—वर्धा गया था चचा! वहां के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का नाम आपने सुना होगा। उसके बारे में लोगों की धारणा थी कि वह सिर्फ कागज़ों पर चलता है। यह भी माना जाता रहा है कि उसको चलाने वाले शीर्ष व्यक्तित्व वहां बड़ी मुश्किल से जाते हैं, लेकिन मैंने तो देखा कि वह एक सुंदर आकार लेता हुआ दिव्य स्थान है। साहित्य में एक अलंकार जोड़ने का प्रस्ताव मैं आपके सामने पहले भी रख चुका हूं।
—कौन सौ अलंकार?
—भ्रांतिमान अलंकार! भ्रांति यह कि वह सिर्फ कागज़ी विश्वविद्यालय है, लेकिन यहां तो धरती की सतहों से अंगड़ाइयां लेते हुए सुरुचिपूर्ण स्थापत्य ने प्रकट होकर विश्वविद्यालय का रूप दिखाना शुरू कर दिया है। लगभग दो सौ एकड़ में फैला यह व्यापक परिसर हिन्दी के भविष्य और भविष्य की हिंदी का प्रमुख केंद्र बनने जा रहा है चचा।
—केंद्र कौ केंद्र पुरुस को ऐ रे?
—विभूति नारायण राय हैं। वहां के कुलपति। कुलाधिपति हैं डॉ॰ नामवर सिंह। उन्हीं के निमित्त बने कक्ष में रुका था चचा!
—अच्छा जी!
—वे तो मार्गदर्शन के लिए यदाकदा ही आते हैं, असल काम तो कुलपति का होता है। ....और आप तो जानते हैं कि जो आदमी काम करने लगे उसे विभूति मानने के बजाय उस पर भभूत चढ़ाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। काम करने वाला कभी-कभी ग़लती भी कर जाता है और ग़लतियों से सीख भी लेता है। राही मासूम रज़ा ने कहा था, भले से हारे जो हारे, हमीं तो हार गए, लो आप जीत गए, कचकुलाह कर लीजे।
—जे कचकुलाह का भयौ रे?
—कचकुलाह का मतलब है टोपी टेढ़ी कर लीजिए। पुराने ज़माने में तीतर-मुर्गे लड़ाने वाले लोग ऐसा करते थे। जिसका मुर्गा या तीतर जीत जाता था वह बांकी अदा में अपनी टोपी तिरछी कर लेता था। कर ले भैया, टोपी तिरछी कर ले, पर बरछी तो मत चला। हम अपने काम में लगे हुए हैं। करने दे!
—का काम देखौ तैनैं?

—पंचटीला कहलाती थी ये जगह। अब इसे कहते हैं गांधी हिल। यहां महात्मा गांधी की प्रतिमाओं के चलन को एक नया रूप दिया गया है। गांधी जी तो खड़े ही हैं, लेकिन उनके साथ उनकी बकरी की भी बकरीकद प्रतिमा है। नकली गांधीवादियों ने जिस बकरी को खाद्य-वस्तु बनाया और व्यंग्यकारों ने जिसे विषय-वस्तु बनाया, वह यहां निर्भीक और निरे आनंद में है।
चश्मा चश्माकद नहीं है। घड़ी घड़ीकद नहीं है।
चप्पल चप्पलकद नहीं हैं। ये तीनों मूर्तियां विराट आकार में बनाई गई हैं। —वो ऊ बताय दै!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति । एक कवि की नज़रों से उत्कृष्ट विश्लेषण ।
ReplyDeleteनिश्चित ही वर्तमान कुलपति ने अपने दो साल के कार्यकाल में बहुत बड़ा परिवर्तन ला दिया है इस परिसर के रूप-रंग और भाव-भंगिमा में भी। एक तरफ़ सीमेंट और कंक्रीट से बने आकर्षक भवन आकार ले रहे हैं तो दूसरी ओर गोष्ठियों, सेमिनारों, कार्यशालाओं, अभिविन्यास कार्यक्रमों और अनौपचारिक अध्ययन-अध्यापन की निरंतर चल रही गतिविधियों से इस शिक्षामंदिर का असली उद्देश्य भी पूरा हो रहा है। कंप्यूटर की शब्दावली में कहें तो यहाँ हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर दोनो को विकसित करने का प्रयास जोर-शोर से हो रहा है।
ReplyDeleteएक अन्य गतिविधि जो दूसरे विश्वविद्यालयों में कम दिखायी देती है वह है इंटरनेट का सदुपयोग। पूरा परिसर वाई-फाई कनेक्टिविटी से लैस तो है ही अलग-अलग उद्देश्यों को पूरा करती इसकी तीन वेबसाइट्स और एक सामूहिक ब्लॉग पूरी दुनिया से संवाद करने के लिए भी सक्रिय है।
आपकी वर्धा यात्रा पर ब्लॉग रिपोर्टयहाँ है।
http://hindi-vishwa.blogspot.com/2011/01/blog-post_4436.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति । एक कवि की नज़रों से उत्कृष्ट विश्लेषण ,एवं चित्रण किया है ,चित्र भी रुक कर देखने का मन करता है साधुवाद !
ReplyDeleteइस विश्वविद्यालय का दुर्भाग्य यह रहा कि उसे सदा से नॉन-रेसिडेंट चांसलर/वैस चांसलर मिले जो वर्धा में टिके ही नहीं :(
ReplyDeleteguru shresth ko sadar pranaam,
ReplyDeletesundar vivehna/vishleshna, anand aaya
@cmpershad
ReplyDeleteचंद्रमौलेश्वर जी, अब यह बात पुरानी हो गयी। नयी बात यह है कि कुलपति यहाँ जमकर सपरिवार रहते हैं; और दो-दो राइटर्स इन रेजीडेंस भी यहाँ की शोभा बढ़ा रहे हैं। परिसर जीवंत हो उठा है। एक छटा यहाँ देख सकते हैं।
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ReplyDeleteGuru ji give me ur blessing! I have started to write in english also. I have made a blog named www.sumitpratapsingh.blogspot.com. You are welcome n requested for giving me your kind suggestions by ur valuable comment...
ReplyDeletethanx wid regard
वर्धा विश्वविद्यालय के बारे में पिछले एक डेढ़ सालों में जो कुछ जाना,सुना और सोचा आज वही सब कुछ आपके इस यात्रा वृतांत में भी पढ़ने को मिला. अगली यात्रा से जुड़े अनुभव भी जरुर बताइयेगा. हिंदुस्तान का उत्थान हिन्दी के उत्थान के साथ ही संभव है और इसका एक रास्ता इस विश्वविद्यालय से होकर भी जाता है.
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