Thursday, December 03, 2009

आत्मा राम की टें टें

चौं रे चम्पू

—चौं रे चम्पू! तेरी हर हफ्ता की चम्पूगीरी कित्ती बार है चुकी अब ताईं?
—हमारा आपका मिलन लगभग दो साल से चल रहा है। हर हफ्ते बुध के दिन निन्यानवै बार चम्पूगीरी हुई है। अगले हफ़्ते शतक पूरा हो जाएगा। चचा, इस बीच पता नहीं कहां-कहां गया, भटका, भागा-दौड़ा। कहीं भी रहा, पर हर बुध को चम्पूगीरी और बगीचीबाज़ी के लिए ज़रूर आया। लोग समझते रहे कि निन्यानवै के फेर में है। चचा, तुम्हारे चम्पू के पीछे ही पड़ गए लोग। लेकिन तुम्हारा चम्पू भी चक्रधर वंश का है। निन्यानवै तक गाली सुन लेता है । शिशुओं का वध नहीं करता पर दुष्ट शिशुपालों को नहीं छोड़ता। बहुत सारे आत्माराम टें टें करने लगे हैं, अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के तीर फेंकते हैं। चम्पू को समझ लिया है चम्पी करने वाला। अब हम-तुम तो हैं ब्रजवासी, बगीचीबाज लोग, वे हैं हिन्दी-वाटिका के रखवाले। वाटिकाओं में इन्हें आत्माएं मिला करती हैं।

—तेरी बात उलझी हुई सी हैं लल्ला।
—अरे चचा, सौ साल पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी के ज़माने में भी टें टें काण्ड चला करते थे। किसी ने अपनी किताब का नाम ‘प्रेम-बगीची’ रख दिया। फिर तो पिल पड़े शुद्धतावादी लोग। ये भी कोई नाम है! ‘प्रेम वाटिका’ होना चाहिए। बगीची शब्द तो फारसी के बाग़ीचा से आया है। बड़े-बड़े बागी तेवर दिखाई दिए बगीची के मामले में। चचा, ये वाटिका के लोग बगीची से डरते हैं। बगीची में शरीर पर मिट्टी लगती है और वाटिका में रूमाल रख के बैंच पर आत्माओं को बुलाया जाता है। प्लैंचिट के सहारे। कैरमबोर्ड की गोटी पर उँगली रख कर जिधर चाहो आत्मा को खिसका लो। हिन्दी की सारी आत्माएं तुम्हारी उँगली के इशारे पर ही तो नाचती है। चचा, इन्हें रास नहीं आता कि कोई बगीचीबाज़ इनकी वाटिका में प्रवेश कर जाए। इन्हें सब कुछ अनस्थिर दिखाई देता है। अनस्थिर पर भी पंगा हुआ था, मालूम है?
—बता।
—द्विवेदी जी ने ‘भाषा की अनस्थिरता’ नाम का एक लेख लिखा । विवाद ‘अनस्थिरता’ शब्द पर हुआ,। बालमुकुन्द गुप्त रूपी आत्माराम ने कहा कि ‘स्थिर’ का उल्टा होता है ‘अस्थिर’, ये ‘अनस्थिर’ क्या हुआ? वाटिकाबाजों ने हालत खराब कर दी एक बगीचीबाज की।। लगातार उकसाते रहे। बगीचीबाज ने निन्यानवै दिन चुप लगाई और सौवें दिन ठोक दिया एक लम्बा सा लेख सरस्वती में। उन्होंने कहा कि कुछ ज्यादा अस्थिर होते हैं, कुछ कम अस्थिर होते हैं, यानी कुछ ज्यादा हिलते हैं, कुछ कम हिलते हैं। ऐसे दोनों लोगों के लिए हम अस्थिर नहीं कह सकते, उनके लिए ‘अनस्थिर’ कहा जाएगा। आज भी वाटिकाबाज लोग स्थिर को अस्थिर और अनस्थिर बनाने के लिए तथ्यविहीन कुचर्चाएं कर रहे हैं। मनुष्यों से सरोकार नहीं, सीधे आत्माएं आती हैं डायलॉग करने के लिए, वाटिका में। चचा, तुम्हारी आत्मा क्या बोलती है? लेख तो तुमने भी पढ़ा होगा?
—लल्ला, जो आदमी अबू आज़मी के बारे में जे कहै कै हिन्दी बोलिकै वानै गल्ती करी, वो अस्थिर ऊ ऐ और अनस्थिर ऊ ऐ।
—ये बात तो खैर व्यंग्य की आड़ में कही, पर कुछ भी जाने बिना संस्थानों की आत्माओं से बात करते हैं। कोई काम करे तो राजनीतिक उद्देश्य से कर रहा है, पुराने जिस आदमी ने काम किया, उसकी राजनीति कुछ और थी, इसकी राजनीति कुछ और है। संस्थानों के शरीर से इन्हें कुछ मतलब नहीं, आत्माओं का रुदन सुनते हैं। टें टें तो अब से सौ साल पहले हुआ करती थी, अब टें टें की जगह भें भें हो गई है। ये किशोर मानसिकता के लोग हैं और हिन्दी पर राज करना चाहते हैं, हिन्दी की आत्मा के ठेकेदार बनकर। पता नहीं कौन से अली का नूर है इनमें? दूसरे को ही गलत मानते हैं और सब्र का इम्तिहान लेते हैं।
—चल सौवीं बैठक में देखिंगे कै तेरौ गुस्सा कित्तौ बचौ।

Saturday, October 31, 2009

जैसे उनके दिन फिरे

चौं रे चम्पू

—चौं रे चम्पू! कहीं जाइबे कौ मन ऐ, कहां जायं? तू चलैगौ मेरे संग?
—एक साथ दो सवाल कर दिए, चचा। जवाब में दो सवाल सुन लीजिए। पहला यह कि किस उद्देश्य से जाना चाहते हैं और दूसरा यह कि वहां मेरे साथ की क्या ज़रूरत है?
—देस की भलाई के ताईं कहीं भी…. और तू रहैगौ मेरौ सलाहकार।
—ठीक है, समझ गया चचा! दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, पड़ोस के किसी गांव की दलित बस्ती की कोई झोंपड़ी ढूंढ लीजिए, वहां अपनी बगीची की कुछ सब्जियां और गैया के घी का एक डिब्बा लेकर पहुंच जाइए। अपने आपको उनका दूर का रिश्तेदार बताइए। सामान देखते ही वे आपको बहुत निकट का समझेंगे। परिवार के नौजवानों और बहू-बेटियों की दुख-तकलीफ सुनिए। मौसम अच्छा है, न एसी की ज़रूरत है न हीटर की। वहां रह कर गरीबी को समझने की कोशिश कीजिए।
—जे का बात भई? हम गरीबी के सबते करीबी रिस्तेदार ऐं। हम का गरीबी ऐ जानैं नाऐं?
—चचा पूरी बात तो सुनो। आप गरीबी को अच्छी तरह जानते हैं, पर गरीब अपनी गरीबी को नहीं जानता। आपको उसके लिए निदान सोचने हैं। गरीब को अपने श्रम का प्रतिदान नहीं मिलता। कुछ कृपानिधान क़िस्म के लोग कभी कभी दान दे देते हैं और सरकार अनुदान दे देती है। स्थाई कल्याण फिर भी नहीं हो पाता। मेरी योजना है कि किसी तरह श्री राहुल गांधी को उस झोंपड़ी तक लाया जाए। वे इन दिनों दलितों के घर जाकर पूरे मन से गरीबी को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
—विचार नेक ऐ, तू चलैगौ मेरे संग?
—ना, ना चचा। लोग मुझे पहचानते हैं। मेरी काया का शहरीकरण हो चुका है। आप गरीबी में नहाए-धोए लगते हैं। मैं नहीं जाऊंगा, मोबाइल पर आपके साथ रहूंगा। राहुल जी को वहां लाने का काम मेरा है।
—आगे बता।
—जब वे दलित की उस झोंपड़ी में आ जाएं तो वहां सत्यनारायण भगवान की कथा कराइए। कथा में लीलावती-कलावती की गरीबी की व्यथा बताइए। कथा के बीच में जब-जब सत्यनारायण की जय बोली जाय तब –तब कहिए कि आज इस कुटिया में राहुल भैया खुद सत्यनारायण दरिद्रनारायण बनकर आ गए। अब लीलावती-कलावती के पूरे परिवार के दिन फिरेंगे। बीच-बीच में कीर्तन भी कराते रहना।
—कौन सौ कीर्तन?
—जय राहुल भैया, स्वामी जय राहुल स्वामी। तुम पूरे सौ पइसा लाए, नब्भै पइसा लुक्कन खाए। हैं बिचौलिए बड़े कसइया, करौ इंतजामी। स्वामी जय राहुल स्वामी। आगे का कीर्तन भी बना दूंगा। राहुल भइया बड़े कृपालु हैं। जहां ठहरते हैं उसके आस-पास कोई कारखाना या पावर-प्लांट लगवा देते हैं। हालांकि ये बात वे जानते हैं और उनके पिताजी भी कहते थे कि केन्द्र से सौ पैसे भेजे जाते हैं, लेकिन विकास के लिए पन्द्रह पैसे ही पहुंच पाते हैं। चचा, आज भी पिच्चासी, नब्भै या पिचानवै पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहे हैं। घाट-घाट का पानी पिए घुटे हुए घोटालेबाज़ जब विकास के नए घाट पर ऐय्याशी करते दिखाई देते हैं, बेशर्म रंगरेलियां मनाते दिखाई देते हैं, तो वहां फनफनाते हुए आ जाते हैं नक्सलवादी। असल समस्या घाट-घाट के इन घुटे घोटालुओं की है। आपका काम होगा इलाके के घोटालुओं का उन्हें सही-सही ब्यौरा देना। आप झोंपड़ी में उनके साथ होंगे, बातचीत का पूरा मौका मिलेगा। सारे रहस्य उनके कान में बताना। क्योंकि जिन लोगों के साथ वे आएंगे, उनमें से एक-दो सफेद खादी का खोल पहने हुए घोटालू भी हो सकते हैं। यों राहुल भैया को अच्छे बुरे की गहरी पहचान है पर हर घुटा हुआ घोटालू तिकड़मबाज़ी में महान है। कुछ तो रेलिंग के बाहर माला लेकर खड़े होंगे। आप उस झोंपड़ी के मुखिया के तौर पर उन्हें सारी पोलपट्टी बता देना। बताना कि गरीब इसीलिए पिचा हुआ है, क्योंकि पिचासी-पिचानवै प्रतिशत पचाने वाले उस झोंपड़ी से बहुत दूर नहीं हैं। जो बताना, आत्मविश्वास के साथ बताना। लीलावती-कलावती के व्यापक परिवार की परम व्यापक ग़रीबी का वस्तुवादी ब्यौरा देना। वे अपने सचिव को निर्देश देंगे कि लीलावती-कलावती इलाके को केन्द्र से विकास का कौन सा पैकेज दिलवाना है। मौका देखकर उस परमानेंट डायलॉग से कथा खत्म करा देना।
—कौन सौ डायलौग?
—जैसे इनके दिन फिरे, वैसे हर किसी के फिरें।

Friday, October 23, 2009

ट्रैक्टर शाह द्वारा कुचली हुई ग़रीबी

—चौं रे चम्पू! मिठाई की जगै नमकीन दै गयौ, तोय सरम नायं आई?
—तुमने सुना नहीं चचा, अधिकांश मिठाइयां सिंथैटिक दूध और सिंथैटिक खोये से बनाई जा रही हैं? बगीची पर रह कर जो सेहत आपने बनाई है उसे बिगाड़ने का मुझे कोई अधिकार नहीं। मावे में गैया मां का दूध नहीं है। उसमें है पाउडर, सूजी, मैदा, वनस्पति या चर्बी वाले तेल, और तो और ब्लॉटिंग पेपर भी। मावे की मिठाइयां चार-पांच दिन में खराब हो जाती हैं। नमकीन चलेगी महीने भर।
—नमकीन कौन से तेल में तली ऐ, जाकौ ज्ञान है तोय? मिलावट तौ नए जमाने कौ उपहार ऐ, दूध की नदियन के देस में दूध-दही कौ अकाल! कमाल है गयौ भइया।
—चचा पिछले दिनों एक रेल यात्रा में कवि उदय प्रताप सिंह जी ने दूध की कमी के दो दिलचस्प कारण बताए। पहला ट्रैक्टर और दूसरा फर्टिलाइजर।
—सो कैसै भैया?
—देखिए खेती-बाड़ी का सारा काम बैलों के भरोसे होता था। जुताई, बुवाई, बिनाई, बरसाई, सिंचाई और अनाज की सप्लाई, सारा काम बैल करते थे। हल, रहट और गाड़ी, बैल रहते थे इनके अगाड़ी। घर में गैया न हो तो बैल कहां से आएं? ट्रैक्टर ने बैल, गैया और बछिया की ज़रूरत ख़त्म कर दी। इन्हीं से मिलता था खाद के रूप में गोबर, उसकी जगह आ गए यूरिया जैसे फर्टिलाइजर। हमारे देश में गोवध को पाप भी माना जाता है। सो लोगों ने पालना ही बन्द कर दिया। अब दूध के लिये निहारो, सिंथैटिक पाउडर की तरफ और होने दो पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे धड़ल्ले से मिलावट का कारोबार।
—तेरे उदय प्रताप की बात में दम ऐ। लाला भगवान दीन नै गैया पै एक कवित्त लिखौ ओ। हमेसा अपनी सुनायौ करै, आज हम तेऊ सुनि लै … ‘थोरे घास पानी में अघानी रहै रैन दिन, दूध, दही, माखन मलाई देत खाने को। / पूतन तें खेती करवाय देत अन्न-वस्त्र, जाके धड़ चाम आंत गोबर ठिकाने को। ऐसी उपकारी की कृतज्ञता बिसारि अब, भारत निवासी मारे फिरें दाने-दाने को।’
—यानी समस्या सौ साल पहले भी थी, लेकिन तब तक ट्रैक्टर, फर्टिलाइजर नहीं आए थे। अब के ‘भारत निवासी’ उपभोक्ता में बदल गए हैं चचा। बाज़ार की चीजें ज़रूरतों को व्यर्थ ही बढ़ा रही हैं। पहले दीपावली-दूज पर खांड-बताशे बांटे जाते थे। ज्यादा हुआ तो बेसन-बूंदी के लड्डू! अब देखिए, एक से एक फ़ैंसी मिठाई बाज़ार में आई। मिलावटी हवा-पानी के सेवन से हम हर प्रकार की मिलावट को पचाने में समर्थ होते जा रहे हैं। माना कि दवाइयां आदमी की उम्र बढ़ा रही हैं, पर साथ में मिलावट का ज़हर भी पिला रही हैं। लाला भगवान दीन होते तो देखते कि भगवान की कृपा से भारत में लाला भी बढ़े हैं और दीन भी। एक अरब सत्रह करोड़ की आबादी वाले देश में लगभग दो तिहाई लोग गांव में रहते हैं और गावों में घुसता जा रहा है शहर। शहर हमारे ग्रामीण-जन को उपभोक्ता में तब्दील कर रहा है। दांतुन, रीठा, मुल्तानी मिट्टी और रेह के दिन अब लद गए। अब वहां टूथपेस्ट, शैम्पू, डिटर्जैंट और कॉस्मैटिक्स पहुंच चुके हैं, क्योंकि इनसे पहले पहुंच चुका था टी.वी.। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापारियों के लिए धंधे का भविष्य गावों में ही है। शहर के उपभोक्ता अपनी ज़रूरतों की चीज़ें कर्ज़ ले लेकर खरीद चुके हैं। अब दुपहिए, चौपहिए, गांवों की मांग बन रहे हैं। गांवों में कारों की खरीदारी में दस प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है। महिन्द्रा स्कोर्पिओ पहले बीस प्रतिशत जाती थी, अब पैंसठ प्रतिशत। मोबाइल इस्तेमाल करने वाले दस करोड़ लोग गांवों में रहते हैं। गांवों में गाय नहीं मिलती तो क्या, पॉप गायन मिलने लगा है। गांव हो या शहर, अमीरी जी भर कर नाच रही है और गरीबी ट्रैक्टर शाह के द्वारा कुचली हुई हालत में खेत की मेंड़ पर पड़ी है। एक ओर उपभोक्ता के सामने मिलावटी माल का शानदार पोषण है तो दूसरी ओर अन्न का अभाव और कुपोषण है। आज भारत का उपभोक्ता-बाज़ार विश्व में बारहवां स्थान रखता है, बाज़ार के ग्लोबल गुरू कहते हैं कि यह दो हज़ार पच्चीस तक नम्बर वन के आस-पास आ जाएगा।
—आंकड़े दिखाय कै डरा मती! मोय तौ अपनी गैया की सानी कन्नी ऐ और पानी दैनौ ऐ। खालिस दूध की खीर खाइबे आ जइयो, मोय नमकीन खाय कै गमगीन नायं हौनौ।

Monday, September 28, 2009

रावण से नाभिनालबद्ध रावण

रावण ‘दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी’ था, ऐसा वाल्मीकि ने बताया और ‘अहंकारी’ था ऐसा बताया तुलसी बाबा ने। हर अहंकारी दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी नहीं होता और हर दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी अहंकारी हो यह आवश्यक नहीं। राम के चरित्र को खूब उजला बनाने के लिए तुलसी बाबा ने रावण को इतना बुरा नहीं बनाया, जितना बाकी ग्रंथ बताते हैं। उससे राम का कद कम होता। तुलसी ने रावण का क़द बढ़ाया। उसे विद्वान और धर्म पर चलने वाला बताया। रावण जैसा भी था पर उसका क़द आज भी बढ़ रहा है। रामलीलाओं में तो पुतलों की ऊंचाई बढ़ रही है, पर पुतलियों को न दिखाई देने वाले अदृश्य रावणों का क़द गगनचुम्बी होता जा रहा है। रावण यदि दिखाई भी देता है तो मायावी टैकनीक से राम का भेष धार लेता है।

कूर्मपुराण, रामायण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित, पद्म पुराण और श्रीमद्भागवत पुराण आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख तरह-तरह से मिलता है। एक बात सभी में स्वीकारी गई है कि रावण अपनी दानवी शक्तियों को बनाए रखने के लिए तपस्यानुमा चापलूसी द्वारा महान देवताओं को खुश करना जानता था। ब्रह्मा जी से उसने वरदान मांगा कि गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिए अवध्य हो जाऊं। ब्रह्मा जी ने तपस्या से प्रसन्न होकर ‘तथास्तु’ की मोहर लगा दी। फिर तो रावण की बन आई। उसने कुबेर को हराकर पुष्पक विमान छीन लिया जो मन की रफ्तार से भी तेज़ चलता था। जिसकी सीढ़ियां स्वर्ण और मणि-रत्नों से बनी हुई थीं। एक ग्रंथ बताता है कि उसका पुष्पक विमान एक बार भगवान शंकर के क्रीड़ा-स्थल पर्वत शिखर के ऊपर से जा रहा था। अचानक विमान की गति अवरुद्ध हुई, डगमगाने लगा। अहंकारी रावण हैरान रह गया। उसे विमान उतारना पड़ा। शंकर के पार्षदों ने भगवान शंकर की महिमा बताई तो क्रोधित होते हुए बोला कि कौन है ये शंकर? मैं इस पर्वत को ही समूल उखाड़ फेंकूंगा। शंकर के नंदी उसे रोकते, उससे पहले ही रावण ने पर्वत को उखाड़ना शुरू कर दिया। पर्वत हिला तो शंकर ज़्यादा हिल गए। आवेश में आकर उन्होंने अपने पैर का अगूंठा पर्वत पर रखा तो रावण के हाथ बुरी तरह दब गए। पीड़ा से रावण चिल्लाने लगा। भयानक ‘राव’ यानी आर्तनाद किया। तीनों लोकों के प्राणी भयभीत होकर रोने लगे। तभी से उसका नाम रावण भी पड़ गया। मज़े की बात यह है कि उसने शंकर भगवान को भी अपनी तपस्या से प्रसन्न कर लिया और जारी रखा अपने अत्याचारों और अनाचारों का सिलसिला।

रावण के बारे में यह कहानियां सब जानते हैं। इन दिनों देश भर में जितनी रामलीलाएं चल रही हैं, लोगों का मनोरंजन कर रही हैं। मनोरंजन राम नहीं कर पाते, रावण कर रहा है। उसके डायलॉग पर ज़्यादा तालियां पिटती हैं। उसके मेकअप और कॉस्ट्यूम पर ज़्यादा पैसे खर्च होते हैं। रावण राम से ज़्यादा पारिश्रमिक लेता है। अंत सबको मालूम है कि पुतला फुकेगा। सवाल यह उठता है कि एक अधर्मी-अहंकारी के मरने में इतनी देर क्यों लगती है। मिथक प्रतीकों को देखें तो निष्कर्ष निकलता है कि अधर्म के पास धार्मिक मुखौटे होते हैं और अपने अहंकार को ऊँचाई देने के लिए अपने से किसी न किसी बड़े का अहंकार पोषित करना पड़ता है। रावण ने ब्रह्मा जी के अहंकार का पोषण किया और वरदान पाया। भगवान शंकर के अहंकार का पोषण करके उसे वरद हस्त मिला। उसने अपने स्वेच्छाचार जारी रखे।

तीसरा नेत्र रखने वाले शंकर को क्या पता नहीं था कि मुझसे वरदान लेकर यह दुष्ट निरीहों और सज्जनों को सताएगा। ब्रह्मा जी की क्या मति मारी गई थी जो रावण को वरदान दिया। कहानी से नतीजा यही निकलता है कि अच्छे लोगों के अहंकार का पोषण करके बुरे लोग अपने अहंकार का क़द बढ़ाते हैं और सत्कर्मियों और निरीहों को सताते हैं।
हाईकमान को प्रसन्न करके रावण अपना कद बढ़ाता जाता है। इतना बढ़ा लेता है कि एक वक्त पर हाईकमान को भी भारी पड़ने लगता है। वह क्लोन-कला में भी निष्णात है। अपने दस क्लोन तो वह त्रेता युग में ही बना चुका था। आज उसके हज़ारों क्लोन समाज में फैले हुए हैं। वोट की ताकत रखने वाली जनता उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती।

मुक्तिबोध ने एक कविता लिखी थी— ‘लकड़ी का बना रावण’। जब तक जनता सोई रहती है, तब तक सत्ता का लकड़ी का बना रावण स्वयं को नीचे के समाज से अलगाता हुआ, जनता को जड़-निष्प्राण कुहरा-कम्बल समझता हुआ, उस कुहरे से बहुत ऊपर उठ, शोषण की पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक पर स्वयं को मुक्त और समुत्तुंग समझता है और सोचता है कि मैं ही वह विराट पुरुष हूं— सर्व-तंत्र, स्वतंत्र, सत्-चित्। वहां उसके साथ शासन-प्रशासन का शून्य भी है, जो उस छद्म सत्-चित् के अहंकार का पोषण करता है। मुक्तिबोध ने एक जगह लिखा है— "बड़े-बड़े आदर्शवादी आज रावण के यहां पानी भरते हैं, और हां में हां मिलाते हैं। जो व्यक्ति रावण के यहां पानी भरने से इंकार करता है, उनके बच्चे मारे-मारे फिरते हैं।"
उनकी कविता में जैसे ही अकस्मात कम्बल की कुहरीली लहरें हिलने-मुड़ने लगती हैं, सत्ता का लकड़ी का बना रावण और उसके शून्य का 'सर्व-तंत्र' सतर्क हो जाते हैं।



पहले तो जनता का यह विद्रोह, उसे 'मज़ाक' दिखाई देता है लेकिन जनतंत्री नर-वानरों को देखकर भयभीत भी होता है। वह आसमानी शमशीरों, बिजलियों से भरपूर शक्ति से प्रहार करवाता है, किंतु जनता ऊपर की ओर बढ़ती ही जाती है। लक्ष-मुख, लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु रूप था पर अकेला होते ही रावण शक्तिहीन हो जाता है। आदेश व्यर्थ जाते हैं, और अब गिरा, तब गिरा....। मुक्तिबोध की फैंटैसी आज साकार होती नहीं दिख रही। आज रावण घबराता नहीं है, चाटुकारिता के लिए अपने से बड़ा रावण ढूंढ लेता है और निरीह के ऊपर सताने का तम्बू ताने रहता है। राम को मालूम है कि नाभि में तीर मारा जाए तो रावण मर जाएगा लेकिन आज के रावण से ‘नाभिनालबद्ध’ कितने ही रावण हैं। राम के तरकश में सबके लिए तीर नहीं हैं।

Friday, September 25, 2009

हिन्दी के शुतुरमुर्ग और चतुर मुर्ग

—चौं रे चम्पू! का चल रह्यौ ऐ इन दिनन?

—रमज़ान का महीना खत्म हुआ, चाँद की नूरानियों से मुहब्बतें जगमगा उठीं, ईद का गले-मिलन हो चुका। इन दिनों नवरात्र के समारोह चल रहे हैं, रामलीलाएं चल रही हैं। दशहरा पर रावण के मरने का इंतज़ार है। हां, ...और चल रहा है हिन्दी पखवाड़ा।

—हिन्दी पखवाड़े में भासान कौ गले-मिलन है रह्यौ ऐ कै अंग्रेजी की ताड़का के मरिबै कौ इंतजार?

—क्या बात कह दी चचा! मैं तो गले-मिलन सम्प्रदाय का हूं। हिन्दी की भलाई इसी में है कि भारत की विभिन्न भाषाएं उससे गले मिलें। अपने-अपने भावों और अनुभावों का आदान-प्रदान करके अभावों के घावों को भरें। हिन्दी को अपनी सहोदरा और सहेली भाषाओं से ईदी मिले। और चचा, अंग्रेज़ी की ताड़का रावण की तरह कभी मर नहीं सकती। उसे ताड़का कहना भी ग़लत है अब। पूरा विश्व उसकी ओर ताड़ रहा है और वह ताड़ की तरह ऊंची होती जा रही है। भारत में उस ताड़ पर लटके हिन्दी के नारियल धरती पर हरी घास की तरह फैलती अपनी भाषा के विस्तार को देखते हुए भी अनदेखा करते हैं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि हिन्दी को आज पूरी दुनिया से ईदी मिल रही है। हिन्दी के अख़बार देश में सबसे ज़्यादा पढ़े जाते हैं। हिन्दी फिल्मों और टेलिविज़न धारावाहिकों ने अपनी पहुंच न केवल देश में बल्कि विदेशों तक में बढ़ा ली है। बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी अगर नम्बर एक पर नहीं है तो नम्बर दो पर तो अवश्य है। अंग्रेज़ी के ताड़ पर चढ़े लोगों को हिन्दी के विस्तार के आंकड़े पसन्द नहीं आते।

—कौन लोग ऐं जिनैं पसन्द नायं आमैं?

—चचा क्या बताएं? दोस्त लोग ही हैं। जैसे मैं अड़ जाता हूं, वैसे वे भी अड़े हुए हैं। वे पूर्ण यथार्थ से आंखें मूंदकर अपने अनुमानों और खंड-यथार्थ पर आधारित आंकड़े पेश करते हैं। जिस देश का जनतंत्र अस्सी प्रतिशत हिन्दी बोलने-समझने वालों पर टिका है उसे पाँच प्रतिशत अंग्रेज़ी बोलने वाले चला रहे हैं। माना कि अंग्रेज़ी बड़ी समृद्ध भाषा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रभाव है। वह चीन, जापान, रूस जैसे देशों द्वारा भी अपनाई जा रही है, जिन्होंने अपनी भाषा में ज्ञानोत्पादन और उच्चस्तरीय शिक्षा-साहित्य का न केवल प्रबंध कर लिया था, बल्कि उसके ज़रिए उपलब्धियां पाकर भी दिखा दी थीं। चचा, आज हिन्दी भी बढ़ रही है और अंग्रेज़ी भी। हिन्दी को मुहब्बत की ईदी मिल रही है और अंग्रेज़ी को औपनिवेशिक लंका की स्वर्ण मुद्राएं। अंग्रेज़ी पैसा कमा कर दे रही है और हिन्दी मुहब्बत। ज़ाहिर है कि दोनों की अपनी-अपनी ताक़त हैं। मुहब्बत हार भी सकती है और पैसे को हरा भी सकती है।

—मुहब्बत कभी नायं हार सकै लल्ला। मुहब्बत के रस्ता में कौन आड़े आय रए ऐं जे बता?

—ज़्यादा नहीं बहुत थोड़े लोग हैं। लेकिन जब वे बात करते हैं तो उसमें दम नज़र आता है। ऐसे लोग जाने तो हिन्दी के कारण जाते हैं, लेकिन अपनी धाक अंग्रेज़ी के कारण जमाते हैं। अंग्रेज़ी का हौआ दिखाकर घनघोर निराशावादी बात करते हैं कि हिन्दी सिर्फ ग़रीबों-गुलामों की भाषा बनकर रह जाएगी। उनके सामने अगर कह दो कि हिन्दी फैल रही है तो उनके चेहरे फूल जाते हैं। वे हिन्दी अख़बारों, हिन्दी चैनलों से ही उदरपूर्ति करते हैं पर इधरपूर्ति करने के बजाए उधरपूर्ति करते हैं। ऐसे ही एक अंतरंग मित्र का कहना है कि हिन्दी वालों की हालत शुतुरमुर्ग जैसी है जो खतरा देखकर अपनी गर्दन रेत में घुसा देता है।

—तैनैं का जवाब दियौ?

—मैंने कहा दोस्त प्रवर हिन्दी में चतुर मुर्ग भी बढ़ते जा रहे हैं, जो हिन्दी के शुतुरमुर्ग की चोंच को रेत से निकालने में लगे हुए हैं। उसे बता रहे हैं कि अंग्रेज़ी हमला नहीं कर रही है शुतुरमुर्ग, सहयोग दे रही है। हिन्दी के शब्दकोश को निरंतर शब्द प्रदान कर रही है। अभी तक अंग्रेज़ी ने भाषाई मुर्ग़ों को लड़ाया है। अब वक्त आया है कि हम मुर्ग़े अपनी कलंगी ऊपर करके शुतुरमुर्ग को दिखाएं और उसे बताएं कि तू पक्षियों में सबसे बड़ी प्रजाति का है। तेरी गर्दन और पैर सबसे लंबे हैं। तू वृहत है और आवश्यकता पड़ने पर बहत्तर किमी प्रति घंटे की गति से भाग सकता है जो इस पृथ्वी पर पाये जाने वाले किसी भी अन्य पक्षी से अधिक है।

—और कोई फंडा?

—शुतुरमुर्ग से मिलता है सबसे बड़ा अंडा।

Thursday, September 03, 2009

21वीं सदी के लिए गांधी जरूरी क्यों

-चौं रे चम्पू! कछू नई ताजी है तेरे पास? बता कोई नई बात।
-चचा, हर पल नया है।
-हर पल की छोड़, पिछले कल्ल की बता, ताते अगले कल्ल कूं सुधार सकें।
-चचा कल हिन्दी अकादमी का एक अद्भुत कार्यक्रम हुआ। गांधीजी की सौ साल पहले लिखी किताब ‘हिन्द स्वराज’ और उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ का पुनर्प्रकाशन के बाद लोकार्पण हुआ। पुरानी भूमिकाओं के साथ बड़ी अच्छी छापी हैं।
-दौनौ किताबन कौ हल्ला तौ बरसन ते सुनत आय रए ऐं, खास बात का ऐ बता?
-चचा ‘हिन्द स्वराज’ पतली सी किताब है। गांधी दर्शन की बुनियाद। केवल दस दिन में लिखी गई थी। 13 नवम्बर 1909 से 22 नवम्बर के बीच। पाठक प्रश्न करता है और संपादक के रूप में गांधी जी उत्तर देते हैं। शिक्षा, सभ्यता, स्वराज, हिन्दुस्तान की दशा, गोला बारूद और मशीनों पर जो राय सौ साल पहले दी थी, वह आज भी सोचने और मानने योग्य है। चचा! बीसवीं सदी को गांधी प्रभावित कर ही रहे थे कि अचानक रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद के रूप में नई चिंतनधारा मिली। दो तिहाई दुनिया उससे प्रभावित होकर बदल भी गई, लेकिन सदी के अंतिम दौर में सोवियत संघ के पतन के बाद आस्थाएं चरमराने लगीं और बहिर्जगत से अंर्तजगत की आ॓र लौटने का सिलसिला शुरू हुआ। गांधी तो पहले से ही अंतर्जगत की बात कर रहे थे। द्वेष की जगह प्रेम, हिंसा की जगह आत्म बलिदान और पशुबल की जगह आत्मबल की वकालत कर रहे थे। पाशविक पश्चिमी सभ्यता और यंत्रवाद के विरोध में उन्होंने आत्मशक्ति का उपयोग करते हुए अहिंसा की सामर्थ्य के झंडे गाड़ दिए। झंडे उखाड़ने वालों ने कहा कि गांधी भूतकाल के उपासक हैं, पुनरूत्थानवादी हैं। आध्यात्मिक स्वराज और सर्वोदय जैसी चीजें काल्पनिक जुगाली हैं, लेकिन चचा, लोग अब अंतरराष्ट्रीय गालियां सुनते-सुनते ‘हिन्द स्वराज’ की आध्यात्मिक जुगाली पर आ रहे हैं।
-वाह रे गांधीवादी! पहलै तौ क्रांति और रक्त क्रांति की बात करतो, जे अध्यात्म कहां ते घुसौ तेरे भीतर?
-ये दिल और दिमाग जड़ पदार्थ नहीं हैं चचा! जब दिल सोचता और दिमाग महसूस करता है तब निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। माना चीजें जटिल हैं, पर उन्हें सरल ढंग से ही सुलझाया जा सकता है। लोकार्पण के बाद मुख्यमंत्री शीला जी ने कहा कि गांधी से सीखना होगा कि सादगी से कैसे रहा जाए, क्योंकि जैसे हम रहेंगे, वैसे ही विचार बनेंगे। उन्होंने गांधी जी के तीन बंदरों का हवाला दिया।
-बंदरन कौ तौ खूब मजाक बनौ रे!
-हां, आजादी के बाद बहुत सी व्यंग्य रचनाएं लिखी गईं। पिछले बीस साल से यह सिलसिला थमा हुआ है। आखिर कब तक बंदरों को कोसते, जब उनसे भी गए-गुजरे जीवधारी अनष्टि करने लगे। नेता, पुलिस और प्रशासन पर व्यंग्यकारों ने खूब कलम चलाई। पिछले दस सालों से देख रहा हूं कि व्यंग्य की मार भी भौंथरी हो गई है। व्यंग्य का असर हो, तब तो फायदा है। गैंडे को पिन चुभाते रहो या गुलगुली करते रहो, उस पर क्या फर्क पड़ेगा? सिर्फ नकारात्मक होने से समाज नहीं बदलना, विकल्प तो बताएं, क्या करें? और चचा विकल्प रूप में हमारे पास ‘हिन्द स्वराज’ जैसी किताब है।
-गांधी तौ किताबन में कैद है गए भैया! जीवन में नायं आ सकैं!
-गलत, बिल्कुल गलत! ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में किताबों से निकलकर गांधी जी बाहर निकल आए थे। एक गुंडे का हृदय-परिवर्तन सिर्फ परदे पर ही नहीं दिखा, समाज में भी फिल्म ने भूमिका अदा की। उद्घाटन सत्र में श्री प्रभाष जोशी जी ने बड़ी अच्छी राय दी कि हिन्द स्वराज की दस-दस प्रतियां दिल्ली के हर स्कूल में अकादमी की तरफ से भेजी जाएं और बच्चों से कहा जाए कि इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें। समझें, समझाएं और बताएं कि इक्कीसवीं सदी के लिए गांधी जरूरी क्यों हैं?
-तेरे पिताजी नैं दो लाइन सुनाई हतीं, दीवाल और दीवाली की, याद ऐं का?
-याद हैं। उन्होंने कहा था, ‘सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम से, अपना तो इतना नाता है, दीवालों पर लिख देते हैं, दीवाली पर पुत जाता है।’ व्यंग्य में कहा था उन्होंने, लेकिन चचा मैं मानता हूं कि अब गांधी और गांधीवाद पर व्यंग्य की भाषा में नहीं, अंतरंग आत्मावलोकन की भाषा में बात होनी चाहिए।

Sunday, August 09, 2009



जयजयवंती द्वितीय वार्षिकोत्सव

11 अगस्त 2009, सायं 6:30

स्टाइन सभागार, इंडिया हैबीटैट सैंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली

मुख्य-अतिथि : श्री अजय माकन, गृह राज्य मंत्री, भारत सरकार
विशिष्ट अतिथि : श्री वीरेन्द्र गुप्ता, महानिदेशक, आई.सी.सी.आर.

प्रस्तुति : हिन्दी के भविष्य का नक्शा

कविता-पाठ

जापान के सुप्रसिद्ध साहित्यकार
डॉ. तोमिओ मिज़ोकामी को ‘जयजयवंती’ सम्मान

सांस्कृतिक कार्यक्रम, भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद
आप सादर आमंत्रित हैं।


राकेश पांडेय (व्यवस्था) - 9810180765
अशोक चक्रधर, अध्यक्ष, जयजयवंती - 26941616


सौजन्य: भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद
पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर, चित्र कला संगम एवं श्री गंगाधर जसवानी

Thursday, July 16, 2009

पुर्ज़े जोड़ने वाले चलते पुर्ज़े

—चौं रे चम्‍पू! ऐसौ कौन सौ यंत्र ऐ जाते पैसन की इफरात है जाय?
—ऐसा एक ही यंत्र है जो पैसों की इफ़रात करा सकता है। पैसों की बरसात करा सकता है। पैसों के दिन-रात करा सकता है।
—बता-बता!
—इतनी आसानी से नहीं बताऊंगा चचा! कोई सुन लेगा। कान इधर लाओ तो बताता हूं। ....और ये भी सुन लो, किसी और को बताना मत! चचा, वो यंत्र है— षड्यंत्र! ….अरे हंस रहे हो! बिल्कुल सही बात बताई है।


—हां! बात में दम ऐ, पर इस्तैमाल कौ तरीका तौ बताऔ?
—षड्यंत्र नामक यंत्र को लगाने के लिए निष्ठाहीनता की ज़मीन चाहिए। यानी बेवफ़ाई, बेमुरव्वती, अनिष्ठा और नमकहरामी। जिसका खाओ उसको भूल जाओ। खाने के नए-नए प्रबंध करो और पाचन-शक्ति बढ़ाओ। पाचन-शक्ति भी ऐसे नहीं बढ़ेगी। उसके लिए अहसान फरामोशी के साथ चाहिए ज़मीरफरामोशी। अपने ज़मीर को भी धोखा दो। यानी निष्ठाहीनता की ज़मीन पर विश्वासघात की बुनियाद डालो। अपघात करो, कपट करो। गद्दारी, दगाबाज़ी, हरामखोरी ये वे तत्व हैं जो बुनियाद को मज़बूत करते हैं। मित्रद्रोह या मित्रघात से बुनियाद और पुख़्ता होती है। अब षड्यंत्र नामक यंत्र को स्थापित करने के लिए कुछ चीज़ें ऐसैम्बल करनी पड़ेंगी। पुर्ज़े जोड़ने के लिए चलता पुर्ज़ा बनना पड़ेगा। वो पुर्ज़े हैं छल, कपट, छ्द्म, जालसाज़ी, ठगई, दगा, धांधली, धूर्तता, प्रपंच, पाखण्ड, फंद, दंद-फंद, फरेब, मक्कारी, फेराहेरी, बेईमानी। इन पुर्ज़ों को जोड़ने वाला एक पुर्ज़ा होता है। षड्यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पुर्ज़ा— भ्रष्टाचार।
—इत्ते सारे पुर्जा?
—समाज में बिखरे पड़े मिल जाएंगे। ख़ास मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी चचा। इन पुर्ज़ों को इकट्ठा करने के लिए एक सवारी चाहिए। उस वाहन का नाम है— अवसरवाद। चढ़ते सूरज को सलाम करो, अपनी सुविधा, मतलबपरस्ती और स्वार्थ-साधना के लिए स्वयं को परिवर्तनशील बनाओ। तोताचश्म हो जाओ। सवारी करने के लिए गद्दारी का हुनर ज़रूरी है। गद्दारी करो, तभी गद्दी मिलेगी। हर पुर्ज़ा नए पुर्ज़े को ढूंढने में मदद करता है। एक बार अवसरवाद की सवारी कर ली तो राह चलते आंखों में धूल झोंकना, उल्लू बनाना, चकमा देना अपने आप आ जाएगा।


कुछ कौशल अनुभव से आएंगे जैसे— सांठ-गांठ, मिलीभगत, दुरभिसन्धि, कृतघ्नता आदि-आदि। तुम धीरे-धीरे लोगों को काटना सीख जाओगे। मीठी छुरी बन जाओगे। शहद से मीठी छुरी। मौकापरस्त बने रहे तो पस्त नहीं हो सकते। व्यस्त रहोगे और मस्त रहोगे। तुम्हारा यंत्र यानी कि षड्यंत्र, पैसों का धकाधक प्रोडक्शन करेगा। ….और पैसे से क्या काम नहीं हो सकता चचा?
—का पैसन ते ई सारे काम हौंय?
—अब चचा तुम मुझे ज़मीन से ज़मीर पर ला रहे हो। सोचना पड़ेगा। बाई द वे, मैं तुम्हारा सवाल भूल गया, ज़रा फिर से बताना।
—यंत्र कौ इस्तैमाल सुरू कर दियौ का?
—नहीं चचा! अभी पुर्ज़े जोड़े कहां है?
—मैं तेरी फितरत जानूं। तू नायं जोड़ सकै। सब्दन कूं जोड़िबे कौ खेल कर सकै ऐ बस्स। सवाल कौ जवाब दै। का सारे काम पैसन ते ई हौंय?
—नहीं चचा! कुछ काम सिर्फ ‘पैशन’ से होते हैं। आंतरिक उत्साह, समर्पण और प्रतिबद्धता से। कोई पैसा दे कर सारे काम नहीं करा सकता। पैशन दुनियादार नहीं होता। वह तो अन्दर की ज्वालाओं में तप कर आता है। वह ख़ुद नहीं बदलता, ज़माने को बदलता है। यह भी एक यंत्र है, पर षड्यंत्र नहीं सद्-यंत्र है। अगर सारे लोग इस यंत्र से काम लें तब भी पैसे की इफ़रात हो सकती है। वह भी अवसरवाद होगा लेकिन सिर्फ अपने लिए नहीं, सबके लिए अवसर। पता नहीं ऐसे दिन देखने का अवसर कब मिलेगा? अपने एक दोस्त हैं चचा, मारूफ़ साहब, वे अक्सर कहा करते हैं— ‘ऐसे दिन आएं कि ख़्वाबों की ज़रूरत न रहे, ऐसे कुछ ख़्वाब भी पलकों पे सजाए रहिए’। मैं मानता हूं ऐसे दिन आएंगे चचा। पैशन में कमी नहीं रहेगी तो पैसन में भी कमी नहीं रहेगी।

Wednesday, July 15, 2009

गुज़र कर क्या करोगे, कर गुज़रो

—चौं रे चम्पू!! राजतंत्र और जनतंत्र कौ कोई एक मुख्य अंतर बता?
—चचा, राजतंत्र में किसी निर्णय को लागू कराने में एक दिन क्या, एक मिनट नहीं लगता, लेकिन जनतंत्र में किसी योजना को अमल में लाने के लिए सौ दिन भी कम पड़ते हैं।
—तेरे दिमाग में नई सरकार के सौ दिन के एजेण्डा की बात ऐ का?
—बिल्कुल वही है। ये सरकार कुछ कर गुज़रना चाहती है, लेकिन ऐसे लोग, जो गुज़र गए और कुछ कर न पाए, उनके पेट में मरोड़ है। नए प्रस्ताव उन्हें दिशाहीन, अतार्किक और अव्यावहारिक लगते हैं। उन्हें तो विरोध के लिए विरोध करना है बस। यशपाल जैसे अनुभवी और वरिष्ठ शिक्षा-शास्त्री ने हर स्तर की शिक्षा के लिए वर्षों के अनुसंधान के बाद कुछ सिफ़ारिशें की हैं। जाने माने शिक्षा-शास्त्री कृष्ण कुमार समर्थन कर रहे हैं और मानव-संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने ऐलान कर दिया कि नई शिक्षा नीति सौ दिन के अन्दर लागू हो जाएगी।


विरोधी तो विरोधी, कुछ अंतरंग भी हो गए क्रोधी।
—तौ मुद्दा का ऐ?
—तुम्हें मालूम तो है चचा! किशोर बच्चों पर और उनके अभिभावकों पर परीक्षा का भारी तनाव रहता है। बहुत सोच-समझ कर ये फैसला लिया जा रहा है कि दसवीं के बोर्ड की परीक्षा से बच्चों को मुक्त किया जाए। स्थानीय शिक्षक ही उनके काम का मूल्यांकन करें। वो फिल्म देखी थी चचा, ‘तारे ज़मीं पर’। क्या शानदार सन्देश था उसका। हर बच्चे में कोई चमक होती है। समय रहते अगर उस पर आपकी निगाह न जाए तो चमक फीकी पड़ने लगती है। मुक्तिबोध ने कहा था— ‘मिट्टी के ढेले में भी होते हैं किरणीले कण’।


अगर उन दीप्तिमान कणों की पहचान न हो पाए तो ढेला या तो उपेक्षित रह जाता है या बुलडोज़र के नीचे आ जाता है। हमारी शिक्षा-प्रणाली कई बार अंकुरित होती प्रतिभाओं पर बुलडोज़र फिरा देती है। दसवीं कक्षा तक स्कूल का शिक्षक बच्चों का आदर्श होता है क्योंकि बच्चों से उसका सीधा और आत्मीय संबंध होता है। वह हर बच्चे के अलग-अलग किरणीले कणों को पहचानता है इसलिए उन्हें आगे की राह सुझा सकता है। चचा, मैं इस बात से सहमत हूं कि दसवीं की परीक्षा को बोर्ड की परीक्षा न बनाया जाए। बच्चा परिपक्व होकर प्रतियोगिता में निकले और अपनी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार अपना भविष्य चुने। चचा, हमारा अतीत होता है आचार-विचार-पत्र, वर्तमान समाचार-पत्र, भविष्य प्रश्न-पत्र और हमारी ज़िंदगी है उत्तर-पुस्तिका। उत्तर-पुस्तिका पर लिखते समय इतना तो बोध हो जाए कि भविष्य के प्रश्न-पत्र को कैसे हल करना है। एक किशोर पर आप अपने निर्णय नहीं लाद सकते। बारहवीं का बोर्ड एकदम ठीक है और मैं इस बात से भी सहमत हूं कि खूब सारे विकल्पों की सुविधा देते हुए कुछ अनिवार्य विषयों के साथ, पूरे देश में एक पाठ्यक्रम और एक बोर्ड होना चाहिए। प्रांतीयतावाद और क्षेत्रीयतावाद को समाप्त करने का इससे बढ़िया कोई तरीका नहीं है।
—तौ बिरोध का बात कौ?
—विरोधी भिन्नता की दुहाई देते हैं। चचा, दसवीं ग्याहरवीं में सिखाई जाती थी जटिल-भिन्न, आजकल के बच्चे जिसे कहते हैं कॉम्प्लेक्स ईक्वेशन।


देश भर के सारे बच्चे इन्हें सरल करना सीखते हैं। हमारा देश भी किसी जटिल-भिन्न से कम नहीं है। भिन्नताएं हैं, विभिन्नताएं हैं लेकिन अगर वे अभिन्न होने की दिशा में नहीं बढ़ेंगी तो भुनभुनाती रहेंगी, परिणामत: जीवन की उत्तर-पुस्तिका पर संकीर्ण सोच की ज़हरीली मक्खियां भिनभिनाने लगेंगी। माना कि असम और केरल की संस्कृति भिन्न हैं लेकिन देश की आस्था और राष्ट्रीय मानकीकृत जीवन-मूल्यों का स्वर तो एक है। हमारे राष्ट्रीय आईकॉन तो एक हैं। केरल का युवा असम जाए तो चिंतन की, व्यवहार की, और भविष्य के लक्ष्य की एक समता तो महसूस करे। एक चीज़ और है जिस पर मैं बल देना चाहता हूं और इसमें कोई राजनैतिक रोड़ा नहीं अटकना चाहिए। वह है हिन्दी भाषा। हम सब आज अपने इस आज़ाद देश की हवा और हंसी के हकदार हैं, हमें याद रखना चाहिए कि आज़ादी दिलाने में हिन्दी ने पूरे देश को एक धागे में पिरोने का काम किया था। पूरे देश के लिए जो एक पाठ्यक्रम बने उसमें राज्य की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार वैकल्पिक विषय ज़रूर हों, लेकिन हिन्दी हो अनिवार्य।
—तू चौं झगड़िबे के इंतजाम कर रयौ ऐ?
—सारे झगड़े मिट जाएंगे चचा! मैं तो जनाब कपिल सिब्बल से कहता हूं कि वक्त गुज़र जाएगा, सौ दिन बहुत होते हैं, इंटरनेट के ज़रिए राज्यों से तत्काल सहमति-असहमति पर विचार करो और कर गुज़रो।

Wednesday, June 17, 2009

विश्वास है कि चमत्कार घटित होगा

—चौं रे चम्पूत! तन के कांटे तौ सब जानैं, तू मन के कांटे बता?
—वो तो हर मन ने अपने लिए अलग-अलग छांटे, लेकिन दुःख अगर बांटा जाए तो निकल जाते हैं सारे कांटे। संस्कृत के एक श्लोक का भाव ध्यान आ रहा है, जिसमें सामंती दौर के उस कवि ने अपने मन के सात कांटे बताए थे। पहला— दिन में शोभाहीन चन्द्रमा, दूसरा— नष्टयौवना कामिनी, तीसरा— कमलविहीन सरोवर, चौथा— मूर्खता झलकाता मुख, पांचवां— धनलोलुप राजा, छठा— दुर्गतिग्रस्त सज्जन और सातवां— राजदरबार में पहुंच रखने वाला दुष्ट।
—तू तौ अपनी धारना बता!
—सब कुछ विपरीत है। मैं अपनी कल्पना में देख रहा हूं कि राजदरबार से दुष्टों की छंटाई शुरू हो चुकी है। सज्जन की टिकिट भले ही कट गई हो पर दुर्गतिग्रस्त नहीं हैं। जिनका शासन है वे अभी धनलोलुप नहीं हैं। मूर्खता झलकाने वाले मुखों को पिछवाड़े का रास्ता दिखाया जा रहा है। सरोवर में पानी ही नहीं है, कमलविहीन होने की तो बात क्या करें! नष्टयौवना कामिनियों के लिए बाज़ार सौन्दर्य-प्रसाधनों से अटे पड़े हैं। रही बात दिन में शोभाहीन चन्द्रमा की, तो चचा, मैंने पिछले दिनों रात में पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभाहीन देखा था। दुष्ट चन्द्रमा, व्हाइट टाइगर जैसा खूंख़ार था। तीन कवियों का शिकार करके वो ले गया उन्हें यादों की मांद में। हां! आकाश से बादलों को भेदता, पाण्डाल को छेदता, मंच पर सीधा झपट्टा मारता है, इतनी ताकत है चांद में। ले गया उन्हें यादों की मांद में। चचा! भरोसा करना, बेतवा महोत्सव के कविसम्मेलन वाली रात मुझे पूर्णिमा का चन्द्रमा बिल्कुल नहीं सुहा रहा था। कविसम्मेलन प्रारंभ हुआ तब वह मंच के बाएं किनारे पर था, नीरज पुरी के ठीक ऊपर, और जब कविसम्मेलन समाप्त हुआ तो वह दाहिनी ओर कविवर ओम प्रकाश आदित्य के ऊपर दिख रहा था।


तेरह कवियों में से उसने तीन को झपट्टा मार कर ऊपर उठा लिया।
—पूनम कौ चंदा तौ समन्दर में लहरन्नै उठाय देय। ज्वार आ जायौ करै ऐ लल्ला।
—और ज्वार के बाद भोरपूर्व अंधियारे में जो भाटा आया, वह तो कविसम्मेलन जगत का बहुत घाटा कर गया। दिन का चन्द्रमा नहीं चचा, रात का चन्द्रमा शूल सा चुभा। स्थान-स्थान पर शोक सभाएं हो रही हैं। अख़बारों और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पास भले ही इनके लिए अधिक स्पेस न हो, पर जिस विराट श्रोता समुदाय ने इन्हें वर्षों से सुना है, उनके दिल रो रहे हैं। प्रदीप चौबे बता रहे थे कि बैतूल में नीरज पुरी की अंत्येष्टि में पूरा शहर शरीक़ था। शाजापुर के उस गांव की आबादी चार हज़ार भी नहीं है, जहां लाड़ सिंह गूजर रहते थे, लेकिन उन्हें अंतिम प्रणाम करने के लिए पांच हज़ार लोग आए।


कविवर ओम प्रकाश आदित्य की अंत्येष्टि मालवीय नगर में इतनी जल्दी हो गई कि लोगों को पता ही नहीं चल पाया। फिर भी मोबाइल एसएमएस सन्देशों के माध्यम से दिल्ली के कविता प्रेमी अंतिम विदाई के लिए पहुंचे। महानगर से ज़्यादा उम्मीदें की भी नहीं जा सकतीं चचा, पर हर तरफ़ लोग अन्दर से दुखी हैं।
—ओम व्यास के का हाल ऐं रे?
—मामूली ही सही, पर सुधार है। भोपाल से एयर एम्बुलेंस द्वारा उन्हें दिल्ली के अपोलो अस्पताल में लाया गया। डॉ. ए. के. बनर्जी और डॉ. सोहल की निगरानी में हैं। भोपाल के डॉ. अशोक मस्के, डॉ. मृदुल शाही और डॉ. दीपक कुलकर्णी, जिन्होंने प्रारंभिक उपचार किया था, निरंतर सम्पर्क में हैं। मध्य प्रदेश शासन ने घोषणा की है कि इलाज का सारा ख़र्च दिया जाएगा। दिल्ली सरकार ने भी महत्वपूर्ण सुविधाएं अपोलो अस्पताल में दिलाई हैं। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री, कवि के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं। उज्जैन में हज़ारों लोग अपनी-अपनी तरह से शुभकामनाओं का प्रसार कर रहे हैं। वहां के पुलिस अधीक्षक पवन जैन जो स्वयं कवि हैं, हर घण्टे ख़बर ले रहे हैं और दे रहे हैं। सिर में बेहद गम्भीर चोटें हैं चचा। डॉ. भी कहते हैं कि उपचार के साथ-साथ हम चमत्कार की प्रतीक्षा में हैं। चचा! चमत्कार हमारे विश्वास की सबसे प्यारी औलाद है। सभी को विश्वास है कि ओम स्वस्थ होंगे। सातों कांटे निकल जाएंगे चचा।


आठवें दिन,लम्बी बेहोशी के बाद कल ओम ने एक पल के लिए आंख खोलने की कोशिश की थी। हमारा विश्वास है कि चमत्कार घटित होगा।

Tuesday, June 16, 2009

उस शहर का सूरज ज़रूर देखना

—चौं रे चम्‍पू! तू तौ ठीक ऐ न?
—मैं तो ठीक हूं चचा! पिछली गाड़ी में था। कविवर ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड़ सिंह गूजर जिस गाड़ी में थे वो हमसे पांच मिनिट आगे थी, लेकिन उन्हें वो गाड़ी हमसे बहुत दूर ले गई।
—भयौ का जे बता!


—विदिशा में वर्षों से वार्षिक बेतवा उत्सव होता आ रहा है। कई दिन तक बहुरंगी कार्यक्रम होते हैं, अंतिम दिन होता है कविसम्मेलन। तेरह कवि थे, तीन कवियों के लिए वह दिन अंतिम हो गया। रात में दस बजे शुरू हुआ कार्यक्रम सुबह पौने चार बजे समाप्त हुआ था। उसके बाद कवियों ने किया भोजन।
—जे कोई भोजन कौ टैम ऐ?
—यही तो विडम्बना है चचा। मंच के कवि प्रस्तुति-कलाकार होते हैं, परफौर्मिंग आर्टिस्ट! कोई विशेष मेक-अप नहीं करते। कई दिन से यात्राओं में हों तो उन्हीं कपडों से काम चला लेते हैं, पर चेहरे पर चमक बनी रहे इस नाते कार्यक्रम से पहले भोजन नहीं करते। भूखा रहने से चेहरे पर अलग तरह की चमक आ जाती है। आदमी भूखा हो तो आवाज़ कंठ से नहीं दिल से निकलती है। भूखा आदमी फिर देश के भूखे आदमी के बारे में ईमानदारी से बात करता है।


—आगे बोल!
—भोजन की पैक्ड प्लास्टिक थालियां रात में ही लाकर रखी होंगी। पूर्णिमा के चंद्रमा ने उन्हें सुबह तक शीतल कर दिया था। मौसम की गर्मी ने भी भोजन से छेड़छाड़ की होगी। आदित्य जी बोले— ‘दाल मत खाना, उतर गई है’। मैंने कहा— ‘पनीर मत खाना, चढ़ गया है’। वे बोले— ‘चलो दही खाते हैं’।


मैंने कहा— ‘खट्टी है’। वे बोले— ‘चलो, भोपाल पंहुच कर होटल में खाएंगे। वैसे ये गुलाबजामुन ठीक हैं’। मेरी गुलाबजामुन पहले ही नीरज पुरी ये कहते हुए खा चुके थे कि आपके साथ तो पहरेदारी के लिए बेटी आई है भाई साहब, आप तो खाएंगे नहीं। बीवी-बच्चे चंडीगढ़ में हैं। यहां कौन टोकेगा? कवियों में सद्भाव इतना है कि साला कल मरता हो तो आज मर जाए। ओम व्यास कहने लगे— ‘आज मंच पर मरने की बात कुछ ज़्यादा ही हो चुकी है, अब मत करो। अभी गुलाब जामुन खा लो कल जामुन पीस कर खा लेना’।


—मंच पै मरिबे की का बात भई रे?
—संचालन में ओम ने आनंद लिया था— ‘तेरह कवि हैं मेरे पास। एक से तेरहवीं तक का पूरा इंतज़ाम है (तालियां)। ये जो श्री ओम प्रकाश आदित्य बैठे हैं, ये कविसम्मेलन उद्योग के कुलाधिपति हैं। कवियों में सबसे बुजुर्ग हैं, हालांकि ये ख़ुद को बुजुर्ग मानते नहीं हैं (तालियां)। मित्रो, पैकिंग कैसी भी कर दी जाय, अगर पुराना सामान है तो पुराना ही निकलता है (तालियां)। आप और कवियों को सुनें न सुनें, पर इनको जीभर कर सुनियेगा, हम तो अगले साल भी आ जाएंगे (एक पॉज़ के बाद तालियां)’। आदित्य जी पीछे से ठहाका लगाते हुए बोले— ‘मारूंगा’ (तालियां)। ओम जारी रहे— ये वो नस्ल है मित्रो, जो ख़त्म होने जा रही है (तालियां)। उसका ये एक मात्र बीज सुरक्षित है (तालियां)। उसे और ज़्यादा सुरक्षित रखेंगी आपकी ज़ोरदार तालियां (ज़ोरदार तालियां)’। उसके बाद ओम ने नीरज पुरी, देवल आषीश, विनीत चौहान, सरिता शर्मा, पवन जैन,लाड़ सिंह गूजर, मदन मोहन समर,जॉनी बैरागी, संतोष शर्मा,प्रदीप चौबे, और मेरे लिए ज़ोरदार तालियां बजवाईं।


अपने लिए कहा— ‘मैं इन तेरह कवियों की परोसदारी करने आया हूं, मुझ पर दया आती हो तो मेरे लिए भी बजा दें (घनघोर तालियां)। पर तालियां न तो बीज को सुरक्षित पाईं और न कविसम्मेलन के दो और फलदार डालों को। ओम जीवन-संघर्ष कर रहे हैं। उनके उर्वर मस्तिष्क में इस समय अनेक प्लॉट्स की जगह अनेक क्लॉट्स हैं। ड्राइवर का बुरा हाल है। चचा, कविसम्मेलन के कवियों के लिए एक कहावत है कि जिस जगह जलवा दिखाओ, अगले दिन उस जगह का सूरज न देखो। अगली सुबह सारी तालियां थक कर सो जाती हैं। आते वक़्त कवियों को जो सूरज-भर सम्मान मिलता है वह लौटते वक़्त किरण-भर नहीं रह जाता। सुबह चार और पांच के बीच ड्राइवर को आती है झपकी। वह भी तालियां बजाने के बाद बासी भोजन करके आया होता है। मैं तो कवियों से कहूंगा कि तुम्हारी वाणी में बड़ा बल है कवियो! मंच पर मृत्यु का उपहास मत करो ! अगले दिन उस शहर का सूरज ज़रूर देखो ताकि मृत्यु आंखें फाड़-फाड़ कर अंधेरी सड़क पर तुम्हारा इंतज़ार न करे।

Friday, June 05, 2009

तन डोले न मन डोले तो ईमान डोले

-चौं रे चम्पू! तेरौ लल्ला तौ आस्ट्रेलिया में ई ऐ न?
—उसे गए हुए तो दस साल हो गए चचा! दो साल के लिए पढ़ने भेजा था, काम मिला, नाम मिला, दाम मिला तो वहीं जम गया। इंटरनेट के ज़माने में लगभग रोज़ाना बात होती रहती है। दूरी का अहसास नहीं होता। इधर, दो-तीन दिन से शुभचिंतकों के बड़े फोन आ रहे हैं। बेटा वहां ठीक तो है?
—हां बता, काई परेसानी में तौ नायं?
—नहीं, किसी परेशानी में नहीं है। चचा, मैं पहली बार आस्ट्रेलिया नाइंटी एट में गया था। वहां मिले हिन्दी-उर्दू-संस्कृत पढ़ाने वाले प्रो. हाशिम दुर्रानी, डॉ. पीटर ओल्डमैडो और डॉ. बार्ज। बड़ा अच्छा लगा कि वे लोग हिन्दी-उर्दू पढ़ाने के लिए नए-नए पाठ्यक्रम बना रहे थे। भव्य इमारत, भव्य लोग। अगले साल पुत्र को भेज दिया।
चार सैमिस्टर की पढ़ाई थी। हर सैमिस्टर के चार लाख रुपए देने थे। पहली किस्त मैंने प्रोविडेंट फण्ड से निकाल कर दी और उसे आश्वस्त भी कर दिया कि अगली का जुगाड़ भी लगाएंगे बेटा। सात महीने बीत गए उसने पैसा नहीं मांगा तो चिंता हुई। हड़बड़ा कर फोन मिलाया। उसने हंसते हुए बताया कि उसने पढ़ाई के दौरान ख़ाली वक्त में काम करके इतना पैसा कमा लिया है कि अब फण्ड से पैसा नहीं निकालना पड़ेगा। खुशी भी हुई और स्वावलंबी होते हुए बालक को अब हमारी सहायता की ज़रूरत नहीं है, इस अहसास से कुछ मलाल-सा भी हुआ। भई हम किसके लिए कमा रहे हैं? दिन-रात काम क्यों करता है? पढ़ाई कर ना, जिसके लिए भेजा है। चचा, उस देश में मेहनत और प्रतिभा की कद्र होती है। अगले साल हम चले गए, जब यहां गर्मियों की छुट्टियां हुईं। सिडनी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग ने हमें विज़िटिंग स्कॉलर बना दिया। वहां के छात्रों को पढ़ाने का मौका मिला। कई साल मिला। प्रो. हाशिम दुर्रानी ने आपके इस चम्पू की कविताओं के आधार पर पाठ्यक्रम भी बनाया। लाइब्रेरी में निर्बाध प्रवेश के लिए अपना इलैक्टॉनिक कार्ड भी बन गया था। बड़ा आनंद आया चचा। वहां के विश्वविद्यालय पैसा लेते ज़रूर थे पर ज्ञान भी भरपूर देते थे। लेकिन इन पिछले दस वर्षों में शिक्षा ऑस्ट्रेलिया में एक फलता-फूलता उद्योग बन गया। विभिन्न विश्वविद्यालय सब्ज़ बाग़ दिखा कर छात्रों को बुलाने लगे।
—ये जो मैल्बर्न में भयौ, जे कैसे भयौ?
—वही तो बता रहा हूं चचा। पैसा आने लगा, तो वहां के विश्वविद्यालय सदाशयता खोने लगे। हिन्दी-उर्दू पढ़ाने से उन्हें पहले भी पैसा नहीं मिलता था पर चलाते थे। पिछले साल सिडनी विश्वविद्यालय के प्रशासन ने कह दिया कि भारतीय समाज के लोग मिलकर अगर इतने हज़ार डॉलर नहीं देते तो हम ये विभाग बन्द कर देंगे। भारतीय लोग भाषा के नाम पर उतना पैसा दे नहीं पाए और विभाग हो गया बन्द। उन्हें तो चाहिए थी माल-मलाई। फोकट का दूध बांटने के लिए क्यों चढाते कढ़ाई! अब लगभग एक लाख भारतीय विद्यार्थी चढ़ावा चढ़ाते हैं और अपने माता-पिता पर बोझ न बन जाएं, इस नाते रात-रात भर काम करते हैं। हॉस्टिल की सुविधाएं हैं नहीं। विश्वविद्यालय के पास मिलते हैं महंगे मकान, इसलिए दूर-दराज के उपनगरों में कम किराए पर रहते हैं। काम के बाद मौज-मस्ती और पार्टीबाज़ी वहां के नौजवानों का आम सांस्कृतिक शगल है। हमारे मेधावी-मेहनती छात्र अपनी आर्थिक सीमाओं के रहते प्राय: उससे दूर रहते हैं। चचा, वहां के स्थानीय बेरोज़गार नौजवानों को ‘डोल’ के नाम पर हर हफ्ते ढेड़-सौ दो सौ डॉलर का बेरोज़गारी भत्ता मिलता है। कल्याणकारी राज्य के लिए ‘डोल’ एक स्वस्थ परम्परा है। यह डोल उदरपूर्ति के लिए तो काफ़ी है लेकिन मदकची अपराधियों की मौज-मस्ती नहीं हो पाती उसमें। उतने से डोल से तन डोले न मन डोले, ईमान डोले। भारतीय एवं तीसरी दुनिया के छात्र बन जाते हैं इन रुग्ण डोलिये और मनडोलिये अपराधियों के कोमल शिकार। ये छोटी-मोटी घटनाओं की शिकायत तक नहीं करते। देर रात में तरह-तरह का काम करने के बाद, अपनी उस दिन की कमाई, लैपटॉप और मोबाइल के साथ जब ये रेल या बस से उतर कर सुनसान सड़कों पर पैदल चल रहे होते हैं तब निकल आते हैं अपराधियों के पंजे और कसने लगते हैं शिकंजे। अपराध का अस्लवाद नासमझी के कारण धीरे-धीरे नस्लवाद का रूप अख्तियार करने लगता है। ऑस्ट्रेलिया हमारा मित्र देश है, यदि वह विश्वविद्यालयों की धन-लोलुपता पर और अपने अपराधियों पर अंकुश नहीं लगाएगा तो……..।
—तौ का?
—मैं अपने परिचय में गर्व से लिखता हूं ‘पूर्व विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, सिडनी यूनिवर्सिटी’, हटा दूंगा चचा।

Wednesday, May 27, 2009

जय हो की जयजयकार

—चौं रे चम्‍पू! ‘जय हो’ की जयजयकार कैसे भई रे?

—‘जय हो’ की जयजयकार हमेशा हुई है चचा! कोई नई बात नहीं है। ‘जय हो’ भारत की पुरानी भावना है। ऐसा आशीर्वाद है, जो बड़ों ने छोटों को दिया और छोटों ने बड़ों को। ‘महाराज की जय हो’ से लेकर जनतंत्र की ‘जय हो’ तक जनता अपनी शुभेच्‍छाएं सदियों से व्‍यक्त करती आ रही है।

—हम तौ कांग्रेस की ‘जय हो’ की बात कर रए ऐं!

—वही तो बता रहा हूं। मैंने कांग्रेस के प्रचार के लिए अतीत में बनाए गए आठ गाने सुने। भला हो सुमन चौरसिया का, जिन्‍होंने अपने ‘ग्रामोफोन रिकार्ड संग्रहालय’ से मुझे ये गीत उपलब्‍ध कराए। सब गानों में किसी न किसी रूप में ‘जय हो’ या ‘जयजयकार’ शब्‍दों का या भाव का प्रयोग किया गया था। आशा भोंसले और महेन्‍द्र कपूर की आवाज में एक गीत था— ‘नेहरू की सरकार रहेगी, हिंद की जयजयकार रहेगी।’ इस गाने में एक पंक्ति आती है— ‘अपने दिल की बात सुनेंगे, जिसे चुना था उसे चुनेंगे।’
आप देखिए, पंद्रहवीं लोकसभा के चुनावों में भी अधिकांश मतदाताओं ने दिल की बात सुनी। क्षेत्रीयता के बिल में रहने वाले जीवधारियों को जनता ने कमोवेश नकार दिया। शंकर जयकिशन के संगीत और रफी के स्वर में, क़ाज़ी सलीम के एक गाने का मुखड़ा था— ‘कभी न टूट पाएगा ये उन्‍नति का सिलसिला, ये वक्‍त की पुकार है कि कांग्रेस की जय हो।

’ आशा, मन्‍ना डे, महेन्‍द्र कपूर और मुकेश जैसे महान गायकों ने ये गीत गाए थे। शंकर जयकिशन के ही संगीत में हसरत जयपुरी का लिखा हुआ और मुकेश द्वारा गाया हुआ एक गीत है— ‘भेद है, न भाव है, ये प्‍यार का चुनाव है, कांग्रेस की जय हो, कांग्रेस की जय हो।’ इस गाने में आगे कहा गया है— ‘जीतनी हैं मंज़िलें, दूर की हैं मुश्किलें, हर जगह सजाई हैं, तरक्कियों की महफ़िलें।’ चचा, गाने में यह नहीं कहा गया कि ‘जीत ली हैं मंज़िलें’। ऐसा नहीं कि इंडिया शाइनिंग हो गया, अब फील्गुड करो भैया। प्रचार में बड़बोलापन और अहंकार हमारी जनता को कभी नहीं पचा। न तो अहंकार चाहिए और न सोच में नकार। कांग्रेस के ‘जय हो’ गीतों में न तो कोई बड़बोलापन था और न कोई नकारात्‍मकता। प्रचार की कमान संभाले हुए आनंद शर्मा, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और विश्वजीत ने श्रेय आम आदमी को दिया और उसके हर बढ़ते कदम से भारत की बुलंदी की उम्‍मीद जगाई।

—उल्‍टी बात, बोलिबे वारे पै उल्‍टी पड़ौ करै भैया!

—हां चचा, आज़ाद भारत में अब तक के चुनाव प्रचारों का ये इतिहास है कि जिस भी दल ने नकारात्‍मक अभियान चलाया, वह जीत नहीं पाया। कांग्रेस ने भी एक बार ऐसा किया और उन्‍हें हार का सामना करना पड़ा था। गाना था— ‘हिंदू, मुस्लिम, सिक्‍ख, ईसाई से ना जिनको प्‍यार है, वोट मांगने का ऐसे ही लोगों को अधिकार है।’
गाने में दूसरी पार्टियों पर व्‍यंग्‍य था कि विरोधी झूठ बोलते हैं, उन्‍हें कुर्सी का रोग है और उन्‍हीं के कारण देश बीमार है। बात भले ही सही रही हो पर जनता को नहीं पची। इधर भाजपा के प्रचार को देख लीजिए, ‘जय हो’ का ‘भय हो’ करके क्‍या संदेश दिया? न तो हास्‍य था, न व्‍यंग्‍य और न भय। एक प्रकार का विद्रूप था। ‘कहं काका कविराय’ के अंतर्गत काका हाथरसी की शैली में जो रेडियो जिंगल चलाए उनमें विपुल मात्रा में छल-छंद का निषेधी स्‍वर था और छंदों में भयंकर मात्रा-दोष। दूसरी तरफ़ ए आर रहमान की धुन पर पी. बलराम और सुखविंदर द्वारा गाए हुए, परसैप्‍ट कंपनी के अजय चौधरी द्वारा बनाए हुए ‘जय हो’ गीतों ने मन मोह लिया। चचा, पुराने ग्रामोफोन रिकॉर्डों में एक स्‍वागत गीत भी था— ‘राजीव का स्‍वागत करने को आतुर है ये सारा देश, प्रथम अमेठी करेगा स्‍वागत, बाद करेगा प्‍यारा देश।’इस गाने में ‘राजीव’ को ‘राजिव’ गाया गया था क्योंकि छंद में एक मात्रा बढ़ रही थी। अब राजीव के स्‍थान पर राहुल रख देंगे तो गायकी में बिलकुल ठीक आएगा, सनम गोरखपुरी के गीत में संशोधन किया जाना चाहिए।


—और ‘जय हो’ कौन्नै लिखौ?

—तुम्‍हारे इस चंपू की कलम काम में आई चचा। शब्दों का कुछ जोड़-घटाना सुखविंदर ने भी किया

—चल, अब ‘जय हो’ कौ नयौ अंतरा लिख, गुलजार के भतीजे।

Tuesday, May 26, 2009

‘टर्निंग पॉइंट’

प्रिय एवं आदरणीय मित्रो,

इन दिनों इंडिया हैबिटेट सैंटर द्वारा ‘टर्निंग पॉइंट’ नामक एक मासिक कार्यक्रम श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके अंतर्गत कला-संस्कृति क्षेत्र के दो प्रतिनिधि व्यक्तित्वों की श्रोताओं के सम्मुख बातचीत आयोजित की जाती है। इस सिलसिले को जारी रखते हुए भरतनाट्यम, सिनेमा एवं रूपंकर कलाओं के महत्वपूर्ण विद्वानों का संवाद आयोजित किया गया। उनके संवाद से उस विशेष कला-रूप की विकास यात्रा श्रोताओं के सामने आई, श्रोताओं ने भी बातचीत में भागीदारी की। इस बार डॉ. कन्हैयालाल नन्दन के साथ बात करने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया है।

इंडिया हैबिटेट सैंटर द्वारा बनाया गया निमंत्रण पत्र इस मेल के साथ संलग्न है। यदि दिल्ली में हों और समय मिले तो आइए। हिन्दी कविता की विकास यात्रा के कुछ नए पन्ने खुल सकते हैं और कुछ नए पन्ने आप भी जोड़ सकते हैं।

लवस्कार
अशोक चक्रधर


Friday, May 08, 2009

पोलियो ड्रॉप जैसा हो पोलिंग ड्रॉप

—चौं रे चम्पू! प्रचंड का ऐ रे?
—चचा, कुछ भी स्थाचयी रूप से प्रचंड नहीं है। न तो नेपाल में, न दिल्लीप में।
—नेपाल की तौ समझ में आई, पर दिल्ली् ते का मतलब ऐ?
—वहां प्रचंड प्रधानमंत्री नहीं रहे, यहां प्रचंड गर्मी नहीं रही।
—जे बात मानी!
—चचा कुछ भी स्थाधयी नहीं है। आज नेपाल में प्रचंड ने यह कहकर इस्तीनफा दे दिया कि मैं विदेशी तत्वोंी तथा प्रतिक्रियावादी बलों के दबाव में आकर सत्तास में रहने की बजाय इस्तीिफा देना पसंद करूंगा। अब सेना उनसे ज़्यादा प्रचंड हो सकती है, पर हम क्यों कुछ बोलें। भारत ने कह दिया कि ये उनका आंतरिक मामला है। हमारे लिए महत्वपूर्ण ये है कि यहां गर्मी ने बिना कुछ कहे अपनी प्रचंडता से इस्तीफ़ा दे दिया। राहत मिली। पर क्या, पता कल फिर प्रचंड हो जाए। मौसम का मिज़ाज किसने जाना?
—सही बात ऐ चंपू!
—चचा हमें बताया गया कि पिछले चुनाव-चरणों में गर्मी के कारण कम मतदान हुआ। कल देखते हैं, कितना प्रतिशत होता है। मेरे ख्यांल से तो गर्मी-सर्दी से कोई फ़र्क पड़ता नहीं है। वोट अंदर की गर्मी का मामला है। जो इसका अर्थ समझता है, उसके लिए मौसम का मारक मिजाज़ कोई मायने नहीं रखता।
—गल्तई बात। गरमी के मारै लंबी लाइन छोड़ गए कित्तेई मतदाता।
—तुम्हेंा क्यार मालूम चचा कि वे दुबारा आए या नहीं। जो एक बार लाइन में आ जाता है, आसानी से वापस नहीं जाता। पानी पी कर और राजनीति को कोस कर फिर आ जाता है। प्रत्‍याशियों में कोई पसंदीदा हो न हो, वोट डालता है। उंगली पर गीली स्या ही रखवाने के बाद सुखाने के लिए फूंक मारता है। उस निशान को देखकर ऐसा खुश होता है जैसे ब्यागह-शादी के मौके पर लड़कियां मेंहदी देख-देख कर सिहाती हैं। उसकी फूंक सही लग जाए तो तख्तोसताज बदल जाते हैं चचा! वोट डालना एक बहुत बड़ी राहत का एहसास देता है। एक सुकून देता है, जैसे पुराने ज़माने में पोस्ट -बॉक्स में प्रेम-पत्र डालने से मिला करता था। आप तो जानते हैं प्रेम गर्मी से ज़्यादा प्रचंड होता है। वोट डालना लोकतंत्र के प्रति हमारा इज़हार-ए-इश्कल है। हां, कुछ होते हैं जो वोट न डाल पाने के बाद कसमसा कर रह जाते हैं। उन्हींम के लिए फै़ज ने लिखा था— ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्ब त के सिवा’। किसी को रोज़गार के कारण बाहर जाना पड़ गया। किसी को किसी की तीमारदारी में लगना पड़ा। मतपेटी की याद रह रहकर सताती होगी, पर हालात के आगे मुहब्बीत हार जाती होगी। ऐसे लोगों को माफ़ कर दिया जाना चाहिए चचा। ठीक है न?
—बिरकुल गल्त बात। पांच सालन में एक दिना की बात ऐ। देस-प्रेम निजी-प्रेम ते बड़ौ होय करै। ऐसे लोगन कूं माफी नायं, सजा मिलनी चइऐ।
—एक तो ग़रीबी और गर्मी की मार, ऊपर से सज़ा और दे दो। दरअसल, ऐसे तरीके निकालने चाहिए कि जो जहां है, वहीं से अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके। मतपेटी की जगह जैसे अब वोटिंग मशीन आ गई है, उसी तरह आगे से वोटिंग मशीन की जगह नए माध्य मों का इस्तेटमाल किया जाए।



जैसे पोलियो ड्रॉप्स लेकर सरकारी कर्मचारी घर-घर जाते हैं, वैसे ही पोलिंग-ड्रॉप-बॉक्स लेकर हर मतदाता के पास जाया जाए। इंटरनेट और मोबाइल की मदद ली जाए। और आप जो कह रहे थे, कई देशों में वैसा विधान भी है। ऑस्ट्रेऔलिया में वोट न डालो तो फाइन लगता है। लेकिन ये सुविधा भी है कि कोई नागरिक यदि विदेश गया हुआ है तो वहां की एम्बेहसी में जाकर अपनी वोट डाल सकता है। अगले चुनाव तक हमारे देश में भी चुनाव सुधार होंगे चचा। हम सरकार इसीलिए बनाते हैं कि वह नागरिकों का पूरा ध्‍यान रखे। हमें सुख, सुविधा और सुरक्षा दे। पर यहां तो आधी आबादी के लिए दिन में दो रोटी के लाले पड़े हैं। रोज़गार और शिक्षा की दुकानों और अस्पहतालों पर उस आबादी के लिए ताले पड़े हैं। नंगे पैर जिसके पांवों में छाले पड़े हैं, अत्यांचार के मौसम में जिसके हाथ-पांव काले पड़े हैं, उसे कैसे समझ में आएगा तुम्हारी वोट का मतलब?
—सब बेकार की बात। बोट नायं डारैं, जाई मारै उनकी ऐसी हालत ऐ। वोट नायं डारी तौ और बुरी हालत है जायगी। सज़ा जरूरी ऐ।
—तुम भी प्रचंड हो गए चचा!

Tuesday, April 28, 2009

रास्‍ते नहीं फूटे रास्‍ते से ही फूट लिए

—चौं रे चम्पू! अधिकार का ऐ और कर्तब्य का ऐ, बता?

—ऐसी भारी-भरकम बात मत पूछो चचा! ऐसे अधिकारों को धिक्‍कार, जिनका कोई फल न मिले और ऐसे कर्तव्य बेकार, जिन पर ज़िन्दगी व्‍यय करने के बाद भी कोई पहचान न मिले।

—ऐसी मरी-मरी बुझी-बुझी बात! चम्‍पू तेरे म्‍हौं ते सोभा नायं दै रईं! जे तेरे ई बिचार ऐं का?

—मेरे नहीं हैं, पर समझो मेरे ही हैं, क्‍योंकि आजकल मैं युवा बनकर सोचने लगा हूं। ये आज के युवा के विचार हैं। चचा युवा-मन को समझने की बहुत कोशिश करता हूं । मेरा एक मन कहता है कि इन युवाओं की कर्तव्‍यहीनता और अधिकार-उदासीनता को तू सह मत और दूसरा मन कहता है कि फौरन सहमत हो जा। आंकड़े दिए जा रहे हैं कि इस समय भारतीय लोकतंत्र की निर्मिति युवाओं के हाथ में है। साड़े सतहत्तर करोड़ मतदाताओं में दस करोड़ मतदाता ऐसे होंगे जो पहली बार वोट डालेंगे, यानी ताज़ा-ताज़ा युवा। चउअन प्रतिशत मतदाता चालीस वर्ष से कम उम्र के हैं। इतने प्रतिशत मतदान हो जाए तो गनीमत समझी जाती है। यानी चचा, धुर जवानी अगर चालीस तक की मानी जाती है तो समझिए देश अब सचमुच युवाओं के हाथ में है।

—सवाल जे ऐ कै युवा कौनके हाथ में ऐं?

—किसी के हाथ में नहीं हैं। माता-पिता के होते हुए भी अनाथ जैसे भटक रहे हैं। अधेड़ अभिभावकों के आरोप हैं कि वे कन्‍फ्यूज़ हैं, दिग्‍भ्रमित हैं, भटक गए हैं। उनके सामने अब कोई आदर्श नहीं है। कल अख़बार पढ़ रहा था, वरिष्‍ठ मनोविज्ञानी अरुणा ब्रूटा कहती हैं कि आज के युवा को पता ही नहीं कि आदर्श का क्‍या मतलब है। जब युवाओं के आदर्श ही बिगड़े हुए हों और शॉर्टकट वाले लोग हों तो आप उनसे अधिक उम्‍मीद नहीं कर सकते। वरिष्‍ठ लेखक सुधीश पचौरी मानते हैं कि युवाओं के सामने अब आदर्श आईकॉन नहीं बनते, आइटम निर्मित होते हैं। युवा-वर्ग आइटमों से काम चलाता है, वह आईकॉनों को भूलने लगा है। आइटम भी अति चंचल और क्षणभंगुर! सिर्फ़ उतनी देर रहते हैं जितनी देर आप उन्‍हें उपभोग करें। वरिष्‍ठ पत्रकार विभांशु दिव्याल बहुत सारी चिंताएं गिनाने के बाद कहते हैं कि युवाओं की भूमिका और भागीदारी को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है। चिंता उनके सामने विकल्‍प प्रस्‍तुत करने की होनी चाहिए।

—तू अपनी बता!

—सन उन्नीस सौ उनहत्तर में अठारह साल का युवा हुआ करता था मैं। वह वर्ष गांधी की जन्‍मशती का वर्ष था। गांधी का आईकॉन दिल-दिमाग में ऐसा घुसा कि ‘बांह छाती मुंह छपाछप’ रगड़ूं धोऊं तो भी आज साफ नहीं होता। आज अठारह का बनकर देखता हूं तो पाता हूं कि गांधी करैंसी नोट पर आइटम बनाकर पेश किए जा रहे हैं। दो अक्तूबर ड्राई-डे होता है। उपभोक्‍तावादी दौर में गांधीगिरी थोड़ी देर रहती है और संजय दत्‍त की तरह सक्रिय राजनीति में शामिल होकर साफ हो जाती है। सन उन्नीस सौ उनहत्तर में ही मैंने मुक्तिबोध की एक किताब पढ़ी थी, जो मथुरा में सुधीश पचौरी ने दिल्ली से लाकर मुझे दी थी— ‘नई कविता का आत्‍मसंघर्ष’ । उसमें नई कविता का कम, युवा-मन का आत्‍मसंघर्ष अधिक था। मध्यवर्गीय युवा एक कदम रखता था तो सौ राहें फूटती थीं। कदम भले ही गांधी जी के कहने पर रखा हो, गौडसे के कहने पर रखा हो या मार्क्स के कहने पर, क़दम रखा जाता था। फिर सौ राहों के विकल्‍पों में बड़े-बड़े सिद्धांतों अथवा सिद्ध-अंतों से प्रभावित होता हुआ, कर्तव्‍य, अधिकार और विचार की राह पर चल पड़ता था। आज आलम ये है चचा कि सौ रास्‍ते सामने हैं पर नौजवान उन पर कदम रखने के बजाय उन रास्‍तों से ही फूट लेता है। चालीस साल पहले जो धांसू विकल्‍प आते थे, उन पर सोचने-विचारने का सुकून भरा समय होता था। आज इस उपभोक्‍तावादी आपाघापी में न तो युवाओं के पास सोचने का समय है और न उन्हें कोई विकल्‍प धांसू लगता है। ज्ञान और सूचनाओं की ऐसी बाढ़ आई है कि दिल और दिमाग के बांध टूट गए हैं। समस्‍या पहला कदम रखने की है।

—तौ बता नौजवान पहलौ कदम का रक्खैं?

—अपने मताधिकार का कर्तव्य की तरह पालन करें। वोट डालने ज़रूर जाएं। भले ही बाद में गाएं— ‘वोटर गारी देवे, पार्टी जी बचा लेवे, मतदान गेंदा फूल। प्रत्याशी छेड़ देवे, मीडिया चुटकी लेवे, मतदान गैंदा फूल।

Saturday, April 25, 2009

20वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी

हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी
20वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी

बहुत-बहुत फ़ास्ट पॉडकास्ट
मुख्य अतिथि :डॉ. निर्मला जैन, वरिष्ठ साहित्यकार
अध्यक्ष :श्री उदय प्रताप सिंह, वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजनेता
सम्मान :वरिष्ठ पत्रकार श्री आलोक मेहता को ‘जयजयवंती सम्मान
मुख्य-प्रस्तुति :‘बहुत बहुत फास्ट पॉडकास्ट’ श्री अभिषेक बक्शी, माइक्रोसॉफ़्ट
ब्लॉग-पाठ : श्री मुकेश कुमार, ‘देशकाल डॉट कॉम’

आप सादर आमंत्रित हैं।


अशोक चक्रधर
अध्यक्ष, जयजयवंती
(संयोजन)


राकेश पांडेय
संपादक, प्रवासी संसार
(व्यवस्था)

26 अप्रैल 2009 / रविवार / 6.30 चाय-कॉफी / 6:45 कार्यक्रम आरंभ
गुलमोहर सभागार, इंडिया हैबीटैट सैंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली






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Friday, April 24, 2009

हरी पेंसिल — पीली पेंसिल

—चौं रे चम्पू! प्यार ते मजबूत बंधन कौन सौ ऐ रे?
—चचा! जो लोग समझते हैं कि प्यार का बंधन सबसे मज़बूत होता है, वे मूर्ख हैं। प्यार तो किसी भी नखरीली गैल में रूठने के बाद टूट सकता है, पर एक बंधन होता है कृतज्ञता का, ये बंधन कभी नहीं टूटता। लेकिन…. ये बात कृतघ्नों पर एप्लाई नहीं होती चचा!
—कृतज्ञ कौन और कृतघ्न कौन?
—कृतज्ञ माने अहसानमंद और कृतघ्न माने अहसानफ़रामोश। एक होशमंदी का उदाहरण देता हूं कि कृतज्ञ होते हैं वोटर और कृतघ्न होते हैं नेता। वोट लेकर वोटर को भूल जाएं ऐसा दुर्गुण नेताओं में पाया जाता है। और वोटर को देखिए! जिसका खाओ उसकी गाओ, जिसका पियो उसके लिए जिओ। इन दिनों वोटर को खिलाने-पिलाने के सारे इंतज़ाम चल रहे हैं क्योंकि हमारे नेता जानते हैं कि खाने-पीने के बाद वोटर जान दे देगा पर अपनी आन नहीं छोड़ेगा।
जिसने अपने महान नेता के हाथ से सौ का नोट ले लिया, जिसके कुनबे ने दो जून की रोटी खा ली वो अप्रैल-मई में दगा थोड़े ही देगा। जिसने शराब पी ली वह कोई दूसरा बटन थोड़े ही दबाएगा। पोस्टमार्टम के बाद भी अगर उसका हाथ कहीं गिरेगा तो उसी बटन पर गिरेगा। और नेता लोग भी कृतघ्न भले ही हों, जान-बूझ कर तो ज़हरीली शराब बांटेंगे नहीं। ये तो बीच के आंसी-सांसी लोग हैं जो पच्चीस परसैंट से ज़्यादा मिथाइल एल्कोहल मिला देते हैं। नशीले कैप्सूल डाल देते हैं। वोटर पस्त! चक्कर, उलटी, दस्त! पीने वाले की कृतज्ञता देखिए कि पिलाने वाले का नाम तक नहीं बताता। उसे क्या मतलब कि पउए की थैली बांटने वाला ख़ुद रुपयों से थैली भरेगा। उसने पी ली है तो उसी की खातिर मरेगा। कोई नामबताऊ अर्ध-मुर्दा करवट भी लेने लगे तो पुलिस उसकी डंडा-डोली कर देती है।
—नामुराद पुलिस नै बंटाढार कद्दियौ।
—देखो चचा, मैं ज़िन्दा-मुर्दा कुछ भी बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन पुलिस की निन्दा नहीं। इतने भोले-सरल पुलिस वालों को कुछ न कहना। उनसे महान कौन होगा जो ड्यूटी करते हुए अपने शरीर तक की परवाह नहीं करते। कितनी तोंद बढ़ जाती है, आंखों के पपोटे फूल जाते हैं, हिलने तक में कई बार परेशानी आती है, फिर भी बड़े अफसर के आने पर खड़े होते हैं। इनकी कितनी ऊर्जा कृतज्ञ और कृतघ्नों के बीच संतुलन बनाने में खर्च होती है। पोस्टमार्टम के बाद कितनी ही विधवाओं ने चाहा कि शव को एक बार घर ले जाने दो पर पुलिस ने उनके पैसे बचवाए— नहीं, सीधे मुर्दघाट लेकर जाओ! फूंक दो!

अब इसमें बचा ही क्या है? चचा, हमारी बेचारी भोली पुलिस भूल जाती है कि फूंकने के बाद बचता है विधवा का वोट। विधवा की हाय लग जाय तो लोग पुलिस चौकी को फूंक डालते हैं। वोटरों ने राजौरी गार्डन पुलिस बूथ को फूंक दिया कि नहीं?
—जिन लोगन्नै जहरीली सराब कांड में पुलिस चौकी फूंकी वो कृतज्ञ ऐं कै कृतघ्न ऐं?
—चचा, मुझे कंफ्यूज़ करने की कोशिश मत करो। एक बात सोचो, अख़बार में छाप दिया कि ज़हरीली शराब से पन्द्रह मरे, तीस गम्भीर। मैं आपसे सवाल करता हूं कि क्या इस मुद्दे पर सिर्फ़ तीस लोगों के गम्भीर होने से बात बनेगी। सोचो चचा, सोचो! गम्भीरता से सोचो कि कितने लोगों की गम्भीरता चाहिए। एक पुलिस वाले ने मुझे बताया था कि चोरी, डकैती, कत्ल का अपराधी एक बार मौक़ा-ए-वारदात पर ज़रूर आता है, ये देखने के लिए कि कहीं उस पर तो शक नहीं जा रहा। इसी तरह दो दिन से नेता लोग झुग्गियों में जा-जा कर मरे हुए लोगों से हाल पूछ रहे हैं और मरीज़ों को श्मशान और कब्रिस्तान में सुविधाएं दिलाने का वादा कर रहे हैं।
—छोड़ इन बातन्नै! एक पार्टी कौ कार्यकर्ता जे दो पेंसिल दै गयौ ऐ। कित्ती अच्छी बात ऐ! तुम पढ़ौ-लिखौ जाके ताईं कैसौ भड़िया प्रतीकात्मक उपहार ऐ।
—वाह चचा! लाओ मुझे दो ये पेंसिल! इन पेंसिलों का पढ़ाई-लिखाई से कोई वास्ता नहीं है। जे. जे. कॉलोनी के कच्ची दारू के ठेके पर हरी पेंसिल के बदले महुआ से खिंची कच्ची शराब मिलेगी और पीली के बदले रम। उस कार्यकर्ता ने तुम्हें पेंसिल का महत्व नहीं बताया क्या? बैठो, मैं अभी लाया दो थैलियां। बगीची पर गिलास तो रखे हैं न? पी कर मर गए तो हरिद्वार में मिलेंगे, नहीं तो यहीं अगले बुधवार को।

Thursday, April 23, 2009

क्या सबसे पचनीय?

काजू ताजा नारियल, किशमिश और बदाम,
रोट बने अखरोट के, लीची ललित ललाम,
लीची ललित ललाम, बताओ क्या-क्या खाएं?
व्यंजन जो पच जायं, हमें तत्काल बताएं!
चक्र सुदर्शन, किस व्यंजन में कितना बूता,
सबसे जल्दी पचता, पत्रकार का जूता।

Wednesday, April 22, 2009

वोटर कित्ते प्रकार के

—चौं रे चम्पू! वोटर कित्ते प्रकार के होंय?
—चचा जिस तरह का हमारा लोकतंत्र है, उसमें वोट बड़ी बेतुकी-सी चीज़ हो गई है| वोटर भी बेतुका-सा बनकर रह गया है।
—का बात कर दई? हमारे महान लोकतंत्र के बारे में तेरे ऐसे बेतुके बिचार! मोय तोते ऐसी उम्मीद ना ईं रे।
—चचा मुझे अपने देश के लोकतंत्र पर बेहद गर्व है। मेरा विचार अगर आपको बेतुका लग रहा है तो चलिए तुक मिला देता हूं। वोट की जितनी भी तुकें हो सकती हैं, उतने ही प्रकार के वोटर होते हैं। शुरू करते हैं ओट से।

पहला वोटर होता है ओटर, जो ओट में रहता है। वोट डालने के नाम पर छिप जाता है इसलिए उसे खोज कर पोलिंग बूथ तक लाना पड़ता है। अगला खोटर, इसके मन में खोट होता है। खुंदक में किसी को भी वोट डाल सकता है। अगला वोटर है गोटर, जो दूसरों के लिए भी गोटियां बिछाता है। न केवल खुद वोट डालता है, बल्कि दूसरों से भी अपनी मनवांछित वोटें डलवाता है। नैक्‍स्‍ट घोटर! ये वाला वोटर बहुत घोटा लगाता है। मंथन करता है। किसे दूं? अंतिम क्षण तक निर्णय पर नहीं पहुंच पाता। जब तक उंगली पर नीला निशान नहीं लगता, तब तक वह निर्णय की ओर नहीं बढ़ता। उसका घोटन तभी समाप्त होता है, जब बटन दब जाता है।
—चुप्‍प चौं है गयौ? आगे बोल।
—तुकें तो सोचने दो चचा। एक होता है चोटर। जिसे बाहुबली पीट देते हैं, क्‍योंकि बाहुबलियों को पता चल जाता है कि वह किसे वोट डालने वाला है। ऐसे वोटर को छोटर भी कह सकते हैं, क्‍योंकि महान लोकतंत्र में वह पिद्दी-सा है, छोटा-सा है। एक और होता है— टोटर। वह टोटकों का शिकार होता है। गांव के मुखिया और सशक्‍त लोग उसे धमका देते हैं कि पट्ठे, अगर तूने हमारे उम्‍मीदवार को वोट नहीं डाला तो डायन-पिशाचिनी तेरा सर्वनाश कर देगी।
और चचा यह तो आप जानते हैं कि नोटर नामक वोटर जिससे नोट लेता है, उसी को वोट देता है। मोटर नामक वोटर तब तक घर से नहीं निकलता, जब तक कि कोई वाहन उसे लेने न आ जाए। एक होता है रोटर, जो एक वक्‍त की रोटी की लालच में ही आदेशानुसार बताए गए चुनाव चिह्न का बटन दबाता है। ओवरकोटर नामक वोटर सिर्फ रोटी से नहीं बहलता, उसे कंबल और ओवरकोट चाहिए। एक होता है लंगोटर, वह इस चिंता में वोट डालने चला जाता है कि कहीं नेता लोग उसका लंगोट भी छीन कर न ले जाएं। पेटीकोटर मानसिकता का कुंठित वोटर इसलिए बूथ तक आता है कि बूथ पर महिलाएं दिखाई देंगी। अगला विस्‍फोटर! यह पोलिंग-बूथ को मौका-ए-सनसनी-ए-जुर्म-ए-वारदात बना सकता हैं। कट्टा-तमंचा साथ लेकर जाता है। गलाघोटर भी इसी संप्रदाय का वोटर होता है। कचोटर वह वोटर है, जिसे वोट डालने के बाद उसकी आत्‍मा कचोटती रहती है। वह सोचता है कि कम्बख्‍़त जब तुझे अपने चुने हुए प्रतिनिधि को घटिया प्रदर्शन पर वापस बुलाने का अधिकार नहीं है तो चुनकर ही क्‍यों भेजता है? कुछ वोटर लोटपोटर होते हैं, जिनके लिए चुनाव एक प्रहसन अथवा हास्‍य नाटक है। अखरोटर किस्‍म के वोटर दरवाज़ा तोड़ने पर ही घर से निकलते हैं, जैसे—अखरोट की मेवा दम लगाकर तोड़ने से निकलती है। प्रमोटर नामक वोटर बुद्धिजीवी होता है, जो जन-जन को वोट की महत्ता समझाता है। उससे भी ऊंचे दर्जे का होता है पेट्रीयोटर। यह मताधिकार का प्रयोग करने में अपनी देश-भक्ति की सार्थकता समझता है। सपोटर और सपोर्टर किस्‍म के वोटर मूलत: नेताओं के पिछलग्‍गू होते हैं, जो वोट डालने से पहले जिसको सपोर्ट कर रहे होते हैं उसका माल सपोटने में संकोच नहीं करते। इनमें जो श्रेष्‍ठ होते हैं, उन्‍हें लोटमलोटर कहा जा सकता है। वे अपने प्रत्‍याशी के कैम्‍प में अहर्निश लोटमलोट मुद्रा में पाए जा सकते हैं। वे तामलोट भी अपने प्रत्‍याशी का ही प्रयोग में लाते हैं। एक होता है मिस्कोटर, जो लोकतंत्र के लिए एक मिस्‍ट्री है। बातें तो ऊंची-ऊंची करेगा, लेकिन अपने ऊंचे भवन से निकलेगा ही नहीं।
—सबते खराब बोटर कौन सौ ऐ रे?
—वह जो स्‍वयं प्रत्‍याशी भी है, और इसलिए खड़ा हुआ है ताकि जीतने के बाद नोंचखसोटर, अथवा लूटखसोटर बन सके।
—और सबते सानदार बोटर कौन सौ ऐ?
—सबसे शानदार है होता है डिवोटर। जो हर हालत में वोट डालने जाता है। आंधी हो, तूफ़ान हो, कैसा भी व्यवधान हो, सम्मान हो या असम्मान हो, कितना ही म्लान हो, कितनी ही थकान हो और भले ही लहूलुहान हो वह चाहता है कि उसका मतदान हो और उँगली पर लोकतंत्र की स्याही का निशान हो। चचा, ऐसे डिवोटर वोटर का जयगान हो।

Thursday, April 16, 2009

चक्र सुदर्शन / विरह और मिलन

मिलन कामना उर बसी, फिर क्यों बिछुड़े नाथ?
बस कुछ दिन की दुश्मनी, फिर मिलाएंगे हाथ।
फिर मिलाएंगे हाथ, अभी नकली तलाक है,
वोटर को फुसलाना, क्या कोई मज़ाक है!
चक्र सुदर्शन, कुछ दिन का है रोल विलन का,
बिना विरह के बोलो क्या आनंद मिलन का!

Friday, January 23, 2009

नायक, खलनायक और दखलनायक

—चौं रे चम्पू! समाज के सच्चे नायक कब सामने आमिंगे रे?
—सच्चे नायक अपने आप कभी आगे नहीं आते चचा, आगे लाए जाते हैं। अपने आप आगे आते हैं खलनायक।
—तौ राज खलनायकन कौ ऐ?
—नहीं चचा, लोकतंत्र में खलनायक कभी राज नहीं कर सकते।
—कमाल ऐ? नायक आगे नायं आमैं, खलनायक राज नायं कर सकैं, फिर राज-काज कौन चलाय रह्यौ ऐ?
—वो एक तीसरी प्रजाति है चचा। न नायक, न खलनायक, वे हैं दखलनायक। ये दखलनायक हमेशा दखल देते हैं। नायक और खलनायक आगे न आ जाएं, इसलिए दखल देते हैं। बात थोड़ी उलझी हुई सी लग सकती है चचा।
—तू सुलझाय दै।
—चचा, सब जानते हैं कि खलनायक मूर्ख और अहंकारी होता है। उस पर तरस आता है। अपनी झूठी अकड़ और बड़बोलेपन के कारण उस पर हंसी भी आती है। लोग उससे डरते और किनारा करते हैं। लेकिन सब जानते हैं कि उसे एक न एक दिन मरना है। और खलनायक सदियों से मरते आ रहे हैं। उनके मरने पर खुशियां मनाई जाती हैं। चचा, ये दखलनायक, खलनायक से ज़्यादा ख़तरनाक होता है, क्योंकि, न तो अहंकारी होता है और न ही मूर्ख। न राक्षसी अट्टहास करता है और न बड़बोला होता है। ये सारे काम नेपथ्य में करता है। पर्दे के पीछे। इसका सबसे पहला काम होता है नायकों की काट करना। चचा, नायक और खलनायक दोनों भोले होते हैं। अंतर इतना ही है कि खलनायक अहंकारी होता है और नायक स्वाभिमानी। नायक समर्पण और निष्ठा के साथ जनहित में काम करता है। खलनायक निजिहित में मनमानी। दोनों के द्वारा किए गए कार्यों के परिणाम साफ दिखाई देते हैं। नायक काम का दिखावा नहीं करता। वह श्रेय भी नहीं चाहता पर एक चीज़ उसे सहन नहीं हो पाती।
—वो कौन सी चीज?
—वो ये कि कोई उसके काम पर उंगली उठाए। यही उससे सहन नहीं होता। और इन दखलनायकों का काम उंगली उठाना ही होता है। पर दखलनायक चालाक होते हैं, वे उसके सामने उंगली नहीं उठाते। महाप्रभुओं को एकांत में उसके बारे में उल्टी सूचनाएं देते हैं। उदाहरण के लिए चचा, हमारे देश में ज्ञान की जितनी परीक्षाएं होती हैं उनमें सबसे कठिन मानी जाती हैं प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाएं, जैसे आई.ए.एस. की परीक्षा। इस देश को आई.ए.एस, आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. ही चला रहे हैं। जो इन परीक्षाओं में टॉप करे उसे नायक माना जा सकता है। लेकिन, एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इन परीक्षाओं के जितने भी टॉपर हैं वे किसी न किसी कारण से निरंतरता में प्रशासनिक सेवाएं नहीं दे पाए, त्याग-पत्र देते रहे। टॉपर नायकों के सामने स्टॉपर दखलनायक भारी पड़ते रहे। अच्छा-सच्चा और ज्ञानी नायक अपनी स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कारण आगे नहीं आ पाता चचा। आगे आते हैं कामचोर, आंकड़ों का जमावड़ा दिखाकर प्रभावित कर लेने वाले चाटुकार। ये अपने अधीनस्थों को दबाते हैं और उच्च-पदस्थों के आगे सिर नवाते हैं। नायक न दबता हैं न दबाता है। खलनायक मारा जाता है। दखलनायक राजकाज चलाता है। समझे!
—दखलनायक के प्रभाव में महाप्रभु चौं आ जायं रे?
—क्योंकि नायक और महाप्रभु में सीधा-संवाद प्राय: नहीं होता। जहां-जहां महाप्रभु नायकों की पहचान रखते हैं, वहां काम अच्छा होता है, लेकिन हमारे देश के महाप्रभु या तो अंधे हैं या फिर उनके भी अपने धंधे हैं। वे नायकों की उपेक्षा करते हैं।
—ऐसौ चौं भइया?
—महाप्रभु ‘ना’ सुनना पसंद नहीं करते और नायक हर बात के लिए ‘हां’ नहीं करता। दखलनायक के पास महाप्रभुओं के लिए ‘हां’ के अलावा और कुछ नहीं होता और अपने अधीनस्थों के लिए ‘ना’ के अलावा कुछ नहीं होता। दखलनायक बिचौलिए होते हैं। सीमित ज्ञान से असीमित उपलब्धियां यही लोग प्राप्त कर सकते हैं। ये घर के भेदिए होते हैं, सब जानते हैं। इन्हीं का हर क्षेत्र में हस्तक्षेप होता है और शासन-प्रशासन पर इन्हीं का आधिपत्य चलता है। ‘दखल’ शब्द उर्दू का है और इसके यही दोनों अर्थ हैं— हस्तक्षेप और आधिपत्य। उदाहरण दे कर समझाता हूं— अगर हम कहें कि किसी के काम में दखल मत दो तो इसका अर्थ हुआ ‘हस्तक्षेप मत करो’ और अगर कहें कि इस भूमि पर किसका दखल है तो अर्थ होगा, ‘किसका आधिपत्य है’। दखलनायक नायक के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं और सत्ता-अधिग्रहण करके आधिकारिक तौर पर आधिपत्य जमा लेते हैं।
—चम्पू! भासा में तेरी दखलंदाजी ते मोय बड़ौ मजा आवै।

Tuesday, January 20, 2009

हाय असत्यम

सत्यम के संग शिव नहीं, शिव संग सुन्दर नाहिं,
धन अंसुअन की झील में, शेयर पड़े कराहिं।
शेयर पड़े कराहिं, बचा नहिं एक अधन्ना,
बजे तड़पती ताल, ताक धन धन धन धन्ना।
चक्र सुदर्शन, हवस खोपड़ी करती धम धम,
हाय असत्यम, हाय असत्यम, हाय असत्यम।

Tuesday, January 06, 2009

कटाई छंटाई बुरशाई कुतराई की चतुराई

—चौं रे चम्पू! फसल कटाई-छंटाई के अबसर पै गाम में दस-पंद्रै कबीन कूं लै कै एक अखिल भारतीय कविसम्मेलन करायं तौ कित्ते पइसा लगिंगे?
—चचा, भूल जाओ अखिल भारतीय। लाख-दो-लाख से कम में नहीं होते आजकल कविसम्मेलन।
—अच्छा! इत्ते रुपइया! इत्ते की तो फसल ऊ न होयगी। टैक्टर गिरवी धरनौ पड़ैगौ।
मैंनै सोची दो-तीन हजार में है जायगौ। संग में देसी घी के साग-पूरी की दावत और रायते में सन्नाटौ कर दिंगे। चल पांच हज़ार सई। बस कौ किरायौ अलग ते।
—अखिल पंचायती कविसम्मेलन भी नहीं होगा चचा। ऐसा करो, मेरा एकल काव्य-पाठ रख लो। फोकट-फण्ड में। गन्ने का रस पिला देना और ताज़ा गुड़ खिला देना।
—अरे हट्ट रे! तेरी कौन सुनैगौ? कबियन की लिस्ट में छंटनी कर लिंगे। तब तौ है जायगौ?
—तुम्हें भी छंटनी की महानगरीय बीमारी लग गई चचा।
—चल छोड़ कविसम्मेलन! खिच्चू आटे वारे के चेला रसिया गा दिंगे। तू छंटनी की बता।
—बड़ी-बड़ी कम्पनियां वैश्विक मंदी के नाम पर मोटी और छोटी-मोटी तनख़्वाह वाले कर्मचारियों को धकाधक निकाल रही हैं। महानगरों में नौकरी के भरोसे भारी कर्ज़ लेकर गुलछर्रे उड़ाने वाले नौजवानों में हड़कम्प मच गया है। छंटनी की तलवार हर किसी पर लटकी हुई है। तुम कटाई-छंटाई का उल्लास मनाना चाहते हो और महानगरों में कटाई-छंटाई का मातम चल रहा है। जो छंटनी से बच गए उनकी कटाई चल रही है। तनख़्वाह, पैंशन और इन्क्रीमैंट में कटाई। ग्रामीण और शहरी संस्कृति में यही अंतर है चचा! गांव में खुशी के कारण शहर तक आते-आते दुःख के कारण बन जाते हैं। छंटनी शब्द वैसे आया गांव से ही है।
—सुद्ध भासा में कहते तौ का कहते?
—उसको कहते कृंतन या कर्तन। जैसे वाल काटने-छांटने वाले कई भाइयों ने दुकान के आगे लिखवा रखा है ‘केश कर्तनालय’। जब से इन दुकानों पर केश के साथ फेस पर भी काम होने लगा तब से सब के सब ब्यूटी पार्लर हो गए हैं। जो एग्ज़िक्यूटिव हर हफ्ते ब्यूटी पार्लर जाया करते थे उन्होंने अपने बजट में कटाई करते हुए पार्लर जाना बन्द कर दिया। वहां बटुआ कर्तन होता था। चचा, एक शब्द और है— बुरशाई। मुद्रण जगत के लोग जानते हैं कि किताबों की बाइंडिंग के बाद बुरशाई की जाती है। बुरशाई, कटिंग मशीन पर कागज़ को बहुत मामूली सा काटने की प्रक्रिया को कहते हैं। आड़े-तिरछे निकले हुए फालतू कागज़ कट कर इकसार हो जाते हैं। किताब चिकनी कटी हाथ में आती है। कुछ कम्पनियों ने छंटाई की जगह अपने खर्चों में बुरशाई शुरू की है। ये ठीक है! आदमी मत निकालो, फालतू के खर्चे कम करो। कई एयरलाइंस कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों को बिज़नेस क्लास की जगह इकॉनोमी क्लास में सफर करने की हिदायत दी हैं। कुछ कहती हैं कि जाते क्यों हो, टेलिकांफ्रैंसिंग से काम चलाओ। यात्रियों के नाश्ते-पानी में भी कतराई-बुरशाई हुई है। कुछ सॉफ्टवेयर कम्पनियों ने कर्मचारियों को फोकट की चाय-कॉफी पिलाना बंद कर दिया है। फालतू की फोटोकॉपी बाज़ी और कम्प्यूटर-प्रिंटर के इस्तेमाल में चतुराई से कुतराई की है।
—कुतराई?
—हां चचा! कम्पनी के मालिकों की चेतना जब चूहों से मेल खाए तो वे अपने खर्चों को कुतरने लगते हैं। एक आइडिया है, आप तो जानते हैं कि कविता का जन्म करुणा से होता है। जिनकी पिछले दिनों छंटनी हुई है वे ज़रूर कवि बन चुके होंगे। एक छंटनीग्रस्त कवियों का सम्मेलन करा लीजिए। करना ये होगा कि बस एक-एक पोस्टर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के दरवाज़े के बाहर लगा दिया जाए, जिस पर लिखा हो— ’छंटनीग्रस्त कवियों को कविता-पाठ का खुला निमंत्रण’। दस-बीस नहीं हज़ारों में मिलेंगे। बड़ी-बड़ी दर्दनाक, मर्मस्पर्शी कविताओं का मौलिक सृजन सामने आएगा। नाम रखेंगे ‘कटाई-छंटाई-बुरशाई कुतराई कविसम्मेलन’। अखिल भारतीय कविसम्मेलन के नाम पर होने वाले लतीफा सम्मेलनों से भी मुक्ति मिलेगी। कैसी रही?
—तौ जे बता, मैं अब पांच हजार में ते कित्ते की कटाई-छंटाई-बुरशाई-कुतराई की चतुराई दिखाऊं?

Sunday, January 04, 2009

17वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी



17वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी
हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी
मीडिया में भाषा और तकनीक

अध्यक्ष : श्री शरद दत्त, वरिष्ठ मीडियाकर्मी
सम्मान : वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक को 'जयजयवंती सम्मान'
एवं उनके कम्प्यूटर पर हिन्दी सॉफ्टवेयर 'सुविधा'
लोकार्पण : डॉ. स्मिता मिश्र एवं डॉ. अमरनाथ 'अमर' द्वारा लिखित
'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : बदलते आयाम'
मुख्य-प्रस्तुति : श्री पंकज पचौरी, वरिष्ठ मीडियाकर्मी, एन.डी.टी.वी.
ब्लॉग-पाठ : श्रीमती वर्तिका नंदा एवं श्री पवन दीक्षित

आप सादर आमंत्रित हैं।
अशोक चक्रधर
अध्यक्ष, जयजयवंती
(संयोजन) 26941616

राकेश पांडेय
संपादक, प्रवासी संसार
(व्यवस्था) 9810180765

11 जनवरी 2009 / रविवार
सायं 6.15 से चाय-कॉफी / 6.30 कार्यक्रम आरंभ
गुलमोहर सभागार, इंडिया हैबीटैट सैंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली
संरक्षक : श्री गंगाधर जसवानी एवं पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर (मंत्री, चित्र कला संगम)