Saturday, June 28, 2008

केजी, केजीबी और केजीबीवी

चौं रे चम्पू!

चौं रे चम्पू! हंफहंफी चौं छूट रई ?

क्या बताऊं चचा, पल्लेदारी करके रहा हूं।

कैसी पल्लेदारी रे?

अरे एक रिक्शे में बीस बच्चे भरे हुए थे। छोटे-छोटे बच्चे, केजी में पढ़ने वाले। सबके बस्ते रिक्शे में पीछे टंगे हुए थे। रिक्शे की टूट गई चेन। स्कूल था थोड़ी दूर। बच्चे रोने लगे। मैम का डर। घंटी बजने से पहले नहीं पहुंचे तो सज़ा मिलेगी। रिक्शे वाले से मैंन कहाभैया! तू बिना चेन के चला ले, मैं पीछे से धक्का लगाता हूं, पर वो माना नहीं। फिर मैंने कहा कि चल रिक्शा एक तरफ़ खड़ा कर ले। आधे बस्ते तू टांग ले आधे मैं उठा लेता हूं, छोड़ के आते हैं स्कूल तक। इस पर वो राज़ी हो गया। ओहो! इतना वज़न लाद देते हैं बच्चों के कंधों पर, हैरानी होती है चचा। प्रदीप चौबे कहा करते हैं— ‘टू केजी का बच्चा था, दस केजी का बस्ता था।अब दस बच्चों के बस्तों का वज़न कितना हो गया होगा, लगा लो चचा।

फिर तौ सच्चेई पल्लेदारी है गई।

पता नहीं क्यों इतनी किताब-कापियां छोटे बच्चों को थम देते है? एक कॉपी एक पेंसिल काफी होनी चाहिए। बाकी सामान स्कूल में दो। तो सबके बस्ते उठाए, बच्चों को समेटा और स्कूल तक छोड़ कर आए। वहां मैडम से भी गरमा-गरमी हो गई।

गरमा-गरमी चौं भई रे?

अरे मैंने कहाबस्ते में कॉपियां इतनी सारी क्यों हैं? अंग्रेज़ी की अलग, गणित की अलग, हिन्दी की अलग। एक ही कॉपी में तीनों का काम कराओ ! थ्री इन वन कॉपी बनाओ। मैडम बोलीआप कौन होते हैं पूछने वाले? जैसा ऑर्डर है वैसा ही करेंगे ! पेरैंट्स फीस देते हैं, उन्हें पता लगना चाहिए कि हमार बच्चा पढ़ रहा है। ठीक है जी! केजी के बच्चों को बाई-बाई करके स्कूल की बाई को नमस्ते की। फिर ध्यान में आई केजीबी।

रूस की केजीबी?

हां, जासूसी करने वाली केजीबी। सोवियत संघ के ज़माने में उसने एक रिपोर्ट दी थी कि अमरीक के बच्चों को ज़्यादा बस्ते लादने नहीं पड़ते। हम अपने देश में बच्चों पर बहुत सामान लाद देते हैं। उस रिपोर्ट के आधार पर सोवियत संघ में बस्तों का वज़न एकदम कम कर दिया गया। स्कूल में ही उनके लिए तरह-तरह के उपकरण सजाए गए। शारीरिक विकास और खेल-कूद पर ज़्यादा ध्यान दिया गया। हमारे यहां तो स्कूल वाले अभिभावकों से पैसा ऐंठने के चक्कर में बस्ते को बच्चों के लिए एक आतंक बना देते हैं। चचा तुम जब स्कूल जाते थे तो कितना वज़न होता था?

देख रे अपने पास तौ होती एक तख्ती, तख्ती कौ घोटा और एक बुदक्का। तख्ती पै करौ सारे काम। तख्ती पै ओलम, तख्ती पै गणित-पहाड़े। लोटा ते पानी के छींटा मारौ फिर घोटा मारौ। एक अदद तख्ती और मास्साब की सख्ती। स्कूल के बाद वो तख्ती युद्ध के काम आवती। मूंठ पकड़ के करौ तलवारबाजी। व्यायाम कौ व्यायाम, पढ़ाई की पढ़ाई।

चचा, केजी और केजीबी चर्चा के बाद चिंता का मुख्य विषय है केजीबीवी।

जे केजीबीवी का रे?

केजीबीवी यानी कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय। केजीबीवी उन पिछड़े और दलित क्षेत्रों में खोले जाने वाले बालिका विद्यालय हैं जहां साक्षरता राष्ट्रीय औसत से भी कम है। हमारे देश में लड़कियां पढ़ जाए तो जनतंत्र मज़बूत हो जाए। वंचितों, शोषितों, दलितों के लिए ये बालिका विद्यालय फौरन खुलने चाहिए थे। सारी की सारी राज्य सरकारें प्रदेश के ऊपरी सौन्दर्य पर तो जुट गई हैं, पार्क बन रहे हैं हज़ारों करोड़ के बजट के। शिक्षा है डार्क में। राजकेश्वर सिं ने एक रिपोर्ट में बताया है कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की मसीह मायावती के राज्य में सवा तीन सौ केजीबीवी खुलने थे और खुले हैं केवल पंद्रह। बिहार के नीतीश भी पिछड़ों के ईश कहलाते हैं वहां खुलने थे साढ़े तीन सौ और खुले हैं सिर्फ़ तिरेपन। झारखंड में सौ छियासी खुलने थे और अब तक खुले हैं केवल दस। गुजरात में बावन का प्रावधान रखा लेकिन अस्तित्व में हैं केवल ग्यारह। सभी राज्यों का कमोबेश एक जैसा हाल है। जम्मू-कश्मीर में पचास खुलने थे खुला एक भी नहीं। अब बताओ चचा। सिम्पैथी के स्वांग के आगे क्या बचा। शहरों लिए मॉल और फ्लाईओवर, ग़रीब बालिकाओं के लिए गाय और गोबर अपनी दिल्ली इस मामले में गे है चचा। दस साल पहले सरकारी स्कूलों में सिर्फ़ बत्तीस प्रतिशत बच्चे पास होते थे इस बार हुए हैं छियासी प्रतिशत।

चल जाई बात पै खुस है लै चम्पू!

15 comments:

  1. कमाल का व्यंग्य...

    ReplyDelete
  2. तीखा व्यंग. कर दिया दंग. सरकार पढेगी होगी परेशान पाठक हैरान

    ReplyDelete
  3. अपने पास तौ होती एक तख्ती, तख्ती कौ घोटा और एक बुदक्का। तख्ती पै करौ सारे काम। तख्ती पै ई ओलम, तख्ती पै ई गणित-पहाड़े। लोटा ते पानी के छींटा मारौ फिर घोटा मारौ। एक अदद तख्ती और मास्साब की सख्ती। स्कूल के बाद वो तख्ती युद्ध के काम ऊ आवती। मूंठ पकड़ के करौ तलवारबाजी। व्यायाम कौ व्यायाम, पढ़ाई की पढ़ाई।-- सचमुच कितना सही वर्णन किया है, कभी गांव जाने पर अक्सर यही सबकुछ देखने मिलता है और अब शहरी बस्तों का बोझ देखकर मन करता है कि गांव के बच्चे ईस मामले में ज्यादा लक्की हैं।

    ReplyDelete
  4. हास्य तौ हास्य, व्यंग्य में ऊ तुमाऔ कौऊ जबाब नाईं एं

    एक नेक से लेख में ई सबन्न कौं लपेट लयौ. बस कद्दई सबन्न की खूब किरकिरी.
    वह भई वाह!

    ऐसें ई लिखत रहौ तो तनिक आवे मज़ा.

    ( भारतीयम / बृजगोकुलम वारे)
    अरविन्द चतुर्वेदी

    ReplyDelete
  5. सुपर सटीक.

    ReplyDelete
  6. याद आ गया कैसे बस्ते में सारी कापियां नहीं समाती थीं तो एक और थैला टांग देती थी माँ… मगर बच्पन में बोझ उठाने का चमत्कार यह है कि आज ज़िंदगी का बोझ मज़े से उठा पा रहे हैं।
    शुभम।

    ReplyDelete
  7. जबरदस््त चक््रधर जी,

    ReplyDelete
  8. व्यंग्य का व्यंग्य और जानकारी की जानकारी...एक पंथ दो काज ....


    शुक्रिया अशोक जी

    ReplyDelete
  9. अशोक जी आज ये जानने की इच्छा हो रही है की हमारे कविगण जो समाज को समाज का आइना दिखाते हैं वो धरातल पर यानि हकीकत में कितने समाजसेवक होते हैं? आप अपने बारे में कहिये आप किस सामाजिक संस्था से जुड़े हैं और आपका सामाजिक कार्यक्षेत्र क्या है? -अमित माथुर

    ReplyDelete
  10. क्या बात है हजूर

    ReplyDelete
  11. वाह ! वाह ! क्या बात है !

    ReplyDelete
  12. bahut din baad apke vyang padha.bahut accha laga.ab to bacchon ko har mahine test dena padta hai. bacchon se jyada maa baap pareshan hote hain. jitna maine highschool main padhai kee thi utne padhai aaj class two main bacchon ko karnee padti hai

    ReplyDelete
  13. vyang jo kar de dang....................................................................................................................................................................................................................................................................................................................

    ReplyDelete
  14. गुरुदेव को पन्द्रह अगस्त की हार्दिक शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  15. aapkey blog me mili sab taja khabar.Har taja khabar par hai aapki najar.Har khabar par dil ko jhijhorney vala sunder vyangya,sunder vishleshan,padh ke man bhara,aapko naman shriman champoo chakradhar.

    ReplyDelete