Wednesday, June 17, 2009

विश्वास है कि चमत्कार घटित होगा

—चौं रे चम्पूत! तन के कांटे तौ सब जानैं, तू मन के कांटे बता?
—वो तो हर मन ने अपने लिए अलग-अलग छांटे, लेकिन दुःख अगर बांटा जाए तो निकल जाते हैं सारे कांटे। संस्कृत के एक श्लोक का भाव ध्यान आ रहा है, जिसमें सामंती दौर के उस कवि ने अपने मन के सात कांटे बताए थे। पहला— दिन में शोभाहीन चन्द्रमा, दूसरा— नष्टयौवना कामिनी, तीसरा— कमलविहीन सरोवर, चौथा— मूर्खता झलकाता मुख, पांचवां— धनलोलुप राजा, छठा— दुर्गतिग्रस्त सज्जन और सातवां— राजदरबार में पहुंच रखने वाला दुष्ट।
—तू तौ अपनी धारना बता!
—सब कुछ विपरीत है। मैं अपनी कल्पना में देख रहा हूं कि राजदरबार से दुष्टों की छंटाई शुरू हो चुकी है। सज्जन की टिकिट भले ही कट गई हो पर दुर्गतिग्रस्त नहीं हैं। जिनका शासन है वे अभी धनलोलुप नहीं हैं। मूर्खता झलकाने वाले मुखों को पिछवाड़े का रास्ता दिखाया जा रहा है। सरोवर में पानी ही नहीं है, कमलविहीन होने की तो बात क्या करें! नष्टयौवना कामिनियों के लिए बाज़ार सौन्दर्य-प्रसाधनों से अटे पड़े हैं। रही बात दिन में शोभाहीन चन्द्रमा की, तो चचा, मैंने पिछले दिनों रात में पूर्णिमा का चन्द्रमा शोभाहीन देखा था। दुष्ट चन्द्रमा, व्हाइट टाइगर जैसा खूंख़ार था। तीन कवियों का शिकार करके वो ले गया उन्हें यादों की मांद में। हां! आकाश से बादलों को भेदता, पाण्डाल को छेदता, मंच पर सीधा झपट्टा मारता है, इतनी ताकत है चांद में। ले गया उन्हें यादों की मांद में। चचा! भरोसा करना, बेतवा महोत्सव के कविसम्मेलन वाली रात मुझे पूर्णिमा का चन्द्रमा बिल्कुल नहीं सुहा रहा था। कविसम्मेलन प्रारंभ हुआ तब वह मंच के बाएं किनारे पर था, नीरज पुरी के ठीक ऊपर, और जब कविसम्मेलन समाप्त हुआ तो वह दाहिनी ओर कविवर ओम प्रकाश आदित्य के ऊपर दिख रहा था।


तेरह कवियों में से उसने तीन को झपट्टा मार कर ऊपर उठा लिया।
—पूनम कौ चंदा तौ समन्दर में लहरन्नै उठाय देय। ज्वार आ जायौ करै ऐ लल्ला।
—और ज्वार के बाद भोरपूर्व अंधियारे में जो भाटा आया, वह तो कविसम्मेलन जगत का बहुत घाटा कर गया। दिन का चन्द्रमा नहीं चचा, रात का चन्द्रमा शूल सा चुभा। स्थान-स्थान पर शोक सभाएं हो रही हैं। अख़बारों और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के पास भले ही इनके लिए अधिक स्पेस न हो, पर जिस विराट श्रोता समुदाय ने इन्हें वर्षों से सुना है, उनके दिल रो रहे हैं। प्रदीप चौबे बता रहे थे कि बैतूल में नीरज पुरी की अंत्येष्टि में पूरा शहर शरीक़ था। शाजापुर के उस गांव की आबादी चार हज़ार भी नहीं है, जहां लाड़ सिंह गूजर रहते थे, लेकिन उन्हें अंतिम प्रणाम करने के लिए पांच हज़ार लोग आए।


कविवर ओम प्रकाश आदित्य की अंत्येष्टि मालवीय नगर में इतनी जल्दी हो गई कि लोगों को पता ही नहीं चल पाया। फिर भी मोबाइल एसएमएस सन्देशों के माध्यम से दिल्ली के कविता प्रेमी अंतिम विदाई के लिए पहुंचे। महानगर से ज़्यादा उम्मीदें की भी नहीं जा सकतीं चचा, पर हर तरफ़ लोग अन्दर से दुखी हैं।
—ओम व्यास के का हाल ऐं रे?
—मामूली ही सही, पर सुधार है। भोपाल से एयर एम्बुलेंस द्वारा उन्हें दिल्ली के अपोलो अस्पताल में लाया गया। डॉ. ए. के. बनर्जी और डॉ. सोहल की निगरानी में हैं। भोपाल के डॉ. अशोक मस्के, डॉ. मृदुल शाही और डॉ. दीपक कुलकर्णी, जिन्होंने प्रारंभिक उपचार किया था, निरंतर सम्पर्क में हैं। मध्य प्रदेश शासन ने घोषणा की है कि इलाज का सारा ख़र्च दिया जाएगा। दिल्ली सरकार ने भी महत्वपूर्ण सुविधाएं अपोलो अस्पताल में दिलाई हैं। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री, कवि के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं। उज्जैन में हज़ारों लोग अपनी-अपनी तरह से शुभकामनाओं का प्रसार कर रहे हैं। वहां के पुलिस अधीक्षक पवन जैन जो स्वयं कवि हैं, हर घण्टे ख़बर ले रहे हैं और दे रहे हैं। सिर में बेहद गम्भीर चोटें हैं चचा। डॉ. भी कहते हैं कि उपचार के साथ-साथ हम चमत्कार की प्रतीक्षा में हैं। चचा! चमत्कार हमारे विश्वास की सबसे प्यारी औलाद है। सभी को विश्वास है कि ओम स्वस्थ होंगे। सातों कांटे निकल जाएंगे चचा।


आठवें दिन,लम्बी बेहोशी के बाद कल ओम ने एक पल के लिए आंख खोलने की कोशिश की थी। हमारा विश्वास है कि चमत्कार घटित होगा।

Tuesday, June 16, 2009

उस शहर का सूरज ज़रूर देखना

—चौं रे चम्‍पू! तू तौ ठीक ऐ न?
—मैं तो ठीक हूं चचा! पिछली गाड़ी में था। कविवर ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड़ सिंह गूजर जिस गाड़ी में थे वो हमसे पांच मिनिट आगे थी, लेकिन उन्हें वो गाड़ी हमसे बहुत दूर ले गई।
—भयौ का जे बता!


—विदिशा में वर्षों से वार्षिक बेतवा उत्सव होता आ रहा है। कई दिन तक बहुरंगी कार्यक्रम होते हैं, अंतिम दिन होता है कविसम्मेलन। तेरह कवि थे, तीन कवियों के लिए वह दिन अंतिम हो गया। रात में दस बजे शुरू हुआ कार्यक्रम सुबह पौने चार बजे समाप्त हुआ था। उसके बाद कवियों ने किया भोजन।
—जे कोई भोजन कौ टैम ऐ?
—यही तो विडम्बना है चचा। मंच के कवि प्रस्तुति-कलाकार होते हैं, परफौर्मिंग आर्टिस्ट! कोई विशेष मेक-अप नहीं करते। कई दिन से यात्राओं में हों तो उन्हीं कपडों से काम चला लेते हैं, पर चेहरे पर चमक बनी रहे इस नाते कार्यक्रम से पहले भोजन नहीं करते। भूखा रहने से चेहरे पर अलग तरह की चमक आ जाती है। आदमी भूखा हो तो आवाज़ कंठ से नहीं दिल से निकलती है। भूखा आदमी फिर देश के भूखे आदमी के बारे में ईमानदारी से बात करता है।


—आगे बोल!
—भोजन की पैक्ड प्लास्टिक थालियां रात में ही लाकर रखी होंगी। पूर्णिमा के चंद्रमा ने उन्हें सुबह तक शीतल कर दिया था। मौसम की गर्मी ने भी भोजन से छेड़छाड़ की होगी। आदित्य जी बोले— ‘दाल मत खाना, उतर गई है’। मैंने कहा— ‘पनीर मत खाना, चढ़ गया है’। वे बोले— ‘चलो दही खाते हैं’।


मैंने कहा— ‘खट्टी है’। वे बोले— ‘चलो, भोपाल पंहुच कर होटल में खाएंगे। वैसे ये गुलाबजामुन ठीक हैं’। मेरी गुलाबजामुन पहले ही नीरज पुरी ये कहते हुए खा चुके थे कि आपके साथ तो पहरेदारी के लिए बेटी आई है भाई साहब, आप तो खाएंगे नहीं। बीवी-बच्चे चंडीगढ़ में हैं। यहां कौन टोकेगा? कवियों में सद्भाव इतना है कि साला कल मरता हो तो आज मर जाए। ओम व्यास कहने लगे— ‘आज मंच पर मरने की बात कुछ ज़्यादा ही हो चुकी है, अब मत करो। अभी गुलाब जामुन खा लो कल जामुन पीस कर खा लेना’।


—मंच पै मरिबे की का बात भई रे?
—संचालन में ओम ने आनंद लिया था— ‘तेरह कवि हैं मेरे पास। एक से तेरहवीं तक का पूरा इंतज़ाम है (तालियां)। ये जो श्री ओम प्रकाश आदित्य बैठे हैं, ये कविसम्मेलन उद्योग के कुलाधिपति हैं। कवियों में सबसे बुजुर्ग हैं, हालांकि ये ख़ुद को बुजुर्ग मानते नहीं हैं (तालियां)। मित्रो, पैकिंग कैसी भी कर दी जाय, अगर पुराना सामान है तो पुराना ही निकलता है (तालियां)। आप और कवियों को सुनें न सुनें, पर इनको जीभर कर सुनियेगा, हम तो अगले साल भी आ जाएंगे (एक पॉज़ के बाद तालियां)’। आदित्य जी पीछे से ठहाका लगाते हुए बोले— ‘मारूंगा’ (तालियां)। ओम जारी रहे— ये वो नस्ल है मित्रो, जो ख़त्म होने जा रही है (तालियां)। उसका ये एक मात्र बीज सुरक्षित है (तालियां)। उसे और ज़्यादा सुरक्षित रखेंगी आपकी ज़ोरदार तालियां (ज़ोरदार तालियां)’। उसके बाद ओम ने नीरज पुरी, देवल आषीश, विनीत चौहान, सरिता शर्मा, पवन जैन,लाड़ सिंह गूजर, मदन मोहन समर,जॉनी बैरागी, संतोष शर्मा,प्रदीप चौबे, और मेरे लिए ज़ोरदार तालियां बजवाईं।


अपने लिए कहा— ‘मैं इन तेरह कवियों की परोसदारी करने आया हूं, मुझ पर दया आती हो तो मेरे लिए भी बजा दें (घनघोर तालियां)। पर तालियां न तो बीज को सुरक्षित पाईं और न कविसम्मेलन के दो और फलदार डालों को। ओम जीवन-संघर्ष कर रहे हैं। उनके उर्वर मस्तिष्क में इस समय अनेक प्लॉट्स की जगह अनेक क्लॉट्स हैं। ड्राइवर का बुरा हाल है। चचा, कविसम्मेलन के कवियों के लिए एक कहावत है कि जिस जगह जलवा दिखाओ, अगले दिन उस जगह का सूरज न देखो। अगली सुबह सारी तालियां थक कर सो जाती हैं। आते वक़्त कवियों को जो सूरज-भर सम्मान मिलता है वह लौटते वक़्त किरण-भर नहीं रह जाता। सुबह चार और पांच के बीच ड्राइवर को आती है झपकी। वह भी तालियां बजाने के बाद बासी भोजन करके आया होता है। मैं तो कवियों से कहूंगा कि तुम्हारी वाणी में बड़ा बल है कवियो! मंच पर मृत्यु का उपहास मत करो ! अगले दिन उस शहर का सूरज ज़रूर देखो ताकि मृत्यु आंखें फाड़-फाड़ कर अंधेरी सड़क पर तुम्हारा इंतज़ार न करे।

Friday, June 05, 2009

तन डोले न मन डोले तो ईमान डोले

-चौं रे चम्पू! तेरौ लल्ला तौ आस्ट्रेलिया में ई ऐ न?
—उसे गए हुए तो दस साल हो गए चचा! दो साल के लिए पढ़ने भेजा था, काम मिला, नाम मिला, दाम मिला तो वहीं जम गया। इंटरनेट के ज़माने में लगभग रोज़ाना बात होती रहती है। दूरी का अहसास नहीं होता। इधर, दो-तीन दिन से शुभचिंतकों के बड़े फोन आ रहे हैं। बेटा वहां ठीक तो है?
—हां बता, काई परेसानी में तौ नायं?
—नहीं, किसी परेशानी में नहीं है। चचा, मैं पहली बार आस्ट्रेलिया नाइंटी एट में गया था। वहां मिले हिन्दी-उर्दू-संस्कृत पढ़ाने वाले प्रो. हाशिम दुर्रानी, डॉ. पीटर ओल्डमैडो और डॉ. बार्ज। बड़ा अच्छा लगा कि वे लोग हिन्दी-उर्दू पढ़ाने के लिए नए-नए पाठ्यक्रम बना रहे थे। भव्य इमारत, भव्य लोग। अगले साल पुत्र को भेज दिया।
चार सैमिस्टर की पढ़ाई थी। हर सैमिस्टर के चार लाख रुपए देने थे। पहली किस्त मैंने प्रोविडेंट फण्ड से निकाल कर दी और उसे आश्वस्त भी कर दिया कि अगली का जुगाड़ भी लगाएंगे बेटा। सात महीने बीत गए उसने पैसा नहीं मांगा तो चिंता हुई। हड़बड़ा कर फोन मिलाया। उसने हंसते हुए बताया कि उसने पढ़ाई के दौरान ख़ाली वक्त में काम करके इतना पैसा कमा लिया है कि अब फण्ड से पैसा नहीं निकालना पड़ेगा। खुशी भी हुई और स्वावलंबी होते हुए बालक को अब हमारी सहायता की ज़रूरत नहीं है, इस अहसास से कुछ मलाल-सा भी हुआ। भई हम किसके लिए कमा रहे हैं? दिन-रात काम क्यों करता है? पढ़ाई कर ना, जिसके लिए भेजा है। चचा, उस देश में मेहनत और प्रतिभा की कद्र होती है। अगले साल हम चले गए, जब यहां गर्मियों की छुट्टियां हुईं। सिडनी विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग ने हमें विज़िटिंग स्कॉलर बना दिया। वहां के छात्रों को पढ़ाने का मौका मिला। कई साल मिला। प्रो. हाशिम दुर्रानी ने आपके इस चम्पू की कविताओं के आधार पर पाठ्यक्रम भी बनाया। लाइब्रेरी में निर्बाध प्रवेश के लिए अपना इलैक्टॉनिक कार्ड भी बन गया था। बड़ा आनंद आया चचा। वहां के विश्वविद्यालय पैसा लेते ज़रूर थे पर ज्ञान भी भरपूर देते थे। लेकिन इन पिछले दस वर्षों में शिक्षा ऑस्ट्रेलिया में एक फलता-फूलता उद्योग बन गया। विभिन्न विश्वविद्यालय सब्ज़ बाग़ दिखा कर छात्रों को बुलाने लगे।
—ये जो मैल्बर्न में भयौ, जे कैसे भयौ?
—वही तो बता रहा हूं चचा। पैसा आने लगा, तो वहां के विश्वविद्यालय सदाशयता खोने लगे। हिन्दी-उर्दू पढ़ाने से उन्हें पहले भी पैसा नहीं मिलता था पर चलाते थे। पिछले साल सिडनी विश्वविद्यालय के प्रशासन ने कह दिया कि भारतीय समाज के लोग मिलकर अगर इतने हज़ार डॉलर नहीं देते तो हम ये विभाग बन्द कर देंगे। भारतीय लोग भाषा के नाम पर उतना पैसा दे नहीं पाए और विभाग हो गया बन्द। उन्हें तो चाहिए थी माल-मलाई। फोकट का दूध बांटने के लिए क्यों चढाते कढ़ाई! अब लगभग एक लाख भारतीय विद्यार्थी चढ़ावा चढ़ाते हैं और अपने माता-पिता पर बोझ न बन जाएं, इस नाते रात-रात भर काम करते हैं। हॉस्टिल की सुविधाएं हैं नहीं। विश्वविद्यालय के पास मिलते हैं महंगे मकान, इसलिए दूर-दराज के उपनगरों में कम किराए पर रहते हैं। काम के बाद मौज-मस्ती और पार्टीबाज़ी वहां के नौजवानों का आम सांस्कृतिक शगल है। हमारे मेधावी-मेहनती छात्र अपनी आर्थिक सीमाओं के रहते प्राय: उससे दूर रहते हैं। चचा, वहां के स्थानीय बेरोज़गार नौजवानों को ‘डोल’ के नाम पर हर हफ्ते ढेड़-सौ दो सौ डॉलर का बेरोज़गारी भत्ता मिलता है। कल्याणकारी राज्य के लिए ‘डोल’ एक स्वस्थ परम्परा है। यह डोल उदरपूर्ति के लिए तो काफ़ी है लेकिन मदकची अपराधियों की मौज-मस्ती नहीं हो पाती उसमें। उतने से डोल से तन डोले न मन डोले, ईमान डोले। भारतीय एवं तीसरी दुनिया के छात्र बन जाते हैं इन रुग्ण डोलिये और मनडोलिये अपराधियों के कोमल शिकार। ये छोटी-मोटी घटनाओं की शिकायत तक नहीं करते। देर रात में तरह-तरह का काम करने के बाद, अपनी उस दिन की कमाई, लैपटॉप और मोबाइल के साथ जब ये रेल या बस से उतर कर सुनसान सड़कों पर पैदल चल रहे होते हैं तब निकल आते हैं अपराधियों के पंजे और कसने लगते हैं शिकंजे। अपराध का अस्लवाद नासमझी के कारण धीरे-धीरे नस्लवाद का रूप अख्तियार करने लगता है। ऑस्ट्रेलिया हमारा मित्र देश है, यदि वह विश्वविद्यालयों की धन-लोलुपता पर और अपने अपराधियों पर अंकुश नहीं लगाएगा तो……..।
—तौ का?
—मैं अपने परिचय में गर्व से लिखता हूं ‘पूर्व विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, सिडनी यूनिवर्सिटी’, हटा दूंगा चचा।