Tuesday, March 30, 2010

बाकी सब कोढ़ में खाज

—चौं रे चम्पू! आज भौत सारे सवाल पूछने ऐं, जवाब देगौ?
—क्यों नहीं चचा, लेकिन बलवीर सिंह ‘रंग’ ने कहा था— ‘बहुत से प्रश्न ऐसे हैं, जो सुलझाए नहीं जाते, मगर उत्तर भी ऐसे हैं, जो बतलाए नहीं जाते।’
—रंग जी की बात करकै अपनी रंगदारी मती ना दिखा। हां-ना में बात कर। जवाब देगौ कै नायं? बता चिकित्सक कौन ऐ?
—चिकित्सक होता है यमराज का भाई। यमराज तो सिर्फ प्राण लेता है। चिकित्सक प्राण के साथ पैसा भी खींच लेता है। कहावत है कि जो सौ को मारे सो वैद्य, हजार को मार दे सो चिकित्सक। वैसे, आधा चिकित्सक तो रोगी स्वयं ही होता है, क्योंकि वह अपने और अपने रोगों के बारे में जानता है। फिर भी चचा जो सही इलाज कर दे वो है भगवान जैसा। जिसकी नज़र में ना हो पैसा। इलाज के लिए तरह-तरह की पैथियां हैं। आयुर्वेदिक, यूनानी, एलोपैथी, होम्योपैथी। होम्योपैथी में हजार सवाल पूछे जाते हैं, तब एक दवाई निकाली जाती है। अंधेरे का तीर है, चलाने वाला अगर पृथ्वीराज चौहान हो तो आंखों पर पट्टी बांधने के बावजूद निशाना ठीक लगेगा, लेकिन चिकित्सक वही उत्तम है जो पट्टी तब बांधे, जब घाव हो। ऐसा न हो कि पट्टी के पैसे के लालच में घाव ही कर दे।
—ठीक, अब जे बता कै इंजीनियर कौन ऐ?
—इंजीनियर वह जो मनुष्य की छोटी-बड़ी ज़रूरतों के हिसाब से सुविधाओं का पहिया घुमाने में महारत रखता हो। पुल बनाए, मकान बनाए, बिजली लाए, सैंट बनाए, सीमेंट बनाए। भौतिक रासायनिक सुख-तत्त्व जुटाने में अपने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के कौशल को लगाए।
—और ठेकेदार कौन?
—ठेकेदार वह प्रजाति है जो इंसान और इंजीनियर के बीच में लाभ कमाने के लिए आती है। काम पूरा करने की जिम्मेदारी लेती है, इनके बिना भी काम नहीं चल पाता। ठेकेदार हजार प्रकार के होते हैं, कहां तक गिनाऊँ?
—वकील कौन?
—वकील, वह कील जो ठुक जाए तो निकले नहीं। इसीलिए मुक़दमे को ठोकना कहते हैं। वकील सही हो तो सारे कील-कांटे दुरुस्त कर सकता है।
—अध्यापक कौन?
—जो अपने अनुभव, अध्ययन और विवेक को अपने छात्रों में स्थानांतरित कर दे। ज्ञान की कोई सीमा नहीं है चचा। कोई कितना भी अर्जित कर ले, फिर भी कम।
—बुझी-बुझी सी बात करन लग्यौ लल्ला! चल छोड़, जे बता कै साहित्यकार कौन ऐ?
—इसका जवाब देना वाकई मुश्किल है। आजकल तो साहित्यकार वह है जो अपने आपको मान ले कि वह साहित्यकार है। वैसे, समीक्षक और.... अथवा सामाजिक जिसको मान लें, वह साहित्यकार होता है। समीक्षक देखते हैं कि उसने किसी समाज का इलाज किस तरह किया। शिल्प की इंजीनियरिंग का कौशल कैसे दिखाया। प्रतिबद्धता की ठेकेदारी करके इंसान को बेहतर बनाने में कोई भूमिका अदा की या नहीं, मेहनत से इंसानियत की वकालत की या नहीं।
—साहित्यकारन कौ कोई ग्रेड है का?
—डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, वकील सबके ग्रेड हो सकते हैं, लेकिन साहित्यकार का ग्रेड बनाना बड़ा मुश्किल है। आकाशवाणी, दूरदर्शन और सरकारी संस्थाओं के सामने भी यह समस्या है। अभिनेता और संगीतकार के ग्रेड होते हैं, ए ग्रेड, बी ग्रेड। उसी के हिसाब से उनकी फीस निर्धारित होती है, लेकिन साहित्यकारों-कवियों का कोई ग्रेड नहीं है। सबके लिए वही पांच सौ रुपए। अगर वह टैक्सी से आए तो भी पूरा न पड़े। बड़े-छोटे का कोई मानक नहीं है। संगीत में सही सुर मिलाओगे, दिलकश गाओगे तो ए ग्रेड मिलेगा। अभिनय में उतार-चढ़ाव दिखाओगे तब ए ग्रेड मिलेगा। यहां क्या मिलाएगा भाई। अगर तुक मिला दी तो स्वनामधन्य महान साहित्यकारों की नज़र में साहित्यकार कहां रहा? छंद बना दिया तो छल-छंदी मानेंगे तुझे। और अगर छंद न बनाया, तुक न मिलाई तो जनता तुझे साहित्यकार नहीं मानेगी। समीक्षक एकजुट हो जाएं तो किसी को भी महान बना दें। कुपित हो जाएं तो किसी को भी गिरा दें। साहित्यकार कौन है, मैं बता भी दूं तो महायान में इस हीनयानी की मानेगा कौन? लेकिन इतिहास गवाह है कि महायान टुइयां सा था और हीनयान बहुत विस्तृत-व्यापक, वही आगे विकसित भी हुआ, इसलिए बेहतर है मौन।
—चल छोड़। हम तोय ज्ञान की बात बतामैं। तोय मालूम ऐ कै चिकित्सकन कूं संसकिरित में कविराज कह्यौ करैं हैं। तू तौ समाज की चिकित्सा कर। जो कुशल ठेकेदारी, इंजीनियरिंग, वकालत, अध्यापकी के जरिए मनुष्य के तन मन कूं स्वस्थ करै, सो कविराज। जाकूं मानै सकल समाज। बाकी सब कोढ़ में खाज।

Monday, March 29, 2010

नासमझी की समझदारी

है बहुत पुरानी, बहुत पुरानी, बहुत पुरानी गाथा, जब किसी पहली अप्रैल को एथैंस नामक नगर में एक हादसा हुआ था। एथैंस में चार यार थे। उनमें से एक समझता था कि उसके अन्दर सबसे ज्यादा इंटेलिजैंस है। उसके अन्दर माइंड की सर्वाधिक प्रेजैंस है। बस अपनी एक्सिलैंस दिखाने का जुनून रहता था, लेकिन उसमें टॉलरैंस की कमी थी। इस कारण उसका अपने तीनों मित्रों से डिफरैंस और डिस्टैंस बना रहता था। ज्ञानाभिमान के कारण कॉन्फिडैंस से लबरेज़ होकर हर बात पर कांफ्रैंस करता था। डिफैंस उसका औज़ार होता था और तीनों यार डिस्टरबैंस के शिकार होते थे। जब वो बोलता था, तीनों साइलैंस की चादर ओढ़ लेते थे। वे तीनों मानते थे कि स्वयं को ज्ञानी समझना नॉनसैंस है। कॉमनसैंस का अभाव है। सुनते हैं कि उन तीन नासमझ यारों ने उसके दिमाग का बैलैंस ठीक करने के लिए एक योजना बनाई।
तीनों ने अपनी-अपनी तरह से उसे बताया कि रात में उनके सपनों में एक दिव्य रूप देवी प्रकट हुई। उसने हम तीनों को बताया कि एक अप्रैल की रात को पहाड़ की चोटी पर एक ऐसी दिव्य ज्योति प्रकट होगी जिससे तुम जो मांगोगे, मिलेगा। हम जानते हैं कि तुम सबसे ज्यादा बुद्धिमान हो, लेकिन यदि तुम और अधिक ज्ञान चाहते हो तो पहाड़ी पर चलो।
ज्ञानी अहंकारी था। जो मित्र ज्यादा बोल रहा था उससे उसने कहा— मैं सब कुछ जानता हूं। मुझसे कोई भी प्रश्न पूछ, उत्तर दूंगा। हवा पे पूछ या आग पे पूछ, बगिया पे पूछ या बाग पे पूछ, ताल पे पूछ तड़ाग पे पूछ, चिड़िया पे पूछ चिराग़ पे पूछ, काशी पे पूछ प्रयाग पे पूछ, सब्ज़ी पे पूछ या साग पे पूछ, फूल पे पूछ पराग पे पूछ, अजगर पे पूछ या नाग पे पूछ, धब्बे पे पूछ या दाग पे पूछ, साबुन पे पूछ या झाग पे पूछ, होली पे पूछ या फाग पे पूछ, गाने पे पूछ या राग पे पूछ, भीमपलासी विहाग पे पूछ, शादी पे पूछ सुहाग पे पूछ, उत्तर तुझको ना दे पाया तो अगले ही मिनट मुंड़ा मेरी मूंछ।
तीनों ने सोचा इसकी मूंछ मुंड़ाने का अच्छा मौका है। माना कि तुम परम ज्ञानी हो, पर हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं, चाहते हैं कि तुम परमातिपरम ज्ञानी हो जाओ। वह परमाति-परमातिपरम महाज्ञानी महा अज्ञान के साथ चोटी पर पहुंच गया। तीनों यारों ने पूरे शहर को भी तमाशा देखने के लिए इकट्ठा कर लिया। रात आई, चांद आया। तारे आए, ख़ूब सारे आए। हवा चली, मस्ती में पेड़ झूमे। नदी का पानी बिना किसी बुद्धिमानी के अविरल गति से कल-कल ध्वनि करता बहता रहा। सब प्रकृति का आनन्द ले रहे थे और वह अहंकारी ज्ञानी परमातिपरम ज्ञानी होने के लिए दिव्य ज्योति के चक्कर में था। ज्योति कहां आनी थी, नहीं आई। पौ फटी तो वह भी फट पड़ा— झूठे हो तुम लोग! तीनों हंसे, तीनों के साथ शहर हंसा और समझदारी के सामने नासमझी हंसी और तब शायद पहली बार उससे कहा होगा कि तुम्हें अप्रैल फूल बनाया जा चुका है। मूंछ मुंड़ा लो। हम देखते हैं कि सारे रोमन चेहरे मूंछ विहीन दिखाई देते हैं। सबने मान लिया कि वे ज्ञानी नहीं हैं। इसीलिए उनकी संस्कृति महान मानी जाती है। हां, कुछ रोमन वृद्ध मूंछ दाढ़ी समेत जरूर दिखाई देते हैं पर वे समझदारी और नासमझी से ऊपर उठ चुके होंगे।
बहरहाल, अतिशय की समझदारी परास्त हो गई। दरअसल सारी समस्याओं की जड़ समझदारी ही होती है। ओढ़ी हुई समझदारी। बस समझ-समझ के हम भी समझ को कुछ समझ लें क्योंकि समझ को समझने में ही समझदारी है, लेकिन याद रखें कि समझदारी उसके पास है जिसकी नासमझी से यारी है।
तो एक अप्रैल कोई मूर्ख बनाने का दिन नहीं है, बल्कि नासमझी की समझदारी दिखाने का दिन है। नासमझी एक बहुत बड़ी समझ है जिसकी हम उपेक्षा करते हैं। सारी परेशानियां समझदारी से उत्पन्न होती हैं। जिन बच्चों ने मूर्खता में अपनी तरफ से समझदारी दिखाते हुए आत्महत्या का रास्ता अपनाया। कितना गलत किया। यही कामना रही होगी कि समझदारी की तलाश में और और अधिक अंक लाने के लिए पता नहीं हम और कितना पढ़ लें कि माता-पिता की इच्छाएं पूरी कर सकें। अरे बने रहते नासमझ जैसे तो बने तो रहते। जितनी समझ थी उसी के हिसाब से काम चलाते। न बन पाते इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक तो अपना कोई और हुनर दिखाते। ज़िंदगी के साथ ज्यादा समझदारी दिखाते हुए, ज़िंदगी का, समाज का और अपना नुकसान तो नहीं करते। जीवन में रेस करते, रेस को जीवन तो न बनाते।
भारत में अंग्रेज़ आए तो एक अप्रैल का विचार लाए। वे अपने घर-परिवार और क्लबों में एक अप्रैल का मजे का खेल खेलते रहे, लेकिन जितने समय भारत में रहे कुटिलता से हमें मूर्ख बनाते रहे। हमारे देश में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने देखा कि अंग्रेज़ लोग बहुत मूर्ख बना रहे हैं— ’अंग्रेज राज सुख साज, सजै सब भारी, पै धन विदेश चलि जात, यहै अति ख्वारी।’ अंग्रेज़ तो अंग्रेज़ हमारे अपने शहर बनारस में पंडे लोग तीर्थ-यात्रियों को मूर्ख बना रहे हैं, ठग रहे हैं। शायद अंग्रेज़ी के शब्दकोश में पहला हिन्दी शब्द ‘ठग’ ही आया होगा। ठग बनारस के प्रसिद्ध होते हैं। जहां तक सुनने में आया है, भारतवासियों के बीच किसी भारतवासी द्वारा पहली अप्रैल को व्यापक स्तर पर मनाने की शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने बनारस में की थी। वे कई वर्ष तक पहली अप्रैल को कुछ न कुछ एथैंस जैसे प्रयोग करते रहे। तब लोग जानते नहीं थे कि उस दिन पहली अप्रैल है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कुछ वाक़ये मैंने सुने हैं। एक बार हुआ यह कि उन्होंने शहर में पर्चा बंटवा दिया कि आज एक गोरी मेम खड़ाऊं पहन कर, जल पर चलते हुए गंगा पार करेगी। यह विलायती जादू देखना हो तो चले आओ गंगा के घाट पर। भोली जनता उमड़ पड़ी। एक साहित्यकार-कलाकार को चाहिए क्या? श्रोता और दर्शक। अपनी किसी अंग्रेज़ महिला मित्र को उन्होंने जनता के सामने प्रस्तुत भी कर दिया। वह खड़ाऊं पहन कर, घाट पर चार चक्कर लगाने के बाद, मूढ़े पर बैठ गई। मेम भी थी, उसके पैरों में खड़ाऊं भी थीं। दर्शक सोचते रहे कि अब यह जल पर चल कर जलवा दिखाएगी। खड़ाऊं पहन कर उस पार जाएगी, लेकिन बड़ी चतुराई से भारतेन्दु बाबू ने उसको गायब कर दिया। जनता में शोर मचा होगा, हाहाकार हुआ होगा। मेम कहां गई? भारतेन्दु बाबू ने धीरज बंधाया होगा— आएगी, आएगी, मेम जरूर आएगी! गंगा पार करके दिखाएगी। तब तक लो, मेरा यह नाटक देखो ‘अंधेर नगरी चौपट्ट राजा’। मेरा दूसरा नाटक देखो— ‘विषस्य विषमौषधम्’। उन्होंने अपनी कविताएं भी सुनाईं होंगी। किसी प्रलोभन में जनता को रोकना आसान होता है। लेकिन, न मेम आई, न खड़ाऊं-वॉक हुई। कहते हैं कि भारतेन्दु बाबू ने कहा— कुछ तो बुद्धि का उपयोग करो। तुम जान लो, मैंने तुम्हें अप्रैल फूल बनाया है। इतने सारे लोग एक साथ मूर्ख बने। अपनी नासमझी पर गर्व करते हुए हंसे होंगे और उन्होंने बड़े उल्लास और उत्साह के साथ मनाई होगी एक अप्रैल।
कहते हैं कि लोग अगले वर्ष तक भूल गए और फिर से एक अप्रैल आ गई। इस बार भारतेन्दु बाबू ने सोचा कि थोड़ा सा सबक़ पंडों को भी सिखाना चाहिए जो यहां आने वाले तीर्थ-यात्रियों को ठगते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े पंडों को बजरे पर भोज का न्यौता दिया। बजरा प्रायः सभी जानते होंगे बनारस में दुमंज़िला नाव को कहते हैं। ऊपर की मंजिल पर रसिक लोग महफ़िलें सजाते हैं और नीचे चाकर लोग उनकी सेवा के उपादान सजाते हैं। पंडों से कहा गया कि भोर से लेकर सूर्यास्त तक आपको बजरे पर ही रहना है। आपका भरपूर आतिथ्य किया जाएगा। दिव्य भोजन दिया जाएगा। सूर्यास्त के बाद जब आप वापस जाएंगे तो अंगवस्त्र, दक्षिणा आदि से आपको सम्मानित भी किया जाएगा। पंडे अफरा-तफरी में चढ़ गए बजरे की ऊपर वाली मंजिल पर। प्रसन्न वदन, गोल तोंद, किलोल और आमोद। नाश्ते का समय बीत चुका था, लेकिन नीचे से पकवानों की सुगंधि आ रही थी। पंडितगण एक-दूसरे को सांत्वना देने लगे— भई बन रहा है, समय लगता है। धैर्य रखो, प्रतीक्षा करो। दोपहर होने को आई। भोजन नहीं लगा। अब तो पंडों की भूखी अंतड़ियां हाहाकार करने लगीं। किसी ने नीचे जाकर देखा तो पाया कि वहां न तो कोई पकवान था न कोई खाने-पीने का सामान था। एक भट्टी थी और एक पहलवान था। पहलवान एक लोटे से गर्म भट्टी के ऊपर घी के छींटे मार रहा था, जिसके कारण पकवानों जैसी सुगंध उठ रही थी। सारे के सारे कुपित। ये हमारे साथ क्या धोखा किया गया है? बजरा मोड़ो! मल्लाहों ने मना किया— बजरा सूर्यास्त से पहले नहीं मुड़ेगा। बाबू साहब की आज्ञा नहीं है। उन तोंदिल पंडों में से जो तैरना जानते रहे होंगे, कूद कर घाट पर पहुंच गए होंगे, लेकिन अधिकांश तो लूटना जानते थे, तैरना कहां जानते थे।
सूर्यास्त के समय भूखे ब्राह्मणों को जब घाट पर लाया गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उनके आगे दंडौती की और कहा कि आपने कभी ये सोचा है कि हमारे नगर में दूर-दूर से आने वाले यात्रियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। आप लोग उन्हें ठग लेते हैं। वे इस योग्य भी नहीं रहते कि वाहन का खर्च उठा सकें। उनके पास अन्न के दाने भी नहीं होते। भूखे दो-दो तीन-तीन दिन यात्रा करते हैं, क्योंकि उनके पास धन नहीं होता। आपको सोचना चाहिए। आप उनसे उतनी ही दक्षिणा लें कि वे लौट कर वापस घर तो सकुशल जा सकें। और क्षमा करिएगा, ये दुस्साहस मैंने इसलिए किया, क्योंकि आज एक अप्रैल है। उसके बाद धीरे-धीरे भारत में भी एक अप्रैल का दिन लोकप्रिय हुआ। फिल्मी गाने तक आए ‘एप्रिल फूल बनाया, तो उनको गुस्सा आया। मेरा क्या कुसूर, जमाने का क़ुसूर, जिसने दस्तूर बनाया।’ धीरे-धीरे दस्तूर बना। लोग एक अप्रैल मनाने लगे। लेकिन मेरे ख़्याल से एक अप्रैल पूरे साल मनाया जाना चाहिए। यह नासमझी की समझदारी दिखाने का दिन है। मूर्ख बनाने का नहीं, समाज सुधार का दिन है। अहंकार के परिहार का दिन है।
एक अप्रैल नए आर्थिक वर्ष को शुरू करता है। इकत्तीस मार्च तक हम सब चीजें समेट देते हैं, बही-खाते लपेट लेते हैं। नए सिरे से नए बजट के साथ, अपने नए फण्ड्स के लिए नए फण्डे शुरू कर देते हैं। जो लड़कियां ज़्यादा समझदारी दिखाते हुए शादी में विलम्ब कर रही हैं, जल्दी कर लें। लहंगे बहुत महंगे होने वाले हैं।
सारी परेशानियां होती हैं समझदारी से। ये राजनेता बहुत ज्यादा समझदारी दिखाते हैं। अमर सिंह ने जरूरत से ज्यादा समझदारी दिखा दी। उनकी समझदारी ने उनको कहीं का नहीं छोड़ा। मुलायम सिंह ने भी समझदारी दिखा दी। वे भी न दिखाते। नासमझी से काम लेते तो मौहब्बत की गलबहियां बनी रहतीं। न ये टूटते, न वे फूटते और न तुम्हें तीसरे मोर्चे वाले लूटते। कपिल सिब्बल को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने ज़्यादा समझदारी दिखाए बिना कह दिया कि देश को आठ सौ विश्वविद्यालय और पैंतीस हज़ार कॉलिज चाहिए। बजट देखें बजट देखने वाले, अपनी ज़रूरत बताने में क्या जाता है।
साहित्यकार समझदारी दिखाने लगते हैं तब भी दिक़्क़त होती है। भैया पुरस्कार मिल रहे हैं, ले लो। अब तुम ज्यादा ऊंची छोड़ोगे, पुरस्कार से बड़े बनोगे तो कौन तुम्हें बड़ा मानेगा? समझदारी के कारण छोटी-छोटी बातों पर बिदक जाते हो। अरे भैया अपनी नासमझी और प्रेम बनाए रखो। पहली अप्रैल को बदनाम मत करो। यह मूर्ख बनाने का नहीं, मूर्खता से बचने का दिन है। स्वतः उच्छ्वास जो दिल से निकलते हैं, जो हृदय की पुकार होती है, उसका दिन है। यह स्वयं से छेड़खानी का दिन है। चारों खाने चित्त होकर गिरने के बाद चौपट हो जाओ इससे अच्छा है अपने चित्त को चौखटे में रखो। चौखटा ठीक रहेगा, मुस्कराता रहेगा।
पड़ौस में एक-दूसरे से दुआ-सलाम नहीं होती। बातचीत नहीं होती, क्योंकि हर आदमी अपने आपको समझदार मानता है। मेरी गाड़ी तो यहीं पार्क होगी, दूसरे ने अगर यहां पार्क कर दी तो देख लूंगा। अरे भैया थोड़ी देर खड़ी रह लेने दे उसकी गाड़ी। अपनी नासमझी दिखा कि मैंने देखा ही नहीं कि तेरी गाड़ी मेरी पार्किंग में है। तू किसी दूसरी जगह पार्क कर ले। वह तो कह देगा कि जी आज पहली अप्रैल है। अब दो जवाब उसको। तुमने अगर जवाब में गुस्सा दिखाया तो मूर्ख कहलाओगे। मुस्कराने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। ठीक है, ठीक है, आज पहली अप्रैल है। खड़ी कर ले अपनी गाड़ी। कल दूसरी जगह लगा लेना। अब कल की कल देखी जाएगी। दो अप्रैल को भी तो एक अप्रैल मना सकते हैं। एक अप्रैल तो ऐसा दिन है जो पूरे साल मनाना चाहिए।

Tuesday, March 23, 2010

येन-केन-प्रकारेन तेन त्यक्तेन

चौं रे चम्पू! कह्यौ करैं कै कबी लोग पइसा कूं हाथ लगामैं, जे अच्छी बात नायं, तेरौ का खयाल ?
एक पुरानी घटना बताता हूं। मंच के कुछ कवियों के साथ कहीं जा रहा था। सामने से सकुचाया सा एक आदमी आया। कुछ बोले नहीं, बस जेबें टटोले। मैंने पूछाकिस संशय में खड़े हो? किस विषय पर बात करना चाहते हो? ये सब गुणी लोग हैं, पूछो! वह बोलाविषय-विषय कुछ नहीं है, मुझे तो ये पांच सौ का नोट भुनाना था। मुझे हंसी आई।
हंसी चौं आई रे?
आई तो आई! मैंने उससे कहा कि भैया ये सब मंच के कवि हैं, ये नोट नहीं भुनाते हैं, नोटों की ख़ातिर विषय भुनाते हैं। वह तो चला गया, लेकिन मेरा ती कवियों के दिल में ऐसा धंसा कि सब के सब नाराज़। क्या बात कर दी? ये हमारा अपमान है। अकिंचन जी ने आंखें रेरीं, पैसा लेने में क्या बुराई है? कौन नहीं लेता? किसने अतीत में नहीं लिया? कविगण राजसी जीवन बिताते थे। चन्दबरदाई, भूषण और ग़ालिब सम्मान और मेहनताना पाते थे। भारतेन्दु और प्रसाद रईसी महफ़िलें सजाते थे। निराला भी कविसम्मेलनों से पारिश्रमिक लाते थे और अपनी मर्ज़ी से लुटाते थे, पर कभी पैसों की ख़ातिर विषय नहीं भुनाते थे। जो लिखते थे डंके की चोट लिखते थे। विषय बनाते थे उनको, जो समाज में खोट दिखते थे। बिना डरे जो लिख दिया, सो लिख दिया। इस पर अनमोल जी बोले, सब कुछ सबको दिखता है, पर वह सही नहीं है जो दूसरों की मर्ज़ी से, दूसरों की शर्तों पर और दूसरों के कहे पर बिकता है।
अनमोल जी नैं अनमोल बात कही।
कवि पर दबाव बनाया जाता है चचा कि वह त्यागी रहे। पैसे से कोई सरोकार रखे। समाज का हर वर्ग तो पैसा कमाने के लिए बना है, तू भूखा मरने के लिए है। भूखा नहीं रहेगा तो भूख पर कविता कैसे लिखेगा। उसे ईर्ष्याओं के कारण त्याग सिखाया जाता है। जब मैंने गाड़ी ख़रीदी थी सब राख हो गए, मेरे मन को कष्ट हुआ। अब तो उन सबके पास गाड़ियां हैं। अब गाड़ी ईर्ष्या का कारण नहीं है, कुछ अन्य कारण बन गए हैं। कवि हृदय पर हमेशा से आघात होते आए हैं। केदार नाथ सिंह जी के शलाका सम्मान अस्वीकार करने के मामले को ही लीजिए।
अख़बार में पढ़ी तौ हती, का भयौ?
उन्होंने लिखित स्वीकृति देकर सम्मान स्वीकार किया। बाद में अस्वीकार कर दिया। उनसे फोन पर बात हुई। उन्होंने बताया कि इतने फोन आए कि वे दबाव में गए। वे अपनी बीमार वृद्धा मां की सेवा के लिए कोलकता गए हुए थे, और भाई लोग थे कि इधर से लगे हुए थे दबाव बनाने में और उन्हें भी बीमार बनाने में। कहा होगा कि तुम दो लाख रुपए में बिक गए। तुम्हें साहित्य माफ नहीं करेगा। तुम्हें समाज माफ नहीं करेगा। अब बेचारे केदार जी क्या जानें कि समाज उनको कितना चाहता है, समाज उनको सिर माथे उठाता है और कुछ लोग हैं जो फ़लीता लगाते हैं, दिमाग ख़राब करते हैं। उन्होंने फोन पर यह भी बताया कि जो पत्र उन्होंने हिन्दी अकादमी को भेजा है उसमें अकादमी के प्रति कहीं भी असम्मान का भाव नहीं है।
सो तौ ठीक लल्ला, पर दबाए में चौं आए?
चचा हर ज़माने में ऐसा होता आया है। कवि बस पैसा ले। पैसे के आधार पर उसको लानत, मलामत दी जाए। उसे भोगवादी बता दिया जाए। कवि हृदय विचलित हो जाता है। ईशावास्योपनिषद में कहा गया हैतेन त्यक्तेन भुंजीथा:’, मतलब कि त्यागपूर्वक भोग करो। भोग का आनन्द त्याग में है। केदार जी ने सोचा होगा कि त्याग कर दो तो शायद उसका भोग ज्यादा होगा। चचा गेन त्यक्तेन भुंजीथा:, गेन करके त्याग दो। येन-केन-प्रकारेन त्यक्तेन भुंजीथा: त्यक्तेन वाली मुद्रा बना ली, और स्वयं को गेन करने से वंचित करने लगे। होना चाहिए अगेन चिन्तयेन भुंजीथा: गेन-वेन की बात छोड़ कर अगेन सोचो केदार जी, सोचो! प्यार करने वाले लोग ज़्यादा बड़े हैं या अपनी मतलबपरस्ती के कारण दबाव में लाने वाले लोग ज़्यादा बड़े हैं। कौन बड़ा है?
तू चौं कहि रह्यौ ? खुद सोचैं केदार जी!

Wednesday, March 17, 2010

मौहब्बत कोई ठुकराने की चीज़ है

—चौं रे चम्पू! हमाई बगीची-कमैटी नै सोची ऐ कै तोय बगीचीसिरी की उपाधी दई जाय, तोय कोई आपत्ती तौ नायं?
—आपत्ति क्यों होगी चचा? लिख कर दिए देता हूं।
—लिखे कौ कोई भरोसा नायं रे! कल्ल कूं पलट जाय कै बगीची के पुरस्कार में का धरौ ऐ, मैं तौ उद्यान-पीठ कौ पुरस्कार लुंगो। हमाई बगीची की तौ थू-थू है जायगी।
—चचा, मैंने आज तक कोई सम्मान नहीं ठुकराया। मौहब्बत कोई ठुकराने की चीज है? आप बगीचीश्री बना कर मेरी अवहेलना तो नहीं कर रहे न! आपने मेरे प्रति अनास्था तो नहीं जताई! ज़िल्लत, तिरस्कार, तौहीन, मानहानि, अवमानना, बेअदबी और फ़जीहत तो नहीं कर रहे! मैं क्यों स्वीकार नहीं करूंगा? जो देंगे, सो सिर माथे! लेकिन इतना बता दूं चचा, सम्मान मैंने कभी ख़रीदा नहीं है। जो मान देता है, ज़िम्मेदारी भी बढ़ा देता है कि मेरे पास उस सम्मान के योग्य ज्ञान भी हो। आजकल लोग ख़ुद को सम्मानित कराने के लिए पचास तरह के गुंताड़े बिठाते हैं। आप तो आशीर्वाद दें कि जीवन में कभी ऐसा काम न करूं जो अपमान दे। मेरी पत्नी ने एक बार कहा था—
मैंने समझाया था, तुमने माना नहीं
अब सुनूंगी मैं कोई बहाना नहीं।
कुछ उठाने की ख़ातिर झुके ठीक है,
पर क़लम अपनी नीचे गिराना नहीं।
—बहूरानी समझदार ऐ! जे बता, तैनैं कबहुं कोई सम्मान लौटायौ ऊ ऐ का?
—ना चचा ना! मैंने कभी कोई सम्मान नहीं लौटाया। सम्मान देने वाला इसलिए सम्मान देता है कि उसके मन में आपके प्रति आदर-भाव है। वह आप में आस्था रखता है। आपकी इज़्जत करता है, लिहाज़ करता है। आपके प्रति श्रद्धा और समादर की भावना है उसके मन में। सारी भीड़ में से उन्हें आपका चेहरा दिखा। उन्होंने नवाज़ा, मैंने स्वीकार किया।
—तो लल्ला जे बता, सम्मान ठुकराइबे वारे की का मानसिकता होय?
—हवा और हंसी में अनीति घुसी हुई है। आदमी अपना लाभ-अलाभ देखता है। सम्मान अगर घोषित हो गया तो एक प्रकार से मिल ही गया, लेकिन यदि अस्वीकार कर दिया तो आप अपनी और अपने गढ़े हुए समाज की नज़र में और ज्यादा सम्मानित हो गए। दोहरा-तिहरा सम्मान हो गया। बहाने कुछ भी बना लो लेकिन मैं समझता हूं कि ठुकराने का निर्णय, अधिक लाभ उठाने की कामना से उत्पन्न होता है। ले भी लिया और नहीं भी लिया। लेकर बड़े हो गए, नहीं लेकर और बड़े हो गए।
—तेरे हिसाब ते हर सम्मान स्वीकार कन्नौ चइऐ?
—मैंने ऐसा नहीं कहा चचा। कुछ संस्थाएं योग्य और नामी व्यक्ति को सम्मानित करके खुद को सम्मानित करती रहती हैं। यह भी होता है। ऐसी संस्थाओं को चलाने वाले सोचते हैं कि साहित्यकार कलाकार सम्मान के भूखे होते हैं, दौड़े-दौड़े चले आएंगे।
—फिर ठुकराइबे में का हर्ज ऐ?
—अब यह तो ये लोकतंत्र है चचा! अपने-अपने विवेक की बात है। बहुतों ने पद्मभूषण ठुकरा दिया, पद्मश्री ठुकरा दी। पर मैं दूसरी बात कह रहा हूं। उन लोगों की जो अपनी नज़र में अपने आपको ज्यादा बड़ी संस्था मानते हैं और सम्मानों और सम्मान देने वालों का स्वीकृति देने के बावजूद अनादर करते हैं। वे उन भावनाओं रौंद देते हैं जो आपके प्रति शुद्ध पद्धति से जन्मीं। अरे, जिन्होंने आपको किसी भी रूप में पूजनीय, माननीय, मोहतरम, वन्दनीय, वरेण्य माना, आपके सत्कार्यों को सम्मान के योग्य पाया, आपकी स्तुति गाई, उनका अपमान कैसे कर सकते हो? एक बार ठुकरा दोगे तो दूसरे भी सौ बार सोचेंगे कि हमने अगर इसको महान बना दिया तो वह तुम्हें बौना सिद्ध करने पर आमादा हो जाएगा।
—कछू उकसाइबे वारे ऊ तौ हौंय लल्ला।
—बिल्कुल होते हैं चचा। निहित स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर उन लोगों के प्यार को ठुकरा देते हैं जिन्होंने आपको सिर माथे चढ़ाया। कहां तक रोओ। इसलिए सम्मान के लेने और देने की चिंता छोड़ कर आराम से बांह का तकिया बना कर सोओ। बाई-द-वे बगीचीश्री कब दे रहे हो? निश्चित तिथि बताओ। बहुत बिज़ी हूं आजकल। बगीचीश्री का कोई ड्रेस कोड हो तो वो भी बता दो। लंगोट पहन कर भी आ सकता हूं। उसे अश्लील तो नहीं मानोगे?

Wednesday, March 10, 2010

रोमन से मत रो मन

—चौं रे चम्पू! पिछली बात आगे बढ़ामैं का?
—कौन सी बात चचा?
—अरे यूनिकोड वारी। कोडिंग-एनकोडिंग का बताई तैनैं? यूनिकोड नै का कियौ?
—यूनिकोड ने सबसे बड़ा काम यह किया कि हर महत्वपूर्ण भाषा के लिए मानक निर्धारित करते हुए एक निश्चित एनकोडिंग प्रणाली विकसित की। यह एनकोडिंग प्रणाली कोई नई बात नहीं है। दस साल से चलन में है। लोगों को अभी तक इसका ज्ञान ही नहीं है कि यूनिकोड क्या है, और उसने क्या कर डाला है?
—तू ई समझा!
—ज़रूर चचा, ज़रूर। कितने अण्डे, कितने डण्डे यानी कितने ज़ीरो कितने एक, ये हुई कोडिंग और उनसे बनेगा क्या, ये हुई एनकोडिंग। मोटी-सी बात है। यूनिकोड की इस मानक एनकोडिंग प्रणाली से अगर मैं इंटरनेट पर किसी भी कीबोर्ड से हिन्दी में कुछ लिखता हूं तो संसार के सारे कम्प्यूटरों में हिन्दी ही खुलेगी। पहले ऐसा नहीं होता था। पहले हम ‘इस्की’ प्रणाली में विकसित किसी फ़ॉण्ट में कोई लेख भेजते थे तो हमें साथ-साथ वह फ़ॉण्ट भी भेजना पड़ता था। बिना उस फ़ॉण्ट के लेख खुलता नहीं था। कचरा दिखाई देता था। बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था, चचा। या फिर लेख को स्कैन करके या फ़ोटो खींच कर उसकी भारी इमेज फाइल बनाओ।
—जे इमेज फाइल का ऐ रे?
—चचा, कम्प्यूटर में हर चीज की बनती हैं फाइलें। जो पाठ की होती हैं उनको टैक्स्ट फाइल कहते हैं, जो चित्रों की होती हैं उन्हें इमेज फाइल कहते हैं, जो ध्वनियों की फाइल होती हैं, उन्हें ऑडियो फाइल कहते हैं। ये सब डण्डे और अण्डे का ही गणित है चचा। सब कुछ बनता उनसे ही है।
—कमाल है! डण्डा और अण्डा ते ई तस्वीर दिखै और डण्डा और अण्डा ते ई पाठ आ जाय!
—यही तो ठाठ है चचा! हम बात कर रहे थे अपनी हिन्दी की। सरकारी स्तर पर सीडेक नाम की कम्पनी ने ‘जिस्ट’ तकनीक से हिन्दी का काफी काम किया था। कुछ सरकारी कार्यालयों में अभी भी वह तकनीक प्रयोग में लाई जाती है, लेकिन अब तो सरकार ने भी यूनिकोड को अपनाने के आदेश दे दिए हैं। आज कम्प्यूटर और इंटरनेट पर स्थान की कोई कमी नहीं है। अनंत सूचनाओं के लिए अनंत स्थान है। नई पीढ़ी के बच्चे-बच्चियां जिन्हें प्राथमिक शालाओं में हिन्दी सीखने को नहीं मिली और वे लोग जो हिन्दी बोलते तो हैं, लेकिन हिन्दी लिखने से भागते हैं, उनके लिए यूनिकोड एक वरदान है। भारत में कम्प्यूटर का इस्तेमाल करने वाला लगभग प्रत्येक व्यक्ति रोमन कीबोर्ड को जानता है।
—सो तो है।
—हिन्दी टाइपिंग जानने वालों को रैमिंग्टन कीबोर्ड आता है और सरकारी कार्यालयों में हिन्दी में काम करने वाले रैमिंग्टन के अलावा इंस्क्रिप्ट कीबोर्ड भी जानते हैं, लेकिन आज हिन्दी के फोनेटिक कीबोर्ड से रोमन अक्षरों द्वारा भी देवनागरी प्राप्त की जा सकती है। जैसे आजकल मोबाइल पर लोग रोमन लिपि में अंग्रेजी वर्णों में हिन्दी लिखते हैं और पढ़ने वाले को रोमन लिपि में ही हिन्दी का संदेश समझ में आ जाता है। यूनिकोड ने उससे आगे का काम कर दिया।
—का मतलब?
—टाइप करो अंग्रेजी में और पाओ देवनागरी हिन्दी। हिन्दी ध्वन्यात्मक भाषा है न चचा! जैसी बोली जाती है, वैसी लिखी जाती है। आज यदि किसी को हिन्दी की पारंपरिक टाइपिंग नहीं आती है तो वह बड़े मज़े से रोमन कीबोर्ड पर देवनागरी लिपि में लिख सकता है। विदेशी कम्पनियों ने भारत के बाजार में हिन्दी को एक उपभोक्ता सामग्री के तौर पर देखा। अब गूगल, याहू, एमएसएन जैसे पोर्टलों पर और इंटरनेट ब्राउज़र्स पर हिन्दी आराम से लिखी जा सकती है।
—अंग्रेजी ते पिंड तौ नायं छूटौ ना!
—किसी भाषा से नफ़रत क्यों करें? अंग्रेज़ी भी हमारी है। यदि वह हिन्दी प्राप्त कराती है और व्यापक प्रचार-प्रसार में सहायक है तो उसे धन्यवाद देना चाहिए। असल बात तो यह है कि अंग्रेजी में टाइप करने के बावजूद स्क्रीन पर दिखाई तो हिन्दी ही दे रही है। अकेली हिन्दी नहीं भारत की सारी महत्वपूर्ण भाषाएं, यहां तक कि दाएं से बाएं दिशा में लिखी जाने वाली उर्दू भी। इसलिए रोमन से मत रो मन। कैसे भी लिख, हिन्दी लिख, उर्दू लिख। पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगू , उड़िया, बांग्ला कुछ भी लिख। तुझे अपनी भाषा और लिपि से प्यार है, तो आज यूनिकोड की मेहरबानी से संभावना अपार है।

Tuesday, March 09, 2010

टें बोल दो ना!

बच्चे ने रट लगा दी,
बार-बार कहे-
दादी!
तोते की तरह
टें बोलकर दिखाओ!

दादी भी अड़ गई-
क्यों बोलूं पहले ये बताओ?

आख़िरकार बच्चे ने राज़ खोला
बड़ी ही मासूमियत से बोला-
कल रात जब
मैं झूटमूट को सो रहा था,
तब पापा ने
मम्मी से कहा था
कि अम्मा जब
टें बोलेगी तो
ख़ूब सारे रुपए मिलेंगे,
फिर हम
ये घर बेच के
नया घर लेंगे।
दादी ने किसी तरह
रोक लिया रोना,
बच्चा ज़िद कर रहा था-
अब तो टें बोल दो ना!

देर कर दी

नदी में डूबते हुए एक आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को देखकर
आवाज़ लगाई- बचाओ।

पुल पर चलते आदमी ने
नीचे रस्सी गिराई
और कहा- आओ।

लेकिन डूबता हुआ आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था,
रह रह कर चिल्ला रहा था-
मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी मंहगी ज़िंदगी है,
कल ही तो
ए.बी.सी. कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।

इतना सुनते ही
ऊपर वाले आदमी ने
अपनी रस्सी खींच ली,
और उसे डूबकर मरता देख
अपनी आंखें मींच लीं।

और दौड़ता-दौड़ता
ए.बी.सी. कंपनी आया
हांफते-हांफते उसने
अधिकारी को बताया-
देखिए,
अभी-अभी आपका एक आदमी
डूबकर मर गया है
और इस तरह
आपकी कम्पनी में
एक जगह
ख़ाली कर गया है।
लीजिए, मेरी डिग्रियां संभालें,
बेरोज़गार हूं, मुझे लगा लें।

अधिकारी हंसते हुए बोला-
दोस्त, तुमने देर कर दी
अभी दस मिनिट पहले
हमने ये जगह भर दी।
और इस नौकरी पर हमने
उस आदमी को लगाया है,
जो उसे धक्का देकर
तुमसे पहले यहां आया है।

Tuesday, March 02, 2010

अण्डा, डण्डा और हिन्दी का फण्डा

—चौं रे चम्पू! तू भौत हल्ला मचायौ करै, यूनिकोड यूनिकोड। जे यूनिकोड है का बला?
—चचा, इसको बला मत कहना। ये कर रहा है, हमारा, हमारी हिन्दी का और हमारे भविष्य का भला। यूनिकोड भाषाओं के लिए एक महागोद है, जिसमें संसार भर की तमाम महत्वपूर्ण भाषाएं आमोद कर रही हैं।
—तो जे बनायौ कौन्नै? है का चीज़? कम्प्यूटर तौ अंग्रेजी में काम करैं।
—बहुत ग़लत सोचना है आपका। जानकारियों के अभाव में, जैसा आप सोचते हैं, ऐसा बहुत सारे लोग सोचते हैं। दरअसल, कम्प्यूटर कोई एक भाषा नहीं जानता। सिर्फ अंग्रेज़ी जानता हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। वह तो केवल दो चीज़ें जानता है— एक अण्डा और एक डण्डा।
—अच्छा भैया! अण्डा और डण्डा! अब कछू खोल कै बता मेरे पण्डा।
—चचा! अण्डा माने शून्य, जिसका आविष्कार हमारे देश ने किया है, ऐसा बताया जाता है। डण्डा माने एक की संख्या। कम्प्यूटर केवल इन दो को जानता है। ज़ीरो और एक। इन्हीं के गणित से सारी चीज़ें बन जाती हैं। अण्डे कितने भी हो सकते हैं और डण्डे भी कितने ही हो सकते हैं। आगे-पीछे हो सकते हैं। चार अण्डे आए फिर एक डण्डा आया। दस डण्डे आए फिर एक अण्डा आया। ज़ीरो और वन के कॉम्बिनेशन से बनती हैं सारी चीज़ें। भाषाएं, चित्र, ध्वनियां और चलचित्र, सब कुछ। हर क्षेत्र के सारे काम करते हैं ये अण्डा और डण्डा, यही है कम्प्यूटर का बेसिक फण्डा।
—अच्छा जी! और यूनिकोड?
—यूनिकोड का संबंध भाषाओं से है। दरसल, यूनिकोड कन्सॉर्शियम नाम का एक स्वयंसेवी संगठन है जिसका इरादा फायदा कमाने का नहीं है। लगभग तेईस साल से कम्प्यूटर विशेषज्ञ भाषाओं से जुड़े अनुसंधान कार्य में लगे हुए हैं। यह संगठन चाहता है कि संसार की सभी महत्वपूर्ण भाषाओं के हर वर्ण के लिए अण्डों और डण्डों की संख्या निर्धारित कर दी जाए। यूनिकोड स्टैंडर्ड बना दिया जाए। भाषाओं का मानकीकरण कर दिया जाए। एक निश्चित एनकोडिंग प्रणाली विकसित कर दी जाए।
—सो तो ठीक ऐ, फ़ायदा नायं कमामैं, तौऊ कछू खर्चा तौ आतौ होयगौ। पइसा कहां ते आवै?
—संगठन के सदस्यों से। संसार भर में इसके सदस्य हैं। व्यक्ति भी और संस्थाएं भी। दुनिया की जितनी भी महत्वपूर्ण भाषाएं हैं उनके लिए उन्होंने एनकोडिंग प्रणाली विकसित की। कितने अण्डे और कितने डण्डे, इन्हीं के गणित से चलती है कोडिंग और एनकोडिंग प्रणाली। यह प्रारंभ से निश्चित है कि कितने अण्डे और कितने डण्डे से अंग्रेजी का ‘ए’ बनेगा। क्योंकि अंग्रेजी का कीबोर्ड वही का वही चला आ रहा है, जो पहले टाइपराइटर के साथ बना होगा। लेकिन यूनिकोड स्टैंडर्ड से पहले तक यह निश्चित नहीं था कि कितने अण्डे और कितने डण्डे से हिन्दी का ‘अ’ बनेगा। उससे पहले हमें आधारित रहना पड़ता था अंग्रेजी पर। इसीलिए लोगों को आज भी भ्रम रहता है कि कम्प्यूटर सिर्फ अंग्रेजी जानता है।
—अंग्रेजी पै आधारित कैसै रए?
—हम क्या करते थे कि अंग्रेजी के जो लिपि-चिन्ह थे उनके ऊपर अपनी भाषा के वर्णों को चिपका लिया करते थे। उसी तरह के टाइपराइटर रैमिंग्टन कम्पनी ने बना दिए।
—वाह रे अंग्रेज तेरौ टाइपराइटर! मारौ कहीं पर लगै वहीं।
—हां चचा! टाइपराइटर तो लोहे का था। अंग्रेजी वर्णों की जगह हिन्दी वर्ण ढाल लिए, लेकिन कम्प्यूटर जब कोई वर्ण छापता है तो टाइपराइटर या छापेखाने की तरह ठप्पा या छापा थोड़े ही मारता है, वहां तो सॉफ़्टवेयर काम करते हैं, जो अण्डे और डण्डे से बनते हैं। जिससे चलती है एनकोडिंग प्रणाली। कम्प्यूटर आया तो हमने अंग्रेजी वाली ही अपना ली। जिसे ऐस्की प्रणाली कहते हैं। भारतीय भाषाओं के लिए इसका नाम हमने रख दिया इस्की। यानी अगर हम अंग्रेजी में ‘डी’ टाइप करंगे तो ‘डी’ छपेगा, लेकिन हमने इस्की प्रणाली में कम्प्यूटर को हिन्दी के लिए यह आदेश दिए कि अगर हम ‘डी’ दबाएं तो ‘डी’ मत दिखाना, उसकी जगह ‘क’ दिखाना। ऐसी प्रोग्रामिंग कर दी। आ तो गई हिन्दी पर अंग्रेजी के जरिए आई। ये थी फॉण्ट पर आधारित इस्की प्रणाली।
—वाह रे तेरी इसकी, उसकी, जानै किस-किसकी प्रणाली?
—इसकी, उसकी, जाने किस-किसकी नहीं, चचा! उड़ाओ मत मेरी खिसकी। न इसकी न उसकी। ‘इस्की’ का मतलब है इंडियन स्टैंडर्ड कोड फ़ॉर इंफ़ॉर्मेशन इंटरचेंज। यह विकसित हुआ था ‘एस्की’ से। यानी, अमेरिकन स्टैंडर्ड कोड फ़ॉर इंफ़ॉर्मेशन इंटरचेंज से। यूनिकोड ने इस बंधन से आज़ादी दिला दी।
—जे बात थोरी-थोरी समझ में आई। आगे की बात रुक्कै करियो। चाय पीबैगौ?

Monday, March 01, 2010

होली पर विशेष

होरी पै महंगाई

दीखै उजलौ उजलौ अभी, निगोड़े पर र र र,
दूंगी सान कीच में कानµमरोड़े अर र र र।
कै होरी सर र र र।
बन गई महंगाई इक लाठी, तन पै कस कै मारी रे
बढि़ गए दाम सबहि चीजन के, म्हौं ते निकसैं गारी रे।
होरी पै महंगाई आज दुखी है घर र र र।
कै होरी सर र र र।
दूल्हा बेच, रुपैया खैंचे, जामें हया न आई रे,
छोरी बारे के बारे में, जामें दया न आई रे।
पीटौ खूब नासपीटे कूं, बोलै गर र र र।
कै होरी सर र र र।
डारौ जात-पात कौ जहर, भंग जो तैनें घोटी रे,
नंगे कू नंगौ का करैं, खुल गई तेरी लंगोटी रे।
नेता बन मेंढक टर्रायं, टेंटुआ टर र र र।
कै होरी सर र र र।
छेड़ै भली कली गलियन में, जानैं भली चलाई रे।
तोकूं छोड़ गैर के संग भज गई तेरी लुगाई रे,
डारै दूजी कोई न घास, धूर में चर र र र।
कै होरी सर र र र।
भूली मूल, ब्याज भई भूल, दई दिन दून कमाई रे,
लाला ये लै ठैंगा देख, कि दिंगे एक न पाई रे।
बही-खातौ होरी में डार, चाहे जो भर र र र।
कै होरी सर र र र।
सासू बहू है गई धांसू, आंसू मती बहावै री,
घर ते भोर भए की खिसकी, खिसकी तेरी उड़ावै री।
बल बच गए मगर रस्सी तौ गई जर र र र।
कै होरी सर र र र।
गारी हजम करीं हलुआ सी, ललुआ लाज न आई रे,
तोकूं बैठी रोट खबाय, बहुरिया आज न आई रे।
नारी सच्चेई आज अगारी, पिट गए नर र र र।
कै होरी सर र र र।. .

होली पर विशेष

तू भी रह और महंगाई को भी रहने दे

कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जो कभी बासी नहीं होते, अच्छे-ख़ासे बने रहते हैं। पैंतीस साल पहले जब मैं डीटीसी की बसों में, झोला कंधे पर टांगे, यात्रा किया करता था, उन दिनों भी महंगाई बढ़ रही थी। आज भी उसकी बढ़त जारी है। बस में चढ़ते समय एक विचार ज़ेहन में आया था और कुछ लाइनें मैंने बस में ही गढ़ ली थीं—
बड़ी देर के बाद जब बस आई,
तो सारी भीड़
दरवाजे की तरफ धाई।
सब कोशिश कर रहे थे
इसलिए कोई नहीं चढ़ पा रहा था,
और पीछे खड़े एक आदमी को
बड़ा गुस्सा आ रहा था।
बोला--
अरे क्यों शर्माते हो
लुगाई की तरह,
चढ़ जाओ
चढ़ जाओ
महंगाई की तरह।

बस में धक्के खाते और धकियाते हुए तेज़ी से चढ़ना उस समय एक कौशल हुआ करता था, और महंगाई भी बड़े कौशल से चढ़ रही थी। अलग-अलग समय पर अलग चीजों के दाम बढ़ते रहे। मुई प्याज के बढ़ते दामों के कारण तो दिल्ली में सरकार ही बदल गई थी। उन दिनों मैंने प्याज का एक पहाड़ा लिखा था—

प्याज़ एकम प्याज़,
प्याज़ एकम प्याज़।

प्याज़ दूनी दिन दूनी,
कीमत इसकी दिन दूनी।

प्याज़ तीया कुछ ना कीया,
रोई जनता कुछ ना कीया।

प्याज़ चौके खाली,
सबके चौके खाली।

प्याज़ पंजे गर्दन कस,
पंजे इसके गर्दन कस।

प्याज़ छक्के छूटे,
सबके छक्के छूटे।

प्याज़ सत्ते सत्ता कांपी,
इस चुनाव में सत्ता कांपी।

प्याज़ अट्ठे कट्टम कट्टे,
खाली बोरे खाली कट्टे।

प्याज़ निम्मा किसका जिम्मा,
किसका जिम्मा किसका जिम्मा।

प्याज़ धाम बढ़ गए दाम,
बढ़ गए दाम बढ़ गए दाम।

जिस प्याज़ को
हम समझते थे मामूली,
उससे बहुत पीछे छूट गए
सेब, संतरा, बैंगन, मूली।

प्याज़ ने बता दिया कि
जनता नेता सब
उसके बस में हैं आज,
बहुत भाव खा रही है
इन दिनों प्याज़।

प्याज के साथ घर में सब्जियों में भी कटौती होने लगी। पप्पू अपने टिफिन के लिए परेशान रहने लगा कि कहां तो मम्मी चार-चार तरह की चीजें रख कर स्कूल भेजा करती थी, अब अचार रखने में भी समस्या आने लगी। जो नजारा सामने आया वह एक कुंडलिया छंद में बदल गया—
मम्मी से कहने लगा, पप्पू हो लाचार,
तुमने मेरे टिफिन में रक्खा नहीं अचार।
रक्खा नहीं अचार, रोटियां दोनों रूखी,
उतरी नहीं गले से मेरे, सब्ज़ी सूखी।
होली पर मां की आंखों में आई नम्मी,
टिफिन चाट गई सुरसा, महंगाई की मम्मी।

जब-जब सरकार को नीचा दिखाना होता है या चुनाव आना होता है तब महंगाई ऐजेण्डे में कूद कर सबसे ऊपर जा बैठती है। बढ़ी महंगाई के कारण आम आदमी को राहत देने के लिए लुभावने बजट बनाए जाते हैं। वह मौका भी होली का था जब मैंने पिछली सरकार के रहते चुनावों और बजट के समय एक कुण्डलिया छंद बनाया था--

गाई सबने आरती, हो गई जय जय कार,
दोऊ हाथ उलीच कर, खूब किया उपकार।
खूब किया उपकार, बजट है वोट-बटोरू,
ढोल नगाड़ों में गुमसुम गरीब की जोरू।
क्या कर लेंगे यदि अपनी सरकार न आई,
अगली गवरमैंट ही झेलेगी महंगाई।

बहरहाल फिर होली आ गई है। किस तरह का रोना? होली का त्यौहार है कुछ ऐसी स्थितियों का होना, जिसमें दुःख में सुख मनाओ, रोते-रोते भी गाओ। मौका ऐसा है कि जिसे भी गरियाना हो गाते हुए गालियां सुनाओ। सर र र र करती हुई गालियां उसके कान में अर र र र कर देंगी। सोचने को मजबूर तो करेंगी। तो आइए, बैठ जाइए। गाइए हमारे साथ सर र र र। ये सर र र र कहीं जोगीड़ा के रूप में, कहीं कबीरा के रूप में पूरे हिन्दी अंचलों में गाई जाती है। उठाइए ढोलक और हो जाइए तैयार। समझिए स्वयं को नारी। चलिए गाते हैं--

दीखै उजलौ उजलौ अभी, निगोड़े पर र र र,
दूंगी सान कीच में कान-मरोड़े अर र र र।
कै होरी सर र र र।

बन गई महंगाई इक लाठी, तन पै कस कै मारी रे,
बढ़ि गए दाम सबहि चीजन के, म्हौं ते निकसैं गारी रे।
होरी पै महंगाई आज, दुखी है घर र र र।
कै होरी सर र र र।

महंगाई बढ़ती है तो बाई प्रोडक्ट के रूप में दूसरी चीजें भी बढ़ जाती हैं। दहेज के रेट अकल्पनीय रूप से बढ़ रहे हैं। हमारे पास तो गाली गाने का मौका है—

दूल्हा बेच, रुपैया खैंचे, जामें हया न आई रे,
छोरी बारे के बारे में, जामें दया न आई रे।
पीटौ खूब नासपीटे कूं, बोलै गर र र र,
कै होरी सर र र र।

महंगाई ही बढ़ाती है जात-पांत की भावना। आप पूछेंगे ऐसा कैसे? हम बताते हैं आपको कि ऐसे—
डारौ जात-पांत कौ जहर, भंग जो तैनें घोटी रे,
नंगे कू नंगौ का करैं, खुल गई तेरी लंगोटी रे।
नेता बन मेंढक टर्रायं, टेंटुआ टर र र र,
कै होरी सर र र र।

सामाजिक संबंधों के साथ-साथ प्रेम संबंध भी दरकने लगते हैं। कभी प्रेमिका तो कभी प्रेमी दूसरी तरफ सरकने लगते हैं। ऐसे सरकने वाले तू भी सुन ले—

छेड़ै भली कली गलियन में, जानैं भली चलाई रे,
तोकूं छोड़ गैर के संग, भग गई तेरी लुगाई रे।
डारै दूजी कोई न घास, धूर में चर र र र,
कै होरी सर र र र।

उधार लेना बन जाता है मजबूरी, लेकिन चुकाना थोड़े ही है जरूरी। होलिका दहन के समय लाला के बहीखाते किस काम आएंगे। पहले ही बता दिया है, लाला सुन ले—

भूली मूल, ब्याज भई भूल, दई दिन दून कमाई रे,
लाला ये लै ठैंगा देख, कि दिंगे एक न पाई रे।
बही-खातौ होरी में डार, चाहे जो भर र र र,
कै होरी सर र र र।

अब अकेले की आमदनी से काम नहीं चलता। घर की नारियों को भी काम पर जाना होता है। बहु घर से निकलती है तो सासू का मनुआ रोता है। सासू तेरे लिए भी कुछ मीठे बोल हैं—

सासू बहू है गई धांसू, आंसू मती बहावै री,
घर ते भोर भए की खिसकी, खिसकी तेरी उड़ावै री।
बल बच गए, मगर रस्सी तौ गई जर र र र,
कै होरी सर र र र।
नारी काम पर जाए और नर घर बैठ कर मौज करे, ऐसे नजारे भी कम नहीं हैं। ऐसे लोगों की गाली पाचन शक्ति बड़ी प्रबल होती है, फिर भी कहने में क्या हर्ज है—

गारी हजम करीं हलुआ सी, ललुआ लाज न आई रे,
तोकूं बैठी रोट खबाय, बहुरिया आज न आई रे।
नारी सच्चेई आज अगारी, पिट गए नर र र र।
कै होरी सर र र र।

महंगाई स्वयं एक नारी है, पिटेगी कैसे? महिला सशक्तीकरण के दौर में महंगाई से घबराना नहीं है। दो ही तरीके हैं या तो लड़ो या ज़्यादा काम करो।

जो मेहनत करी, तेरा पेशा रहेगा,
न रेशम सही, तेरा रेशा रहेगा।
अभी करले पूरे, सभी काम अपने,
तू क्या सोचता है, हमेशा रहेगा।

और प्यारे जब तू ही नहीं रहेगा तो महंगाई कहां रहेगी, इसलिए अच्छा ये है कि तू भी रह और महंगाई को भी रहने दे।