Thursday, November 25, 2010

तड़पती हुई तड़प

—चौं रे चम्पू!हाथ में इत्ती पर्चीन्नै लिए घूम रह्यौ ऐ, का ऐ इन पर्चीन में?
—चचा, मैंने अपने मुखपुस्तक यानी फेसबुक के दोस्तों के बीच ऐसे ही मन की एक बात लिख कर पोस्ट कर दी थी। जो जवाब आए उनकी ये पर्चियाँ बना लीं। दरअसल, उस वक्त जो मैं सोच रहा था, दोस्तों को यूँ ही लिख कर बता भी दिया, ’कुछ लिखने की तड़प है, किस विषय पर लिखूँ?’ एक घंटे के अंदर साठ-सत्तर सलाहकार सामने आ गए। इतनी तरह की सलाह मिलीं कि यदि सबकी मान कर लिखना शुरू करूँ तो लिखने के लिए कम से कम सात जनम चाहिए। आभा दुबे और अरविंद कुमार ने कहा कि लिखने के लिए ‘लिखने की तड़प’ से अच्छा विषय कौन सा होगा? इसी पर लिखिए। अंशुमान भागवत कहते हैं कि ज़िंदगी के पन्ने पलटिए, लिखने को बहुत मसाला मिल जाएगा।
—सई बात कही।
—सही कही होगी, पर मैं तो फड़फड़ा कर रह गया। ज़िंदगी के कितने पन्ने फड़फड़ाऊँ कि कुछ निकाल कर लाऊं! इसके लिए तो अनेक महाकाव्यों या महा उपन्यासों की शृंखला लिखनी पड़ेगी। सात सौ शब्दों के कॉलम में क्या-क्या लिख सकता हूँ? ज़िंदगी के सफर में कितने लोग साथ आए, कब कौन कहाँ किस ओर मिला, किस छोर मिला, कितनी डोर टूटीं, कितनी जुड़ीं, कितनी राहें कब कहां और क्यों मुड़ीं, बताना आसान है क्या? पिछले हफ्ते टीवी पर एक पुरानी कव्वाली आ रही थी, हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने.... धुन दिमाग में चढ़ी हुई थी चार मिसरे मैंने भी गढ़ दिए!
—सुना सुना, हमाई तौ सुनिबे की तड़प ऐ।
—जब तलक साथ मज़ा देता जिंदगानी में, तब तलक राहगीर साथ चलते देखे हैं। उम्र भर साथ निभाने की बात कौन करे, लोग अर्थी में भी कंधे बदलते देखे हैं।
—भौत खूब, भौत खूब!और कौन से बिसय सुझाए?
—विनीत राजवंशी, आदि शर्मा, ज्योति शर्मा और राम अकेला ने कहा आम आदमी और करप्शन पर लिखिए। धीमान भट्टाचार्य, अनिरुद्ध तिवारी, प्रशांत कक्कड़ टू जी या आदर्श बिल्डिंग सोसायटी पर लिखवाना चाहते हैं। मनोज और हीरा लाल सुमन का कहना है कि टीवी पर बढ़ती अश्लीलता को विषय बनाया जाए। चेतन ने खुली छूट दे दी कि आप कुछ भी लिखिए हमें पढ़ने की तड़प रहेगी। अब चुनौती ये है कि चेतन की तड़प को कैसे मिटाया जाए। नवनीत पंत की पर्ची पर लिखा है कि फैशन बदल रहा है, बदलते फैशन के अनुसार खुद को कैसे बदला जाए इस पर कलम चलाइए। अरे भैया नवनीत! ज़िंदगी बिलोने के बाद मैंने भी ये नवनीत निकाला है कि नए फैशन के साथ चलने में ही सार है। अगर तुमने बदलाव और फैशन के सवाल पर बच्चों को कोसना शुरू किया तो वे तुम्हें पोसना और परोसना बंद कर देंगे। अकेले रह जाओगे, भूखे मर जाओगे, इसलिए बच्चों के सुर में सुर मिलाओ। अपनी बात भी कहो लेकिन उन्हें भरोसे में लाओ।
—बच्चन के सुर में सुर मिलाइबे में ई सार ऐ!
—सुरेखा की चिंता है की लेखनी बदनाम हो रही है क्योकि लोग अच्छा नहीं लिख रहे हैं। ठीक कह रही हैं सुरेखा। मुन्नी बदनाम क्यों हुई इसके सारे कारण तो नहीं जानता, लेकिन लेखनी क्यों बदनाम हो रही है, इसका थोड़ा-बहुत अंदाज़ा है। कोशिश करूँगा कि अपनी तरफ से लेखनी बदनाम न हो। मनोज गोसांई ने लिखा है कि तड़प है तो श्रृंगार पर लिखिए। ओम पुरोहित जी कहते हैं विषय विकार पर लिखिए। अंशुमान रस्तोगी ने सलाह दी कि जो समझ में आए वो लिखिए, स्वरूप जी ने ताना मारा कि क्या अब आप सर्वे कराने के बाद लिखा करेंगे? लेकिन अमरीका की रेखा जैन की सलाह सबसे बढ़िया लगी और मैं समझता हूं कि इससे बढ़िया कोई तड़प नहीं हो सकती। उन्होंने लिखा है कि जब बच्चे छोटे होते हैं तो उनकी तड़पती हुई आंखें मां को फ़ौलों हैं और जब बड़े हो जाते हैं तो मां की तड़पती हुई आंखें बच्चों को फ़ौलों करती हैं। सबकी सलाह सर माथे, पर मैं आज रेखा जी से सहमत हूं कि सच्ची तड़प अगर कहीं होती है तो मां के हृदय में होती है। इस तड़पती हुई तड़फ को सलाम!
—चल मां की तड़प पै ई लिख!

Wednesday, November 17, 2010

मानदेय या मान देय

—चौं रे चम्पू, तू भौत दिनान ते स्याम जी कूं टरकाय रह्यौ ऐ, उनके पिरोगराम में जावै चौं नायं?
—चचा, एक तो उनकी अकड़, दूसरे पारिश्रमिक के नाम पर ठैंगा। बुला कर जैसे अहसान कर रहे हों, ऊपर से उलाहना। अच्छा, हमसे भी लिफाफे की उम्मीद! हमने तुम्हारे पिताजी को कितनी ही बार अपने घर बुलाया, अच्छा भोजन कराया, उन्होंने कभी कोई तमन्ना नहीं रखी। ये लीजिए, पिताजी का संदर्भ देकर यह तीसरा वार कर दिया। चौथा, और सबसे धांसू और रौबदार प्रहार यह कि रिश्ते में तुम हमारे भतीजे लगे चम्पू। उम्र में मुझसे दो-तीन साल छोटे ही होंगे, पिताजी से दोस्ती का दावा करते हुए बन गए चाचा! मैं तो अब उनका फोन उठाता ही नहीं हूं।
—ऐसौ मत कर लल्ला! दिल के बुरे नायं स्याम जी।
—दिल तो दुखाते हैं! अपने व्यावसायिक आयोजनों में रिश्तों को भुनाते हैं और मुझे व्यावसायिक बताते हैं। मन कैसे करे जाने का? देखो चचा, या तो मिले चकाचक मानदेय या सामने वाला पर्याप्त मान देय। अरे, हमें हमारा बाज़ार भाव ना दे तो कम से कम भावना दे। ये क्या कि सिर्फ उलाहना दे।
—चल जैसी तेरी मरजी, हाल-फिल्हाल कहां गयौ ओ? मानदेय वारी जगै कै मान वारी जगै?
—पिछले तीन-चार कार्यक्रम तो मान-सम्मान वाले ही थे, लेकिन सब जगह आनंद आया। काका हाथरसी पुरस्कार समारोह में कवि प्रवीण शुक्ल को सम्मान दिया गया, वहां मैंने काका जी पर एक पावरपॉइंट प्रस्तुति दी। उसमें मेहनत का मज़ा मिला। एक जगह कम्प्यूटर में हिंदी को लेकर व्याख्यान दिया, सार्थकता-बोध हुआ और सुकून मिला! एक समारोह में मुझे सम्मानित किया गया था ‘किशोर कुमार मैमोरियल क्लब’ की ओर से। स्मृति-चिन्ह के रूप में हिज़ मास्टर्स वॉइस वाला पीतल का ग्रामोफोन भोंपू मिला। लिफ़ाफ़ा कहीं नहीं मिला, गांठ का धन ही लगा, पर ख़ुशियों को इजाफ़ा मिला। उस कार्यक्रम में कुछ किशोर और युवा गायकों से किशोर के सुरीले और चटपटे फिल्मी गीत सुनने को मिले।
—कमाल कौ गायक हतो किसोर कुमार।
—किशोर कुमार की खण्डवा से उठती हुई आवाज़ सीधे अन्दर जाती है और हमारे हृदय के हर तार को छेड़ कर अंदर के खण्ड-खण्ड पाखण्ड को दूर कर देती है। कहते हैं कि वे स्वयं संगीत-शास्त्र के ज्ञाता नहीं थे, पर बड़े-बड़े शास्त्रीय संगीतज्ञ उनकी नैसर्गिक क्षमता का लोहा मानते थे। अखण्ड हंसी बिखराने वाले किशोर कुमार ख़ुद कितने खण्ड-खण्ड थे, ये बात भी जानने वाले जानते हैं। तीन पत्नियां एक-एक करके छोड़ गईं, क्योंकि उन्हें वे लगातार नहीं हंसा पाए। फक्कड़ थे तो अक्खड़ भी थे। तीनों भूतपूर्व पत्नियाँ अभूतपूर्व सहृदय अभिनेत्रियाँ और अपने समय की अभूतपूर्व सुंदरियां थी। रूमा देवी, मधुबाला और योगिता बाली। उन्होंने फक्कड़ से प्रेम किया, अक्खड़ को छोड़ गईं। हँसाने वाले को स्त्रियाँ पसंद करती हैं, लेकिन ये नहीं जानतीं कि सबको हँसाने वाला, खुद रोना और निकटवर्तियों को रुलाना भी अच्छी तरह जानता है। चौथी पत्नी भी सुंदर अभिनेत्री मिली, लेकिन तब तक किशोर दा ने अतीत से सबक लेकर अक्खड़ता छोड़ दी थी। पिछले हृदय आघातों के कारण जीवन भी जल्दी छोड़ दिया, हालांकि लीना के साथ जीना चाहते थे। लीना ने भी दिखा दिया कि निभाना जानती हैं।
—इमरजैंसी में किसोर के गीतन पै बैन चौं लगायौ गयौ ओ?
—पंगा ले लिया था उस वक़्त, संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल से। मान या मानदेय का ही चक्कर रहा होगा। संजय के पांच-सूत्री अभियान के सिलसिले में आयोजित एक कार्यक्रम में आने से मना कर दिया था, सज़ा भुगती डेढ़-दो साल। उनके संगीत-प्रेमियों ने उनका और उनकी अकड़ का साथ दिया। विद्याचरण शुक्ल को माफ़ी मांगनी पड़ी थी। हास्य कलाकार के अंतर्जगत को समझना हंसी-खेल नहीं है चचा। वह शास्त्र-ज्ञाता होने का दावा नहीं करता पर गहरा शास्त्रज्ञ होता है। अपमानित होने पर अकेले में रोता है। वह अपनी दुर्लभ क्षमता के पूरे पैसे वसूलता है लेकिन पैसे से मोह नहीं रखता। कौन जानता है कि किशोर दा ने कितने लोगों की कैसे-कैसे मदद की। कितने ही यार-दोस्तों के लिए मुफ्त में गा दिया। कोई भरोसा करेगा आज कि उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ बनाने में सत्यजित राय की अच्छी ख़ासी आर्थिक सहायता की थी।
—अपनी बता! स्याम जी के पिरोगराम में जायगौ कै इमरजैंसी लगवाय दऊं?
—श्याम जी को याद दिला देना कि विद्याचरण शुक्ल को माफी भी मांगनी पड़ी थी।

Tuesday, November 09, 2010

ओबामा के असहज की सहजता

—चौं रे चम्पू! ओबामा इंडिया आयौ और इंडोनेसिया गयौ, पिछले चार दिना में का खास बात देखी तैनैं?
—चचा, मैंने ओबामा के आगमन से लेकर प्रस्थान तक उसके असहज की सहजता देखी। आप जानते हैं कि विश्व में जब-जब महाशक्तियों ने कठोरता और कट्टरता का रास्ता अख़्तियार किया तब-तब उस समय की जनता और सच की शक्तियों ने बड़ी सहजता से उन्हें शिकस्त दी है। अपने देश का ही धार्मिक इतिहास देख लो, वर्ण-व्यवस्था और कर्म-कांड को उस समय के सहजयान, सहजयोग और सहज संप्रदायों ने सहजता से परास्त कर दिया। शक्तिशाली वैष्णवों से भी एक सहजिया वैष्णव संप्रदाय निकल आया था।
—तू कहनौ का चाहै चंपू?
—ओबामा को सहजता की ताकत मालूम है चचा। यात्रा में सब कुछ कितना प्रायोजित रूप से सहज दिखाई दिया। उसका आगमन जिस असहजता के कारण हुआ, वह पिछले कुछ सालों में अपने देश के युवाओं और अपनी अर्थ-व्यवस्था को देखकर उसके अन्दर पैदा हुई । पूरी दुनिया पर दादागिरी चलाने वाला अमेरिका बदला नहीं है चचा। वैसा का वैसा है। हमसे दसियों गुनी आर्थिक ताकत, हमसे बहुत कम आबादी, प्रति व्यक्ति वहां की आय हमारी प्रति व्यक्ति आय से कई गुना ज़्यादा, फिर भी ओबामा असहज हो गए। उन्होंने हमारे देश को नौजवानों के देश की तरह देखा। हमारे बच्चों की तेजस्विता देखी। कौन सा ऐसा क्षेत्र है जहां हमारे युवाओं ने कुछ करके न दिखाया हो। पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिलीं, घनघोर गरीबी है, उसके बावजूद अच्छे से अच्छा करके दिखाया है, क्योंकि चुनौतियां अब राष्ट्रीय नहीं रहीं, अंतरराष्ट्रीय हो गई हैं। ज्ञान का ख़ज़ाना केवल अमरीकियों के लिए खुला हो, अब ऐसा नहीं है।
—तौ अब कैसौ ऐ रे?
—ज्ञान हमारे बच्चों के लिए भी अब सहज उपलब्ध है। इस समय अमरीकी युवा में अपने ज्ञान के खज़ाने के प्रति उतना आकर्षण नहीं है जितना हमारे बच्चों में उस ज्ञान के प्रति है। दूसरी बात ये कि आतंक के घनघोर साए में जी रही दुनिया के लिए आज रास्ता दिखाने वाला कौन सा अंतर्तत्व है... तुम्ही बताओ चचा!
—अब प्रवचन तू दै रह्यौ ऐ, तौ तू ई बता। हम जे समझैं कै रस्ता गांधी ऐ।
—बिल्कुल ठीक कहा चचा। देश में कितने ही महात्मा गांधी मार्ग हैं, एक महात्मा गांधी मार्ग पर उन्होंने उतार दिया अपना एअरफोर्स वन विमान। ओबामा को अहिंसा और मानवता के गांधीवादी विचार आकृष्ट करते हैं। यह भाव ओबामा के अन्दर का असहज नहीं, एक सहज भाव है। वह संघर्षों से उठकर ऊपर आया है इसलिए भी पुराने राष्ट्रपतियों की तुलना में ओबामा में गांधी के प्रति एक भावात्मक अनुराग है।
—फिर असहज के सहज वारी बात कहाँ गई?
—चचा, इस बात को समझते हैं अर्थशास्त्री और कूटनीतिज्ञ। अपनी वाणी में ओबामा ने न तो बड़बोलापन दिखाया, तोतलापन। न वह कहीं भटका, न अटका। पाकिस्तान के बारे में भी संयम के साथ बोल गया सो बोल गया। मुस्कान बांटी। अफ्रीकी लय-ज्ञान ओबामा दंपत्ति को है। वे बुश की ठसक नहीं, अन्दर की थिरक रखते हैं। सबसे ज़्यादा सुरक्षा-परवाह के साए में बेपरवाह और लापरवाह से दिखे। उसकी ये ओढ़ी हुई सहजता अगर समझ में आ जाए तो हम अमरीका के आज के मनोविज्ञान को समझ सकते हैं। दो बड़ी इमारतें धंस गई थीं। उतने ही गहरे धंस गई दहशत अमरीकियों के मन में। समुद्र तटों पर स्वछन्द किलोल करने वाली प्रजाति आतंकवाद की गुलेल से घबरा गई और उसने देखा कि हम पड़ोसियों के दुर्भाव के बावजूद अपनी सद्भावना नहीं छोड़ते। ये बात ओबामा की समझ में आ गई।
—तेरी समझ में और का बात आई?
—ओबामा बचपन से ही उल्टे हाथ से ज्यादा काम करते रहे हैं। उन्होंने ज़्यादातर उल्टा हाथ हिलाया। उल्टे हाथ से मनमोहन सिंह का कंधा थपथपाया। उल्टे हाथ से ही ताज होटल में शहीदों के लिए श्रद्धांजलि लिखी। उल्टे हाथ से लिखने का एक लाभ है चचा। लिखते वक़्त मुट्ठी ऊपर होती है, पंक्ति दर पंक्ति जब वो लिखता जाता है तो ऊपर उसने क्या लिखा, कोई देख नहीं सकता। लिखाई मुट्ठी के नीचे छिप जाती है। वैसे उसकी थिरकती हुई कामनाओं, शांति की प्रस्तावनाओं और मिलन की भावनाओं से कौन खुश नहीं होगा, बस हमें छिपी हुई इबारतों को समझना होगा।
—लल्ला, तू भी सहज है जा, असहजता में का धरौ ऐ?

Saturday, November 06, 2010

उसल, मिसल और टीआरपी

—चौं रे चम्पू! मुंबई है आयौ? का पकवान उड़ाए वहां पै?
—चचा,मुंबई की ख़ास चीज़ें खाईं, जैसे, उसल, मिसल और टीआरपी।
—उसल, मिसल का होयं? और जे टीआरपी तौटैलीवीजन वारेन की कोई चीज ऐ!
—ठीक कह रहे हो चचा! उसल में सफ़ेद मटर होती है, मिसल में नमकीन सेव मसल कर डाले जाते हैं। टीआरपी का मतलब है तीखा रगड़ा पेटिस। ये सब महाराष्ट्र के पुराने खाद्य हैं, जिनसे वहां के श्रमजीवी अपना दिन का काम चलाते हैं।टेलीविज़न की टीआरपी भी तीखा रगड़ा पेटिस ही है। कार्यक्रम में जितना तीखा डालोगे, रगड़ा मारोगे और पेटियां उतार दोगे, उतनी ही तुम्हारी टी.आर.पी. बढ़ जाएगी। इतना तीखा मसाला कि आंखों से आंसू निकल पड़ें। वे आंसू भावनाओं के कारण तो निकलेंगे नहीं। मिर्च के कारण निकलेंगे। किसी को क्या पता कि चैनलों द्वारा अपनी टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए ये मिर्च दर्शकों की आँखों में झोंकी जा रही है। धारावाहिकों में नकली आँसू तो चलो ठीक हैं, कहानी की माँग है।रिएलिटी शोज़ में आँसू किस बात के? तुम्हारा बच्चा जीत गया या हार गया, दर्शकों में बैठे माता-पिता से कहा जाता हैआंसू निकालो, खामखां निकालो। ग्लिसरीन आंखों में डाल देते हैं। आंसू चाहिए आंसू। वो भी धांसू!
—अच्छा!
—और नहीं तो क्या!जनता को तीखी भावनाओं की लपेट में लेना है। दूसरी चीज़ रगड़ा। रगड़ा-झगड़ा जब तक नहीं होगा, तब तक व्यूवर कहां से मिलेगा। तीसरी पेटिस, कमर से पेटियाँ भी उतार दो। नंगई ज़िन्दाबाद!इधर स्वयंवर के ड्रामे के बादन्याय का नया अखाड़ा खोला गया है। उसमें पहले से तैनात सिक्योरिटी गार्ड भी रहते हैं। यानी,यह स्क्रिप्ट का अंग है कि झगड़ा होना ही होना है। योजनाबद्ध तरीके से मां-बहन की गाली दोगे और उसकी जगह बीप डाल दोगे, गाली तो समझ में फिर भी आएगी। मनुष्य गाली-गलौज और जूतम-पैजार का तमाशा देखना बड़ा पसन्द करता है।
—हां,जब दो लोग लड्यौकरैं तौ मजा तौ आवै ई आवै।तमासबीन कह्यौ करें, और बाजै,और बाजै।
—लड़ाई जल्दी छूट जाए तो भी मज़ा नहीं आता। प्राचीन काल में रोमन साम्राज्य में ग्लैडिएटर लड़ाए जातेथे।
—जे ग्लैडिएटर कौन हते?
—इटली और आसपास के देशों में हज़ारों-हज़ार गुलाम थे। इतने सस्ते कि एक घोड़े की कीमत एक गुलाम की कीमत से दसियों गुना अधिक होती थी। रोमन लोग कौडियों के मोल इन गुलामों को खरीद लाया करते थे। तब कुछ रोमन सौदागरों ने धनी रोमन नागरिकों के मनोरंजन के लिए एक खेल निकाला। ग़ुलामों की लड़ाई का खेल। दो ग़ुलाम एक दूसरे को जान से मार देने तक लड़ाए जाते थे, जानवरों की तरह। रोमन इनके तमाशों को देखते थे, हंसते, खुश होते थे और खून निकलता देखकर तालियां बजाते थे। जब उनमें से कोई एक खून से लथपथ, तडपता हुआ, एकाएक दम तोड देता था तो और अधिक तालियां बजाते हुए उछलते थे। इन्हीं लड़ने वाले ग़ुलामों को ग्लेडिएटर कहा जाता था जो अपने ही ग़ुलाम साथियों से बिना किसी शत्रुता के लड़ते थे। उनसे लड़ते थे, जिनसे वे प्यार करते थे। हिदायत ये होती थी कि एकदम से नहीं मार डालना है। धीरे-धीरे ऐसे मारो कि अगला तड़प-तड़प कर मरे। मरने में घंटा आधा घंटा तो लगे। जैसे-जैसे खून दिखाई देगा, वैसे-वैसे तालियां बजेंगी। तब भी चचा, एक एपिसोड होता था पैंतालिस मिनट का।
—भली चलाई!
—’स्पार्टकस’नाम के उपन्यास में गुलाम हब्शी ने कहा, पत्थर भी रोते हैं। वह रेत भी सुबकती है जिस पर हम चलते हैं। धरती दर्द से कराहती है, पर हम नहीं रोते। स्पार्टकस बोला, हम ग्लैडिएटर हैं। ग्लैडिएटर, ग्लैडिएटर से दोस्ती मत कर। हम इंसान नहीं हैं। हम इंसान के रूप में बोलने वाले औजार हैं। हब्शी ने कहा, क्या तुम्हारा दिल पत्थर का है स्पार्टकस?उसे जवाब मिला, मैं एक ग़ुलाम हूं और गुलाम के पास दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती। होती भी है तो पत्थर की। आजकल टी॰आर॰पी॰ की दौड़ में कलाकार पत्थर के बन गए हैं। मज़े के आगे दिल गायब है चचा!दर्शक को संवेदनशून्य करने के घिनौने षड्यंत्र। मुझे डर है कि टीवी पर जान से मारने का खेल शुरू न हो जाए। इंसान को ऊसल-मूसल में मसलो और टीआरपी के लिए सबसे तीखा रगड़ा पेटिस परोसो।
—आज धनतेरस पै ऐसी बात मत कर लल्ला!