Wednesday, September 24, 2008
मुहब्बत के सीमेंट की सड़क
--चचा! इंश्योरैंस के काग़ज़ हैं। कल एक बच्चा मेरी गाड़ी का शीशा फोड़ गया। पार्किंग में खड़ी थी। बड़ी गाड़ी है। शीशा भी कई हज़ार का आएगा। अब ठीक तो करानी पड़ेगी।
--किरकिट खेल रए हुंगे।
--नहीं चचा! मोटा पत्थर मारा। पिछला तो चकनाचूर हुआ, अगला भी दरक गया। दो सौ चौदह वालों का बिगड़ैल बच्चा है।
--तोय कैसै मालुम कै वाई नै तोड़ौ ओ, तेरे सामनै तोड़ौ का?
--प्रैस वाली ने इस शर्त पर बताया कि मैं उसका नाम नहीं लूंगा। बच्चे की मां उसे धमका गई थी, ख़बरदार जो तूने उनको बताया कि हमारे बच्चे ने तोड़ा है। अब मेरी मुसीबत देखिए। अगर मैं इंश्योरैंस वालों को बताता हूं कि खड़ी गाड़ी में बच्चे ने पत्थर मार दिया तो वो पैसे देने से रहे। जानबूझ कर तोड़ा गया शीशा, वो क्लेम क्यों मानेंगे? झूठ बोलना पड़ेगा कि ऐक्सीडेण्ट हुआ। दो सौ चौदह नंबर में जाता हूं तो वे भी क्यों मानेंगे और मान गए तो क्या दे देंगे। धोबन की भी ख़ैर नहीं। उसकी मेज़ फेंक दी जाएगी, टंडीला उखाड़ दिया जाएगा। बड़ा धर्म-संकट है चचा।
--आगै बोल, चुप्प चौं है गयौ? धरम ते ई तौ संकट आंमैं। तोय जे नायं पतौ!
--क्या बात कह दी चचा! मैं भी सोच रहा था कि बच्चे जब गड़बड़ कर देते हैं तो जिस तरह मां-बाप उनकी रक्षा में सामने आ जाते हैं उसी तरह आतंकवादी बन चुके बच्चों की रक्षा में समुदाय के कुछ लोग आ जाते हैं। हमारे बच्चे ऐसा नहीं कर सकते। अरे, मान जाओ भैया कि उसने किया है। तुम्हारे सारे बच्चे ऐसे नहीं हैं। तुम भी ऐसे नहीं हो। कोई एक बच्चा है ख़ुराफ़ाती, तो उसे बचाने की कोशिश मत करो। उसे अगर दंड नहीं मिलेगा तो वह और शीशे तोड़ेगा। पहले मुझे क्लेम मिल जाए चचा, फिर जाऊंगा दो सौ चौदह वालों के पास।
--अब तू अपनी गाड़ी की बातन्नै छोड़, वोई बात बता जो बताय रह्यौ का ओ। वा बात में दम ऐ।
--चचा जामिआ मिल्लिआ एक ऐसी संस्था है जिसका जन्म सन उन्नीस सौ बीस में असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन के दौरान गांधी जी की प्रेरणा से अलीगढ़ में टैंटों में हुआ था। बाद में दिल्ली के करोलबाग़ इलाके में 13, बीडनपुरा की एक पक्की इमारत में आ गई। सन उन्नीस सौ इकत्तीस में ओखला में इसकी संगे-बुनियाद अब्दुल अजीज़ नाम के एक बच्चे के हाथों रखवाई गई। और चचा आपको हैरानी होगी कि आज जो सड़क मथुरा रोड से ओखला और बटला हाउस तक जाती है वह छोटे-छोटे बच्चों के श्रमदान से बनी है।
क्या ही जज़्बा रहा होगा, हमारा मुल्क है, हमारा इदारा है। तालीमी मेला लगता था। हिन्दोस्तान पर प्रोजेक्ट दिए जाते थे। अली बंधुओं की मां इस बात पर गर्व करती थीं कि उनके बेटे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ मुहिम में जेल चले गए। जामिआ में एक ख़िलाफ़त बैंड था, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध तराने गाता-बजाता था। जामिआ का तराना मुहब्बत की बात करता है। जामिआ में जितने भी रहनुमा हुए उन्होंने प्रेम और मुहब्बत का पाठ पढ़ाया और जामिआ के बारे में ये कहा कि पूरे भारत में यह एकमात्र संस्थान है जहां हर मज़हब का आदर करना सिखाया जाता है। इंसान-दोस्ती और वतन-परस्ती सिखाई जाती है। तालीमी आज़ादी, वतन-दोस्ती, क़ौमी यक़जहती, सांस्कृतिक आदान-प्रदान,ज्ञान की विविधता, सादगी और किफ़ायत, समानता, उदारता, धर्मनिरपेक्षता, सहभागिता और प्रयोगधर्मिता यहां के जीवन-मूल्य हैं। वो बच्चे जिन्होंने सड़क बनाई, अब उनमें से कुछ सड़क किनारे बम रखने लगे। मुझे सुबह-सुबह जामिआ के एक उस्ताद मिले। बड़ी शर्मिन्दगी से कहने लगे— लोग हमसे सवाल करते हैं कि क्या आप बच्चों को यही सिखाते हैं। पूछने वालों को क्या जवाब दें? किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं होता। लेकिन ये जो नई नस्ल आई है, हिंदू हो या मुसलमान, इसमें कई तरह का कच्चापन है। जामिआ के सभी कुलपतियों ने विश्वविद्यालय के विकास को लगातार गति दी और इस मुकाम तक ला दिया कि इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी। तरह-तरह के सैंटर, नए-नए विभाग, बहुत तरक़्क़ी की जामिआ ने। और अब देखिए। बिगड़ैल बच्चों के कारण मां-बाप को भी शर्मिंदगी का सा सामना करना पड़ रहा है। यह जो अतीफ़ था, जो मारा गया, राजनीति विभाग में ह्यूमन राइट्स में एम.ए. कर रहा था। वो ह्यूमन राइट्स कितना समझ पाया? शायद उसके ज़ेहन में ह्यूमन की परिभाषा कुछ और ही रही होगी। इंसान-दोस्ती सिखाने वाले अध्यापक क्या करें कि बच्चे का कच्चा दिमाग़ इंसान-दुश्मनी तक न पंहुच पाए। जामिआ के उसूलों की कहानी देश के हर मज़हब के बच्चे को फिर से सुनानी चाहिए और उनसे एक ऐसी सड़क बनवानी चाहिए जो देशवासियों के दिलों तक पंहुचे, जिसपर मुहब्बत के सीमेंट की गाढ़ी और मोटी परत चढ़ी हो।
--हां, सनसनी फैलाइबे ते का होयगौ रे!
Saturday, September 20, 2008
झलकियां : "जयजयवंती वार्षिकोत्सव"
प्रिय और आदरणीय मित्रो,
इन दिनों समारोहों का सिलसिला अपनी निरंतरता में गतिमान है। इंडिया हैबिटेट सैंटर के स्टाइन सभागार में 11 सितंबर 2008 को सम्पन्न हुई "जयजयवंती वार्षिकोत्सव" में सुश्री पूर्णिमा वर्मन का सम्मान हुआ। उनके लैपटॉप को हिन्दी सॉफ्टवेयरों से सज्जित किया गया। इस अवसर पर स्नेहा चक्रधर ने अपनी गुरु पद्मश्री गीता चन्द्रन के निर्देशन में भरतनाट्यम की ऐसी प्रस्तुतियां दीं जिनमें हिन्दी रचनाओं का प्रयोग किया गया था। इस समारोह की झलकियां देखने की फुरसत आपके पास हो तो नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
http://www.flickr.com/photos/jaijaivanti/
ये चित्र और उन पर की गई टिप्पणियां पायल की हैं।
लवस्कार
Wednesday, September 17, 2008
सिरफिरे सिरों को फिर से पकड़ें
--बाहर के तो बाहर के अन्दर के लोग भी कीचड़ उछालेंगे तो अगला दस बार बदलेगा। क्या परेशानी है!
--अब अगलौ सवाल, जे बता कै दिल्ली सचमुच दहली का?
--चचा दिल्ली नहीं दहली। दिल्ली अगले दिन से ही उन सारे स्थानों पर टहली, जहां-जहां धमाके हुए थे। हां, मीडिया द्वारा बहली। जन संचार माध्यमों ने दहशत से दहलाने की कोशिशों में दिल्ली ही नहीं पूरी दुनिया का दिल बहलाया। हज़ार लोग पानी में बह गए, उसे कैसे दिखाओगे, एक आदमी खून से लथपथ दिखा दो तो लोग टी.वी. से चिपके रहेंगे। अरे चचा, कितना बड़ा देश है ये! इसमें दस-बीस सिरफिरे होना मामूली बात है। उन सिरफिरों के कारण आप फिरसिरे हो जाएं, यानी फिर-फिर उसी सिरे को पकड़ कर हिंसा बढ़ा-चढ़ा कर दिखाएं, उचित है क्या? सिरफिरों को हर सिरे से जोड़ना, पिछली विपदाओं पीछा छोड़ना और अगली खुशियों से मुंह मोडना कोई अच्छी बात नहीं है।
--तू कहनौ का चाहै लल्ला?
--देखिए! बाढ़ की विभिषीका अभी ख़त्म नहीं हुई लेकिन पर्दे पर पर्दे के पीछे चली गई। यहां आ गए ख़ून के छींटे। माना कि कुछ निरपराध, निर्दोष और निरीह लोग मारे गए, सौ-दो सौ घायल हुए, लेकिन क्या कोई नया दुख पुराने दुख को इस तरह ढंक देता है? आतंक की घटना दिल्ली में चार स्थानों पर हुई, चलो उसे चार बार दिखा कर आगे की बात करो। ये क्या कि उसी एक खबर को दिन-रात का रोना बना लिया। बड़े खुश हो रहे होंगे चंद आतंकवादियों के विक्षिप्त दिमाग। रातों-रात हीरो बन गए। हत्यारा अपनी क्षमताओं पर ख़ुश होता है। उसके दिलो-दिमाग की गन्दगी और दरिन्दगी को हवा मिलती है। घटना के बाद काम पुलिस और प्रशासन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। वे उन्हें ढ़ूंढ निकालें और सही प्रक्रिया से ठिकाने लगाएं। उन्हें कम्बख़्तों को पर-पीड़ा का सुख तो न लेने दें। उन्हें कच्ची खोपड़ियों का आदर्श तो न बनने दें। उन्हें किसी मज़हब का प्रतिनिधि मान लिए जाने की भूल तो न होने दें और तत्काल कोई निर्णय न निकालें। बारह साल के बच्चे के बारे में क्या-क्या अटकलें लगाई गईं— आर.डी.एक्स. उसकी छाती पर बंधा है, बम जैसी कोई चीज़ उसके पैर में बंधी है, उसकी जेबों में विस्फोटकों की पोटलियां हैं। आतंकवाद अब बच्चों के सहारे विस्फोट कर रहा है। सबका-सब झूठ चचा, बिना बात की सनसनी फैलाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास।
--तौ का निकरौ?
--पता चला कि वह तो गुब्बारे बेचने वाला बच्चा था। उसने आतंकवादी को देखा था। कुछ कूड़ा बीनने वाले बच्चों ने भी सुराग दिए कि उन्होंने रीगल और इंडिया गेट पर भी आतंकवादियों को पोटलियां रखते हुए देखा है। पुलिस ने बम निष्क्रिय कर दिए। लेकिन क्या किसी मीडिया कर्मी ने एक बार भी यह सवाल उठाया कि हमारे देश का बारह साल का बच्चा क्यों गुब्बारे बेच रहा है। छोटे-छोटे बच्चे क्यों कूड़ा बीन रहे हैं। ये सवाल अगर उठाते तो बड़े-बड़े लोग आतंकवादी नज़र आते। ये नन्हे बच्चे अमीरी और गरीबी की लीलाएं सुबह-शाम देखते हैं। ये अपनी मेहनत से घर चलाते हैं, पूरे कुनबे का पेट पालते हैं। ज़िम्मेदार हैं और ज़्यादा समझदार हैं। इस बचकानी दुनिया में ये बूढ़े बच्चे हैं। इनके तजुर्बों ने हादसों को टाला है। इनको चाहिए शिक्षा-दीक्षा और दिलों को जोड़ने वाली भाषा का ज्ञान। मानवीय और आत्मीय सम्प्रेषण के अभाव में अगर कोई दरिन्दा इन्हें फुसला ले तो शायद सफल हो सकता है। दरिन्दों को करना सिर्फ़ ये होगा कि मज़हब की गलत-सलत व्याख्याएं करके इन्हें अमानवीय बना दें। सबको जोड़ने की ताकत रखने वाली भाषा के स्थान पर सिर्फ़ दरारें बढ़ाने वाली ज़बान सिखा दें।
--दिलन कूं जोरिबे वारी भासा कौन सी ऐ रे?
--हिन्दी चचा हिन्दी! उसे हिन्दुस्तानी कह लो। जिसे पूरा देश बोलता है। जिसमें हमारे देश की सारी भाषाओं के शब्द हैं। वो हिन्दी! तेरह को काण्ड हुआ, चौदह को हिन्दी दिवस था। हर अख़बार में दो-तीन पन्ने तो हिन्दी दिवस पर आते ही थे। आतंकवाद की ख़बरों के कारण हिन्दी की वह जगह भी छिन गई। मीडिया के मित्रो से गुज़ारिश है कि वो आफ़त को इतना बढ़ा-चढ़ा कर न दिखाएं कि शराफत माफी मांगने को मजबूर हो जाए। सिरफिरों को इतना सिर न चढ़ाएं। सत्य के मानवीय सिरों को फिर से पकड़ें।
Thursday, September 04, 2008
हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते
--चौं रे चम्पू! जे तेरे थौबड़ा पै कित्ते बज रए ऐं रे? तेरी एक आंख तौ लगै हंस रई ऐ और दूसरी लगै कै रो रई ऐ, चक्कर का ऐ?
--चचा ठीक पहचाना! कुछ गड़बड़ तो है जिसे मैं भी समझ नहीं पा रहा। एक गूंज सी है मस्तिष्क में, जो दांए-बांए हो रही है। कभी-कभी कोई एक बात दिमाग में घुस जाती है, वो परेशान करती रहती है, कभी राह भी सुझाती है।
--पहेली मत बुझा, मूंजी! अपनी गूंज की पूंजी बाहर निकार।
--चचा! ‘हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी’ को लेकर पिछले एक साल से मासिक गोष्ठियां चल रही हैं। बारहवीं गोष्ठी में जनाब अशोक वाजपेयी ने एक बात कही थी-- ‘निराशा का भी एक कर्तव्य होता है’। इस वाक्य के बाद उन्होंने जो बोला मुझे सुनाई नहीं दिया। सुई वहीं अटक गई। तब से मैं परेशान भी हूं और सुखी भी। वाकई एक आँख हंस रही है, एक रो रही है।
--निराशा कौ कर्तव्य?
--हां चचा। निराशा कहां नहीं है, हिन्दी को लेकर, औरत के माथे की बिन्दी को लेकर, गरीब के कपड़ों की चिन्दी-चिन्दी को लेकर, निराशा कहां नहीं है? लेकिन निराशा का कर्तव्य होता है, ये कहकर चचा कमाल ही कर दिया। निराशा अगर तुम्हें घनघोर निराशा में छोड़ दे तो वो निराशा अपराधी है। लेकिन निराश नज़ारा अगर ज़रा सी आशा कि किरणों भी ले आए तो वह निराशा सकारात्मक हो जाती है। हिन्दी के मामले में विद्वानों को जब भी सुनो, हिन्दी के दरिद्र भविष्य का ख़ौफ़नाक नज़ारा पेश करते हैं। हमारे मित्र राहुल देव ही अकसर कहते हैं कि आने वाले बीस-पच्चीस वर्षों में हिन्दी दरिद्रों की, रिक्शे वालों की, नाइयों-धोबियों की, नौकर-चाकरों की बोली भर बनकर रह जाएगी, बाकी पूरा समाज अंग्रेज़ी बोलता नज़र आएगा। चचा, निराशा वाजिब लगती है पर इसमें भी आशा तो है ही कि हिन्दी रहेगी तो सही। रहेगी, उन लोगों के बीच जो भाषा के सही वाहक होते हैं। ले जाते हैं आगे। शास्त्रीय भाषाएं कब आगे बढ़ी है? लोक भाषाएं ही सदा आगे बढ़ती हैं। एक सेमिनार में कुछ लोगों को हिन्दी का गिलास आधा भरा दिखाई दिया, कुछ ने कहा आधा खाली है। इस पर राजकिशोर की टिप्पणी बड़ी मज़ेदार लगी, उन्होंने पूछा—‘गिलास कहां है’? हिन्दी का तो गिलास ही गायब है।
--बात भड़िया है!
--हंस रहे हो चचा! मुझे भी हंसी आई थी। फिर मेरी इधर वाली आँख हंसने लगी। उसे कम्प्यूटर-इंटरनेट के रूप में गिलास दिखाई दे गया। इंटरनेट ऐसा जादुई गिलास है जिसमें तुम चाहे जितना भरो, गिलास भरेगा नहीं और खाली भी नहीं होगा। भरे जाओ, भरे जाओ, ये तुम्हारे ऊपर है कि कितना भर सकते हो। जो भर रहे हैं उन्हें सैल्यूट करने का मन करता है। एक हैं दुबई में पूर्णिमा वर्मन इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से नेट पर हिन्दी साहित्य को अपलोड करने का काम कर रही हैं। हर दिन नए-नए कवि कविता-कोश में सम्मिलित होते जा रहे हैं। हिन्दी विकीपीडिया हर पल बढ़ रहा है। एक बार कोई साहित्यकार अपलोड हो जाए तो तब तक नहीं हट सकता जब तक वह स्वयं न कह दे कि मुझे वहां से हटा दिया जाए। अपने आप वो हटेंगे क्या? जो बढ़ गए हैं वो घटेंगे क्या?
--फिर हिन्दी कूं फिकर का बात की?
--हिन्दी के लिए अरण्य-रोदन करने वाले ही हिन्दी के शत्रु हैं। पर वे इतने बड़े-बड़े नाम हैं कि उन्हें शत्रु घोषित कर दिया जाए तो बात बनेगी नहीं। वे हर दिन सेमिनारों में अच्छी हिन्दी बोलकर हिन्दी के विकास का रोना रोते हैं। वो मंचों पर जाते हैं। हिन्दी में कविताएं सुनाते हैं। हिन्दी को जो लोग सरल करें उनके प्रति वे कठिन हो जाते हैं। वे पारिभाषिक कोशों के हस्ताक्षर हैं। वे सलाहकार समितियों के सिंहासन हैं। वे पॉलिटिक्स के पद्मासन हैं। वे आत्म-मुग्ध हैं। वे यात्राएं करते हैं। उनके वृक्ष का पत्ता-पत्ता भत्ता पाता है। वो किसी का भी पत्ता काट सकते हैं। हिन्दी उनसे कितनी धन्य या दुःखी है ये बताया नहीं जा सकता। वे हिन्दी के आत्मघाती गुलदस्ते हैं। हिन्दी पखवाड़ा आने वाला है। इनका जमावड़ा अब लगेगा। लेकिन मेरी निराशा का भी एक कर्तव्य है चचा, जिसे पूरा करने का मन है।
--अरे! अब तो तेरी दोनों आँख हंस रही हैं।
--थैंक्यू चचा।