Wednesday, May 27, 2009

जय हो की जयजयकार

—चौं रे चम्‍पू! ‘जय हो’ की जयजयकार कैसे भई रे?

—‘जय हो’ की जयजयकार हमेशा हुई है चचा! कोई नई बात नहीं है। ‘जय हो’ भारत की पुरानी भावना है। ऐसा आशीर्वाद है, जो बड़ों ने छोटों को दिया और छोटों ने बड़ों को। ‘महाराज की जय हो’ से लेकर जनतंत्र की ‘जय हो’ तक जनता अपनी शुभेच्‍छाएं सदियों से व्‍यक्त करती आ रही है।

—हम तौ कांग्रेस की ‘जय हो’ की बात कर रए ऐं!

—वही तो बता रहा हूं। मैंने कांग्रेस के प्रचार के लिए अतीत में बनाए गए आठ गाने सुने। भला हो सुमन चौरसिया का, जिन्‍होंने अपने ‘ग्रामोफोन रिकार्ड संग्रहालय’ से मुझे ये गीत उपलब्‍ध कराए। सब गानों में किसी न किसी रूप में ‘जय हो’ या ‘जयजयकार’ शब्‍दों का या भाव का प्रयोग किया गया था। आशा भोंसले और महेन्‍द्र कपूर की आवाज में एक गीत था— ‘नेहरू की सरकार रहेगी, हिंद की जयजयकार रहेगी।’ इस गाने में एक पंक्ति आती है— ‘अपने दिल की बात सुनेंगे, जिसे चुना था उसे चुनेंगे।’
आप देखिए, पंद्रहवीं लोकसभा के चुनावों में भी अधिकांश मतदाताओं ने दिल की बात सुनी। क्षेत्रीयता के बिल में रहने वाले जीवधारियों को जनता ने कमोवेश नकार दिया। शंकर जयकिशन के संगीत और रफी के स्वर में, क़ाज़ी सलीम के एक गाने का मुखड़ा था— ‘कभी न टूट पाएगा ये उन्‍नति का सिलसिला, ये वक्‍त की पुकार है कि कांग्रेस की जय हो।

’ आशा, मन्‍ना डे, महेन्‍द्र कपूर और मुकेश जैसे महान गायकों ने ये गीत गाए थे। शंकर जयकिशन के ही संगीत में हसरत जयपुरी का लिखा हुआ और मुकेश द्वारा गाया हुआ एक गीत है— ‘भेद है, न भाव है, ये प्‍यार का चुनाव है, कांग्रेस की जय हो, कांग्रेस की जय हो।’ इस गाने में आगे कहा गया है— ‘जीतनी हैं मंज़िलें, दूर की हैं मुश्किलें, हर जगह सजाई हैं, तरक्कियों की महफ़िलें।’ चचा, गाने में यह नहीं कहा गया कि ‘जीत ली हैं मंज़िलें’। ऐसा नहीं कि इंडिया शाइनिंग हो गया, अब फील्गुड करो भैया। प्रचार में बड़बोलापन और अहंकार हमारी जनता को कभी नहीं पचा। न तो अहंकार चाहिए और न सोच में नकार। कांग्रेस के ‘जय हो’ गीतों में न तो कोई बड़बोलापन था और न कोई नकारात्‍मकता। प्रचार की कमान संभाले हुए आनंद शर्मा, दिग्विजय सिंह, जयराम रमेश और विश्वजीत ने श्रेय आम आदमी को दिया और उसके हर बढ़ते कदम से भारत की बुलंदी की उम्‍मीद जगाई।

—उल्‍टी बात, बोलिबे वारे पै उल्‍टी पड़ौ करै भैया!

—हां चचा, आज़ाद भारत में अब तक के चुनाव प्रचारों का ये इतिहास है कि जिस भी दल ने नकारात्‍मक अभियान चलाया, वह जीत नहीं पाया। कांग्रेस ने भी एक बार ऐसा किया और उन्‍हें हार का सामना करना पड़ा था। गाना था— ‘हिंदू, मुस्लिम, सिक्‍ख, ईसाई से ना जिनको प्‍यार है, वोट मांगने का ऐसे ही लोगों को अधिकार है।’
गाने में दूसरी पार्टियों पर व्‍यंग्‍य था कि विरोधी झूठ बोलते हैं, उन्‍हें कुर्सी का रोग है और उन्‍हीं के कारण देश बीमार है। बात भले ही सही रही हो पर जनता को नहीं पची। इधर भाजपा के प्रचार को देख लीजिए, ‘जय हो’ का ‘भय हो’ करके क्‍या संदेश दिया? न तो हास्‍य था, न व्‍यंग्‍य और न भय। एक प्रकार का विद्रूप था। ‘कहं काका कविराय’ के अंतर्गत काका हाथरसी की शैली में जो रेडियो जिंगल चलाए उनमें विपुल मात्रा में छल-छंद का निषेधी स्‍वर था और छंदों में भयंकर मात्रा-दोष। दूसरी तरफ़ ए आर रहमान की धुन पर पी. बलराम और सुखविंदर द्वारा गाए हुए, परसैप्‍ट कंपनी के अजय चौधरी द्वारा बनाए हुए ‘जय हो’ गीतों ने मन मोह लिया। चचा, पुराने ग्रामोफोन रिकॉर्डों में एक स्‍वागत गीत भी था— ‘राजीव का स्‍वागत करने को आतुर है ये सारा देश, प्रथम अमेठी करेगा स्‍वागत, बाद करेगा प्‍यारा देश।’इस गाने में ‘राजीव’ को ‘राजिव’ गाया गया था क्योंकि छंद में एक मात्रा बढ़ रही थी। अब राजीव के स्‍थान पर राहुल रख देंगे तो गायकी में बिलकुल ठीक आएगा, सनम गोरखपुरी के गीत में संशोधन किया जाना चाहिए।


—और ‘जय हो’ कौन्नै लिखौ?

—तुम्‍हारे इस चंपू की कलम काम में आई चचा। शब्दों का कुछ जोड़-घटाना सुखविंदर ने भी किया

—चल, अब ‘जय हो’ कौ नयौ अंतरा लिख, गुलजार के भतीजे।

Tuesday, May 26, 2009

‘टर्निंग पॉइंट’

प्रिय एवं आदरणीय मित्रो,

इन दिनों इंडिया हैबिटेट सैंटर द्वारा ‘टर्निंग पॉइंट’ नामक एक मासिक कार्यक्रम श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके अंतर्गत कला-संस्कृति क्षेत्र के दो प्रतिनिधि व्यक्तित्वों की श्रोताओं के सम्मुख बातचीत आयोजित की जाती है। इस सिलसिले को जारी रखते हुए भरतनाट्यम, सिनेमा एवं रूपंकर कलाओं के महत्वपूर्ण विद्वानों का संवाद आयोजित किया गया। उनके संवाद से उस विशेष कला-रूप की विकास यात्रा श्रोताओं के सामने आई, श्रोताओं ने भी बातचीत में भागीदारी की। इस बार डॉ. कन्हैयालाल नन्दन के साथ बात करने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया गया है।

इंडिया हैबिटेट सैंटर द्वारा बनाया गया निमंत्रण पत्र इस मेल के साथ संलग्न है। यदि दिल्ली में हों और समय मिले तो आइए। हिन्दी कविता की विकास यात्रा के कुछ नए पन्ने खुल सकते हैं और कुछ नए पन्ने आप भी जोड़ सकते हैं।

लवस्कार
अशोक चक्रधर


Friday, May 08, 2009

पोलियो ड्रॉप जैसा हो पोलिंग ड्रॉप

—चौं रे चम्पू! प्रचंड का ऐ रे?
—चचा, कुछ भी स्थाचयी रूप से प्रचंड नहीं है। न तो नेपाल में, न दिल्लीप में।
—नेपाल की तौ समझ में आई, पर दिल्ली् ते का मतलब ऐ?
—वहां प्रचंड प्रधानमंत्री नहीं रहे, यहां प्रचंड गर्मी नहीं रही।
—जे बात मानी!
—चचा कुछ भी स्थाधयी नहीं है। आज नेपाल में प्रचंड ने यह कहकर इस्तीनफा दे दिया कि मैं विदेशी तत्वोंी तथा प्रतिक्रियावादी बलों के दबाव में आकर सत्तास में रहने की बजाय इस्तीिफा देना पसंद करूंगा। अब सेना उनसे ज़्यादा प्रचंड हो सकती है, पर हम क्यों कुछ बोलें। भारत ने कह दिया कि ये उनका आंतरिक मामला है। हमारे लिए महत्वपूर्ण ये है कि यहां गर्मी ने बिना कुछ कहे अपनी प्रचंडता से इस्तीफ़ा दे दिया। राहत मिली। पर क्या, पता कल फिर प्रचंड हो जाए। मौसम का मिज़ाज किसने जाना?
—सही बात ऐ चंपू!
—चचा हमें बताया गया कि पिछले चुनाव-चरणों में गर्मी के कारण कम मतदान हुआ। कल देखते हैं, कितना प्रतिशत होता है। मेरे ख्यांल से तो गर्मी-सर्दी से कोई फ़र्क पड़ता नहीं है। वोट अंदर की गर्मी का मामला है। जो इसका अर्थ समझता है, उसके लिए मौसम का मारक मिजाज़ कोई मायने नहीं रखता।
—गल्तई बात। गरमी के मारै लंबी लाइन छोड़ गए कित्तेई मतदाता।
—तुम्हेंा क्यार मालूम चचा कि वे दुबारा आए या नहीं। जो एक बार लाइन में आ जाता है, आसानी से वापस नहीं जाता। पानी पी कर और राजनीति को कोस कर फिर आ जाता है। प्रत्‍याशियों में कोई पसंदीदा हो न हो, वोट डालता है। उंगली पर गीली स्या ही रखवाने के बाद सुखाने के लिए फूंक मारता है। उस निशान को देखकर ऐसा खुश होता है जैसे ब्यागह-शादी के मौके पर लड़कियां मेंहदी देख-देख कर सिहाती हैं। उसकी फूंक सही लग जाए तो तख्तोसताज बदल जाते हैं चचा! वोट डालना एक बहुत बड़ी राहत का एहसास देता है। एक सुकून देता है, जैसे पुराने ज़माने में पोस्ट -बॉक्स में प्रेम-पत्र डालने से मिला करता था। आप तो जानते हैं प्रेम गर्मी से ज़्यादा प्रचंड होता है। वोट डालना लोकतंत्र के प्रति हमारा इज़हार-ए-इश्कल है। हां, कुछ होते हैं जो वोट न डाल पाने के बाद कसमसा कर रह जाते हैं। उन्हींम के लिए फै़ज ने लिखा था— ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्ब त के सिवा’। किसी को रोज़गार के कारण बाहर जाना पड़ गया। किसी को किसी की तीमारदारी में लगना पड़ा। मतपेटी की याद रह रहकर सताती होगी, पर हालात के आगे मुहब्बीत हार जाती होगी। ऐसे लोगों को माफ़ कर दिया जाना चाहिए चचा। ठीक है न?
—बिरकुल गल्त बात। पांच सालन में एक दिना की बात ऐ। देस-प्रेम निजी-प्रेम ते बड़ौ होय करै। ऐसे लोगन कूं माफी नायं, सजा मिलनी चइऐ।
—एक तो ग़रीबी और गर्मी की मार, ऊपर से सज़ा और दे दो। दरअसल, ऐसे तरीके निकालने चाहिए कि जो जहां है, वहीं से अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके। मतपेटी की जगह जैसे अब वोटिंग मशीन आ गई है, उसी तरह आगे से वोटिंग मशीन की जगह नए माध्य मों का इस्तेटमाल किया जाए।



जैसे पोलियो ड्रॉप्स लेकर सरकारी कर्मचारी घर-घर जाते हैं, वैसे ही पोलिंग-ड्रॉप-बॉक्स लेकर हर मतदाता के पास जाया जाए। इंटरनेट और मोबाइल की मदद ली जाए। और आप जो कह रहे थे, कई देशों में वैसा विधान भी है। ऑस्ट्रेऔलिया में वोट न डालो तो फाइन लगता है। लेकिन ये सुविधा भी है कि कोई नागरिक यदि विदेश गया हुआ है तो वहां की एम्बेहसी में जाकर अपनी वोट डाल सकता है। अगले चुनाव तक हमारे देश में भी चुनाव सुधार होंगे चचा। हम सरकार इसीलिए बनाते हैं कि वह नागरिकों का पूरा ध्‍यान रखे। हमें सुख, सुविधा और सुरक्षा दे। पर यहां तो आधी आबादी के लिए दिन में दो रोटी के लाले पड़े हैं। रोज़गार और शिक्षा की दुकानों और अस्पहतालों पर उस आबादी के लिए ताले पड़े हैं। नंगे पैर जिसके पांवों में छाले पड़े हैं, अत्यांचार के मौसम में जिसके हाथ-पांव काले पड़े हैं, उसे कैसे समझ में आएगा तुम्हारी वोट का मतलब?
—सब बेकार की बात। बोट नायं डारैं, जाई मारै उनकी ऐसी हालत ऐ। वोट नायं डारी तौ और बुरी हालत है जायगी। सज़ा जरूरी ऐ।
—तुम भी प्रचंड हो गए चचा!