—चौं रे चम्पू! चालीसमे सिरीराम कबसम्मेलन में हम तौनायं आ सके,कैसौ भयौ?
—अद्भुत था चचा,अद्भुत! चालीस वर्ष से वाचिक परम्परा की अच्छी कविता को जनता तक पहुंचाने का इस बार का प्रयास पिछले अनेक वर्षों की तुलना में अच्छा रहा। श्रोता भी शुद्ध कविता सुनने यहाँ इसलिए आते हैं क्योंकि न तो बहुत लतीफेबाजी होती है और न कविसम्मेलन में आए हुए दुर्गुणों के दर्शन होते हैं। हर साल देश के किसी एक भाग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मंचसज्जा के रूप में रहती है। इस साल चूंकि रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पचासवीं जयंती चल रही है, इसलिए पृष्ठभूमि में बंगाल था। कविसम्मेलन के प्रारंभ में किसी एक महान दिवंगत कवि की कविताओं के पाठ की परंपरा भी यहाँ वर्षों से चल रही है। इस बार जब टैगोर कि ‘दुई पाखी’ कविता का भवानी दादा द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद सुनाया जा रहाथा, तब मुझे कवि प्रदीप की याद आई।
—टैगौर की कबता ते प्रदीप कैसै याद आए भइया?
—चचा उन्होंने एक गाना लिखा और गाया था, ‘पिंजरे के पंछी रे, तेरा दरद न जाने कोय। विधि ने तेरी कथा लिखी, आंसू में कलम डबोय। चुपके-चुपके रोने वाले, रखना छुपा के दिल के छाले। ये पत्थर का देस है पगले, कोई न अपना होय।’ पिंजरे के पंछी की व्यथा‘दुई पाखी’ नामक कविता में भी थी। प्रदीप अपने पंछी को चुप रहने की सलाह देते हैं, जबकि रवीन्द्र बाबू की कविता में दोनों पंछी चुप न रहने को लेकरसंवाद करते हैं। पिंजरे का पंछी पिंजरे की सुविधाओं का आदी हो चुका है,वनपाखी उन्मुक्त गगन में गाता है। इस कविता के दोनों पाखियों को प्रतीक के तौर पर देखें तो स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि और नवजागरण के दौर की मानसिकता सामने आती हैकि किस प्रकार कविता धीरे-धीरे परिवर्तन का एक औज़ार बन रही थी। भारतेंदु थोड़ा सा उनसे पहले हुए थे। उनके मन में भी पीड़ा थी कि अंग्रेज राज वैसे तो सुख साज है पर ख़्वारी की बात यह है कि धन विदेश चला जाता है। अंग्रेजों के राज में सुख साज का पिंजरा था, लेकिन धन बाहर चला जाता था यह बात उन्मुक्त गगन के पंछी ही जानते थे।
—बता का बात भई दोऊपच्छिन में?
—सोने के पिंजरे में पिंजरे का पंछी था और वन का पंछी था वन में, लेकिन न जाने क्या आया विधाता के मन में, कि दोनों का मिलन हुआ। बाहर का पंछीआज़ादी के गाने गाए और पिंजरे का पंछी रटी-रटाई बातें दोहराए। उन दोनों की भाषाओं में कोई तालमेल नहीं था। उपलब्ध सुखों का आदी व्यक्ति उस सुख को नहीं जानता जो पिंजरे के बाहर होता है। दोनों में डॉयलॉग हुआ। वन के पंछी ने कहा कि पिंजरे के पंछी चल आ जा हम वन में चलें! आकाश गहरा नीला है आ जा, अपने आप को बादलों के हवाले कर दे! लेकिन पिंजरे के पंछी ने कहा कि तू अंदर आ जा यहां सुख हैं, सुविधाएं हैं। सब कुछ मिलता है। भला मैं जंगली गीत कैसे गा सकता हूं? बादलों में बैठूँगा कहां? तू पिंजरे में आ जा! वन पाखी कहता है कि मैं उड़ूंगा कैसे?बहरहाल,दोनों पाखियों ने चोंचे मिलाई। एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर ताका। एक बार मन भी किया वनपाखी का कि पिंजरे में आ जाए पर घबरा गया कि कोई बंद न कर दे पिंजरे की खिड़की, पिंजरे के पंछी को डराती थी मालिक की झिड़की।
—सही तस्बीर खैंची गुरदेब नै!
—सोने के पिंजरे में हमारा समाज आज भी सोया हुआ है। मध्य-वर्ग में लोन एक ऐसा सोने का पिंजरा है जिसमें कितने ही पंछी फड़फड़ाते हुए इन दिनों आत्महत्याएँ कर रहे हैं। आजकल ये विदेशी कंपनियां भी सोने का पिंजरा बनाकर क़ैद कर रही हैं हमारे जवानों को। जब भी ये कविता सुनो, नए नए अर्थ दे। और चाचा! उस कविसम्मेलन में पवन दीक्षित ने भी एक शेर सुनाया,‘उड़ने से मुझे रोकता सैयाद क्या भला! मैं ही तो क़ैद था मेरा एहसास तो नहीं।’ प्रदीप ने आंसुओं में कलम डुबाकर लिखा, पवन ने हालात की मजबूरी में डुबा करऔर रवीन्द्र ने आशाओं के विकल्पों में डुबा कर।
—एक सौ पचास साल है गए, रवीन्द्र की जे कबता तौ हाल की सी कबता लगै चंपू!