-चौं रे चम्पू! कछू नई ताजी है तेरे पास? बता कोई नई बात।
-चचा, हर पल नया है।
-हर पल की छोड़, पिछले कल्ल की बता, ताते अगले कल्ल कूं सुधार सकें।
-चचा कल हिन्दी अकादमी का एक अद्भुत कार्यक्रम हुआ। गांधीजी की सौ साल पहले लिखी किताब ‘हिन्द स्वराज’ और उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ का पुनर्प्रकाशन के बाद लोकार्पण हुआ। पुरानी भूमिकाओं के साथ बड़ी अच्छी छापी हैं।
-दौनौ किताबन कौ हल्ला तौ बरसन ते सुनत आय रए ऐं, खास बात का ऐ बता?
-चचा ‘हिन्द स्वराज’ पतली सी किताब है। गांधी दर्शन की बुनियाद। केवल दस दिन में लिखी गई थी। 13 नवम्बर 1909 से 22 नवम्बर के बीच। पाठक प्रश्न करता है और संपादक के रूप में गांधी जी उत्तर देते हैं। शिक्षा, सभ्यता, स्वराज, हिन्दुस्तान की दशा, गोला बारूद और मशीनों पर जो राय सौ साल पहले दी थी, वह आज भी सोचने और मानने योग्य है। चचा! बीसवीं सदी को गांधी प्रभावित कर ही रहे थे कि अचानक रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद के रूप में नई चिंतनधारा मिली। दो तिहाई दुनिया उससे प्रभावित होकर बदल भी गई, लेकिन सदी के अंतिम दौर में सोवियत संघ के पतन के बाद आस्थाएं चरमराने लगीं और बहिर्जगत से अंर्तजगत की आ॓र लौटने का सिलसिला शुरू हुआ। गांधी तो पहले से ही अंतर्जगत की बात कर रहे थे। द्वेष की जगह प्रेम, हिंसा की जगह आत्म बलिदान और पशुबल की जगह आत्मबल की वकालत कर रहे थे। पाशविक पश्चिमी सभ्यता और यंत्रवाद के विरोध में उन्होंने आत्मशक्ति का उपयोग करते हुए अहिंसा की सामर्थ्य के झंडे गाड़ दिए। झंडे उखाड़ने वालों ने कहा कि गांधी भूतकाल के उपासक हैं, पुनरूत्थानवादी हैं। आध्यात्मिक स्वराज और सर्वोदय जैसी चीजें काल्पनिक जुगाली हैं, लेकिन चचा, लोग अब अंतरराष्ट्रीय गालियां सुनते-सुनते ‘हिन्द स्वराज’ की आध्यात्मिक जुगाली पर आ रहे हैं।
-वाह रे गांधीवादी! पहलै तौ क्रांति और रक्त क्रांति की बात करतो, जे अध्यात्म कहां ते घुसौ तेरे भीतर?
-ये दिल और दिमाग जड़ पदार्थ नहीं हैं चचा! जब दिल सोचता और दिमाग महसूस करता है तब निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। माना चीजें जटिल हैं, पर उन्हें सरल ढंग से ही सुलझाया जा सकता है। लोकार्पण के बाद मुख्यमंत्री शीला जी ने कहा कि गांधी से सीखना होगा कि सादगी से कैसे रहा जाए, क्योंकि जैसे हम रहेंगे, वैसे ही विचार बनेंगे। उन्होंने गांधी जी के तीन बंदरों का हवाला दिया।
-बंदरन कौ तौ खूब मजाक बनौ रे!
-हां, आजादी के बाद बहुत सी व्यंग्य रचनाएं लिखी गईं। पिछले बीस साल से यह सिलसिला थमा हुआ है। आखिर कब तक बंदरों को कोसते, जब उनसे भी गए-गुजरे जीवधारी अनष्टि करने लगे। नेता, पुलिस और प्रशासन पर व्यंग्यकारों ने खूब कलम चलाई। पिछले दस सालों से देख रहा हूं कि व्यंग्य की मार भी भौंथरी हो गई है। व्यंग्य का असर हो, तब तो फायदा है। गैंडे को पिन चुभाते रहो या गुलगुली करते रहो, उस पर क्या फर्क पड़ेगा? सिर्फ नकारात्मक होने से समाज नहीं बदलना, विकल्प तो बताएं, क्या करें? और चचा विकल्प रूप में हमारे पास ‘हिन्द स्वराज’ जैसी किताब है।
-गांधी तौ किताबन में कैद है गए भैया! जीवन में नायं आ सकैं!
-गलत, बिल्कुल गलत! ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में किताबों से निकलकर गांधी जी बाहर निकल आए थे। एक गुंडे का हृदय-परिवर्तन सिर्फ परदे पर ही नहीं दिखा, समाज में भी फिल्म ने भूमिका अदा की। उद्घाटन सत्र में श्री प्रभाष जोशी जी ने बड़ी अच्छी राय दी कि हिन्द स्वराज की दस-दस प्रतियां दिल्ली के हर स्कूल में अकादमी की तरफ से भेजी जाएं और बच्चों से कहा जाए कि इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें। समझें, समझाएं और बताएं कि इक्कीसवीं सदी के लिए गांधी जरूरी क्यों हैं?
-तेरे पिताजी नैं दो लाइन सुनाई हतीं, दीवाल और दीवाली की, याद ऐं का?
-याद हैं। उन्होंने कहा था, ‘सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम से, अपना तो इतना नाता है, दीवालों पर लिख देते हैं, दीवाली पर पुत जाता है।’ व्यंग्य में कहा था उन्होंने, लेकिन चचा मैं मानता हूं कि अब गांधी और गांधीवाद पर व्यंग्य की भाषा में नहीं, अंतरंग आत्मावलोकन की भाषा में बात होनी चाहिए।
"गैंडे को पिन चुभाते रहो या गुलगुली करते रहो, उस पर क्या फर्क पड़ेगा? सिर्फ नकारात्मक होने से समाज नहीं बदलना, विकल्प तो बताएं, क्या करें?"
ReplyDeleteसत्य वचन महाराज |
एक नज़र यहाँ भी डाले
http://burabhala.blogspot.com/
इतने गम्भीर विषय पर तो हम चुप ही रहें तो अच्छा है हम तो समझे थे कि कोई चलो दिमाग ताज़ा कर लें आपके व्यंग पढ कर । मगर आप तो आज बहुत गम्भीर नज़र आ रहे हैं शुभकामनायें
ReplyDeleteसत्य, अहिंसा, दया, प्रेम से, अपना तो इतना नाता है, दीवालों पर लिख देते हैं,दीवाली पर पुत जाता है।’ बहुत खूब.
ReplyDeleteज़रा यहाँ भी निगाह डाले :- "बुरा भला" ने जागरण की ख़बर में अपनी जगह बनाई है |
ReplyDeletehttp://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_5767315.html
sahi kaha gurudev...
ReplyDeleteadhyaksh pad ke liye badhai hai,
ReplyDeletealochko ne muh ki khai hai
लो, तुम्हारी चकल्लस में मैं भी हाज़िर हुआ बंधू ! लेकिन यहाँ तक पहुंचना आसन नहीं था, कई लिंक पकड़कर आया हूँ ! पहचाना क्या ? एक बार जामिया वि. वि. से फ़ोन पर बातें हुई थीं, लेकिन मिलना नहीं हुआ था ! नाम और शक्ल से न पहचाना हो, तो मेरे ब्लॉग पर आओ और पिछले पृष्ठों पर नागा बाबा पर लिखा मेरा संस्मरण पढो, उसमे तुम्हारा, सुधीश और अरुण्वर्धन का उल्लेख भी है, फिर तो पहचानोगे न ?
ReplyDeleteसप्रीत.....आनंद.
"-ये दिल और दिमाग जड़ पदार्थ नहीं हैं चचा! जब दिल सोचता और दिमाग महसूस करता है तब निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। माना चीजें जटिल हैं, पर उन्हें सरल ढंग से ही सुलझाया जा सकता है।" Yehi asli baat hai- samvedanatmak gyan aur gyanatmak smvedan ki tarah.
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