Wednesday, April 27, 2011
आत्मघात से बुरी कोई चीज़ नहीं
—चचा, ख़बरें तो हर दिन देश की, विदेश की, परियों की, परिवेश की और मुहब्बतों के क्लेश की सामने आती ही रहती हैं। अन्ना हजारे अब जंतर पर मंतर चला कर यू.पी. के अनंतर हैं। कलमाडी गिरफ़्तंतर हैं। सांईं बाबा के ऊपर चले जाने के बाद चालीस हज़ार करोड़ पर सबके पेट में मरोड़ हो रहा है। चुनाव हुए, घपले हुए। चारों तरफ़ ख़बरें ही ख़बरें हैं। हां, याद आया चचा, एक ख़बर ने ध्यान खींचा।
—बता वोई तौ पूछ रह्यौ ऊं!
—चचा, एक आदमी ने अपने गले पर चाकू रखकर पुलिस को फोन मिलाया कि मैं आत्महत्या कर रहा हूं। पुलिस आ गई। बड़ी मिन्नतें कीं, भैया दरवाजा खोल दे। चाकू गर्दन से हटा ले। नुकीला है, गला कट जाएगा। वो अड़ गया, नहीं जी, मैं तो मरूंगा। मुझे तो मरना है। समझ में आ गया कि ये आदमी अन्दर से हिला हुआ है। ऐसे बात नहीं मानेगा। खिड़की में एक आदमी ने उसे बातों में उलझाया और किसी तरह से चुपचाप दरवाजा तोड़ कर पुलिस ने उसे धर-दबोचा। ले आई थाने। अब उसका अख़बार में फोटो छपा जिसमें वह एक पुलिसकर्मी के साथ गले मिलकर रोता हुआ दिखाई दिया। पुलिसकर्मी का चेहरा भी विदा होती बेटी के बाप जैसा इमोशनल था। अपराधी और पुलिस गले मिलें, इससे बढ़िया दृश्य क्या होगा, बताओ चचा?
—अपराध का हतो वाकौ?
—अपराध ये कि उसके ग्यारह बच्चे थे। पहली पत्नी तीन बच्चों को जन्म देकर परलोक सिधार गई। जिससे दूसरी शादी करी उसके पास छः बच्चे पहले से थे। हो गए छः और तीन नौ। दो इनकी कृपा से और हो गए।
—कुल्ल ग्यारै! अच्छा फिर?
—ग्यारह बच्चों का लालन-पालन कैसे हो। दूसरी बीबी का सबसे बड़ा बच्चा खाता-कमाता है। श्रीमान जी ने उससे पैसे मांगे, वो नट गया। एक तो सौतेला बाप ऊपर से पैसा मांगे। बस इसी तनाव में आकर श्रीमानजी ने गले पर छुरी लगा ली।
—तौ जामैं दिलचस्प बात का भई?
—दिलचस्प बात ये हुई चचा कि वो आदमी जो गले पर छुरी लगाकर सबको परेशान कर रहा था, दया का पात्र बन गया। पुलिस-थाने के लोग, जो प्राय: दया नहीं जानते, सबने बड़ी मौहब्बत से उसके साथ फोटो खिंचाया। यानी, पुलिस भी दिलविहीन नहीं होती। मुझे फोटो देखकर मजा आया। पुलिस हमारी कितनी सहृदय है जो ऐसी स्थितियों में, जब आदमी परेशान हो, दिलासा और राहत देती है। ऐसी ख़बरों का कोई फॉलोअप तो होता नहीं कि वो आदमी कहां गया, फिर उसके बेटे ने क्या किया, ग्यारह बच्चों का क्या हुआ, दूसरी बीवी ने उसके साथ क्या सुलूक किया? क्या वो तीसरी की तलाश में निकल गया? बैरागी या भगोड़ा हो गया? क्या हुआ कुछ नहीं पता, लेकिन इस तरह के दुखों के साथ जीने वाले कितने सारे प्राणी हैं। हर प्राणी एक कहानी है और उसमें अगर अंदर घुसो तो कितने ही उपन्यास हैं। मुक्तिबोध कहा करते थे कि मिट्टी के ढेले में भी किरणीले कण-कण हैं। ठेला चलाने वाले में भी अपनी दीप्ति होती है। छः बच्चों की मां को जब वह ब्याह कर लाया था तो कौन जाने कि किसने किस पर उपकार किया। क्या तमन्नाएं रही होंगी? क्या वादे किए होंगे? कितने आश्वासन दिए होंगे? तनाव होता है इस चीज का कि शासन किसका चलता है। जब शासन नहीं चल पाता तब व्यक्ति परेशान हो जाता है और आत्मघाती होने लगता है।
—आत्मघात ते बुरी कोई चीज नायं।
—श्रीमानजी ने तो सिर्फ़ नाटक किया था, लेकिन रोज़गार के अभाव में या परीक्षा परिणामों के तनाव में जो किशोर और नौजवान जीवन से हार मानकर आत्महत्या कर लेते हैं वह सबसे दुखद है। एक कुण्डलिया छंद सुन लो, ’हारो जीवन में भले, हार-जीत है खेल, चांस मिले तब जीतना, कर मेहनत से मेल। कर मेहनत से मेल, किंतु हम क्या बतलाएं, डरा रही हैं, बढ़ती हुई आत्महत्याएं। चम्पू तुमसे कहे, निराशा छोड़ो यारो, नहीं मिलेगा चांस, ज़िन्दगी से मत हारो।
—रिजल्ट आइबे बारे ऐं। बच्चन के ताईं तेरी सीख सई ऐ रे!
Wednesday, April 20, 2011
आंतरिक ऊष्मा की किरणें
—चचा, दोस्ती और दुश्मनी के बारे में मेरे पिताजी एक बात कहा करते थे।
—बता! बो तौ हमेसा अच्छी बात कहौ करते।
—उनकी कथनी में दो लोगों का सम्वाद कुछ इस तरह था कि मैं अपने दुश्मन से प्यार करता हूं। कौन है तुम्हारा दुश्मन? वही जो मेरा दोस्त है। कौन दोस्त? ये पूछकर क्या करोगे मेरे दोस्त? चचा, दोस्ती एक ऐसी चीज़ है, जिसमें एक दीवानी दुश्मनी की दखलंदाज़ी लगभग बनी रहती है। प्यारा दोस्त, प्यारा दुश्मन होता है। छोटी-मोटी चीजें आती रहती हैं, जो दुश्मनी जैसा आभास दिलाती हैं। वे आती हैं एकाधिकार की प्रवृत्ति के कारण, ईर्ष्याओं के कारण या मनोनुकूल कार्यों के समायोजन के अभाव के कारण, लेकिन एक बार यदि दोस्ती की बुनियाद पड़ जाती है तो पड़ ही जाती है। भवन की मंज़िलें गिरती उठती रह सकती हैं। बीज पड़ चुका है तो कभी भी उसका किल्ला फूट सकता है। चार दिन पहले देहरादून से कवि सुरेन्द्र शर्मा के साथ रेल से दिल्ली वापस आया, सुबह पांच बजे। ड्राइवर छुट्टी पर, रविवार का दिन। अब कहां टैक्सी-स्कूटर ढूढूं। सुरेन्द्र जी बोले— ‘चल मैं छोड़ देता हूं बाहर तक।’ मैंने कहा कि यहीं से ले लेता हूं। फिर बड़े प्यार से उन्होंने कहा— ‘चल चाय पी के निकल जाना घर से।’ चाय के प्यारे प्रस्ताव से पुरानी दोस्ती की किरणें फूटती सी दिखाई दीं। वैसे मैं आमतौर से घर ही लौटना पसंद करता हूं। कहीं किसी को छोड़ते हुए भी जाना हो तो उसके यहां भी चाय के लिए नहीं ठहरता। उनके प्रस्ताव में नर्म गर्मी थी। दोस्ती के लिए ज़रूरी होती है ऊष्मा। वो भी अन्दर की। बाहर के दिखावे की नहीं। दोस्ती में कोई बाध्यता नहीं होती। आंतरिक ऊष्मा ही परस्पर आकृष्ट करती है। पहुंच गए जी उनके घर। उन्हें भी नागपुर के लिए तत्काल ही निकलना था। मैं चाय पीते-पीते सोचने लगा कि घर लौटने के रास्ते में एक शौक पूरा किया जा सकता है।
—कौन सौ सौक रे?
—अरे, फोटोग्राफी का चचा। लंदन से एक डी-नाइंटी निकॉन कैमरा लेकर आया था। मेरे पुराने शौक के पास नया उपकरण था। अचानक मन में आया और सुरेन्द्र जी को भी बताया कि मैं पुरानी दिल्ली की उन तंग गलियों में जाना चाहता हूं जहां तीस-बत्तीस साल पहले अपने यार सलीम के साथ घूमे थे और कविता लिखी थी ‘बूढ़े बच्चे’, लेकिन ढीलाढाला कुर्ता पहन कर क्या चुस्त फोटोग्राफी करेंगे, चलो विचार त्यागते हैं। किसी दिन शर्ट-जींस में आएंगे। मैंने देखा कि दोस्ती की ऊष्मा और बढ़ गई, उन्होंने अलमारी खोल दी, ‘जो अच्छी लगे पहन ले।’ अरे, चचा बता नहीं सकता दोस्ती जब अन्दर से फव्वारे की तरह फूटती है तो इसकी हवादार फुहारों में भीगना बड़ा अच्छा लगता है। मैंने एक टी-शर्ट पर हाथ रखा। झट से उन्होंने उतार कर दे दी। कुर्ता अटैची में, टी समाप्त, टी-शर्ट शरीर पर, कैमरा कंधासीन। पहुंच गए तुर्कमान गेट। फोन घुमाया यार सलीम को और यार सलीम की आवाज़ से भी आंतरिक ऊष्मा की किरणें निकलीं।
—फोटू ऐंचे?
—फेसबुक पर अपने हज़ारों ‘दोस्तों’ के लिए चढ़ा भी दिए।
Tuesday, April 19, 2011
लकड़ी से तगड़ी आरी
(कहते हैं कि आरी के पास आंखें नहीं होतीं पर मनुष्य के पास तो हैं।)
जंगल में बंगले
बंगले ही बंगले
नए नए बनते गए
बंगले ही बंगले।
बंगलों में चारों ओर
जंगले ही जंगले
छोटे-छोटे बड़े-बड़े
जंगले ही जंगले
जंगल से काटी गई
लकड़ी ही लकड़ी,
चीरी गई पाटी गई
लकड़ी ही लकड़ी।
चौखट में द्वारों में
लकड़ी ही लकड़ी
फ़र्शों दीवारों में
लकड़ी ही लकड़ी।
मानुस ने मार बड़ी
मारी जी मारी,
लकड़ी से तगड़ी थी
आरी जी आरी।
आरी के पास न थीं
आंखें जी आंखें,
कटती गईं कटती गईं
शाखें ही शाखें।
बढ़ते गए बढ़ते गए
बंगले ही बंगले,
जंगल जी होते गए
कंगले ही कंगले।
हरा रंग छोड़ छाड़
भूरा भूरा रंग ले,
जंगल जी कंगले
या बंगले जी कंगले?
Monday, April 18, 2011
याद रखो मौत मुस्कराती नहीं है
(तुम और तुम्हारी मौत एक ही लग्न में जन्म लेते हैं, पर मौत पहले मर सकती है।)
किसी की उम्र कम
किसी की लंबी है,
और मौत महास्वावलंबी है।
अपना निर्णय स्वयं लेगी,
तुम्हारे चिंता करने से
न तो आएगी
न आने से रुकेगी।
चिंता करके
स्वयं को मत सताओ,
मौत जब भी फोटो खींचना चाहे
मुस्कराओ।
रौनक आ जाती है फोटो में
तुम्हारी दो सैकिंड की मुस्कान से,
ज़िंदगी भर मुस्कुराओगे तो
कभी नहीं जाओगे जान से।
सुनो! तुम्हारे पैदा होते ही
तुम्हारी मौत भी पैदा हो जाती है।
ठीक उसी घड़ी उसी मुहूर्त
उसी लग्न उसी व़क्त
तुमसे कहीं ज़्यादा मज़बूत और सख़्त।
याद रखना मौत मुस्कराती नहीं है,
कोयल की बोली में गाती नहीं है।
वह तो चील-गिद्ध कउओं की तरह
सिर पर मंडराती है
हंसी उसे आती नहीं है।
दांत फाड़े जब वो तुम मुस्कुराओ,
और जब दहाड़े तुम गुनगुनाओ।
वृद्धावस्था तक
अपनी ताक़त खोने से
वो खोखली हो जाएगी,
उसके दांत बर्फ़ की तरह
पिघल जाएंगे
और वो पोपली हो जाएगी।
तुम फिर भी मुस्कुराते रहे
तो तुमसे बुरी तरह डर जाएगी,
तुम्हारी मौत तुम्हारे सामने ही
मर जाएगी।
Sunday, April 17, 2011
युवा का उल्टा वायु
(युवा हवाओं और धाराओं के विपरीत चलकर भी मंज़िल पाते हैं।)
युवा का उल्टा वायु
वायु माने हवा,
हवा का उल्टा वाह
बस यही युवा की चाह।
चाहिए
वाह, वाह, वाह।
दिल के अरमानों के
पंख निकल आए हैं,
उड़ना सीख लिया है
यों पर फैलाए हैं।
बादल के ऊपर जो
फैला नीलगगन है,
उड़ने की मस्ती में
मन हो रहा मगन है।
अच्छा लगे न सूरज
गर वो देता कोई सलाह।
वाह जी
वाह, वाह, वाह।
धरती की गोदी से
निकली तरुणाई है
बाहर आकर खुल कर
लेती अंगड़ाई है।
संकल्पों की माला
इसने आज पिरोई,
बहता ये पानी है
रोक न पाए कोई।
मुश्किल है जो मंज़िल
इसने पकड़ी है वो राह।
बोलिए
वाह, वाह, वाह!
Tuesday, April 12, 2011
खोपड़ी की खपरैल तले
—चचा, लिख दी, भेज दी, छप गई। ताज़ा कविता याद थोड़े ही रहती है।
—अरे, हमेऊं बताय दै लल्ला!
—चचा, कविता में पूछा गया था कि दो अप्रैल ग्यारह का इंडिया गेट और नौ अप्रैल ग्यारह का जंतर-मंतर। बताइए इनमें क्या समानताएं थीं और क्या है अंतर? हमने कहा अच्छा है आपका प्रश्न, समानता ये है कि दोनों में था जीत का जश्न। फिर खोपड़ी की खपरैल में दो और नौ अप्रैल के बारे में और बातें आती रहीं। दो को जीत का जश्न इसलिए मनाया गया क्योंकि कोशिश सफल हुई थी देश में वर्ल्ड कप लाने की, और दूसरा नौ तारीख को इसलिए मनाया गया क्योंकि समझा गया जैसे कोशिश सफल हो गई देश के कप से भ्रष्टाचार को भगाने की। दोनों में अकस्मात युवा वर्ग सामने आया समूचा, दोनों में तिरंगा हुआ ऊंचा, लेकिन चचा दोनों में उल्लास और आवेग का मिला-जुला मिश्रण था। दोनों को बारीक़ी से समझना ज़रूरी है।
—अरे, तू तो कबता सुना, भासन मती झाड़।
—मैंने कविता में आगे यही तो कहा था कि दोनों स्थानों पर हाई था भावनाओं का वोल्टेज। दोनों को मिली चकाचक मीडिया कवरेज। दोनो टीआरपी बढ़ाऊ थे। मोबाइल कम्पनियों के मुनाफ़े गजबढाऊ थे।
—जे लायौ न हकीकत!
—चचा हक़ीकत ये है कि मैं अपनी कविता में हक़ीकत ही लाता हूं। मैंने कहा कि युवा ऊर्जा के साथ खड़ी थी हर पीढ़ी। दोनों मैदान समतल, बिना सीढ़ी।
—सो कैसै भैया?
—इसलिए चचा, कि भीड़ जुटाने के लिए न तो बस लाई गईं और न मचान बनाए गए। कोई पूर्व-प्रायोजन नहीं हुआ। जंतर-मंतर पर लगभग रोज़ाना धरने-प्रदर्शन होते हैं। कभी बाल मज़दूरी उन्मूलन के लिए, कभी नारी उत्पीड़न के ख़िलाफ़। दस-पन्द्रह बुद्धिजीवी झोला टांगे वहां आ जाते थे। प्रैस वालों की निगाह पड़ी, पड़ी, न पड़ी, लेकिन यहां तो भीड़ जुट गई बहुत बड़ी। मीडिया के कारण भीड़ आई, भीड़ के कारण मीडिया आया। सब कुछ अप्रत्याशित सा लगा। जिन लोगों ने भी अन्ना को ये राय दी, वे देश को बहुत गहराई से समझने वाले लोग थे। वे जानते थे कि नौजवानों की भावनाओं को कैसे उद्रेकित किया जा सकता है। उस्ताद थे टेलीविजन के रणनीतिज्ञ। उस्ताद थे कुचले हुए राजनीतिज्ञ। बड़े उस्तादानांदाज़ में जोड़-घटाना हुआ। चूंकि भ्रष्टाचार है हमारे देश की एक पावन-पवित्र-पुनीत सचाई, इसीलिए नई पीढ़ी जज़्बात में आई। उसको आना ही था। दोनों मैदान समतल थे। समतल इसलिए बताए कि पहले में उल्लास का सरलीकरण था दूसरे में आवेग का सरलीकरण और ये सारा का सारा ग़रीब के लिए एक जटिल समीकरण था।
—फिरकित्ती भासन दैन लग्यौ!
—चचा, तुम समझे ही नहीं! मैं भाषण में कविता और कविता में भाषणबाज़ी करता हूं। समानता तो बता दीं, अंतर ये था कि दो अप्रैल को क्रिकेट के बहाने भरपूर नर्तन का मौका था और नौ को सरकार का बाउंड्री में अन्ना का परिवर्तनकामी चौका था। अन्ना ने कोई छक्का नहीं मारा। सरकार की बाउंड्री में ही रहकर, चौका मारकर, चौंका दिया चार दिन में, वरना सरकार के चौका-चूल्हा बन्द होने की नौबत आ जाती। सरकार जानती है कि अच्छा नर्तन और सच्चा परिवर्तन युवा पीढ़ी ही कर सकती है, इसलिए समझदारी से काम लिया। अकड़ की जकड़बन्दी छोड़ दी। कपिल जी भी ठीक कहते हैं कि यह बिल देश की सारी समस्याएं तो नहीं सुलझा देगा। कोई भी बिल पास होगा, संविधान के दायरे में रहकर ही तो होगा। लोकपाल और जनलोकपाल के ऊपर भी कोई होगा कि नहीं। ऊपर रहेगा संविधान। और ये अन्ना हजारे, क्यों लगते हैं प्यारे? इसलिए कि सबको लगता है कि जितना धवल उनकी टोपी और कुर्ते का रंग है, उतना ही दूध धुला उनका अंतर-बहिरंग है। टीवी में सबने देखा कि अन्ना की टोपी पर कुछ मक्खियां बैठ जाती हैं, इसलिए मैं उनसे कहूंगा कि सारे ‘वाम’देवों, ‘राम’देवों, ‘नाम’देवों, ‘दाम’देवों, ‘काम’देवों और ‘तामझाम’देवों से बचना! ऐसी हो तुम्हारी व्यूह-रचना।
—सन ग्यारह की नौ और दो अपरैल की बात सुन लईं, अब नौ दो ग्यारै है जा।
दरोगा जी समझ नहीं पाए
(समझदार भाषा कई बार नासमझी की जननी बन जाती है।)
हाए हाए!
दरोगा जी
कुछ समझ नहीं पाए!
आश्चर्य में जकड़े गए,
जब सिपाही ने
उन्हें बताया—
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए।
दरोगा जी बोले—
ये क्या रगड़ा है?
रामस्वरूप ने चोरी की
तो भला
बिना बात फलस्वरूप को
क्यों पकड़ा है?
सिपाही
बार-बार दोहराए—
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए।
पकड़े गए जी पकड़े गए
पकड़े गए जी पकड़े गए!
दरोगा भी लगातार
उस पर अकड़े गए।
दृश्य देखकर
मैं अचंभित हो गया,
लापरवाही के
अपराध में
भाषा-ज्ञानी सिपाही
निलंबित हो गया।
दोनों घरों में फ़रक है
(घर साफ़-सुथरा रखें तो आंगन में ख़ुशियां थिरकती हैं।)
फ़रक है, फ़रक है, फ़रक है,
दोनों घरों में फ़रक है।
हवा एक में साफ़ बहे,
पर दूजे में है गन्दी,
दूजे घर में नहीं
गन्दगी पर कोई पाबंदी।
यहां लगता है कि जैसे नरक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
पहले घर में साफ़-सफ़ाई,
ये घर काशी काबा,
यहां न कोई रगड़ा-टंटा,
ना कोई शोर शराबा।
इसी घर में सुखों का अरक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
गंदी हवा नीर भी गंदा,
दिन भर मारामारी,
बिना बुलाए आ जातीं,
दूजे घर में बीमारी।
इस घर का तो बेड़ा ग़रक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
गर हम चाहें
अच्छी सेहत,
जीवन हो सुखदाई,
तो फिर घर के आसपास,
रखनी है ख़ूब सफ़ाई।
साफ़ घर में ख़ुशी की थिरक है।
फ़रक है, फ़रक है, फ़रक है,
दोनों घरों में फरक है।
Monday, April 11, 2011
लोक कला व संस्कृति की तिमाही
संपादक : अशोक चक्रधर
इस अंक में जहां एक ओर गवेषणात्मक आलेख हैं वहीं दूसरी ओर कविताएं और कहानियां भी हैं। ब्रज के लोकनृत्यों, मुहूर्त, लोकधर्मी नाट्य परंपरा, आल्हा, बिरहा, नौटंकी, बुंदेलखंड के पारंपरिक लोक-चित्रांकन, लोक कलाओं में स्त्रियों की भागीदारी, प्रयाग, निमाड़, सोनभद्र के सांस्कृतिक संदर्भ, बूंदी की कला, इलाहाबाद संग्रहालय और आलोक पुराणिक का यात्रा वृत्तांत, कुंअर बेचैन और विष्णु सक्सेना के गीत, नीलिम कुमार, सुधीर, महेश्वर की कविताएं, नरेश शांडिल्य एवं डॉ. सोमदत्त शर्मा के दोहे आपको समकालीन कविता से रूबरू कराएंगे तथा प्रदीप चौबे की व्यंग्य छणिकाएं गुदगुदाएंगी और भी बहुत कुछ मिलेगा आपको इस अंक में।
प्रेक्षागार : इंडिया हैबिटेट सेंटर, नई दिल्ली