—चौं रे चम्पू! कस्मीर में फिर एक जूता-काण्ड है गयौ! पिछले जूता-काण्डन में और जा जूता-काण्ड में का फरक ऐ रे?

—चचा, देश में या विदेश में, पहले जितने भी जूतास्त्र चले, वे पत्रकार-प्रजाति द्वारा चलाए गए। उनका उद्देश्य था समस्याओं की ओर विश्व का अथवा देश का ध्यानाकर्षण। लेकिन, इस बार उमर अब्दुल्ला पर जो जूता फेंका गया है, वह किसी पत्रकार द्वारा रखा गया ध्यानाकर्षण प्रस्ताव नहीं था। यह एक कांस्टेबुल का ताव था। दूसरा मुख्य अन्तर यह है कि अब तक जिनको भी लक्ष्य बना कर जूतास्त्र का उपयोग किया गया है, उनमें से किसी के पिताजी ने घटना का महिमा-गायन नहीं किया। फ़ारुख अब्दुल्ला कहते हैं कि उनके पुत्र का क़द और बड़ा हो गया है। उमर अब अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बुश, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी, चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ और केंद्रीय गृहमंत्री के ग्रुप में शामिल हो गए हैं। इस ‘विशिष्ट क्लब’ में फ़ारुख साहब ने सिरसा जूता-कांड का ज़िक्र नहीं किया।
—सिरसा में का भयौ ओ?
—साध्वियों के यौन शोषण और हत्याकांडों के मुख्य आरोपी, डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख, गुरमीत सिंह पर, मजलिस के दौरान, एक व्यक्ति ने जूता फेंका था। ख़ैर छोड़िए, तीसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि इस जूता-फेंकू का निशाना पूर्ववर्तियों की तुलना में सबसे ख़राब था। शायद इसका कारण यह भी रहा हो कि इसका विरोध व्यक्तिगत था। पुलिस का यह निलंबित कान्सटेबुल क्रोध में स्वयं को संतुलित नहीं रख पाया। घटना के बाद कहा भी जा रहा है कि वह पागल है।

—अरे, नायं, पागल नायं है सकै! दिमाग में जब कोई चीज ठुक जाय, तबहि कोई ऐसौ कदम उठायौ करै। लोग पागल कहि दैं, सो अलग बात ऐ।
—पागल कहने में शासन की इज़्ज़त बच जाती है न! पागल था, जूता फेंक दिया। क्या हुआ?
—अंदर की कहानी कछू और ई निकरैगी!
—अन्दर की कहानी जानने के लिए मुझे जाना पड़ेगा कश्मीर। कश्मीर जाना हालांकि अब रिस्की नहीं है, लेकिन हमारे पचपन जवान हाल ही में शहीद हुए हैं। प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में उनको संवेदना भी ज्ञापित की थी। मैं ‘अब तक छप्पन’ न हो जाऊं चचा!
—अरे, हट्ट पगले! चौं जायगौ कस्मीर?
—यही पता लगाने कि वह व्यक्ति पागल है या दिमागदार!
—का फरक परै?
—तुम्हीं तो उकसा रहे हो चचा। फर्क ये पड़ता है कि उसको पागल कहने में शासन-प्रशासन को सुविधा होती है। अपमान की मात्रा कम होती है। जूता एक निराकार शक्ति बनकर रह जाता है, जबकि है वह साकार, सरासर और सरेआम अपमान-प्रदाता। चलिए वो पागल भी था, लेकिन निलंबित था, यह तो एक सच्चाई है न? निलंबित क्यों था? इसकी जांच होनी चाहिए। इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि जनाबेआली उमर अब्दुल्ला ने जिस शेखी के साथ यह बघार दिया कि पथराव से ज्यादा अच्छा है जूता फेंकना, उन्हीं के इशारे पर पन्द्रह पुलिसकर्मी और निलंबित कर दिए गए, जिनमें तीन बड़े पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं। अब अताइए, उनका ऐसा क्या कुसूर! एक आदमी जो पुलिस-व्यवस्था की कमजोरियों को जानता है, किसी राजनेता का निमंत्रण-पत्र लेकर, विशिष्ट दर्शक-दीर्घा में घुस आया, इसमें उन पन्द्रह लोगों का क्या कुसूर? अब उमर अब्दुल्ला साहब ने एक साथ पन्द्रह लोगों को पागल हो जाने का मौका दे दिया।
—सो कैसै?
—ये पन्द्रह लगभग अकारण ही निलंबित हुए हैं। देखना कि पन्द्रह के कितने गुना पागल होते हैं। ये पागल, इनकी बीवियां पागल, इनके बच्चे पागल, इनके दोस्त पागल। पन्द्रह के बजाय पन्द्रह सौ पागल हो जाएंगे। असल चीज है न्याय का मिलना। न्याय अगर न मिले तो पागलपन बढ़ता है चचा। निश्चित रूप से उस जूता-मारू कांस्टेबुल के साथ कोई अन्याय हुआ होगा।
—तेरी भली चलाई चंपू! कोई और बात कर।
—उमर की उम्र-नीति तो सुन लो। एक ताज़ा कुण्डली बनाई है— काजू ताजा नारियल, भीगे हुए बदाम। उम्र बढ़ाने के लिए, आते हैं ये काम। आ नहिं पाते काम, अगर हो पत्थरबाज़ी। उम्र न झेल सकेगी जनता की नाराज़ी। उम्र बढ़े, यदि मिले उमर-कथनी सा बूता। पत्थर से बेहतर है कांस्टेबुल का जूता।