Monday, August 25, 2008

लकड़ी का रावण नहीं रबड़ का गुड्डा


--चौं रे चम्पू! अब मुसर्रफ कौ होयगौ रे?
--चचा! वही होगा जो एक भिखारी के साथ होता है। भीख न मिलने पर पेट में घुटने दबाकर फुटपाथ पर सोता है। तानाशाह की परिणति या तो आरी से कटने में होती है या कद भिखारी तक घटने में होती है। ताज्जुब की बात तो ये है कि चुनाव के बाद इतने दिन तक टिका भी कैसे रहा। वजह ये थी कि फौजी वर्दी के अन्दर वो एक जम्हूरियत के बन्दर की तरह अपने गलफड़ों में रसद इकट्ठी करता रहा और कट्टरता और आंतकवाद से लड़ाई नाम की दो डालों पर जब मन आया फुदकता रहा। अमरीका के पैसे से आवाम को विकास का झूठा नज़ारा दिखाता रहा। जनता कंफ्यूज़ हो गई। कारगिल में घुसपैठ करके भारत विरोधी भावनाओं को तुष्ट किया और फिर पट्ठा आ गया भारत से हाथ मिलाने।
--अब होयगौ का वाके साथ, जे बता?
--कुछ ख़ास नहीं होगा चचा, होता उसके साथ है जिसके पास कुछ होता है। न आर्मी, न अमरीका, न अवाम, साथ छोड़ गए तमाम। नवाज़-ज़रदारी के सामने पद के भिखारी ने सौ नाटक किए। नवाज़-ज़रदारी गठबंधन इतिहास को दोहराना नहीं चाहता था कि लोग समझें कि पाकिस्तान में सिर्फ तख़्ता-पलट होता है या बदले की भावना से काम लिया जाता है। अब पाकिस्तान के नए हुक्मरानों की समझ में ग्लोबल-गणित आता है। चल थोड़े दिन बना रह भइया, तेरी चला-चली तो होनी है। भली तरह से मान जा वरना इतिहास को दोहराने में भी क्या देर लगती है। बेनज़ीर के जाने के बाद वे जम्हूरियत की नई नज़ीर लाना चाहते थे। सो कटोरे में दया का सिक्का नहीं पड़ा। अल्लाह का हवाला देकर कट्टरपंथी मौलानाओं की दाढ़ी के नीचे कटोरा रखा तो दो टूक जवाब मिला-- आगे बढ़ और लाल मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठ जा, वहां परवरदिगार का दीदार कर। भीख में भरोसे की एक भी दीनार नहीं दी मौलवियों ने। व्हाइट हाउस के दरवाज़े पे अल्लाह का नाम लिए बिना कटोरा फैलाया। तो अन्दर से बुश ने मुश से कह दिया-- आगे बढ़ भइया। लौटकर अपनी आर्मी के नए सिपहसालारों के आगे कटोरा फैलाया-- हुक्म मानने के वचन की भीख़ दोगे? आर्मी ने भी मुंडी हिला दी-- आगे बढ़, आगे बढ़। कटोरा घूमता-घूमता पहुंचा जुडीशरी के आगे। जज हज़रात पहले से ही बिर्र थे, एक स्वर में बोले— बर्र के छत्ते में कटोरा दे रहा है मवाली, जम्हूरियत में हो चुकी है हमारी बहाली। महाभियोग के हत्थे चढ़ गया, तो कटोरे का टोपा बना के फंदे पर चढ़ा देंगे। ये सुनहरे ख़्वाब देखने वाली सुनहरे फ्रेम की ऐनक उतार दे और गद्दी से अपने आप उतर जा। तुझे अब हुकूमत की भीख नहीं मिलने वाली, आगे बढ़। चचा, मुशर्रफ पूरा तानाशाह नहीं था। तानाशाह होता है बांस की खपच्चियों से बना लकड़ी का रावण, जो झुकता नहीं है, फुंकता है। ये तो रबड़ का गुड्डा था, जिसके साथ अमरीका ने मनोरंजन किया। पर इसने भी आतंकवादी ब्रश से बुश का ऐसा मंजन किया कि अमरीका के दांत काले हो गए। धरती के भोले-अनपढ़-निरीह मुसलमान उसके निवाले हो गए। इसने आतंकवाद को कोसा भी और पोसा भी।
--बडौ बेआबरू है कै निकरौ।
--बेआबरू होकर वह निकलता है, जिसकी कोई आबरू बची हो। पाकिस्तान के हर शहर में सड़कों पर मिठाई बंट रही है। ऐसा पाकिस्तान में पहले कभी नहीं हुआ। मुशर्रफ के ख़िलाफ़ गुस्सा है न रहम, क्योंकि बचा ही नहीं कोई दम। सुमरू मियां कार्यवाहक राष्ट्रपति बन चुके हैं और सुमरूतलैया के सामईन एक ही गाना सुनना चाहते हैं—‘जा जा जा रे जा मुशर्रफवा’। तुझे कोई नहीं मारेगा। फुटपाथ पर कोई नशेड़ी ड्राइवर तेरे ऊपर ट्रक चढ़ा दे उसकी कोई गारंटी नहीं।
--जैसे सबके दिन फिरे, वैसे मुसर्रफ के कबहुं न फिरैं।

Friday, August 08, 2008

जिज्ञासा, जज़्बा, जुनून और जीवनधारा

—चौं रे चम्पू! बिचार बड़ौ कै जीवन?
—ये भी कोई पूछने की बात है? जीवन हर हाल में बड़ा होता है चचा।
—अब बता, बिचारधारा बड़ी कै जीवनधारा?
—ये प्रश्न कठिन है! विचारधारा के लिए जिन लोगों ने जीवन दे दिए, वही महान कहलाए। बच्चा धरती पर आते ही जिज्ञासा की आंख खोलता है। जिज्ञासा विचार की जननी होती है। किशोर होते-होते जिज्ञासाएं एक नासमझ शोर में बदल जाती हैं। जवान होते-होते उस शोर में से कोई एक आवाज़ साफ सुनाई देने लगती है जो एक जज़्बा बन जाती है। फिर जज़्बाती जवानी अपनी और अपने आसपास की मुक्ति के लिए नव-जनित जुनून को अपनी जीवनधारा बनाने लगती है।
—तू तौ अपनी सुना!
—चचा अपन भी जब किशोर थे तब शाखा में जाते थे। ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...’ गाते थे। देश-भक्ति हिलोरें मारती थी। लेकिन क्या हुआ कि एक दिन गुरू जी ने विचार-चिंतन के दौरान कहा-- इन म्लेच्छ मुसलमानों ने हमारी संस्कृति का सर्वनाश कर दिया है। बात भाई नहीं चचा। अरे, सन छप्पन में हमारा घर जब भूचाल में गिर पड़ा था, तब उसे फिर से बनाने वाले सारे राज-मिस्त्री मुसलमान थे। रामलीला में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले बनाने वाले सारे कारीगर मुसलमान थे। अपने क़स्बे में कलंगी-तुर्रा ख़याल-गायकी के अधिकांश लोग मुसलमान थे। बड़ा मीठा गाते थे। ननिहाल में मुझे पुस्तक-कला, काष्ठ-कला, चर्म-कला और गणित सिखाने वाले मास्साब मुसलमान थे। मैंने भगवा गुरू जी को रास्ते में आते-जाते प्रणाम करना तो नहीं छोड़ा पर शाखा का रास्ता छोड़ दिया चचा। जवानी की दहलीज पर खड़े जज़्बात दुनिया को बदलने के लिए कोई जुनून चाहने लगे। मथुरा में मिले कॉमरेड सव्यसाची, उन्होंने सुनाई वर्ग-संघर्ष की दास्तान। कुछ-कुछ समझ में आई, बाकी दिल्ली में कॉमरेड सुरजीत ने सुनाई। उनकी कक्षाओं के लिए विट्ठल भाई पटेल हाउस जाते थे। वे बताते थे कि धर्म एक छद्म-चेतना है, अफीम है। मान लिया। ......जवानी का दूसरा जुनून होता है प्रियतम की तलाश। विचार के साथ अनजाने ही जीवन-तलाश भी जारी थी। मिल गई हमें हमारी प्राण-प्रिया। उसे साथ लेकर जाने लगे कॉमरेड की कक्षाओं में। प्राण-प्रिया ने कक्षा से बाहर आकर कहा कि धर्म अगर छद्म है तो ये खुद दाढ़ी क्यों रखते हैं? पगड़ी क्यों पहनते हैं? अपनी तरह से मैंने समझाया कि परिधान संस्कृति है। धर्म और संस्कृति अलग-अलग चीज़ें हैं। पर प्राण-प्रिया नहीं मानी। अगली कक्षा में पूछ ही लिया। उन्होंने मुस्कुरा कर उसे अपना पारिवारिक विधान और परंपरागत परिधान बताया और कहा कि क्रांति के लिए परिवार का दिल तोड़ना ज़रूरी नहीं है। कॉमरेड की यह बात तर्कसंगत लगी। जुट गए क्रांति के लक्ष्य के लिए। फिर बहुत तरह से मोह-भंग हुए चचा। विचारधाराओं में लाइनें अलग-अलग थीं। उनकी रूस की लाइन, हमारी चीन की लाइन, कुछ नक्सल हो गए। चारू मजूमदार और कानू सान्याल के अनुसार सत्ता बन्दूक की नली से निकलती थी। हमारे कुछ कॉमरेड्स को प्राण-प्रिया के साथ हमारा अधिक समय बिताना रास नहीं आया। सो मामला पार्टी की सदस्यता तक नहीं जा सका। बचपन के गांधी-नेहरू यदा-कदा विचारों में अंगड़ाई लेने लगते थे, लेकिन उनके चेले प्रभावित नहीं कर पाए। तो, हर समय राजनीति की सांस लेने के बावजूद किसी दल के सदस्य नहीं बने।
—अच्छौ भयौ। इंसान कूं इंसान की तरियां देखिबे कौ सऊर तौ बच गयौ।
—अपने असल गुरू हैं मुक्तिबोध। बार-बार उनका ज़िक्र करता हूं। उन्होंने कहा था—‘तय करो किस ओर हो तुम, सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में, या अंधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन? तय करो किस ओर हो तुम।‘ विचारधारा में कंफ्यूजन कम फ्यूजन ज़्यादा होने लगा। उलझन के साथ सुलझन। सोमनाथ चटर्जी चालीस साल पार्टी की सेवा करने के बाद सुनहले ऊर्ध्व आसन के दबाते पक्ष में बैठे हैं या वहां बैठ कर अंधेरी निम्न कक्षा का हित-चिंतन कर रहे हैं, सोचने की बात है। सुलझाते-सुलझाते सोल्झेनित्सिन हो जाओ। वो भी सुपुर्दे-ख़ाक हो गए, सुरजीत सुपुर्दे-राख हो गए, सोमनाथ पार्टी-विधान छोड़ कर संविधान की सुपुर्दे-साख हो चुके हैं। चचा, नतीजा ये निकला कि सब अच्छे हैं, सब बुरे हैं और विचारधारा से बड़ी होती है जीवनधारा।
—अब आयौ ऐ न लाइन पै!

Sunday, August 03, 2008

बम टिफ़िन में नहीं है



चौं रे चम्पू! का नतीजा निकरौ? अखबार देखे पिछले बीस दिना के?

हां चचा देखे। एक-एक पन्ना पलट कर देखा। एक-एक लाइन पढ़ कर देखी। क्रांतिशब्द ग़ायब हो गया अख़बारों से। बीस साल पहले तक हर पन्ने पर क्रांति होती थी। क्रांति एक सपना थी, एक विचारधारा थी। नौजवानों में, देश और विश्व समाज पर होते अत्याचारों के प्रति सात्विक समझदार क्रोध और दायित्व का बोध लाती थी क्रांति। अब टुइंया क़िस्म के आंदोलन होते हैं।

अंगरेजी के अखबार देखे?

वहां भी रिवौल्यूशन की जगह मूवमैंट शब्द आ गया। अब देखो चचा, रैवोल्यूशन का मतलब है रिवाल्व होना, घूमना। कोई एक चीज़ तुम्हारे आगे घूम-पलट कर बिल्कुल नए रूप में आई, दिपदिपाती हुई। और मूवमैंट है, जहां तुम हो, बस वहीं हिलते-हिलाते रहो। गोरखालैंड आंदोलन, डेरा राम रहीम आंदोलन, उत्तराखंड-झारखंड-नंदीग्राम आंदोलन, डॉक्टर-वकीलों के आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, ऐसे आंदोलन दिखाई दे जाएंगे…… या ऐसे आतंकांदोलन जो दूसरों को बुरी तरह आंदोलित कर दें। बंगलूरू, अहमदाबाद के बाद सूरत की सूरत बिगाड़ने पर आमादा। दोस्तोव्स्की ने ‘अपराध और दंड’ उपन्यास की शुरुआत करने से पहले लिखा था कि समाज में अपराध बढ़ें तो समझो क्रांति आने वाली है। पर आएगी कहां से, जब तुम शब्द ही गायब कर दोगे? गद्दी पर लूटपाट के अनुभव ले के, राजघाट का रस्ता ले के, बैठ गए अपराधी। उनसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे ही इतने बड़े लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं। डैमोक्रेसी चली ग्रीक से भारत में चल रही है ठीक से। हमारे रहनुमाओं के पास अपराधों के इतने अनुभव हैं कि हर बार लोकतंत्र की रक्षा में काम में आते हैं। लोकतंत्र के चार शेर हैं, चारों के चारों दिलेर हैं। आमजन को ये खा भी जाएं तो उन्हें खुश होना चाहिए कि वो महाशक्ति का हिस्सा बन गए और लोकतंत्र में कुर्बानी का क़िस्सा बन गए।

रूस में अपराधन के बाद क्रांति आई और क्रांति के बाद अपराध आय गए, आए कै नांय? अपराधन ते कैसै लड़ौगे भैया?

अपराध एक प्रकार का निजि हितसाधन है। प्राय: दो कारणों से सम्पन्न होता है, एक तो अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के नाम पर और दूसरे अपने सम्प्रदाय-समुदाय की उन्नति के नाम पर। आंदोलन अपराधों का मुखौटा बन जाते हैं। आतंकवाद एक सांप्रदायिक हितसाधन अपराध है और जातिवाद एक सामुदायिक हितसाधन अपराध है। ये आपराधिक आंदोलन भेदभाव की बुनियाद पर आदमी को आदमी से अलग करने का वाले हैं। क्रांति का विचार था तो सब कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। मैंने भी सफ़दर हाशमी के साथ गाने गाए हैं जामा मस्जिद के चौक में। धर्म-जाति-वर्ण का कोई मामला ही नहीं हुआ करता था। अब जो पुराने क्रांतिकारी साथी हैं उनके लिए क्या शब्द विशेषण लगाऊं, कहां नाराज़ होते हैं, कहां राज की कामना रखते हैं, कुछ समझ में नहीं आता। क्रांति आमूलचूल बदलाव की बात करती थी, अब आम आदमी की चूल हिलाई जा रही है।

—तौ का करें, बता!

इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है कि एक क्रांतिकारी चेतना के साथ सद्भाव-बिगाड़ू तमाम ताकतों से लड़ा जाए। पर चचा, लड़ा कैसे जाए, ये बम-पटाखे फोड़ने वाले तरकीब भी नई-नई निकाल लाते हैं। साइकिल पर टिफ़िन में बम रखने लगे…. पूरे विश्व की पुलिस लग जाए तो भी तलाश नहीं सकती। साइकिलों पर बैन लगा दोगे और क्या करोगे? फिर पैदल ही हाथ में टिफिन रखकर चलेगा, तब क्या करोगे? अरे, बम टिफिन में नहीं है चचा। दिमाग में है। वहां डिएक्टीवेट करना पड़ेगा। मुक्तिबोध के शब्दों में— स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता, क्रॉस एग्ज़ामिन हिम थॉरोली!!दिमाग़ में भ्रांति की जगह क्रांति ट्रांसप्लांट करानी पड़ेगी। ये नई क्रांति अख़बारों की अनेकता से नहीं, घरबारों की एकता से एगी