Saturday, October 31, 2009

जैसे उनके दिन फिरे

चौं रे चम्पू

—चौं रे चम्पू! कहीं जाइबे कौ मन ऐ, कहां जायं? तू चलैगौ मेरे संग?
—एक साथ दो सवाल कर दिए, चचा। जवाब में दो सवाल सुन लीजिए। पहला यह कि किस उद्देश्य से जाना चाहते हैं और दूसरा यह कि वहां मेरे साथ की क्या ज़रूरत है?
—देस की भलाई के ताईं कहीं भी…. और तू रहैगौ मेरौ सलाहकार।
—ठीक है, समझ गया चचा! दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, पड़ोस के किसी गांव की दलित बस्ती की कोई झोंपड़ी ढूंढ लीजिए, वहां अपनी बगीची की कुछ सब्जियां और गैया के घी का एक डिब्बा लेकर पहुंच जाइए। अपने आपको उनका दूर का रिश्तेदार बताइए। सामान देखते ही वे आपको बहुत निकट का समझेंगे। परिवार के नौजवानों और बहू-बेटियों की दुख-तकलीफ सुनिए। मौसम अच्छा है, न एसी की ज़रूरत है न हीटर की। वहां रह कर गरीबी को समझने की कोशिश कीजिए।
—जे का बात भई? हम गरीबी के सबते करीबी रिस्तेदार ऐं। हम का गरीबी ऐ जानैं नाऐं?
—चचा पूरी बात तो सुनो। आप गरीबी को अच्छी तरह जानते हैं, पर गरीब अपनी गरीबी को नहीं जानता। आपको उसके लिए निदान सोचने हैं। गरीब को अपने श्रम का प्रतिदान नहीं मिलता। कुछ कृपानिधान क़िस्म के लोग कभी कभी दान दे देते हैं और सरकार अनुदान दे देती है। स्थाई कल्याण फिर भी नहीं हो पाता। मेरी योजना है कि किसी तरह श्री राहुल गांधी को उस झोंपड़ी तक लाया जाए। वे इन दिनों दलितों के घर जाकर पूरे मन से गरीबी को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
—विचार नेक ऐ, तू चलैगौ मेरे संग?
—ना, ना चचा। लोग मुझे पहचानते हैं। मेरी काया का शहरीकरण हो चुका है। आप गरीबी में नहाए-धोए लगते हैं। मैं नहीं जाऊंगा, मोबाइल पर आपके साथ रहूंगा। राहुल जी को वहां लाने का काम मेरा है।
—आगे बता।
—जब वे दलित की उस झोंपड़ी में आ जाएं तो वहां सत्यनारायण भगवान की कथा कराइए। कथा में लीलावती-कलावती की गरीबी की व्यथा बताइए। कथा के बीच में जब-जब सत्यनारायण की जय बोली जाय तब –तब कहिए कि आज इस कुटिया में राहुल भैया खुद सत्यनारायण दरिद्रनारायण बनकर आ गए। अब लीलावती-कलावती के पूरे परिवार के दिन फिरेंगे। बीच-बीच में कीर्तन भी कराते रहना।
—कौन सौ कीर्तन?
—जय राहुल भैया, स्वामी जय राहुल स्वामी। तुम पूरे सौ पइसा लाए, नब्भै पइसा लुक्कन खाए। हैं बिचौलिए बड़े कसइया, करौ इंतजामी। स्वामी जय राहुल स्वामी। आगे का कीर्तन भी बना दूंगा। राहुल भइया बड़े कृपालु हैं। जहां ठहरते हैं उसके आस-पास कोई कारखाना या पावर-प्लांट लगवा देते हैं। हालांकि ये बात वे जानते हैं और उनके पिताजी भी कहते थे कि केन्द्र से सौ पैसे भेजे जाते हैं, लेकिन विकास के लिए पन्द्रह पैसे ही पहुंच पाते हैं। चचा, आज भी पिच्चासी, नब्भै या पिचानवै पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहे हैं। घाट-घाट का पानी पिए घुटे हुए घोटालेबाज़ जब विकास के नए घाट पर ऐय्याशी करते दिखाई देते हैं, बेशर्म रंगरेलियां मनाते दिखाई देते हैं, तो वहां फनफनाते हुए आ जाते हैं नक्सलवादी। असल समस्या घाट-घाट के इन घुटे घोटालुओं की है। आपका काम होगा इलाके के घोटालुओं का उन्हें सही-सही ब्यौरा देना। आप झोंपड़ी में उनके साथ होंगे, बातचीत का पूरा मौका मिलेगा। सारे रहस्य उनके कान में बताना। क्योंकि जिन लोगों के साथ वे आएंगे, उनमें से एक-दो सफेद खादी का खोल पहने हुए घोटालू भी हो सकते हैं। यों राहुल भैया को अच्छे बुरे की गहरी पहचान है पर हर घुटा हुआ घोटालू तिकड़मबाज़ी में महान है। कुछ तो रेलिंग के बाहर माला लेकर खड़े होंगे। आप उस झोंपड़ी के मुखिया के तौर पर उन्हें सारी पोलपट्टी बता देना। बताना कि गरीब इसीलिए पिचा हुआ है, क्योंकि पिचासी-पिचानवै प्रतिशत पचाने वाले उस झोंपड़ी से बहुत दूर नहीं हैं। जो बताना, आत्मविश्वास के साथ बताना। लीलावती-कलावती के व्यापक परिवार की परम व्यापक ग़रीबी का वस्तुवादी ब्यौरा देना। वे अपने सचिव को निर्देश देंगे कि लीलावती-कलावती इलाके को केन्द्र से विकास का कौन सा पैकेज दिलवाना है। मौका देखकर उस परमानेंट डायलॉग से कथा खत्म करा देना।
—कौन सौ डायलौग?
—जैसे इनके दिन फिरे, वैसे हर किसी के फिरें।

Friday, October 23, 2009

ट्रैक्टर शाह द्वारा कुचली हुई ग़रीबी

—चौं रे चम्पू! मिठाई की जगै नमकीन दै गयौ, तोय सरम नायं आई?
—तुमने सुना नहीं चचा, अधिकांश मिठाइयां सिंथैटिक दूध और सिंथैटिक खोये से बनाई जा रही हैं? बगीची पर रह कर जो सेहत आपने बनाई है उसे बिगाड़ने का मुझे कोई अधिकार नहीं। मावे में गैया मां का दूध नहीं है। उसमें है पाउडर, सूजी, मैदा, वनस्पति या चर्बी वाले तेल, और तो और ब्लॉटिंग पेपर भी। मावे की मिठाइयां चार-पांच दिन में खराब हो जाती हैं। नमकीन चलेगी महीने भर।
—नमकीन कौन से तेल में तली ऐ, जाकौ ज्ञान है तोय? मिलावट तौ नए जमाने कौ उपहार ऐ, दूध की नदियन के देस में दूध-दही कौ अकाल! कमाल है गयौ भइया।
—चचा पिछले दिनों एक रेल यात्रा में कवि उदय प्रताप सिंह जी ने दूध की कमी के दो दिलचस्प कारण बताए। पहला ट्रैक्टर और दूसरा फर्टिलाइजर।
—सो कैसै भैया?
—देखिए खेती-बाड़ी का सारा काम बैलों के भरोसे होता था। जुताई, बुवाई, बिनाई, बरसाई, सिंचाई और अनाज की सप्लाई, सारा काम बैल करते थे। हल, रहट और गाड़ी, बैल रहते थे इनके अगाड़ी। घर में गैया न हो तो बैल कहां से आएं? ट्रैक्टर ने बैल, गैया और बछिया की ज़रूरत ख़त्म कर दी। इन्हीं से मिलता था खाद के रूप में गोबर, उसकी जगह आ गए यूरिया जैसे फर्टिलाइजर। हमारे देश में गोवध को पाप भी माना जाता है। सो लोगों ने पालना ही बन्द कर दिया। अब दूध के लिये निहारो, सिंथैटिक पाउडर की तरफ और होने दो पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे धड़ल्ले से मिलावट का कारोबार।
—तेरे उदय प्रताप की बात में दम ऐ। लाला भगवान दीन नै गैया पै एक कवित्त लिखौ ओ। हमेसा अपनी सुनायौ करै, आज हम तेऊ सुनि लै … ‘थोरे घास पानी में अघानी रहै रैन दिन, दूध, दही, माखन मलाई देत खाने को। / पूतन तें खेती करवाय देत अन्न-वस्त्र, जाके धड़ चाम आंत गोबर ठिकाने को। ऐसी उपकारी की कृतज्ञता बिसारि अब, भारत निवासी मारे फिरें दाने-दाने को।’
—यानी समस्या सौ साल पहले भी थी, लेकिन तब तक ट्रैक्टर, फर्टिलाइजर नहीं आए थे। अब के ‘भारत निवासी’ उपभोक्ता में बदल गए हैं चचा। बाज़ार की चीजें ज़रूरतों को व्यर्थ ही बढ़ा रही हैं। पहले दीपावली-दूज पर खांड-बताशे बांटे जाते थे। ज्यादा हुआ तो बेसन-बूंदी के लड्डू! अब देखिए, एक से एक फ़ैंसी मिठाई बाज़ार में आई। मिलावटी हवा-पानी के सेवन से हम हर प्रकार की मिलावट को पचाने में समर्थ होते जा रहे हैं। माना कि दवाइयां आदमी की उम्र बढ़ा रही हैं, पर साथ में मिलावट का ज़हर भी पिला रही हैं। लाला भगवान दीन होते तो देखते कि भगवान की कृपा से भारत में लाला भी बढ़े हैं और दीन भी। एक अरब सत्रह करोड़ की आबादी वाले देश में लगभग दो तिहाई लोग गांव में रहते हैं और गावों में घुसता जा रहा है शहर। शहर हमारे ग्रामीण-जन को उपभोक्ता में तब्दील कर रहा है। दांतुन, रीठा, मुल्तानी मिट्टी और रेह के दिन अब लद गए। अब वहां टूथपेस्ट, शैम्पू, डिटर्जैंट और कॉस्मैटिक्स पहुंच चुके हैं, क्योंकि इनसे पहले पहुंच चुका था टी.वी.। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापारियों के लिए धंधे का भविष्य गावों में ही है। शहर के उपभोक्ता अपनी ज़रूरतों की चीज़ें कर्ज़ ले लेकर खरीद चुके हैं। अब दुपहिए, चौपहिए, गांवों की मांग बन रहे हैं। गांवों में कारों की खरीदारी में दस प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है। महिन्द्रा स्कोर्पिओ पहले बीस प्रतिशत जाती थी, अब पैंसठ प्रतिशत। मोबाइल इस्तेमाल करने वाले दस करोड़ लोग गांवों में रहते हैं। गांवों में गाय नहीं मिलती तो क्या, पॉप गायन मिलने लगा है। गांव हो या शहर, अमीरी जी भर कर नाच रही है और गरीबी ट्रैक्टर शाह के द्वारा कुचली हुई हालत में खेत की मेंड़ पर पड़ी है। एक ओर उपभोक्ता के सामने मिलावटी माल का शानदार पोषण है तो दूसरी ओर अन्न का अभाव और कुपोषण है। आज भारत का उपभोक्ता-बाज़ार विश्व में बारहवां स्थान रखता है, बाज़ार के ग्लोबल गुरू कहते हैं कि यह दो हज़ार पच्चीस तक नम्बर वन के आस-पास आ जाएगा।
—आंकड़े दिखाय कै डरा मती! मोय तौ अपनी गैया की सानी कन्नी ऐ और पानी दैनौ ऐ। खालिस दूध की खीर खाइबे आ जइयो, मोय नमकीन खाय कै गमगीन नायं हौनौ।