रावण ‘दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी’ था, ऐसा वाल्मीकि ने बताया और ‘अहंकारी’ था ऐसा बताया तुलसी बाबा ने। हर अहंकारी दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी नहीं होता और हर दुष्ट-दुराचारी-अधर्मी अहंकारी हो यह आवश्यक नहीं। राम के चरित्र को खूब उजला बनाने के लिए तुलसी बाबा ने रावण को इतना बुरा नहीं बनाया, जितना बाकी ग्रंथ बताते हैं। उससे राम का कद कम होता। तुलसी ने रावण का क़द बढ़ाया। उसे विद्वान और धर्म पर चलने वाला बताया। रावण जैसा भी था पर उसका क़द आज भी बढ़ रहा है। रामलीलाओं में तो पुतलों की ऊंचाई बढ़ रही है, पर पुतलियों को न दिखाई देने वाले अदृश्य रावणों का क़द गगनचुम्बी होता जा रहा है। रावण यदि दिखाई भी देता है तो मायावी टैकनीक से राम का भेष धार लेता है।
कूर्मपुराण, रामायण, महाभारत, आनन्द रामायण, दशावतारचरित, पद्म पुराण और श्रीमद्भागवत पुराण आदि ग्रंथों में रावण का उल्लेख तरह-तरह से मिलता है। एक बात सभी में स्वीकारी गई है कि रावण अपनी दानवी शक्तियों को बनाए रखने के लिए तपस्यानुमा चापलूसी द्वारा महान देवताओं को खुश करना जानता था। ब्रह्मा जी से उसने वरदान मांगा कि गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिए अवध्य हो जाऊं। ब्रह्मा जी ने तपस्या से प्रसन्न होकर ‘तथास्तु’ की मोहर लगा दी। फिर तो रावण की बन आई। उसने कुबेर को हराकर पुष्पक विमान छीन लिया जो मन की रफ्तार से भी तेज़ चलता था। जिसकी सीढ़ियां स्वर्ण और मणि-रत्नों से बनी हुई थीं। एक ग्रंथ बताता है कि उसका पुष्पक विमान एक बार भगवान शंकर के क्रीड़ा-स्थल पर्वत शिखर के ऊपर से जा रहा था। अचानक विमान की गति अवरुद्ध हुई, डगमगाने लगा। अहंकारी रावण हैरान रह गया। उसे विमान उतारना पड़ा। शंकर के पार्षदों ने भगवान शंकर की महिमा बताई तो क्रोधित होते हुए बोला कि कौन है ये शंकर? मैं इस पर्वत को ही समूल उखाड़ फेंकूंगा। शंकर के नंदी उसे रोकते, उससे पहले ही रावण ने पर्वत को उखाड़ना शुरू कर दिया। पर्वत हिला तो शंकर ज़्यादा हिल गए। आवेश में आकर उन्होंने अपने पैर का अगूंठा पर्वत पर रखा तो रावण के हाथ बुरी तरह दब गए। पीड़ा से रावण चिल्लाने लगा। भयानक ‘राव’ यानी आर्तनाद किया। तीनों लोकों के प्राणी भयभीत होकर रोने लगे। तभी से उसका नाम रावण भी पड़ गया। मज़े की बात यह है कि उसने शंकर भगवान को भी अपनी तपस्या से प्रसन्न कर लिया और जारी रखा अपने अत्याचारों और अनाचारों का सिलसिला।
रावण के बारे में यह कहानियां सब जानते हैं। इन दिनों देश भर में जितनी रामलीलाएं चल रही हैं, लोगों का मनोरंजन कर रही हैं। मनोरंजन राम नहीं कर पाते, रावण कर रहा है। उसके डायलॉग पर ज़्यादा तालियां पिटती हैं। उसके मेकअप और कॉस्ट्यूम पर ज़्यादा पैसे खर्च होते हैं। रावण राम से ज़्यादा पारिश्रमिक लेता है। अंत सबको मालूम है कि पुतला फुकेगा। सवाल यह उठता है कि एक अधर्मी-अहंकारी के मरने में इतनी देर क्यों लगती है। मिथक प्रतीकों को देखें तो निष्कर्ष निकलता है कि अधर्म के पास धार्मिक मुखौटे होते हैं और अपने अहंकार को ऊँचाई देने के लिए अपने से किसी न किसी बड़े का अहंकार पोषित करना पड़ता है। रावण ने ब्रह्मा जी के अहंकार का पोषण किया और वरदान पाया। भगवान शंकर के अहंकार का पोषण करके उसे वरद हस्त मिला। उसने अपने स्वेच्छाचार जारी रखे।
तीसरा नेत्र रखने वाले शंकर को क्या पता नहीं था कि मुझसे वरदान लेकर यह दुष्ट निरीहों और सज्जनों को सताएगा। ब्रह्मा जी की क्या मति मारी गई थी जो रावण को वरदान दिया। कहानी से नतीजा यही निकलता है कि अच्छे लोगों के अहंकार का पोषण करके बुरे लोग अपने अहंकार का क़द बढ़ाते हैं और सत्कर्मियों और निरीहों को सताते हैं।
हाईकमान को प्रसन्न करके रावण अपना कद बढ़ाता जाता है। इतना बढ़ा लेता है कि एक वक्त पर हाईकमान को भी भारी पड़ने लगता है। वह क्लोन-कला में भी निष्णात है। अपने दस क्लोन तो वह त्रेता युग में ही बना चुका था। आज उसके हज़ारों क्लोन समाज में फैले हुए हैं। वोट की ताकत रखने वाली जनता उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती।
मुक्तिबोध ने एक कविता लिखी थी— ‘लकड़ी का बना रावण’। जब तक जनता सोई रहती है, तब तक सत्ता का लकड़ी का बना रावण स्वयं को नीचे के समाज से अलगाता हुआ, जनता को जड़-निष्प्राण कुहरा-कम्बल समझता हुआ, उस कुहरे से बहुत ऊपर उठ, शोषण की पर्वतीय ऊर्ध्वमुखी नोक पर स्वयं को मुक्त और समुत्तुंग समझता है और सोचता है कि मैं ही वह विराट पुरुष हूं— सर्व-तंत्र, स्वतंत्र, सत्-चित्। वहां उसके साथ शासन-प्रशासन का शून्य भी है, जो उस छद्म सत्-चित् के अहंकार का पोषण करता है। मुक्तिबोध ने एक जगह लिखा है— "बड़े-बड़े आदर्शवादी आज रावण के यहां पानी भरते हैं, और हां में हां मिलाते हैं। जो व्यक्ति रावण के यहां पानी भरने से इंकार करता है, उनके बच्चे मारे-मारे फिरते हैं।"
उनकी कविता में जैसे ही अकस्मात कम्बल की कुहरीली लहरें हिलने-मुड़ने लगती हैं, सत्ता का लकड़ी का बना रावण और उसके शून्य का 'सर्व-तंत्र' सतर्क हो जाते हैं।
पहले तो जनता का यह विद्रोह, उसे 'मज़ाक' दिखाई देता है लेकिन जनतंत्री नर-वानरों को देखकर भयभीत भी होता है। वह आसमानी शमशीरों, बिजलियों से भरपूर शक्ति से प्रहार करवाता है, किंतु जनता ऊपर की ओर बढ़ती ही जाती है। लक्ष-मुख, लक्ष-वक्ष, शत-लक्ष-बाहु रूप था पर अकेला होते ही रावण शक्तिहीन हो जाता है। आदेश व्यर्थ जाते हैं, और अब गिरा, तब गिरा....। मुक्तिबोध की फैंटैसी आज साकार होती नहीं दिख रही। आज रावण घबराता नहीं है, चाटुकारिता के लिए अपने से बड़ा रावण ढूंढ लेता है और निरीह के ऊपर सताने का तम्बू ताने रहता है। राम को मालूम है कि नाभि में तीर मारा जाए तो रावण मर जाएगा लेकिन आज के रावण से ‘नाभिनालबद्ध’ कितने ही रावण हैं। राम के तरकश में सबके लिए तीर नहीं हैं।
Monday, September 28, 2009
Friday, September 25, 2009
हिन्दी के शुतुरमुर्ग और चतुर मुर्ग
—चौं रे चम्पू! का चल रह्यौ ऐ इन दिनन?
—रमज़ान का महीना खत्म हुआ, चाँद की नूरानियों से मुहब्बतें जगमगा उठीं, ईद का गले-मिलन हो चुका। इन दिनों नवरात्र के समारोह चल रहे हैं, रामलीलाएं चल रही हैं। दशहरा पर रावण के मरने का इंतज़ार है। हां, ...और चल रहा है हिन्दी पखवाड़ा।
—हिन्दी पखवाड़े में भासान कौ गले-मिलन है रह्यौ ऐ कै अंग्रेजी की ताड़का के मरिबै कौ इंतजार?
—क्या बात कह दी चचा! मैं तो गले-मिलन सम्प्रदाय का हूं। हिन्दी की भलाई इसी में है कि भारत की विभिन्न भाषाएं उससे गले मिलें। अपने-अपने भावों और अनुभावों का आदान-प्रदान करके अभावों के घावों को भरें। हिन्दी को अपनी सहोदरा और सहेली भाषाओं से ईदी मिले। और चचा, अंग्रेज़ी की ताड़का रावण की तरह कभी मर नहीं सकती। उसे ताड़का कहना भी ग़लत है अब। पूरा विश्व उसकी ओर ताड़ रहा है और वह ताड़ की तरह ऊंची होती जा रही है। भारत में उस ताड़ पर लटके हिन्दी के नारियल धरती पर हरी घास की तरह फैलती अपनी भाषा के विस्तार को देखते हुए भी अनदेखा करते हैं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि हिन्दी को आज पूरी दुनिया से ईदी मिल रही है। हिन्दी के अख़बार देश में सबसे ज़्यादा पढ़े जाते हैं। हिन्दी फिल्मों और टेलिविज़न धारावाहिकों ने अपनी पहुंच न केवल देश में बल्कि विदेशों तक में बढ़ा ली है। बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी अगर नम्बर एक पर नहीं है तो नम्बर दो पर तो अवश्य है। अंग्रेज़ी के ताड़ पर चढ़े लोगों को हिन्दी के विस्तार के आंकड़े पसन्द नहीं आते।
—कौन लोग ऐं जिनैं पसन्द नायं आमैं?
—चचा क्या बताएं? दोस्त लोग ही हैं। जैसे मैं अड़ जाता हूं, वैसे वे भी अड़े हुए हैं। वे पूर्ण यथार्थ से आंखें मूंदकर अपने अनुमानों और खंड-यथार्थ पर आधारित आंकड़े पेश करते हैं। जिस देश का जनतंत्र अस्सी प्रतिशत हिन्दी बोलने-समझने वालों पर टिका है उसे पाँच प्रतिशत अंग्रेज़ी बोलने वाले चला रहे हैं। माना कि अंग्रेज़ी बड़ी समृद्ध भाषा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रभाव है। वह चीन, जापान, रूस जैसे देशों द्वारा भी अपनाई जा रही है, जिन्होंने अपनी भाषा में ज्ञानोत्पादन और उच्चस्तरीय शिक्षा-साहित्य का न केवल प्रबंध कर लिया था, बल्कि उसके ज़रिए उपलब्धियां पाकर भी दिखा दी थीं। चचा, आज हिन्दी भी बढ़ रही है और अंग्रेज़ी भी। हिन्दी को मुहब्बत की ईदी मिल रही है और अंग्रेज़ी को औपनिवेशिक लंका की स्वर्ण मुद्राएं। अंग्रेज़ी पैसा कमा कर दे रही है और हिन्दी मुहब्बत। ज़ाहिर है कि दोनों की अपनी-अपनी ताक़त हैं। मुहब्बत हार भी सकती है और पैसे को हरा भी सकती है।
—मुहब्बत कभी नायं हार सकै लल्ला। मुहब्बत के रस्ता में कौन आड़े आय रए ऐं जे बता?
—ज़्यादा नहीं बहुत थोड़े लोग हैं। लेकिन जब वे बात करते हैं तो उसमें दम नज़र आता है। ऐसे लोग जाने तो हिन्दी के कारण जाते हैं, लेकिन अपनी धाक अंग्रेज़ी के कारण जमाते हैं। अंग्रेज़ी का हौआ दिखाकर घनघोर निराशावादी बात करते हैं कि हिन्दी सिर्फ ग़रीबों-गुलामों की भाषा बनकर रह जाएगी। उनके सामने अगर कह दो कि हिन्दी फैल रही है तो उनके चेहरे फूल जाते हैं। वे हिन्दी अख़बारों, हिन्दी चैनलों से ही उदरपूर्ति करते हैं पर इधरपूर्ति करने के बजाए उधरपूर्ति करते हैं। ऐसे ही एक अंतरंग मित्र का कहना है कि हिन्दी वालों की हालत शुतुरमुर्ग जैसी है जो खतरा देखकर अपनी गर्दन रेत में घुसा देता है।
—तैनैं का जवाब दियौ?
—मैंने कहा दोस्त प्रवर हिन्दी में चतुर मुर्ग भी बढ़ते जा रहे हैं, जो हिन्दी के शुतुरमुर्ग की चोंच को रेत से निकालने में लगे हुए हैं। उसे बता रहे हैं कि अंग्रेज़ी हमला नहीं कर रही है शुतुरमुर्ग, सहयोग दे रही है। हिन्दी के शब्दकोश को निरंतर शब्द प्रदान कर रही है। अभी तक अंग्रेज़ी ने भाषाई मुर्ग़ों को लड़ाया है। अब वक्त आया है कि हम मुर्ग़े अपनी कलंगी ऊपर करके शुतुरमुर्ग को दिखाएं और उसे बताएं कि तू पक्षियों में सबसे बड़ी प्रजाति का है। तेरी गर्दन और पैर सबसे लंबे हैं। तू वृहत है और आवश्यकता पड़ने पर बहत्तर किमी प्रति घंटे की गति से भाग सकता है जो इस पृथ्वी पर पाये जाने वाले किसी भी अन्य पक्षी से अधिक है।
—और कोई फंडा?
—शुतुरमुर्ग से मिलता है सबसे बड़ा अंडा।
—रमज़ान का महीना खत्म हुआ, चाँद की नूरानियों से मुहब्बतें जगमगा उठीं, ईद का गले-मिलन हो चुका। इन दिनों नवरात्र के समारोह चल रहे हैं, रामलीलाएं चल रही हैं। दशहरा पर रावण के मरने का इंतज़ार है। हां, ...और चल रहा है हिन्दी पखवाड़ा।
—हिन्दी पखवाड़े में भासान कौ गले-मिलन है रह्यौ ऐ कै अंग्रेजी की ताड़का के मरिबै कौ इंतजार?
—क्या बात कह दी चचा! मैं तो गले-मिलन सम्प्रदाय का हूं। हिन्दी की भलाई इसी में है कि भारत की विभिन्न भाषाएं उससे गले मिलें। अपने-अपने भावों और अनुभावों का आदान-प्रदान करके अभावों के घावों को भरें। हिन्दी को अपनी सहोदरा और सहेली भाषाओं से ईदी मिले। और चचा, अंग्रेज़ी की ताड़का रावण की तरह कभी मर नहीं सकती। उसे ताड़का कहना भी ग़लत है अब। पूरा विश्व उसकी ओर ताड़ रहा है और वह ताड़ की तरह ऊंची होती जा रही है। भारत में उस ताड़ पर लटके हिन्दी के नारियल धरती पर हरी घास की तरह फैलती अपनी भाषा के विस्तार को देखते हुए भी अनदेखा करते हैं। वे मानने को तैयार नहीं हैं कि हिन्दी को आज पूरी दुनिया से ईदी मिल रही है। हिन्दी के अख़बार देश में सबसे ज़्यादा पढ़े जाते हैं। हिन्दी फिल्मों और टेलिविज़न धारावाहिकों ने अपनी पहुंच न केवल देश में बल्कि विदेशों तक में बढ़ा ली है। बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी अगर नम्बर एक पर नहीं है तो नम्बर दो पर तो अवश्य है। अंग्रेज़ी के ताड़ पर चढ़े लोगों को हिन्दी के विस्तार के आंकड़े पसन्द नहीं आते।
—कौन लोग ऐं जिनैं पसन्द नायं आमैं?
—चचा क्या बताएं? दोस्त लोग ही हैं। जैसे मैं अड़ जाता हूं, वैसे वे भी अड़े हुए हैं। वे पूर्ण यथार्थ से आंखें मूंदकर अपने अनुमानों और खंड-यथार्थ पर आधारित आंकड़े पेश करते हैं। जिस देश का जनतंत्र अस्सी प्रतिशत हिन्दी बोलने-समझने वालों पर टिका है उसे पाँच प्रतिशत अंग्रेज़ी बोलने वाले चला रहे हैं। माना कि अंग्रेज़ी बड़ी समृद्ध भाषा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रभाव है। वह चीन, जापान, रूस जैसे देशों द्वारा भी अपनाई जा रही है, जिन्होंने अपनी भाषा में ज्ञानोत्पादन और उच्चस्तरीय शिक्षा-साहित्य का न केवल प्रबंध कर लिया था, बल्कि उसके ज़रिए उपलब्धियां पाकर भी दिखा दी थीं। चचा, आज हिन्दी भी बढ़ रही है और अंग्रेज़ी भी। हिन्दी को मुहब्बत की ईदी मिल रही है और अंग्रेज़ी को औपनिवेशिक लंका की स्वर्ण मुद्राएं। अंग्रेज़ी पैसा कमा कर दे रही है और हिन्दी मुहब्बत। ज़ाहिर है कि दोनों की अपनी-अपनी ताक़त हैं। मुहब्बत हार भी सकती है और पैसे को हरा भी सकती है।
—मुहब्बत कभी नायं हार सकै लल्ला। मुहब्बत के रस्ता में कौन आड़े आय रए ऐं जे बता?
—ज़्यादा नहीं बहुत थोड़े लोग हैं। लेकिन जब वे बात करते हैं तो उसमें दम नज़र आता है। ऐसे लोग जाने तो हिन्दी के कारण जाते हैं, लेकिन अपनी धाक अंग्रेज़ी के कारण जमाते हैं। अंग्रेज़ी का हौआ दिखाकर घनघोर निराशावादी बात करते हैं कि हिन्दी सिर्फ ग़रीबों-गुलामों की भाषा बनकर रह जाएगी। उनके सामने अगर कह दो कि हिन्दी फैल रही है तो उनके चेहरे फूल जाते हैं। वे हिन्दी अख़बारों, हिन्दी चैनलों से ही उदरपूर्ति करते हैं पर इधरपूर्ति करने के बजाए उधरपूर्ति करते हैं। ऐसे ही एक अंतरंग मित्र का कहना है कि हिन्दी वालों की हालत शुतुरमुर्ग जैसी है जो खतरा देखकर अपनी गर्दन रेत में घुसा देता है।
—तैनैं का जवाब दियौ?
—मैंने कहा दोस्त प्रवर हिन्दी में चतुर मुर्ग भी बढ़ते जा रहे हैं, जो हिन्दी के शुतुरमुर्ग की चोंच को रेत से निकालने में लगे हुए हैं। उसे बता रहे हैं कि अंग्रेज़ी हमला नहीं कर रही है शुतुरमुर्ग, सहयोग दे रही है। हिन्दी के शब्दकोश को निरंतर शब्द प्रदान कर रही है। अभी तक अंग्रेज़ी ने भाषाई मुर्ग़ों को लड़ाया है। अब वक्त आया है कि हम मुर्ग़े अपनी कलंगी ऊपर करके शुतुरमुर्ग को दिखाएं और उसे बताएं कि तू पक्षियों में सबसे बड़ी प्रजाति का है। तेरी गर्दन और पैर सबसे लंबे हैं। तू वृहत है और आवश्यकता पड़ने पर बहत्तर किमी प्रति घंटे की गति से भाग सकता है जो इस पृथ्वी पर पाये जाने वाले किसी भी अन्य पक्षी से अधिक है।
—और कोई फंडा?
—शुतुरमुर्ग से मिलता है सबसे बड़ा अंडा।
Thursday, September 03, 2009
21वीं सदी के लिए गांधी जरूरी क्यों
-चौं रे चम्पू! कछू नई ताजी है तेरे पास? बता कोई नई बात।
-चचा, हर पल नया है।
-हर पल की छोड़, पिछले कल्ल की बता, ताते अगले कल्ल कूं सुधार सकें।
-चचा कल हिन्दी अकादमी का एक अद्भुत कार्यक्रम हुआ। गांधीजी की सौ साल पहले लिखी किताब ‘हिन्द स्वराज’ और उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ का पुनर्प्रकाशन के बाद लोकार्पण हुआ। पुरानी भूमिकाओं के साथ बड़ी अच्छी छापी हैं।
-दौनौ किताबन कौ हल्ला तौ बरसन ते सुनत आय रए ऐं, खास बात का ऐ बता?
-चचा ‘हिन्द स्वराज’ पतली सी किताब है। गांधी दर्शन की बुनियाद। केवल दस दिन में लिखी गई थी। 13 नवम्बर 1909 से 22 नवम्बर के बीच। पाठक प्रश्न करता है और संपादक के रूप में गांधी जी उत्तर देते हैं। शिक्षा, सभ्यता, स्वराज, हिन्दुस्तान की दशा, गोला बारूद और मशीनों पर जो राय सौ साल पहले दी थी, वह आज भी सोचने और मानने योग्य है। चचा! बीसवीं सदी को गांधी प्रभावित कर ही रहे थे कि अचानक रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद के रूप में नई चिंतनधारा मिली। दो तिहाई दुनिया उससे प्रभावित होकर बदल भी गई, लेकिन सदी के अंतिम दौर में सोवियत संघ के पतन के बाद आस्थाएं चरमराने लगीं और बहिर्जगत से अंर्तजगत की आ॓र लौटने का सिलसिला शुरू हुआ। गांधी तो पहले से ही अंतर्जगत की बात कर रहे थे। द्वेष की जगह प्रेम, हिंसा की जगह आत्म बलिदान और पशुबल की जगह आत्मबल की वकालत कर रहे थे। पाशविक पश्चिमी सभ्यता और यंत्रवाद के विरोध में उन्होंने आत्मशक्ति का उपयोग करते हुए अहिंसा की सामर्थ्य के झंडे गाड़ दिए। झंडे उखाड़ने वालों ने कहा कि गांधी भूतकाल के उपासक हैं, पुनरूत्थानवादी हैं। आध्यात्मिक स्वराज और सर्वोदय जैसी चीजें काल्पनिक जुगाली हैं, लेकिन चचा, लोग अब अंतरराष्ट्रीय गालियां सुनते-सुनते ‘हिन्द स्वराज’ की आध्यात्मिक जुगाली पर आ रहे हैं।
-वाह रे गांधीवादी! पहलै तौ क्रांति और रक्त क्रांति की बात करतो, जे अध्यात्म कहां ते घुसौ तेरे भीतर?
-ये दिल और दिमाग जड़ पदार्थ नहीं हैं चचा! जब दिल सोचता और दिमाग महसूस करता है तब निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। माना चीजें जटिल हैं, पर उन्हें सरल ढंग से ही सुलझाया जा सकता है। लोकार्पण के बाद मुख्यमंत्री शीला जी ने कहा कि गांधी से सीखना होगा कि सादगी से कैसे रहा जाए, क्योंकि जैसे हम रहेंगे, वैसे ही विचार बनेंगे। उन्होंने गांधी जी के तीन बंदरों का हवाला दिया।
-बंदरन कौ तौ खूब मजाक बनौ रे!
-हां, आजादी के बाद बहुत सी व्यंग्य रचनाएं लिखी गईं। पिछले बीस साल से यह सिलसिला थमा हुआ है। आखिर कब तक बंदरों को कोसते, जब उनसे भी गए-गुजरे जीवधारी अनष्टि करने लगे। नेता, पुलिस और प्रशासन पर व्यंग्यकारों ने खूब कलम चलाई। पिछले दस सालों से देख रहा हूं कि व्यंग्य की मार भी भौंथरी हो गई है। व्यंग्य का असर हो, तब तो फायदा है। गैंडे को पिन चुभाते रहो या गुलगुली करते रहो, उस पर क्या फर्क पड़ेगा? सिर्फ नकारात्मक होने से समाज नहीं बदलना, विकल्प तो बताएं, क्या करें? और चचा विकल्प रूप में हमारे पास ‘हिन्द स्वराज’ जैसी किताब है।
-गांधी तौ किताबन में कैद है गए भैया! जीवन में नायं आ सकैं!
-गलत, बिल्कुल गलत! ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में किताबों से निकलकर गांधी जी बाहर निकल आए थे। एक गुंडे का हृदय-परिवर्तन सिर्फ परदे पर ही नहीं दिखा, समाज में भी फिल्म ने भूमिका अदा की। उद्घाटन सत्र में श्री प्रभाष जोशी जी ने बड़ी अच्छी राय दी कि हिन्द स्वराज की दस-दस प्रतियां दिल्ली के हर स्कूल में अकादमी की तरफ से भेजी जाएं और बच्चों से कहा जाए कि इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें। समझें, समझाएं और बताएं कि इक्कीसवीं सदी के लिए गांधी जरूरी क्यों हैं?
-तेरे पिताजी नैं दो लाइन सुनाई हतीं, दीवाल और दीवाली की, याद ऐं का?
-याद हैं। उन्होंने कहा था, ‘सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम से, अपना तो इतना नाता है, दीवालों पर लिख देते हैं, दीवाली पर पुत जाता है।’ व्यंग्य में कहा था उन्होंने, लेकिन चचा मैं मानता हूं कि अब गांधी और गांधीवाद पर व्यंग्य की भाषा में नहीं, अंतरंग आत्मावलोकन की भाषा में बात होनी चाहिए।
-चचा, हर पल नया है।
-हर पल की छोड़, पिछले कल्ल की बता, ताते अगले कल्ल कूं सुधार सकें।
-चचा कल हिन्दी अकादमी का एक अद्भुत कार्यक्रम हुआ। गांधीजी की सौ साल पहले लिखी किताब ‘हिन्द स्वराज’ और उनकी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ का पुनर्प्रकाशन के बाद लोकार्पण हुआ। पुरानी भूमिकाओं के साथ बड़ी अच्छी छापी हैं।
-दौनौ किताबन कौ हल्ला तौ बरसन ते सुनत आय रए ऐं, खास बात का ऐ बता?
-चचा ‘हिन्द स्वराज’ पतली सी किताब है। गांधी दर्शन की बुनियाद। केवल दस दिन में लिखी गई थी। 13 नवम्बर 1909 से 22 नवम्बर के बीच। पाठक प्रश्न करता है और संपादक के रूप में गांधी जी उत्तर देते हैं। शिक्षा, सभ्यता, स्वराज, हिन्दुस्तान की दशा, गोला बारूद और मशीनों पर जो राय सौ साल पहले दी थी, वह आज भी सोचने और मानने योग्य है। चचा! बीसवीं सदी को गांधी प्रभावित कर ही रहे थे कि अचानक रूस की क्रांति के बाद मार्क्सवाद के रूप में नई चिंतनधारा मिली। दो तिहाई दुनिया उससे प्रभावित होकर बदल भी गई, लेकिन सदी के अंतिम दौर में सोवियत संघ के पतन के बाद आस्थाएं चरमराने लगीं और बहिर्जगत से अंर्तजगत की आ॓र लौटने का सिलसिला शुरू हुआ। गांधी तो पहले से ही अंतर्जगत की बात कर रहे थे। द्वेष की जगह प्रेम, हिंसा की जगह आत्म बलिदान और पशुबल की जगह आत्मबल की वकालत कर रहे थे। पाशविक पश्चिमी सभ्यता और यंत्रवाद के विरोध में उन्होंने आत्मशक्ति का उपयोग करते हुए अहिंसा की सामर्थ्य के झंडे गाड़ दिए। झंडे उखाड़ने वालों ने कहा कि गांधी भूतकाल के उपासक हैं, पुनरूत्थानवादी हैं। आध्यात्मिक स्वराज और सर्वोदय जैसी चीजें काल्पनिक जुगाली हैं, लेकिन चचा, लोग अब अंतरराष्ट्रीय गालियां सुनते-सुनते ‘हिन्द स्वराज’ की आध्यात्मिक जुगाली पर आ रहे हैं।
-वाह रे गांधीवादी! पहलै तौ क्रांति और रक्त क्रांति की बात करतो, जे अध्यात्म कहां ते घुसौ तेरे भीतर?
-ये दिल और दिमाग जड़ पदार्थ नहीं हैं चचा! जब दिल सोचता और दिमाग महसूस करता है तब निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। माना चीजें जटिल हैं, पर उन्हें सरल ढंग से ही सुलझाया जा सकता है। लोकार्पण के बाद मुख्यमंत्री शीला जी ने कहा कि गांधी से सीखना होगा कि सादगी से कैसे रहा जाए, क्योंकि जैसे हम रहेंगे, वैसे ही विचार बनेंगे। उन्होंने गांधी जी के तीन बंदरों का हवाला दिया।
-बंदरन कौ तौ खूब मजाक बनौ रे!
-हां, आजादी के बाद बहुत सी व्यंग्य रचनाएं लिखी गईं। पिछले बीस साल से यह सिलसिला थमा हुआ है। आखिर कब तक बंदरों को कोसते, जब उनसे भी गए-गुजरे जीवधारी अनष्टि करने लगे। नेता, पुलिस और प्रशासन पर व्यंग्यकारों ने खूब कलम चलाई। पिछले दस सालों से देख रहा हूं कि व्यंग्य की मार भी भौंथरी हो गई है। व्यंग्य का असर हो, तब तो फायदा है। गैंडे को पिन चुभाते रहो या गुलगुली करते रहो, उस पर क्या फर्क पड़ेगा? सिर्फ नकारात्मक होने से समाज नहीं बदलना, विकल्प तो बताएं, क्या करें? और चचा विकल्प रूप में हमारे पास ‘हिन्द स्वराज’ जैसी किताब है।
-गांधी तौ किताबन में कैद है गए भैया! जीवन में नायं आ सकैं!
-गलत, बिल्कुल गलत! ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में किताबों से निकलकर गांधी जी बाहर निकल आए थे। एक गुंडे का हृदय-परिवर्तन सिर्फ परदे पर ही नहीं दिखा, समाज में भी फिल्म ने भूमिका अदा की। उद्घाटन सत्र में श्री प्रभाष जोशी जी ने बड़ी अच्छी राय दी कि हिन्द स्वराज की दस-दस प्रतियां दिल्ली के हर स्कूल में अकादमी की तरफ से भेजी जाएं और बच्चों से कहा जाए कि इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें। समझें, समझाएं और बताएं कि इक्कीसवीं सदी के लिए गांधी जरूरी क्यों हैं?
-तेरे पिताजी नैं दो लाइन सुनाई हतीं, दीवाल और दीवाली की, याद ऐं का?
-याद हैं। उन्होंने कहा था, ‘सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम से, अपना तो इतना नाता है, दीवालों पर लिख देते हैं, दीवाली पर पुत जाता है।’ व्यंग्य में कहा था उन्होंने, लेकिन चचा मैं मानता हूं कि अब गांधी और गांधीवाद पर व्यंग्य की भाषा में नहीं, अंतरंग आत्मावलोकन की भाषा में बात होनी चाहिए।
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