—ऐसा एक ही यंत्र है जो पैसों की इफ़रात करा सकता है। पैसों की बरसात करा सकता है। पैसों के दिन-रात करा सकता है।
—बता-बता!
—इतनी आसानी से नहीं बताऊंगा चचा! कोई सुन लेगा। कान इधर लाओ तो बताता हूं। ....और ये भी सुन लो, किसी और को बताना मत! चचा, वो यंत्र है— षड्यंत्र! ….अरे हंस रहे हो! बिल्कुल सही बात बताई है।

—हां! बात में दम ऐ, पर इस्तैमाल कौ तरीका तौ बताऔ?
—षड्यंत्र नामक यंत्र को लगाने के लिए निष्ठाहीनता की ज़मीन चाहिए। यानी बेवफ़ाई, बेमुरव्वती, अनिष्ठा और नमकहरामी। जिसका खाओ उसको भूल जाओ। खाने के नए-नए प्रबंध करो और पाचन-शक्ति बढ़ाओ। पाचन-शक्ति भी ऐसे नहीं बढ़ेगी। उसके लिए अहसान फरामोशी के साथ चाहिए ज़मीरफरामोशी। अपने ज़मीर को भी धोखा दो। यानी निष्ठाहीनता की ज़मीन पर विश्वासघात की बुनियाद डालो। अपघात करो, कपट करो। गद्दारी, दगाबाज़ी, हरामखोरी ये वे तत्व हैं जो बुनियाद को मज़बूत करते हैं। मित्रद्रोह या मित्रघात से बुनियाद और पुख़्ता होती है। अब षड्यंत्र नामक यंत्र को स्थापित करने के लिए कुछ चीज़ें ऐसैम्बल करनी पड़ेंगी। पुर्ज़े जोड़ने के लिए चलता पुर्ज़ा बनना पड़ेगा। वो पुर्ज़े हैं छल, कपट, छ्द्म, जालसाज़ी, ठगई, दगा, धांधली, धूर्तता, प्रपंच, पाखण्ड, फंद, दंद-फंद, फरेब, मक्कारी, फेराहेरी, बेईमानी। इन पुर्ज़ों को जोड़ने वाला एक पुर्ज़ा होता है। षड्यंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पुर्ज़ा— भ्रष्टाचार।
—इत्ते सारे पुर्जा?
—समाज में बिखरे पड़े मिल जाएंगे। ख़ास मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी चचा। इन पुर्ज़ों को इकट्ठा करने के लिए एक सवारी चाहिए। उस वाहन का नाम है— अवसरवाद। चढ़ते सूरज को सलाम करो, अपनी सुविधा, मतलबपरस्ती और स्वार्थ-साधना के लिए स्वयं को परिवर्तनशील बनाओ। तोताचश्म हो जाओ। सवारी करने के लिए गद्दारी का हुनर ज़रूरी है। गद्दारी करो, तभी गद्दी मिलेगी। हर पुर्ज़ा नए पुर्ज़े को ढूंढने में मदद करता है। एक बार अवसरवाद की सवारी कर ली तो राह चलते आंखों में धूल झोंकना, उल्लू बनाना, चकमा देना अपने आप आ जाएगा।

कुछ कौशल अनुभव से आएंगे जैसे— सांठ-गांठ, मिलीभगत, दुरभिसन्धि, कृतघ्नता आदि-आदि। तुम धीरे-धीरे लोगों को काटना सीख जाओगे। मीठी छुरी बन जाओगे। शहद से मीठी छुरी। मौकापरस्त बने रहे तो पस्त नहीं हो सकते। व्यस्त रहोगे और मस्त रहोगे। तुम्हारा यंत्र यानी कि षड्यंत्र, पैसों का धकाधक प्रोडक्शन करेगा। ….और पैसे से क्या काम नहीं हो सकता चचा?
—का पैसन ते ई सारे काम हौंय?
—अब चचा तुम मुझे ज़मीन से ज़मीर पर ला रहे हो। सोचना पड़ेगा। बाई द वे, मैं तुम्हारा सवाल भूल गया, ज़रा फिर से बताना।
—यंत्र कौ इस्तैमाल सुरू कर दियौ का?
—नहीं चचा! अभी पुर्ज़े जोड़े कहां है?
—मैं तेरी फितरत जानूं। तू नायं जोड़ सकै। सब्दन कूं जोड़िबे कौ खेल कर सकै ऐ बस्स। सवाल कौ जवाब दै। का सारे काम पैसन ते ई हौंय?
—नहीं चचा! कुछ काम सिर्फ ‘पैशन’ से होते हैं। आंतरिक उत्साह, समर्पण और प्रतिबद्धता से। कोई पैसा दे कर सारे काम नहीं करा सकता। पैशन दुनियादार नहीं होता। वह तो अन्दर की ज्वालाओं में तप कर आता है। वह ख़ुद नहीं बदलता, ज़माने को बदलता है। यह भी एक यंत्र है, पर षड्यंत्र नहीं सद्-यंत्र है। अगर सारे लोग इस यंत्र से काम लें तब भी पैसे की इफ़रात हो सकती है। वह भी अवसरवाद होगा लेकिन सिर्फ अपने लिए नहीं, सबके लिए अवसर। पता नहीं ऐसे दिन देखने का अवसर कब मिलेगा? अपने एक दोस्त हैं चचा, मारूफ़ साहब, वे अक्सर कहा करते हैं— ‘ऐसे दिन आएं कि ख़्वाबों की ज़रूरत न रहे, ऐसे कुछ ख़्वाब भी पलकों पे सजाए रहिए’। मैं मानता हूं ऐसे दिन आएंगे चचा। पैशन में कमी नहीं रहेगी तो पैसन में भी कमी नहीं रहेगी।
