर को नापने का संदर्भ रहा होगा। सोचो चचा, शेर की कमर को नापने का काम किसी को सौंपा जाए तो उसे झुरझुरी आएगी कि नहीं? ऐसे ही हज़ारों शब्दोंन का संकलन किया है एडम साहब ने।
—किताब कित्ते रुपैया की ऐ?
—भारतीय मुद्रा में केवल पाँच सौ कुछ रुपए की।
—इत्ते रुपैया खर्च करिबे ते अच्छौौ ऐ कै कटि-केहरी नाप कै आ जायं, तुम भलेई हमें कंजूस मक्खीतचूस बताऔ। का फरक परै?

Friday, December 19, 2008

16वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी


हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी
ब्लॉग-पाठ : एक सिलसिला

मुख्य अतिथि : डॉ. प्रभा ठाकुर, वरिष्ठ कवयित्री एवं सांसद
अध्यक्ष : डॉ. रामशरण जोशी, उपाध्यक्ष, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान
सम्मान : वरिष्ठ भाषाविद् प्रो. सूरज भान सिंह को 'जयजयवंती सम्मान' एवं उनके कम्प्यूटर पर हिन्दी सॉफ्टवेयर 'सुविधा'
प्रस्तावना : डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, कम्प्यूटरकर्मी भाषाविद्
ब्लॉग-पाठ : श्रीमती प्रत्यक्षा, डॉ. आलोक पुराणिक, श्री रवीश कुमार, श्री अविनाश वाचस्पति एवं श्रीमती संगीता मनराल

आप सादर आमंत्रित हैं।
अशोक चक्रधर
अध्यक्ष, जयजयवंती
(संयोजन)
26941616

राकेश पांडेय
संपादक, प्रवासी संसार
(व्यवस्था)
9810180765

24 दिसम्बर 2008 / बुधवार
सायं 6.30 से चाय-कॉफी / 6.50 कार्यक्रम आरंभ

गुलमोहर सभागार, इंडिया हैबीटैट सैंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली
संरक्षक : श्री गंगाधर जसवानी एवं पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर (मंत्री, चित्र कला संगम)

Thursday, December 18, 2008

हाथ भी नहीं बचेंगे मलने के लिए मलाल में

—चौं रे चम्पू! पाकिस्तान कूं कत्थ,ई चावल चौं नांय पच रए?
—इसलिए नहीं पच रहे क्योंकि इंसान के खून में पकाए गए हैं। लेकिन चचा, कत्थई चावल कौन से हुए? हमारे यहां से तो बासमती चावल जाते हैं| हालांकि, वे इस लायक नहीं हैं कि हमारे सुवासित बासमती चावल का लुत्फ उठा कर आतंकवाद की बास इधर भेजते रहें। निर्यात फौरन बंद कर देना चाहिए।
—ठीक कही लल्ला! पर ....कमाल ऐ, तोय कत्थई चावल कौ कछू पतौ नांय!
—माफ करना चचा। मैंने गुलाबी चना तो सुना लेकिन कत्थरई चावल के बारे में वाकई नहीं जानता।
—अरे हट्ट पगले! हम कै रए ऐं ब्राउन और राइस के बारे में। ब्राउन और राइस उन्हेंा पचे नईं।


—कमाल कर दिया चचा तुमने भी! दूर की कौड़ी फोड़ कर लाने लगे हो, चूरन बनाके। मैं शब्दों में निहित स्वाद, गंध और नाद पर गया, अनुवाद तक नहीं जा पाया। शब्दों से खेलने लगे हो। अरे, अब हम कहां के कवि रहे? कवि की पदवी तुम्हेंन मिल जानी चाहिए। शब्दों से नए-नए अर्थों का जलवा बिखरा रहे हो।
—आजकल्ल सब्दवन कौ खेल तौ अखबार कर रए ऐं। नाम एक ऐ, पर तीन तरह ते लिख्यौ जा रह्यौ ऐ। वा आतंकवादी कूं कोई कासब कहै, कोई कसब, कोई कसाब।



—हां चचा! हम इसको ‘कस अब’ भी पढ़ सकते हैं। अंग्रेज़ी में तो स्पेलिंग एक ही है, उसे हिन्दी में कैसे भी पढ़ लो। नर्मदा प्रसाद नर मादा प्रसाद हो जाते हैं। चचा, जैसे ही कासब को कसा गया, उगल दिया उसने। विडम्बना ये है कि पुलिस की हिरासत में जो भी बोलेगा, कहा जाएगा कि कसाब के ऊपर कसाव बनाकर कहलवाया गया है। पर उनके अपने टी.वी. ने स्टिंग ऑपरेशन करके जो पूरी दुनिया को दिखा दिया उसे थोड़े ही झुठला सकते हैं। गांव वालों ने सच्चा-सच्चा बोल दिया कि अपना ही बच्चा है। पाकिस्तानी प्रशासन को चेत आया तो गांव की ज़बान पर ताला लगा दिया गया। फरीदकोट में फर का कोट ओढ़ा-ओढ़ा कर सबको मौन कर दिया गया। लेकिन देर कर दी उन्होंने। बात तो पूरी दुनिया तक पहुंच ही गई कि आतंकवाद के शिविर-अड्डे और इंसानियत के लिए गड्ढे, पाकिस्ताआन में सबसे ज़्यादा हैं। ….इतना भी समझ लो चचा कि मुम्बई के मामले में ब्राउन और राइस का पाकिस्तान जाकर डांटना सिर्फ़ इसलिए नहीं हुआ है कि भारत के साथ उनकी कोई ख़ास हमदर्दी है, इसलिए हुआ है कि आतंकवाद की मार उन्हों ने खुद भी झेली है। ब्राउन के खुफिया-तंत्र का मानना है कि उनके यहां हुई आतंकवादी घटनाओं में तीन-चौथाई हाथ तो पाकिस्ताुन के प्रकांड आतंकवादियों का ही रहा है। अमरीका पहले ही एक तगड़ा झटका झेल चुका है। ब्राउन और राइस के बाद अमरीका के सीनेटर जॉन कैरी के हस्तक्षेप से भी पाकिस्ता न अब सहम गया है चचा। कुछ महीने हम निश्चिंत रह सकते हैं कि आतंकवाद की कोई बड़ी घटना होगी नहीं। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी साहब को भी गिलानी हो रही है।
सारा दोष ग़रीबी के मत्थे मढ़ रहे हैं। मीडिया के सामने संभल कर बोल रहे हैं।
—मीडिया में बड़ी ताकत ऐ।
—हां चचा, मीडिया ने अपनी ताकत का जलवा दिखा दिया। ये जो कासब कसब कसाब का राइफल के कसाव के साथ फोटो छपा है, कमाल कर दिया। तगड़ा टेली लैंस लगा कर जिस भी छायाकार ने वह चित्र लिया है, उसे थैंक्यूा, धन्य वाद, शुक्रिया देना चाहिए। चचा, लेकिन मीडिया भी टी.आर.पी. के तवे पर समाचार सेंकता है। हां, इतना है कि पड़ोसी देश का मीडिया झूठ का जो विस्तालर करता है उसका सौंवा हिस्सा भी हमारे यहां नहीं होता। कितना भी हम मीडिया को कोसें लेकिन तस्वीररें हक़ीकत के आसपास बनी रहती हैं।
—सरसंघ चालक सुदरसन जी तौ कह रए ऐं कै कर देओ आक्रमन! हौन देओ परमानु युद्ध।
—कोई ज़िम्मेदारी तो है नहीं, कुछ भी बोल सकते हैं। पड़ौसी देश में ऐसे ही वक्तव्यों को देश का नज़रिया मान लिया जाता है। सुदर्शन जी को यह नहीं मालूम कि परमाणु युद्ध के परिणाम अब वैसे नहीं होंगे जैसे हिरोशिमा-नागासाकी में थे। अब तबाही ऐसी होगी कि त्राहि-त्राहि भी मुंह से नहीं निकल पाएगा। इसलिए दोनों देशों के युद्ध भड़काऊ नेताओं को भी कसकर रखना होगा। अच्छां है कि पाकिस्तांन में इन दिनों जैसी भी है डैमोक्रैसी तो है। अगर कहीं होता सैनिक शासन, तो भड़काऊ तक़रीरों के प्रभाव में आकर युद्ध-युद्ध खेलने को मचलने लगता। दबाव में सही, धीरे-धीरे सही, पर वहां के चुने हुए नेता मान तो रहे हैं कि गड़बड़ उनके यहां है। वहां के जनतांत्रिक नेताओं की समझ में यह बात आ रही है कि अगर हम फंस गए परमाणु आयुधों के जंजाल में, तो हाथ भी नहीं बचेंगे मलने के लिए मलाल में।

Wednesday, December 10, 2008

हंग निहंग विहंगम जंगम

--चौं रे चम्पू! कूट का होय?
--कूट के तो बड़े अर्थ हैं। एक अर्थ है कपट। दूसरा... पर्वत को भी कूट कहते हैं, जैसे रेणुकूट। कूट माने गुप्त और गोपनीय भी होता है। उसी से बनी कूटनीति। और कूटना तो आप जानते ही हैं, जैसे असभ्य पति अपनी पत्नी। को कूटते हैं और सभ्य। पत्नियां अपने पति को कूटती हैं।
--अरे तू तो कविता लिख्यौ करै, कूट और कविता कौ का संबंध ऐ?
--वह होता है कूट-काव्यन।
--कूट-काव्यि के बारे में बता?
--तुम्हें मालूम तो सब है चचा! कूट-काव्यऐ वह काव्य जो आसानी से समझ में न आए। जिसका अर्थ बड़ी मुश्किल से निकले।
--तो सुन, मैं एक कूट-काव्यर सुनाऊं, वाकौ मतलब समझा।
--परीक्षा ले रहे हो?
--अरे तेरी क्याे परीच्छा लैनी! ऐसी कौन-सी तेरी इज़्झजत ऐ, जो न बता पायौ तौ बिगड़ जायगी। चल अर्थ बता--
हंग विहंग निहंगम जंगम,
गमन गम न कर, नंगम संगम।
--ये कूट-काव्यस काहे का है चचा, अर्थ तो साफ निकल रहा है। पीछे से शुरू करो। चुनाव के संगम पर नंगों का गमन हुआ। परिणाम ऐसे आए कि कोई गम न करे, बस गमन करे। ये तो हो गई निचली लाइन। ठीक?
--ठीक! अब ऊपर की लाइन कौ अर्थ बता-- हंग निहंग विहंगम जंगम।
--चचा, इसका अर्थ भी सुन लो। पीछे से शुरू करता हूं। जमकर जंग हुई। उसके बाद विहंगम दृश्यच देखने को मिले। कांग्रेस दिल्ली , राजस्था।न और मिजोरम में जीत गई और छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश में भाजपा जीती। अब मालाएं पड़ रही हैं। ढोल-तासे बज रहे हैं। जो भीतरघात करने वाले थे, वे सबसे पहले बधाई देने जा रहे हैं। ग़लतफहमियां दूर हो रही हैं। अहम ग़लतियां हो रही हैं। विहंगम दृश्यव हुआ कि नहीं? और निहंग वे लोग होते हैं, जो प्रतिबद्ध होते हैं, कटिबद्ध होते हैं, एक पंथ के अनुयायी होते हैं और शांत रहते हैं। हथियार रखते हुए भी जो विनम्रता बनाए रखे वह निहंग। शीला दीक्षित और अशोक गहलौत अब निहंग की तरह काम कर सकते हैं, क्योंहकि विकास की राह में कोई रोड़ा नहीं होगा और सरकार ऐसी बना सकते हैं जिसमें कोई थका हुआ घोड़ा नहीं होगा।
--ठीक। चल मान लिया। अब हंग बता।
--चचा हंग शब्दल हिंदी में तो है नहीं।
--अटक गयौ न!
--खुल गया चचा, हंग का कूट भी खुल गया। दिल्ली में बहुत सारे चुनाव विशेषज्ञों को ये डबका था कि यहां हंग सरकार आएगी। त्रिशंकु सरकार बनेगी। बसपा की घुसपैठ के कारण नुकसान कांग्रेस को होगा। लेकिन मामला पल्टीक खा गया। कांग्रेस ने कूट के धर दिया भाजपा को। बसपा भाजपा के लिए भारी पड़ गई। कमल के फूल पर कुर्सी नहीं सज पाई। कुर्सी वहीं की वहीं रही। जीत गया दिल्लीप का हरा-भरा विकास और आत्मलविश्वाकस से भरा-भरा शीला आंटी का चेहरा। हंग सरकार नहीं बनी। जो काम हुआ, मैं तो समझता हूं कि ढंग का हो गया।
--कैसे?
--क्यों कि जनता जान चुकी है कि थोथे और ऊपरी नारों से बात बनती नहीं है। भाजपा आ जाती तो क्याा महंगाई रोक लेती? आतंकवाद रोक लेती? आतंकवाद को समेटने के लिए अनुत्तेजक समझदारी की आवश्यआकता होती है और विकास के लिए निरंतरता की। शीला आंटी ने विकास की जो निरंतरता बनाई थी उसमें गतिरोध आ जाता। माना कि काम फिर भी होते। मैट्रो फिर भी विकसित होती, लेकिन हर काम के लिए टेंडर दुबारा खुलते। अधिकारी बदले जाते और बदले की भावना प्रबल होती। चुनाव आने से पहले राज-मिस्त्रियों कारीगरों के जो पेचकस, छैनी, हथौड़े, फावड़े जैसे औज़ार शांत पड़े थे, अब दनादन कूटम-कूटम करेंगे। काम की रफ्तार बढ़ जाएगी। रेडियो पर मैट्रो के बारे में एक विज्ञापन सुना था— 'मियां जुम्मटन, जवाहर, दीप सिंह, पीटर मेरे भाई! कहां पर बैठे थे हम, और कहां जाके निकाला है, मैट्रो का मेरी दिल्लील में ये, जादू निराला है'। हम कांग्रेस की मैट्रो में बैठे थे, दस साल सवारी करी और कांग्रेस के ही स्टेरशन पर उतर आए। ये कूट-काव्या कांग्रेसियों की समझ में भी आ जाए तो सेमीफाइनल के बाद फाइनल में भी उनका जलवा हो सकता है। दो चीज़ों की दरकार है-- समझदारी की निरंतरता और निरंतरता की समझदारी। जीत ऐसे ही नहीं होती है। जीत के लिए किए जाते हैं प्रयास। और प्रयासों में भागीदारी से जीता जाता है भरोसा। जो जीते हैं, उन्होंंने भरोसा जीता है।
--वाह रे कूटकार चम्पूा!

Thursday, December 04, 2008

प्राइमरी से लेकर हाईमरी तक

--चौं रे चम्पू! भारत कौ सुभाव नरमाई कौ ऐ कै गरमाई कौ?
--गरमाई का होता चचा, तो एक भी आतंकवादी इस तरह नचा नहीं सकता था, और अगर नरमाई का होता तो कोई भी आतंकवादी बचता कैसे? लेकिन ये बात सच है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ हमारा रुख़ इतना कड़ा नहीं है, जितना कि होना चाहिए। कानून में अनुच्छेद कम छेद ज़्यादा हैं। इन्हीं छेदों में से आतंकवादी अन्दर आ जाते हैं, इन्हीं से बाहर निकल जाते हैं।
--तौ छेद छोड़े ई चौं ऐं?
--अब इसका क्या जवाब दूं चचा! संविधान बनाने वाले ज़्यादातर लोग ऊपर चले गए। कोई रास्ता भी नहीं छोड़ गए कि आसानी से छेद मूंदे जा सकें। संसद में एक पार्टी का वर्चस्व हो तो कानून भी बदले। यहां तो मिली-जुली सरकार में बदले-बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं। कोई दिल बदले, कोई दल बदले। बदलने की भावना की जगह बदले की भावना! फिर कानून कैसे बदले?
--जनता साथ दे तौ सब कछू बदल सकै।
--जनता का ज़िक्र करके चचा, तुमने मेरी दुखती रग पर उंगली रख दी। कौन सी जनता? रंग, वर्ण, सम्प्रदाय, जाति, गोत्र, धर्म में बंटी जनता! अल्पसंख्यक जनता या बहुसंख्यक जनता! आरक्षित जनता या अनारक्षित जनता! निरक्षर, अनपढ़, गंवार जनता या पढ़ी-लिखी तथाकथित समझदार जनता! शोषित जनता या शोषक जनता! हमारे यहां हंसोड़ संता और बंता की पहचान तो है पर जनता की कहां है?
ऐसी बिखरी हुई जनता के बलबूते कानून नहीं बदले जा सकते।
--सरकार है कै नईं ऐ? वाऊ की कछू जिम्मेदारी हतै कै नांय?
--ये दूसरी दुखती नस है। सरकार है भी और नहीं भी है। होती तो अपने वोटरों की फ़िक्र करती। ये वोटर पाँच साल बाद काम में आते हैं! फिर क्या? दरअसल, सरकार को अपने बचने-बचाने की फ़िक्र ज़्यादा रहती है। इस एक अरब की आबादी में सौ, दो सौ, हज़ार, दो हज़ार मर भी जाएं तो फ़र्क क्या पड़ता है? मुम्बई में अगर फ़र्क पड़ा है, तो इस कारण क्योंकि मामला ताज नामक फाइव स्टार होटल का है और मीडिया मुंह खोले खड़ा है। पल-पल की ख़बर मिल रही है कि लोकतंत्र की इमारत दस सिरफिरों के कारण बुरी तरह हिल रही है। सच पूछो चचा, तो हमारे नेताओं में आतंकवाद से लड़ने की इच्छाशक्ति है ही नहीं। न उपायों को खोजने का कोई संकल्प है।
--अच्छा तू सरकार मैं होतौ तो का करतौ, जे बता?
--फंसा लिया न चचा! पहला काम तो ये करता कि प्राइमरी से लेकर हाईमरी तक.....।
--हाईमरी?
--हां ये मरी हाई ऐजुकेशन। सब जगह पाठ्यक्रम में ‘आतंकवाद’ एक विषय बना देता। बच्चों से लेकर चच्चों तक सबको सिखाया जाता कि ये कैसे ये फलता-फूलता-फैलता है और कैसे इसे टोका-रोका जा सकता है और कैसे दिया जा सकता है धोखेबाज़ों को धोखा। आतंकवादी आसमान से नहीं उतरते। कॉलोनी हो या होटल, किराए पर कमरा लेते हैं। पैसा मुंह पर मार के विश्वास ख़रीदते हैं। जिस बोट में बैठकर समंदर से चंद लोग आए, उसका किराया था अठारह हज़ार प्रति घंटा। बोट वाले ने पैसा लिया, उसे क्या टंटा? जहां वी.आई.पी. हों और ग़रीब जनता सुनने जाए, वहां तो होगी तलाशी की भरपूर इंतज़ामी, पर फाइव स्टार होटल में विदेशी कार से उतरो तो मिलेगी ताल ठोक सलामी। प्यार लाए हो या हथियार कौन देखेगा? सुरक्षा में बड़े लोचे हैं चचा।
--अमरीका तौ चाक-चौबंद हतो, वहां कैसे घुस गए?
--ग्यारह सितंबर के बाद आतंकवाद वहां कोई सितम कर पाया क्या? उन्होंने अपनी सुरक्षा इतनी मज़बूत कर ली कि अब वहां कोई आतंकवादी गतिविधि असंभव नहीं तो मुश्किल तो हो ही गई है। भारत में बहुत आसान है। तुमने ठीक कहा था कि भारत नरम है और ये भी सही है कि अमरीका गरम है। आतंकवाद रूपी राहु भारत को रोज़-रोज़ ग्रस सकता है, अमरीका को नहीं। माघ ने ‘शिशुपाल वध’ के एक श्लोक में कहा था...
--फिर संसकिरत छांटैगौ का?
--तो तुम अनुवाद ही सुन लो। श्लोक का सार ये है कि अपराध समान होने पर भी राहु सूर्य को चिरकाल बाद और चन्द्रमा को जल्दी-जल्दी ग्रसता है। यह चन्द्रमा की कोमलता, शीतलता और नर्मी का साक्षात प्रमाण है। भारत की नर्मी अच्छी है पर आतंकवाद के सामने गर्मी दिखानी पड़ेगी चचा।
--जेई तौ अपनी तमन्ना ऐ।