Wednesday, July 28, 2010

शब्दोत्तर और लोकोत्तर मनोभूमि

—चौं रे चम्पू! कानन में तार ठूंस कै का सुनि रह्यौ ऐ रे?
—चचा, भारतीय कविता उत्सव का टेप सुन रहा हूं, हैडफोन लगा के। आप को भी सुनवाऊंगा। उड़िया कवि डॉ॰ सीताकान्त महापात्र ने अपनी भाषा में पांच कविताएं सुनाई थीं और फिर डॉ॰ रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव परिचयदास ने उनका अनुवाद पढ़ा था।
—कबितान कौ अनुबाद तौ भौत मुस्किल काम ऐ।
—मुश्किल है पर यदि अनुवादक भी अच्छा कवि हो, उसे पर्याप्त से अधिक भाषा-ज्ञान हो तो इतना मुश्किल नहीं है। अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करना मुश्किल हो सकता है क्योंकि वाक्य-विन्यास और शब्द-ध्वनियों में काफ़ी अन्तर होता है, पर किसी अन्य भारतीय भाषा से हिन्दी में अनुवाद करना उतना कठिन नहीं होना चाहिए।
—हां, तौ आगे बता!
—मैंने एक बात पर ध्यान दिया कि जब उड़िया में महापात्र जी अपनी कविता सुना रहे थे तो ध्वनियां हमें आह्लादित कर रही थीं। कविताएं समझ में नहीं आ रही थीं। संस्कृत हमारी भाषाओं की मूल है, इसलिए कुछ-कुछ शब्द तो समझ पाता था, लेकिन पूरा भाव पल्ले नहीं पड़ रहा था। ऐसा ही सभागार में रहा था। कविता पूरी समझ में नहीं आईं फिर भी हर कविता के समापन पर तालियां बज रही थीं। शब्दोत्तर और लोकोत्तर मनोभूमि का आनंद था। लेकिन जब उनका अनुवाद पढ़ा गया, कविताएं समझ में आईं, तो पहले से कहीं ज़ोरदार तालियां बजीं। कविता के समापन पर ही नहीं, बीच-बीच में भी। लोगों ने पहली बार जो तालियां बजाईं वे महापात्र जी के महाकवि के लिए बजाईं थीं। उनके अपने श्रीमुख से सुनना एक अनुभव था। यह भी कह सकते हैं की वे सम्मान की तालियां थीं, और जब श्रीवास्तव जी ने उन्हीं कविताओं का हिन्दी अनुवाद सुनाया, तब जो तालियां बजीं वे तालियां अनुवादक के लिए उतनी नहीं थीं, जितनी महापात्र जी की कविता के लिए। अनुवाद के बाद कविता हम तक पहुंच गई न! कविता का उत्स ही न समझ में आए तो उत्सव क्या मनेगा?
—जे बात तौ तेरी सई ऐ!
—कविताएं सुनाने से पहले एक बात महापात्र जी ने कही थी कि कविता का ये उत्सव हमारी पारस्परिकता के लिए है और अनुवाद की महत्ता उसमें बहुत ज़्यादा है।
—जे बात बी सई ऐ!
—हां चचा, उत्स तक पहुंचने के लिए हमें संप्रेषण का कोई तो पुल चाहिए। अनुवाद के पुल पर चलकर हम महापात्र जी की अद्भुत कल्पनाओं और निराले बिंबों तक पहुंच सके। माचिस की डिबिया में तीली बनकर यात्रा करने के बाद कविता का नायक देर से पहुंचा। दादी के ऊपर चढ़ी चादर ने आकाश से संपर्क साध लिया। पिता की छाया, गोबर लिपी दीवार पर रो रही थी। माटी की महक और क्षितिज में डूबते हुए सूरज के साथ पिता भी चले गए। क्या बिम्ब-माला रची थी! एक कविता में भिखारी बच्चा कोमल स्पर्श तब महसूस कर पाता है जब उसकी देह न रही। चंदा उसके अल्मूनियम के कटोरे में सिक्के की तरह आ गिरा। कविता में शब्दों की खनक और उठने वाली गूंज को सुना जा सकता है। शब्दों की अर्थछायाओं में भी प्रतिच्छायाएं होती हैं चचा। ये प्रतिच्छायाएं हमारे अंदर अवसाद के साथ एक आनन्द को जन्म देती हैं।
—आनंद कैसौ लल्ला?
—हम अपने स्वयं के अनुभवों में झांकने लगते हैं न। कवि के साथ हमारी अपनी कल्पनाएं भी एक झरना बन जाती हैं। अच्छी कविता वही होती है जो सुनने-पढ़ने वालों को भी कवि बना दे। तनावों में अकुंठ करे। एक बात तो तय है कि कविता के जितने फलक और आयाम हो सकते हैं, वे केवल कवि-प्रदत्त ही नहीं होते। एक बार जब कवि कविता सुना देता है तो वह उसकी कहां रह जाती है? वह तो सबकी हो जाती है। स्वयं में एक सत्ता बन जाती है। कविता बढ़ने लगती है, नए-नए शब्द गढ़ने लगती है। शब्द भी अकेला नहीं आता। अपने साथ पूरा कुनबा लेकर आता है। कुनबे के साथ पूरा समाज चला आता है। शब्दों के संकल्प-विकल्प देता है। मैं अक्सर कहता हूं— मेरे शब्द, शब्द नहीं हैं, डूबते को सहारे के तिनके हैं। और मेरे भी कहां हैं वे शब्द, पता नहीं किन-किन के हैं? लो तुम्हें दे रहा हूं गिन-गिन के, तुम्हारे हो जाएंगे अगर तुम हो सकोगे इनके।
—ला, जे तार मोय दै, मैं सुनुंगो। हैडफोन लगाय कै!

Wednesday, July 21, 2010

गुद्दे पर मुद्दे और गुदगुदी कुर्सी

—चौं रे चम्पू! सिडनी ते लौटतेई भोपाल चलौ गयौ, भोपाल ते लौटौ ऐ तौ मुम्बई जाइबे की तैयारी ऐ, पकड़ में ई नांय आवै। बे-लगाम है गयौ ऐ। गल्त कहि रह्यौ ऊं का?
—चचा मेरी लगाम किसी एक के पास नहीं है, और लगाम जब ज़्यादा लोगों के पास हो तो सबके इशारों पर चलना पड़ता है। परसों वीरभूम ज़िले में एक रेल बे-लगाम हो गई थी पर तुमने बे-लगाम कहा तो मुझे बेलगांव याद आ गया। वहां के हालात भी बे-लगाम हैं।
—का भयौ?
—बेलगांव, महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर है, कर्नाटक में। वहां भाषाई आधार पर दोनों प्रांत झगड़ रहे हैं।
—भाषा झगरिबे की चीज थोड़ैई ऐ लल्ला!
—यही तो अभी तक लोगों की समझ में नहीं आया। भाषाएं एकदूसरे को जोड़ने के लिए हैं न कि नाता तोड़ने और सिर फोड़ने के लिए। माना कि भाषा से एक संस्कृति की पहचान बनती है। एक भाषा-भाषी एक समान सांस्कृतिक आधार रखते हैं, लेकिन संस्कृतियां टकराने के लिए नहीं बनी हैं। संस्कृतियां घुलन-मिलनशील होकर मनुष्यता को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं।
—तौ मसला का ऐ?
—मसला ये है कि कर्नाटक के बेलगांव, कारवाड़, बीडर और गुलबर्गा चार ज़िलों के आठ सौ पैंसठ गांवों में काफ़ी संख्या में मराठी रहते हैं। भाषाई अस्मिता के नाम पर महाराष्ट्र चाहता है इन चारों जिलों के आठ सौ पैंसठ गांव महाराष्ट्र में सम्मिलित कर लिए जाएं। सीमा का यह विवाद सीमा से ज्यादा बढ़ गया है चचा। ….और कहते हैं कि जब तक फैसला न हो, तब तक इस क्षेत्र को केंद्र शासित घोषित कर दिया जाय।
—बड़ी अजीब बात ऐ रे!
—हां चचा, दिल्ली का उदाहरण देता हूं। आर.के.पुरम में ज़्यादातर लोग दक्षिण के हैं, आज अगर भाषाई अस्मिता के नाम पर कर्नाटक-तमिलनाडु ये दावा करने लगें कि आर.के.पुरम हमें दे दो, कोई मानेगा क्या? चितरंजन पार्क में बंगाली अधिक रहते हैं तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि चितरंजन पार्क पश्चिम बंगाल को सौंप दिया जाय। पटेल नगर पंजाब को, नजफ़गढ़ हरियाणा को, होडल-पलवल ब्रजभाषा के आधार पर उत्तर प्रदेश को देने का निर्णय लो और जब तक निर्णय न हो तब तक इन्हें यूनियन टैरेटरी घोषित कर दो। ऐसा तो सपना भी नहीं देख सकते।
—तू बेलगाम की बता।
—मराठी माणूस पीढ़ियां पहले कर्नाटक आए थे, यहां उन्नति की सीढ़ियां चढ़ते-उतरते गए। सहजता से कन्नड़ भाषा सीख ली। कारोबार कन्नड़ में, पारिवारिक लोकाचार मराठी में। बहरहाल, कर्नाटक के जन-जीवन में घुल-मिल गए। बेलगांव के वडगांव नामक इलाके में कितने ही कन्नडिगा बुनकर परिवार हैं जो पैथानी साड़ी बनाते हैं। पैथान नाम का कस्बा बेलगांव से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर होगा, जो कि महाराष्ट्र में है। इस साड़ी पर कर्नाटक के लोग गर्व करते हैं पर नाम मराठी है। बुनकर और साड़ी के कारोबारी मराठी भी हैं, कन्नड़ भी हैं। बड़ी शानदार साड़ी है। उसमें ज़री के तार और कपास महाराष्ट्र के तो रेशम कर्नाटक की होती है। कहीं का ताना कहीं की भरनी दोनों के तारों से बुनी चदरिया। ये लोग अपनी बनाई हुई साड़ी से ही प्रेरणा नहीं लेते। क्या दिल के तारों की बुनी हुई मिली-जुली संस्कृति की साड़ी को पहन-ओढ़ नहीं सकते। उस संस्कृति की साड़ी को पहनेंगे तो अगाड़ी जा सकते हैं। चीरा-फाड़ी रोकें, हिंसा रोकें।
—जे हिंसा-फिंसा तौ नेता लोग करायौ करें लल्ला!
—क्या अरब-खरब टके की बात कही है चचा। आगामी चुनावों को ध्यान में रखते हुए बहुत सारे स्थानीय नेता जो राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने के लिए और अपनी बारगेनिंग पावर बढ़ाने के लिए ही ऐसा करते हैं। मुद्दों की कमी है। ले देकर भाषा और क्षेत्रीयता का मुद्दा बचता है। सो भाषा के आधार पर लड़ाते हैं। जनतंत्र के निरीह भोले जनों को इनके इरादों के भालों का क्या पता। इनका शिकार हो जाते हैं। नई पीढ़ी अंतर्प्रांतीय-अंतर्क्षेत्रीय विवाह कर रही है, सबसे बड़ी समस्या उसकी है। नेपथ्य की राजनीति उनका पथ्य छीन रही है चचा।
—नेतन कूं तौ मुद्दा चइऐ!
—सत्ता की कुर्सी बनाने के लिए पेड़ चाहिए। पहले नफ़रत के बीजों से मुद्दों का पेड़ उगाएंगे, फिर उसके गुद्दे पर बैठेंगे और इन बेमतलब मुद्दों से गुदगुदी कुर्सी के मजे पाएंगे।
—पतौ नायं कब हमारी जनता इन फालतू के मुद्दन के गुद्दन कूं काट कै ओछे नेतन के ताईं खाट बिछाऐगी?

आधा इधर आधा उधर

—चौं रे चम्पू! सिडनी ते अब आयौ रे?
—चचा, तीन-चार दिन हो गए।
—तीन चार दिना है गए और आज आयौ ऐ बगीची पै?
—आपकी बगीची के अलावा मेरा एक चमन भी है चचा, वहां आए हुए थे कवि उदय प्रताप सिंह। उन्होंने भी उलाहना दिया कि इतने दिन हो गए न चिट्ठी न पत्री! मैंने उन्हें उनका ही एक शेर सुना दिया— ’मोबाइलों के दौर के आशिक़ को क्या पता, रखते थे कैसे ख़त में कलेजा निकाल कर।’ वाक़ई चिट्ठियों वाले दिन भी क्या ही दिन थे चचा! उनके साथ चिट्ठियों के बारे में लम्बी चर्चा हुई।
—का चर्चा भई, हमूं सुनैं!
—यही कि पाती क्या-क्या काम करती थी, कितने तरह की होती थी। कौटिल्य ने बताया कि पत्र में तेरह तरह के भाव प्रकट होते— निंदा, प्रशंसा, इच्छा, आख्यान, अर्चना, प्रत्याख्यान, उपालंभ, निषेध, प्रतिषेध, प्रेरणा, सांत्वना, भर्त्सना और अनुनय।
—सब रट लए तैंनैं?
—ये भाव तो कौटिल्य के ज़माने के थे, लेकिन यह कुछ अजीब सी बात है कि जिन पत्रों को लिखने की हमारी सबसे ज्यादा इच्छा रहा करती थी, वे अक्सर देर में लिखे जाते थे। तेरह क्या तेरह सौ तरह के भाव आते-जाते रहते थे। मन करता था कि एक चिट्ठी में सब कुछ भर दो। गिरिजा कुमार माथुर कितना सही कहा करते थे कि ख़त निजी अखबार है घर का। पहले थीं पाती, पाती और सिर्फ पाती। ये डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू यानी जगत जोड़ते जाले की माया भला कहां थी? आपको पाती का इतिहास बताऊं चचा?
—बता! भूगोल में घूमिबे बारी पाती कौ इतहास बता।
—चचा! प्रारंभ के भी प्रारंभ में संचार के दूत थे प्रकृति और मनुष्य के बीच। देवदूत जन्म देते थे और यमदूत प्राण लेते थे खींच। फिर पत्र-दूत बने मनुष्य और मनुष्य के बीच। पत्र गंतव्य तक पहुंचते थे भले ही रास्ते में खाई हो, खंदक हो या कीच। फिर पता नहीं कब आए कलम और दवात। लेकिन सब जानते हैं ये बात, कि रामदूत बनकर गए थे हनुमान और लेकर गए थे अंगूठी। मेघों को दूत बनाने की कल्पना थी कालीदास की अनूठी। फिर परिन्दे खगदूत बनकर चिट्ठियां ले जाने लगे, और हम यहां नीचे कबूतर जा-जा-जा गाने लगे। फिर आए तुरगदूत घुड़सवार हरकारे, लेकर जाते थे पत्र प्यारे-प्यारे। सात समन्दर पार जल के दूत जल-पोत जहां सामान ढोते थे, वहां वे पत्र भी थे जो कभी हंसाते थे कभी ख़ुद रोते थे। धरती पर पहियों के भरोसे, पत्र यहां-वहां, कहां नहीं खोंसे? लोहे की पटरी पर रेल चली छुक-छुक, स्टेशन-स्टेशन रुक-रुक, लेकिन हर चिट्ठी में धड़कन, धुंआ और धुक-धुक। वायुदूत भारी-भारी हवाई जहाज, एयरमेल आज भी ले जाते हैं मशीन के बाज। फिर जी तार-संचार के दूत आए, बेतार-संचार के दूत आए और जो सबसे ज्यादा काम आए, वे पंचदूत कहलाए।
—पंचदूत कौन से?
—पहला लाल रंग का लैटर बॉक्स, दूसरी ट्रिन-ट्रिन करती टेलीफोन की घंटी, तीसरा खट-खटाखट तार, चौथा टैलेक्स और पांचवां फैक्स। कितना सूकून मिलता है जब एक हाथ डाल जाता है डाकखाने में चिट्ठी। और कितना सूकून मिलता है जब घर के अंदर आकर गिरती है वो चिट्ठी। चिट्ठियों का पहला दुश्मन आया टेलीफोन। इसने बदल दी संदेश की टोन। क्यों लिखें? नम्बर लगाओ तो इसे पाओ, उसे पाओ, जिसे चाहो उसे पाओ। लेकिन टेलीफोन से भी आगे, जमाना बड़ी तेजी से भागे। पिछड़ गए हवाई जहाज, पिछड़ गई रेल क्योंकि आ गई ई-मेल यानी इलैक्ट्रोनिक मेल। संचार का एक जादुई खेल। यहां न खग हैं, न तुरग हैं, न गाड़ी है, न रेल, न जहाज, न तार। आ गई ब्राउजरों की बहार्। वर्ल्ड वाइड वेब में ले जाने वाली नई-नई तकनीकें। बच्चे सब जानते हैं, बेहतर हो उन्ही से सीखें। नेट की दुनिया स्वछंद है। वेब ब्राउजरों के बढ़ते कदम और हर कदम पर इंटरनेट बुलंद हैं। लिखो चाहे जितने लंबे किस्से, पर ई-मेल एड्रेस के होते हैं दो हिस्से। आधा इधर, आधा उधर। बीच में एट दा रेट का निशान, पलभर में करेगा पाती प्रदान।
—अच्छी रही चर्चा!
—हां, ई-मेल है ही ऐसी पाती, जिसमें न पर्चा, न खर्चा। लेकिन हमारी पीढ़ी के पास तो लेखनी भी है और कीबोर्ड की लहर भी है, आधी इधर भी है आधी उधर भी है।

Wednesday, July 07, 2010

इर्द-गिर्द की गर्द

—चौं रे चम्पू! सिडनी में सिरफ रंगल-मंगल ई कर रह्यौ ऐ कै कोई कबता-फबता ऊ लिखी ऐ?
—चचा, यहां सपने में ग़ज़ल हो रही हैं। जब एक-दो शेर हो जाते हैं तब याद आता है कि अरे ये तो सपना है, कहीं सुबह तक भूल न जाऊं, मुझे उठकर काग़ज़-कलम लेने चाहिए। उठकर कागज-कलम लाता हूं और लिखने लगता हूं। ग़ज़ल पूरी हो जाती है। खुश होता हूं। अपने अशार पर मुग्ध होता हूं। अब किसे सुनाऊं? किसे जगाऊं? बिस्तर से उठकर डैक्स्टर के पास जाता हूं….
—जे कौन ऐ?
—डैक्स्टर! सबरीना का एक बड़ा प्यारा सा टॉय पूडुल कुत्ता है चचा। उसे दो दिन के लिए कहीं जाना था सो हमारे यहां छोड़ गई। तो मैं डैक्स्टर महाशय के सामने अपना हासिले-गज़ल शेर गुनगुनाता हूं। फुसफुसाते हुए सुनाता हूं, ताकि कोई जग न जाय। डैक्स्टर एक बेहद समझदार कुत्ता है, पर मेरी ग़ज़ल वह बेचारा क्या समझता, कूं-कूं करके अपने बिस्तर में सो जाता है। फिर मैं भी काग़ज़-कलम तकिए के नीचे रखकर सो जाता हूं। सुबह जब उठता हूं तो देखता हूं कि डैक्स्टर मियां अपने झबरीले बालों में छिपी आंखों से मुझे इस आशा में निहार रहे हैं कि मैं उन्हें प्रात:कर्म के लिए बाहर घुमाने ले जाऊंगा। ले जाऊंगा भैया, ले जाऊंगा! तसल्ली रख! ज़रा अपनी ग़ज़ल तो देख लूं। तकिया हटाता हूं, पर वहां से कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। वहां कुछ नहीं है। यानी सब कुछ सपना था, सपने में उठना सपना था, ग़ज़ल सपना थी। सचाई के रूप में रह गए तकिया, बिस्तर, मैं और डैक्स्टर!
—एक ऊ सेर याद नायं रह्यौ का?
—याद था चचा, एक शेर थोड़ी देर तक याद था, लेकिन दिन की चकाचौंध से घबरा कर दिमाग के गलियारों में जाकर कहीं छिप गया। चचा, दिल-दिमाग में रहेगा तो किसी न किसी रूप में, कभी न कभी निकलेगा ज़रूर। उसके लिए फिर से सपना देखना पड़ेगा, लेकिन दिन में। सपना देखे बिना कविता नहीं आती।
—तुम कबियन की बात निराली। आगे बोल!
—दिन में जब हम सपनीले होते हैं तो भावनाओं से गीले और पनीले होते हैं और दिमाग की सवारी पर शब्दों के पीछे सरपट दौड़ लगाने लगते हैं। आखेट करते हैं शब्दों का, लेकिन चचा, रचना तब दमदार बनती है जब शब्द तुम्हारे पीछे भागें। शब्द तुमसे कहें कि हम तुम्हारे हैं। तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं। हमें रख लो, अपने दिल में, अपने दिमाग में। और कहीं जगह नहीं है तो कुर्ते की जेब में ही रख लो। बटुए में रख लो। घर जाकर निकालना दिल-मन की अलग-अलग जेबों से और सहेज कर सजा देना एक काग़ज़ पर। हम तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराते रहेंगे अगर तुम अपने इर्द-गिर्द पर गहरी निगाह रखोगे।
—इर्द-गिर्द पै निगाह रखि कै का देखौ फिर तैंनैं?
—चचा, यहां व्यवहार का खुलापन देखकर अच्छा लगता है। अजनबियों से भी मुस्कान का आदान-प्रदान करते हुए हालचाल का पूछना, यह एक ऐसी संस्कृति है जो पूरी धरती पर होनी चाहिए। धरा के हर जीवधारी में अपने आप होती है। अपना कोई स्वजातीय मिल जाए तो सब कितने प्रसन्न होते हैं। मैं डैक्स्टर को सिडनी पार्क में घुमाने ले गया तो बड़ा मजा आया। वहां देखा कि कितनी ही जातियों और प्रजातियों के कुत्ते अपने मालिकों के साथ उस पार्क में आए हुए थे। आश्चर्य कि कुत्ते एक-दूसरे को देखकर भौंक नहीं रहे थे। हमारे ब्लॉक की गली में तो अगर दूसरे ब्लॉक का कुत्ता आ जाए फाड़ खाने को दौड़ते हैं। वहां के कुत्तों पर भी वहां के इर्द-गिर्द की गर्द का प्रभाव पड़ चुका है और यहां आदमी ने अपने इर्द-गिर्द के गर्दविहीन स्वभाव को कुत्तों में स्थानांतरित किया है। क्यों भौंकते हो बिना बात? कहा— बैठ जाओ, तो बैठ जाते हैं। उन्हें मनुष्य और मनुष्यता के साथ रहने की एक ट्रेनिंग दी जाती है। उनकी अपने स्वजातीयों के साथ सोशलाइजिंग कराई जाती है ताकि वे दूसरों पर बेवजह आक्रामक न हों। यहां वे एक-दूसरे के आनंद में खलल डाले बिना खेलते-कूदते हैं।
—तेरौ डस्टर खेलौ?
—डस्टर नहीं चचा डैक्स्टर! मैं भी दूसरे श्वान-पालकों के समान एक बॉल लेकर गया था। बहुतों के पास बॉल होती हैं। बॉल दूर फेंकी जाती है, कुत्ता उसके पीछे भागता है, उठाकर मालिक को लाकर देता है। मजाल क्या कि कोई कुत्ता किसी दूसरे की बॉल छीने। ट्रेनिंग ही ऐसी है।
—यहां तौ गैंद में बम बनाइबे की टिरेनिंग दई जाय लल्ला। वहां तोय इर्द-गिर्द की गर्द नायं दिखी का?