Friday, January 23, 2009

नायक, खलनायक और दखलनायक

—चौं रे चम्पू! समाज के सच्चे नायक कब सामने आमिंगे रे?
—सच्चे नायक अपने आप कभी आगे नहीं आते चचा, आगे लाए जाते हैं। अपने आप आगे आते हैं खलनायक।
—तौ राज खलनायकन कौ ऐ?
—नहीं चचा, लोकतंत्र में खलनायक कभी राज नहीं कर सकते।
—कमाल ऐ? नायक आगे नायं आमैं, खलनायक राज नायं कर सकैं, फिर राज-काज कौन चलाय रह्यौ ऐ?
—वो एक तीसरी प्रजाति है चचा। न नायक, न खलनायक, वे हैं दखलनायक। ये दखलनायक हमेशा दखल देते हैं। नायक और खलनायक आगे न आ जाएं, इसलिए दखल देते हैं। बात थोड़ी उलझी हुई सी लग सकती है चचा।
—तू सुलझाय दै।
—चचा, सब जानते हैं कि खलनायक मूर्ख और अहंकारी होता है। उस पर तरस आता है। अपनी झूठी अकड़ और बड़बोलेपन के कारण उस पर हंसी भी आती है। लोग उससे डरते और किनारा करते हैं। लेकिन सब जानते हैं कि उसे एक न एक दिन मरना है। और खलनायक सदियों से मरते आ रहे हैं। उनके मरने पर खुशियां मनाई जाती हैं। चचा, ये दखलनायक, खलनायक से ज़्यादा ख़तरनाक होता है, क्योंकि, न तो अहंकारी होता है और न ही मूर्ख। न राक्षसी अट्टहास करता है और न बड़बोला होता है। ये सारे काम नेपथ्य में करता है। पर्दे के पीछे। इसका सबसे पहला काम होता है नायकों की काट करना। चचा, नायक और खलनायक दोनों भोले होते हैं। अंतर इतना ही है कि खलनायक अहंकारी होता है और नायक स्वाभिमानी। नायक समर्पण और निष्ठा के साथ जनहित में काम करता है। खलनायक निजिहित में मनमानी। दोनों के द्वारा किए गए कार्यों के परिणाम साफ दिखाई देते हैं। नायक काम का दिखावा नहीं करता। वह श्रेय भी नहीं चाहता पर एक चीज़ उसे सहन नहीं हो पाती।
—वो कौन सी चीज?
—वो ये कि कोई उसके काम पर उंगली उठाए। यही उससे सहन नहीं होता। और इन दखलनायकों का काम उंगली उठाना ही होता है। पर दखलनायक चालाक होते हैं, वे उसके सामने उंगली नहीं उठाते। महाप्रभुओं को एकांत में उसके बारे में उल्टी सूचनाएं देते हैं। उदाहरण के लिए चचा, हमारे देश में ज्ञान की जितनी परीक्षाएं होती हैं उनमें सबसे कठिन मानी जाती हैं प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षाएं, जैसे आई.ए.एस. की परीक्षा। इस देश को आई.ए.एस, आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. ही चला रहे हैं। जो इन परीक्षाओं में टॉप करे उसे नायक माना जा सकता है। लेकिन, एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इन परीक्षाओं के जितने भी टॉपर हैं वे किसी न किसी कारण से निरंतरता में प्रशासनिक सेवाएं नहीं दे पाए, त्याग-पत्र देते रहे। टॉपर नायकों के सामने स्टॉपर दखलनायक भारी पड़ते रहे। अच्छा-सच्चा और ज्ञानी नायक अपनी स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कारण आगे नहीं आ पाता चचा। आगे आते हैं कामचोर, आंकड़ों का जमावड़ा दिखाकर प्रभावित कर लेने वाले चाटुकार। ये अपने अधीनस्थों को दबाते हैं और उच्च-पदस्थों के आगे सिर नवाते हैं। नायक न दबता हैं न दबाता है। खलनायक मारा जाता है। दखलनायक राजकाज चलाता है। समझे!
—दखलनायक के प्रभाव में महाप्रभु चौं आ जायं रे?
—क्योंकि नायक और महाप्रभु में सीधा-संवाद प्राय: नहीं होता। जहां-जहां महाप्रभु नायकों की पहचान रखते हैं, वहां काम अच्छा होता है, लेकिन हमारे देश के महाप्रभु या तो अंधे हैं या फिर उनके भी अपने धंधे हैं। वे नायकों की उपेक्षा करते हैं।
—ऐसौ चौं भइया?
—महाप्रभु ‘ना’ सुनना पसंद नहीं करते और नायक हर बात के लिए ‘हां’ नहीं करता। दखलनायक के पास महाप्रभुओं के लिए ‘हां’ के अलावा और कुछ नहीं होता और अपने अधीनस्थों के लिए ‘ना’ के अलावा कुछ नहीं होता। दखलनायक बिचौलिए होते हैं। सीमित ज्ञान से असीमित उपलब्धियां यही लोग प्राप्त कर सकते हैं। ये घर के भेदिए होते हैं, सब जानते हैं। इन्हीं का हर क्षेत्र में हस्तक्षेप होता है और शासन-प्रशासन पर इन्हीं का आधिपत्य चलता है। ‘दखल’ शब्द उर्दू का है और इसके यही दोनों अर्थ हैं— हस्तक्षेप और आधिपत्य। उदाहरण दे कर समझाता हूं— अगर हम कहें कि किसी के काम में दखल मत दो तो इसका अर्थ हुआ ‘हस्तक्षेप मत करो’ और अगर कहें कि इस भूमि पर किसका दखल है तो अर्थ होगा, ‘किसका आधिपत्य है’। दखलनायक नायक के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं और सत्ता-अधिग्रहण करके आधिकारिक तौर पर आधिपत्य जमा लेते हैं।
—चम्पू! भासा में तेरी दखलंदाजी ते मोय बड़ौ मजा आवै।

Tuesday, January 20, 2009

हाय असत्यम

सत्यम के संग शिव नहीं, शिव संग सुन्दर नाहिं,
धन अंसुअन की झील में, शेयर पड़े कराहिं।
शेयर पड़े कराहिं, बचा नहिं एक अधन्ना,
बजे तड़पती ताल, ताक धन धन धन धन्ना।
चक्र सुदर्शन, हवस खोपड़ी करती धम धम,
हाय असत्यम, हाय असत्यम, हाय असत्यम।

Tuesday, January 06, 2009

कटाई छंटाई बुरशाई कुतराई की चतुराई

—चौं रे चम्पू! फसल कटाई-छंटाई के अबसर पै गाम में दस-पंद्रै कबीन कूं लै कै एक अखिल भारतीय कविसम्मेलन करायं तौ कित्ते पइसा लगिंगे?
—चचा, भूल जाओ अखिल भारतीय। लाख-दो-लाख से कम में नहीं होते आजकल कविसम्मेलन।
—अच्छा! इत्ते रुपइया! इत्ते की तो फसल ऊ न होयगी। टैक्टर गिरवी धरनौ पड़ैगौ।
मैंनै सोची दो-तीन हजार में है जायगौ। संग में देसी घी के साग-पूरी की दावत और रायते में सन्नाटौ कर दिंगे। चल पांच हज़ार सई। बस कौ किरायौ अलग ते।
—अखिल पंचायती कविसम्मेलन भी नहीं होगा चचा। ऐसा करो, मेरा एकल काव्य-पाठ रख लो। फोकट-फण्ड में। गन्ने का रस पिला देना और ताज़ा गुड़ खिला देना।
—अरे हट्ट रे! तेरी कौन सुनैगौ? कबियन की लिस्ट में छंटनी कर लिंगे। तब तौ है जायगौ?
—तुम्हें भी छंटनी की महानगरीय बीमारी लग गई चचा।
—चल छोड़ कविसम्मेलन! खिच्चू आटे वारे के चेला रसिया गा दिंगे। तू छंटनी की बता।
—बड़ी-बड़ी कम्पनियां वैश्विक मंदी के नाम पर मोटी और छोटी-मोटी तनख़्वाह वाले कर्मचारियों को धकाधक निकाल रही हैं। महानगरों में नौकरी के भरोसे भारी कर्ज़ लेकर गुलछर्रे उड़ाने वाले नौजवानों में हड़कम्प मच गया है। छंटनी की तलवार हर किसी पर लटकी हुई है। तुम कटाई-छंटाई का उल्लास मनाना चाहते हो और महानगरों में कटाई-छंटाई का मातम चल रहा है। जो छंटनी से बच गए उनकी कटाई चल रही है। तनख़्वाह, पैंशन और इन्क्रीमैंट में कटाई। ग्रामीण और शहरी संस्कृति में यही अंतर है चचा! गांव में खुशी के कारण शहर तक आते-आते दुःख के कारण बन जाते हैं। छंटनी शब्द वैसे आया गांव से ही है।
—सुद्ध भासा में कहते तौ का कहते?
—उसको कहते कृंतन या कर्तन। जैसे वाल काटने-छांटने वाले कई भाइयों ने दुकान के आगे लिखवा रखा है ‘केश कर्तनालय’। जब से इन दुकानों पर केश के साथ फेस पर भी काम होने लगा तब से सब के सब ब्यूटी पार्लर हो गए हैं। जो एग्ज़िक्यूटिव हर हफ्ते ब्यूटी पार्लर जाया करते थे उन्होंने अपने बजट में कटाई करते हुए पार्लर जाना बन्द कर दिया। वहां बटुआ कर्तन होता था। चचा, एक शब्द और है— बुरशाई। मुद्रण जगत के लोग जानते हैं कि किताबों की बाइंडिंग के बाद बुरशाई की जाती है। बुरशाई, कटिंग मशीन पर कागज़ को बहुत मामूली सा काटने की प्रक्रिया को कहते हैं। आड़े-तिरछे निकले हुए फालतू कागज़ कट कर इकसार हो जाते हैं। किताब चिकनी कटी हाथ में आती है। कुछ कम्पनियों ने छंटाई की जगह अपने खर्चों में बुरशाई शुरू की है। ये ठीक है! आदमी मत निकालो, फालतू के खर्चे कम करो। कई एयरलाइंस कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों को बिज़नेस क्लास की जगह इकॉनोमी क्लास में सफर करने की हिदायत दी हैं। कुछ कहती हैं कि जाते क्यों हो, टेलिकांफ्रैंसिंग से काम चलाओ। यात्रियों के नाश्ते-पानी में भी कतराई-बुरशाई हुई है। कुछ सॉफ्टवेयर कम्पनियों ने कर्मचारियों को फोकट की चाय-कॉफी पिलाना बंद कर दिया है। फालतू की फोटोकॉपी बाज़ी और कम्प्यूटर-प्रिंटर के इस्तेमाल में चतुराई से कुतराई की है।
—कुतराई?
—हां चचा! कम्पनी के मालिकों की चेतना जब चूहों से मेल खाए तो वे अपने खर्चों को कुतरने लगते हैं। एक आइडिया है, आप तो जानते हैं कि कविता का जन्म करुणा से होता है। जिनकी पिछले दिनों छंटनी हुई है वे ज़रूर कवि बन चुके होंगे। एक छंटनीग्रस्त कवियों का सम्मेलन करा लीजिए। करना ये होगा कि बस एक-एक पोस्टर बड़ी-बड़ी कम्पनियों के दरवाज़े के बाहर लगा दिया जाए, जिस पर लिखा हो— ’छंटनीग्रस्त कवियों को कविता-पाठ का खुला निमंत्रण’। दस-बीस नहीं हज़ारों में मिलेंगे। बड़ी-बड़ी दर्दनाक, मर्मस्पर्शी कविताओं का मौलिक सृजन सामने आएगा। नाम रखेंगे ‘कटाई-छंटाई-बुरशाई कुतराई कविसम्मेलन’। अखिल भारतीय कविसम्मेलन के नाम पर होने वाले लतीफा सम्मेलनों से भी मुक्ति मिलेगी। कैसी रही?
—तौ जे बता, मैं अब पांच हजार में ते कित्ते की कटाई-छंटाई-बुरशाई-कुतराई की चतुराई दिखाऊं?

Sunday, January 04, 2009

17वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी



17वीं जयजयवंती साहित्य-संगोष्ठी
हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी
मीडिया में भाषा और तकनीक

अध्यक्ष : श्री शरद दत्त, वरिष्ठ मीडियाकर्मी
सम्मान : वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक को 'जयजयवंती सम्मान'
एवं उनके कम्प्यूटर पर हिन्दी सॉफ्टवेयर 'सुविधा'
लोकार्पण : डॉ. स्मिता मिश्र एवं डॉ. अमरनाथ 'अमर' द्वारा लिखित
'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया : बदलते आयाम'
मुख्य-प्रस्तुति : श्री पंकज पचौरी, वरिष्ठ मीडियाकर्मी, एन.डी.टी.वी.
ब्लॉग-पाठ : श्रीमती वर्तिका नंदा एवं श्री पवन दीक्षित

आप सादर आमंत्रित हैं।
अशोक चक्रधर
अध्यक्ष, जयजयवंती
(संयोजन) 26941616

राकेश पांडेय
संपादक, प्रवासी संसार
(व्यवस्था) 9810180765

11 जनवरी 2009 / रविवार
सायं 6.15 से चाय-कॉफी / 6.30 कार्यक्रम आरंभ
गुलमोहर सभागार, इंडिया हैबीटैट सैंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली
संरक्षक : श्री गंगाधर जसवानी एवं पद्मश्री वीरेन्द्र प्रभाकर (मंत्री, चित्र कला संगम)