चौं रे चम्पू!
—चौं रे चम्पू! अब आयौ ऐ जब हमारे जाइबे कौ टैम है गयौ!
—अरे चचा! तुम्हारे जाने का टाइम अभी कहां आया है। टाइम तो आ गया हमारे नामराशि का।
—का भयौ?
—अनीति हो गई नीति बाग में। अशोक गोयल और लता गोयल, परिचित थे अपने। उन्नीस सौ चौरानवे में अपनी भतीजी की शादी उनके भतीजे से कराई थी। सगाई का बायना ले के गए थे सी-61 में। मेरे घर के दरवाज़े पर वो बरात ले के आए थे। नाम अशोक था तो अशोक ही थे। हंसमुख, खुशमिजाज़।
—अच्छा वोई जिनके बारे में हल्ला है रयौ ऐ कै बुजुर्ग दम्पति कूं नौकर मार गयौ?
—हां चचा! ज़माना बदल गया। आजकल नौकर वो जो नोंक मारे चाकू की। चाकर वो जो चाक-चाक कर दे कलेजा। तीमारदार वो जो एक नहीं तीन बार मारे। टहलदार वो जो वारदात करके टहल जाए। नाचीज़ वो जो घर की एक चीज़ न छोड़े। ख़ाकसार वो जो ख़ाक में मिला दे। बंदगी वो जो बंद करके भग जाए। ज़रख़रीद वो जो सारा ज़र बेच खाए। दास वो जो दशा बिगाड़ दे। अनुचर वो जो अणु-अणु चर जाए। सेवक वो जो खुद के लिए सेव करे। चेट वो जो अचेत कर दे। ख़िदमती वो जो जिसकी मति खुदगर्ज़ी की हो। घरजाया वो जो घर से सारा माल लेकर जाया हो जाए। मुलाज़िम वो जो मुल्ज़िम हो।
—बुरौ भयौ। पर जेऊ बुरौ भयौ कै नौकर-चाकरन के प्रति तेरी सहानुभूति खतम है गई रे!
—मुझे तो रह-रह कर उन अशोक जी की बातें याद आ रही हैं चचा। कितने हंसमुख और मिलनसार थे। दो योग्य बेटियों के पिता। राखी और पूजा का रुदन नहीं देखा जा रहा था। जुल्म हो गया चचा।
—तसल्ली रख चम्पू! हैरानी की बात जे ऐ कै जब तेरे खुद के ऊपर आ पड़ी तौ तेरी विचारधारा ई बदल गई।
—माफ करना चचा, आप ठीक कहते हैं। जब खुद पर आ पड़ती है तो विचारधारा बदल जाती है। लोग अब विचारधारा को अपने अनुभव से ऊपर नहीं मानते। धन्यवाद आपका जो आपने मुझे दुरुस्त किया। मीडिया भी अति कर देता है मेरी तरह। हम अपने समाज के दोष नहीं देखते जो इन अपराधों के मूल में होते हैं। जो नौकर आपके घर में
आता
है वो टीवी पर वही देखता है जो आप देख रहे होते हैं। वही.... जुर्म, वारदात, सनसनी। इन कार्यक्रमों में सनी-सनी चेतना की गिरफ़्त में वो भी आ सकता है, पर कुल मिला कर आंकड़े इतने भयावह नहीं हैं। अकेली दिल्ली में पूर्णकालिक और पार्ट-टाइम नौकर आठ लाख से ज़्यादा हैं। कोई संगठन नहीं है उनका, कोई यूनियन नहीं है। न कोई बीमा, न पैंशन.... भाड़े के टट्टू। पुराने ज़माने में जब कोई दास खरीदा जाता था तो उसके कान में कौड़ी डालते थे।
—तभी तौ कहावत बनी-- दो कौड़ी कौ आदमी।
—चुटिया काट देते थे ताकि भरी भीड़ में पहचान लिया जाए। सभ्य समाज में यही ऐसे मानव हैं जिसके पास मानवीय अधिकार नहीं हैं। पुराने ज़माने में दास होते थे, उन्हें महज़ बोलने वाला औज़ार माना जाता था। किसके दिल में दर्द है उनके लिए? आठ-दस लाख में से अगर पंद्रह-बीस वारदात हो गईं तो सचमुच कोई बड़ा आंकड़ा नहीं बनता। अफसोस कि इस आंकड़े में हमारे निहायत शरीफ़ मित्र आ गए।
—सारे मालिक सरीफ नांय होयं चम्पू!
—हां, नौकर भी देखते हैं कि हमारा मालिक कितना बड़ा चोर है। बहुत ही सभ्य मालिक अपने नौकर से बिजली की चोरी कराते हैं। मेरे एक पड़ौसी बिना इस बात की फिक्र किए कि नीचे भी लोग रहते हैं, अपनी नौकरानी से डण्डे से कपड़े कुटवाते हैं। वाशिंग मशीन सजावट के लिए घर पर रखी है।
नौकर है तो क्यों बिजली फूंकी जाए। चोरियों के शिक्षा-केन्द्र तो घरों में ही खुले हुए हैं। मुकेश का मासूम चेहरा देख कर लगता नहीं है कि इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे सकता है। इसके पीछे रहा होगा कोई गिरोह। और जरायमपेशा लोगों ने मार दिए हमारे दोस्त। पर चचा तुम ठीक कहते हो अपने निजी अनुभव से विचारधारा नहीं बदलनी चाहिए। ये भी सोचें कि दिल्ली के आठ लाख घरेलू नौकरों पर क्या बीत रही होगी। चचा, तुमने कभी नौकर रखा?
—वैसौ मिलौ ई नांय जैसौ चहियै!
—कैसा चाहिए?
—नौकर ऐसौ चाहिए, ना मांगै ना खाय।
चार पहर हाज़िर रहै, घर भी कभी न जाय।