Sunday, February 28, 2010

होली पर विशेष

होली के हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर

दुनिया पहले हर पल बदलती थी अब पल के हजारवें हिस्से में भी बदलने लगी है। बदलाव आया है हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर में। पहले हम हर चीज़ को भाव पक्ष कला पक्ष या कथ्य और शिल्प में बांट कर देखा करते थे। आजकल हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के रूप में देखते हैं। और ये हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर हमारे नैनों के सामने नैनो गति से बदल रहे हैं।
होली के हार्डवेयर के नाम पर हमारे पास बांस की बनी हुई पिचकारी हुआ करती थी, जिसको स्वयं अपने उद्यम से बनाया जाता था। बांस का फिट दो फिट का खोखला टुकड़ा लिया, बांस की मोटी खपच्ची में कपड़ा फिट किया। बांस की पाइप में एक तरफ किया छेद और बन गई पिचकारी। ऐसी पिचकारी मैंने खुद अपने बचपन में बनाई हैं। और मैं कोई प्रागैतिहासिक जीवाश्म तो हूं नहीं। माना कि पिछली सदी में आया हूं लेकिन इतना पुराना तो नहीं हुआ। संपन्न लोगों के पास पीतल की या लोहे की पिचकारियां होती थीं। देखते-देखते पिचकारी प्लास्टिक की हो गईं। गुब्बारे में आते-आते इलास्टिक हो गईं। रंग धार बनाकर छोड़े जाते थे, फिर गुब्बारे फेंक कर मारे जाने लगे। अब तरह-तरह की पिचकारियां चीन से बन कर आ रही हैं। बच्चे उनसे भी बोर हो गए। होली गेम्स के सॉफ्टवेयर अपने कम्प्यूटर पर डाउनलोड करके अकेले खेलते हैं। सबसे गलत है होली अकेले खेलना।
पिचकारी के साथ रंग भी हार्डवेयर का ही हिस्सा होते हैं। हार्ड ड्राइव और रैम में कैमिकलीय कलर आ गए हैं। बचपन में हम लोग टेसू के सूखे फूलों को पानी में भिगोते थे। वसंती-पीला शानदार रंग बनता था। उसकी महक में भी बड़ा मजा आता था। ठिठोली हार्डवेयर में कुछ नुकीली चीजें भी हुआ करती थीं। जैसे, सेफ्टीपिन को मोड़ा जाता था, उसमें धागा बांधकर, तार पर लटका कर किसी की भी टोपी में अटकाकर खींच लिया करते थे। फिर रंगों के लिए पैसे ऐंठ कर टोपी वापस की जाती थी। बड़ा आसान सा घरेलू हार्डवेयर था, जिसके लिए हमें कोरिया, चीन, जापान पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था। अपना प्रोसेस अपना प्रोसेसर।
एक और ध्वनि उत्पादक उपकरण बनाया करते थे— ‘बबकन्ना’। टीन के डिब्बे में छेद करके, उसमें गांठ लगी सुतली फंसा कर बैरोजा लगाने के बाद रेगमाल से खींचते थे। बबका देने वाला हार्डवेयर। किसी के भी पीछे, नितम्बों के पास, सुतली पर रगड़ते हुए रेगमाल खींच दो तो बड़ी तेज आवाज आती थी। व्यक्ति बबक जाता था। जब तक पल्टे तब तक बच्चे शोर मचाते हुए भाग लेते थे।
एक होता था ठप्पा हार्डवेयर। आलू आधा काट कर बनाया जाता था। चाकू से आलू को दो भागों में काट लेते थे। बड़ी सफाई से उस पर उल्टी लिपि में गधा लिखते थे। बारीक नक्काशी करके ठप्पा बना लेते थे। तह किए हुए पुराने कपड़े से नीली या काली स्याही का स्टैम्प पैड बनाते थे। किसी गली में छिप कर आगंतुकों की प्रतीक्षा करते थे। बड़ा मजा आता था किसी की कमीज पर ‘गधा’ ठप्पा लगाने में। आज आलू काट कर कार्विंग की इतनी मेहनत कौन करेगा, जब बाजार में बने बनाए चालू हार्डवेयर मिल जाते हैं, जो एक मिनट में आदमी को भालू बना देते हैं। पहले कितना भी रंग जाए, लेकिन रंगों के बीच में लिखा गधा नजर आता था। अब कैमिकल के गाढ़े रंगों में होली वाले दिन आदमी को पहचानना ही कठिन हो जाता है कि पड़ौसी है या पति।
होली हार्डवेयर प्रोद्यौगिकी में सॉफ्टवेयर चलते हैं नौद्यौगिकी के। नौद्यौगिकी, यानी नौ प्रकार के रसों के सॉफ्टवेयर, जो हर किसी के दिल के बाजार में उपलब्ध हैं। यह सॉफ्टवेयर तेजी से बदल रहे हैं। हार्डवेयर का मसला उतना संगीन नहीं है, जितना इन बदलते हुए सॉफ्टवेयरों का है।
होली पर हास्य का सॉफ़्टवेयर सबसे अच्छा है। खुद हंसिए, दूसरों को हंसाइए। श्रृंगार की रति का भी एक सॉफ्टवेयर चलता है जो कुदरत ने अपने करिश्मे से बनाया है। कामदेव ने उस पर बहुत मेहनत की है। अनंत काल की रिसर्च के बाद, शिव के द्वारा भस्म होने के बावजूद, यह सॉफ्टवेयर लगातार अपडेट हो रहा है। इस सॉफ़्टवेयर को कितनी बार करप्ट किया गया, कितनी बार हैक किया गया, इसकी फाइलें उड़ाने की कोशिश की गईं, लेकिन सर्वाधिक वेबसाइट इसी सॉफ़्टवेयर में बन रही हैं। इंटरनल इंटरनेट वाला यह सॉफ्टवेयर नैसर्गिक है। इसमें स्वर्गिक आनन्द तभी है जब इसका एक सर्ग ही हो। एक नर-नारी युगल तक सीमित रहे तो अच्छा काम करता है। प्रेम चौदस यानी वेलंटाइन डे अभी होकर चुका है उसके बाद होली के अवसर पर जिससे प्रीति रखते हों उसको ये सॉफ्टवेयर जरूर दे दें। दूसरों को भी बताएं कि अंतरंग नैटवर्किंग से डाउनलोड किया जा सकता है।
इधर कुंठा नाम का सॉफ्टवेयर ज्यादा चल पड़ा है। रति सॉफ्टवेयर के साथ कुंठा सॉफ़्ट्वेयर यदि आपने अपने हार्डवेयर में डाल लिया तो जीवन-कम्प्यूटर क्रैश हो सकता है। शांत, भक्ति, करुणा, ममता आदि ऐसे निरापद सॉफ्टवेयर ऐसे हैं जो पुरानी संचालन प्रणालियों वाले किसी भी हार्डवेयर में चल सकते हैं।
होली के सॉफ्टवेयर्स में कई बार अति उत्साह, ओज और जुगुप्सा के वायरस आ जाते हैं। ये तीनों वायरस आपकी होली की हार्डड्राइव को बरबाद करने वाले होते हैं। आप ज्यादा पी जाएंगे, टुल्ल हो जाएंगे, अति उत्साह दिखाएंगे, कपड़े फाड़ेंगे किसी के और वह आपके कपड़े फाड़ेगा, डराएंगे, उल्टियां करेंगे तो जाहिर है परेशानी होगी।
कपड़ा फाड़ू होली बिहार में खूब चलती है। लालू जी उसे बड़े प्रेम से मनाते हैं। ऐसा न हो कि कुर्ता फाड़ होली के समय आप अंग-फाड़ हो जाएं, इसलिए ऐसे सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते समय आपको अतिरिक्त सावधानी बरतने की ज़रूरत है। आप होली-भय नामक सॉफ्टवेयर अपने मित्रों के दिल के कम्यूटर के फोल्डर से रिमूव कर दीजिए। जो अभी तक सूखे बैठे हैं उनके होली-भय सॉफ्टवेयर परिवर्तित करते हुए, उसकी जगह होली-हास्य सॉफ्टवेयर डालिए। घर में बैठे रहने से क्या होगा? होली मेल-मिलाप का त्यौहार है, अकेले विलाप का नहीं। वाद-विवाद मिटा कर संवाद बढ़ाइए, गले मिलते हैं आइए।



होली पर विशेष



मेल मिलाप कि अकेले विलाप


कॉलोनी की बहुमंज़िला इमारतों के बीच बने पार्क की एक बेंच पर बैठे दो बुज़ुर्गों में से पहले बुज़ुर्ग ने कहा— ‘आज हमारी बातचीत का विषय क्या होगा?’ दूसरे ने निर्विकार भाव से उत्तर दिया— ‘विषय विकार मिटाओ, होली की बात करो होली की। पहला बुज़ुर्ग मायूस मुद्रा में बोला— ‘चलो होली पर ही चर्चा कर लेते हैं।’ दूसरे ने निराशा में कहा— ‘चर्चा क्या करते हैं, आजकल होली पर लोग खुलकर खर्चा ही नहीं करते। पहले हम पर्चा बनाया करते थे, अपने कस्बे के नामी-गिरामी लोगों को शीर्षक-टाइटल दिया करते थे। आजकल न चर्चा है, न खर्चा है, न पर्चा है। होली को हम मेल-मिलाप का त्योहार मानते थे। अब वह अकेले विलाप का होकर रह गया है।’
‘तुम बड़ी निराशा भरी बातें करते हो यार! होली पर हुलास की बातें करो, उल्लास की बातें करो।’
‘हुलास और उल्लास तो तब आए जब कोई हम पर रंग डाले! इतनी देर से बैठे हैं, मलाल तो इस बात का है कि न किसी ने रंग डाला न गुलाल मला।’
दोनो बुढ़ऊ घर से निकल आये थे, क्योंकि उनकी औलादें होली के दिन भी अपने कारोबार में लगी थीं, घर के नौजवान कम्प्यूटर में आंखें गड़ाए हुए थे। कॉलोनी में दस पॉकेट हैं, हर पॉकेट में चार-चार ब्लॉक हैं। हर ब्लॉक ने अपनी होली का अलग-अलग आयोजन किया था। थोड़ी देर के लिए घर से निकलेंगे, रंग-गुलाल मलेंगे और जलेबी-कचौड़ी खाकर पन्द्रह मिनट में घर लौट आएंगे। इस तरह होली मन जाएगी।
‘अरे भैया, ये भी कोई होली है? अपने-अपने परकोटे में मना ली? आज मौका है सबसे मिलने का, उन सबको सुनाओ गाली, जिन्होंने पिछले साल किसी भी रूप में तुम पर तानी थी दुनाली। घर पर रहो तो लोगों को बुलाओ और सजाओ गुलाल और गुंजिया की थाली। दूर करो गिले-शिकवे। सूखे-सूखे रहने में क्या है, गीले-गीले रहो!’
‘क्या वक्त आ गया है बरख़ुरदार कि आज आदमी आदमी से बात करने में डरता है। पहले पूरा गांव, पूरा कस्बा, ढोल नगाड़े, खड़ताल-मंजीरे लेकर गली-गली घूमता था। लेकिन अब मिज़ाज बदल गया है। सोसायटी के लोग फुल वॉल्यूम में फिल्मी गाने लगाते हैं। दूसरों को शरीक नहीं करते। तरंग आई तो घर में ही नाचते गाते हैं। मनाते तो हैं त्योहार, लेकिन बदल गये हैं आचार-व्यवहार। महंगाई की मार भी उल्लास को पंचर कर देती है।’
दूसरे बुज़ुर्ग ने कहा— ‘चलो विषय बदलते हैं।’
‘क्यों बदलें विषय? सीनियर सिटीजन हो गए तो क्या जरूरी है कि सिर्फ दुख की बात करें। दुःख जीवन का स्थाई भाव नहीं होता। होली सुख का त्योहार है। इस महानगरीय जीवन शैली में हम कितने संकुचित होते जा रहे हैं। पड़ोसी के साथ भी होली खेलने में घबराते हैं। हां कुछ लोग हैं जो दमदारी से होली मनाते हैं, वे रंग डालने के बज़ाय रंगदारी ज्यादा दिखाते हैं।’
पार्क के दूसरे कोने में दूसरी बेंच पर दो नौजवान बैठे थे। एक चुप था दूसरा बोले जा रहा था। उसका मानना था कि हमारे संबंधों को कोई एक ओज़ोन लेयर बचाती थी। हम सारे देशवासी उसके कवच में झूमते गाते थे, त्योहार मनाते थे। अब व्यक्ति से लेकर देश तक जितनी भी ओज़ोन लेयर हैं उनमें छेद हो गए हैं। मौहब्बत की ऐसी पिचकारी चाहिए जो हर ओज़ोन लेयर को रिपेयर कर दे। वह बोले जा रहा था—

पति-पत्नी में बिलकुल नहीं बनती है, बिना बात ठनती है। खिड़की से निकलती हैं आरोपों की बदबूदार हवाएं, नन्हें पौधों जैसे बच्चे खाद-पानी का इंतज़ाम किससे करवाएं? होते रहते हैं शिकवे-शिकायतों के कंटीले हमले, सूख गए हैं मधुर संबंधों के गमले। नाली से निकलता है घरेलू पचड़ों के कचरों का मैला पानी, नीरस हो गई है ज़िंदगानी। संबंध लगभग विच्छेद हो गया है, घर की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
सब्ज़ी मंडी से ताज़ी सब्ज़ी लाए गुप्ता जी तो खन्ना जी मुरझा गए, पांडे जी कृपलानी के फ्रिज को आंखों ही आंखों में खा गए। जाफ़री के नए-नए सोफे को काट गई कपूर साहब की नज़रों की कुल्हाड़ी, सुलगती ही रहती है मिसेज़ लोढ़ा की ईर्ष्या की काठ की हांडी।
सोने का सैट दिखाया सरला आंटी ने तो कट के रह गईं मिसेज़ बतरा, उनकी इच्छाओं की क्यारी में नहीं बरसता है ऊपर की कमाई के पानी का एक भी क़तरा। मेहता जी का जब से प्रमोशन हुआ है, शर्मा जी के अंदर कई बार ज़बर्दस्त भूक्षरण हुआ है। बीहड़ हो गई है आपस की राम राम, बंजर हो गई है नमस्ते दुआ सलाम। बस ठूंठ जैसा एक मकसदविहीन सवाल है- 'क्या हाल है?' जवाब को भी जैसे अकाल ने छुआ है, मुर्दनी अंदाज़ में- 'आपकी दुआ है।'
अधिकांश लोग नहीं करते हैं चंदा देकर एसोसिएशन की सिंचाई, सैक्रेट्री प्रैसीडेंट करते रहते हैं एक दूसरे की खिंचाई। खुल्लमखुल्ला मतभेद हो गया है, कॉलोनी की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
बरगद जैसे बूढ़े बाबा को मार दिया बनवारी ने बुढ़वा मंगल के दंगल में, रमतू भटकता है काले कोटों वाली कचहरी के जले हुए जंगल में। अभावों की धूल और अशिक्षा के धुएं से काले पड़ गए हैं गांव के कपोत, सूख गए हैं चौधरियों की उदारता के सारे जल स्रोत। उद्योग चाट गए हैं छोटे-मोटे धंधे, कमज़ोर हो गए हैं बैलों के कंधे। छुट्टल घूमता है सरपंच का बिलौटा, रामदयाल मानसून की तरह शहर से नहीं लौटा।
सुजलां सुफलां शस्य श्यामलां धरती जैसी अल्हड़ थी श्यामा। सब कुछ हो गया लेकिन न शोर हुआ न हंगामा। दिल दरक गया है लाखों हैक्टेअर, परती धरती की तरह श्यामा का चेहरा सफेद हो गया है, गांव की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
जंगल कटे का सरमाया है, और बाक़ी सीमेंट की माया है कि इमारतें हो रही हैं हट्टी-कट्टी, उनसे अमरबेल जैसी लिपटी हैं झोंपड़पट्टी। गुमसुम गौरैया नहीं गाती है प्रभातियां, दफ्तरी वन्य-जीवन में दुर्लभ हो गई हैं ईमानदार प्रजातियां। एडल्ट मूवी देखता है चिरंजीवी, संस्कृति को चर रहा है केबिल टी.वी.। ए.सी. और कूलर में खुलती नहीं हैं खिडक़ियां, जलाऊ लकड़ी का संकट है इसलिए जलाई जाती हैं लडक़ियां। लीपापोती के लिए थाने की मेहरबानी है, म्युनिसपैलिटी के निजी नल में रिश्वत का पानी है। ईमानदारी का अकाल पड़ गया है, उन्माद के उद्योग के प्रदूषित कचरे से सद्भाव की नदी का पानी सड़ गया है। सदाचार, दुराचार, शिष्टाचार, भ्रष्टाचार, इन सारे शब्दों में अभेद हो गया है, शहर की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
काग़ज़ों पर खुद गई हैं नहरें, ड्रांइग-रूम में उठ रही हैं लहरें। राजनीति में सदाशय अनाथ है, चिपको आंदोलन कुर्सी के साथ है। इतने खोदे, इतने खोदे कि खो दिए राष्ट्रीय मूल्यों के पहाड़, पनप रहे हैं मारामारी के झाड़-झंखाड़। लाल सुर्ख़ बहती है हिंसा की नदी, ऐसे चल रही है इक्कीसवीं सदी।
अरे, ये कैसा वक्त आया है, मीडिया में एकता के अकाल की छाया है। हो रही है राष्ट्रीय सपनों की गैरकानूनी चराई, चल रही है धर्म के ठेकेदारों की चतुराई। नफरत रेगिस्तान की तरह छाती पर चढ़ रही है, आबादी का आंतक बढ़ रहा है और आतंक की आबादी बढ़ रही है। भावनाओं का आवेग प्रदूषित हो गया है, आंखों तक का पानी दूषित हो गया है।
'हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में हैं भाई-भाई।' सचमुच हैं भई, सचमुच हैं, लेकिन दिलों में दरारें आ गई हैं, आपस में भेद हो गया है, देश की ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है।
वैसे घर की ओज़ोन लेयर है- कॉलोनी, मोहल्ला या गांव। गांव की ओज़ोन लेयर है- शहर। शहर की ओज़ोन लेयर है- देश। देश की ओज़ोन लेयर है- दुनिया। और मुझे इसी बात का ख़ेद है, कि हर ओज़ोन लेयर के छेद है। लाओ कोई ऐसी पिचकारी जो मदद करे हमारी। प्रांतीयता की हालत यहां तक आ गई है कि राष्ट्र से बड़ा महाराष्ट्र हो गया है।

तीसरी बेंच पर होने वाली बातचीत का मिजाज भी था तो तल्ख पर सुपर होली स्टाइल में था। एक युवा अपनी प्रेमिका को मोहक वाणी में बता रहा था— जैसे कि होली सेना के गुलाल ठाकरे को ही लो। अपनी होली को सबकी होली नहीं मानते! गुलाल ठाकरे का फ़रमान है कि कोई विदेशी हमारे आंगन के पिच पर होली नहीं खेल सकता। खास कर हमारा पड़ोसी देश और कंगारू। कंगारू इसलिए होली नहीं खेल सकते हैं क्योंकि उनकी पूंछ उनके पैर का काम करती है। गुलाल ठाकरे ने कहा है कि हम ऐसे किसी जंतु को नहीं चाहते जो पूंछ से पैर का काम लेता हो। पूंछ पर टिक कर खड़ा होता हो क्योंकि हमारे तो पूंछ है नहीं। जनता भी नहीं पूछ्ती है। गुलाल ठाकरे नहीं समझते कि होली तो रस की खान है। जनता ने भी ‘माई नेम इज रसखान’ फिल्म के प्रदर्शन के समय गुलाल ठाकरे की बातों को ठुकरा दिया। रसखान पर गुलाल ठाकरे कैसे पाबन्दी लगा सकते हैं। हमारे महान कवि हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम पर उन्होंने कितने अच्छे सवैया लिखे।
होली के हुरियारों ने, पिचकारी पिचकारों ने, पिचकारों यानी पिच पर खेलने वालों ने गुलाल ठाकरे की बातों को सिरे से ख़ारिज कर दिया। तुम बहुत सूखे हो। तुम्हें रसखान में गोता लगाते हुए और पुरबिया भइयों के साथ फाग गाते हुए गीला होना पड़ेगा। तुम्हारा महत्व तभी तक है, जब तक रंगों का गीलापन बरकरार है। गीलेपन के साथ-साथ हे गुलाल ठाकरे, यदि अपने सूखेपन को बनाए रखोगे तभी लोग तुम्हें झेल पाएंगे। लेकिन तुम जिंदगी की गीली हलचल को खत्म कर दोगे तो होली का पिच मैच के योग्य किस तरह रह पाएगा। दिमागी घिचपिच मत बढ़ाओ।
बड़ी देर बाद लड़की बोली— तुम्हारी बातें मन से आधी ही समझ में आती हैं।
लड़का फिर शुरू हो गया— मनसे की समझ में तो बिल्कुल नहीं आतीं। गुलाल ठाकरे अभी भी अड़े हुए हैं, लेकिन होली के हुरियारों ने खेल के मैदान में सभी को आमंत्रित किया है। होली सभी को एक साथ मिलने-बैठने बतियाने का सुख देती है। गुलाल की तरह गुलाल ठाकरे का दबदबा बढ़ाने के लिए अभरक के चमकीले कण मनसे आ मिले हैं। राकापां भी कांपा गुलाल ठाकरे के सामने। दस मनपथ से आवाज आई कि भाई, ये बात अच्छी नहीं है कि इधर की खाओ मलाई, और उधर बढ़ाओ चिकनाई।
भैया गुलाल ठाकरे! एक बात का ख्याल रखना कि होली की शुरुआत ब्रज से हुई। भोजपुरी अंचल में होली गाई जाती है। बुंदेलखंड में ईसुरी के फाग जब ढोलक पर बजते हैं, तो आसमान भी झूमता है और धरती भी नाचती है। बनारस में होली गायन के दौरान गिरिजा देवी कजरी चैती गाती हैं तो गंगा का पानी हिलोरें लेता है। सबको बड़ी भाती हैं। लेकिन गुलाल ठाकरे! तुम्हारे महान राष्ट्र में जब ये पुरवैये प्रवेश करते हैं तो राष्ट्र से ज्यादा बड़ा महान-राष्ट्र हो जाता है तुम्हारा। तुम होली खेलने का मौका देने से वंचित कर देना चाहते हो। सबको होली मनाने दो। खइके पान बनारस वाला गाने दो। भंग का घोटा लगाने दो। ठुमका लगाने दो। क्या हुआ जो बिग एबीसीडी कुछ करना चाहते हैं! बिग ए से बिग जेड तक मस्ती जाए, गुलाल ठाकरे को न सताए।
होली में जितनी तरह के रंग प्रयोग में लाए जाते हैं, उतने ही रंग-गोत्र-वर्ण के लोग भारत में बसते हैं।
होली पर बरसाने में लुकाठी का प्रेमपूर्ण इस्तेमाल होता है। मान लो सचिन ने एक मन की सच्ची बात कह दी कि मैं तो होली के सब रंगों से मिलकर बनने वाले अपने देश का पहले हूं, प्रांतीय लुकाठी का बाद में, तो क्या गलत किया? हे गुलाल ठाकरे! होली पर सोच-समझ कर बयान देना।
गुलाल ठाकरे ने अपने सिंहासन पर बैठ कर रंग-बिरंगे हुरियारों की सारी बातें सुनीं और कहा कि अब मैं अपने सूखेपन के विरुद्ध लड़ूंगा। दरअसल जब से मातुश्री गईं हैं, होली मैं स्वयं नहीं खेल पाता हूं। गीलापन मेरे जीवन से चला गया है। मैं भारत के सभी रंगों को प्यार करता था, लेकिन लोग कहते हैं कि दंगों को प्यार करने लगा। दरअसल, यह मुझसे नहीं देखा जाता कि दूसरे जोड़े रस-रंग मनाएं और हम अकेले में आंसू बहाएं। इसलिए, मैं स्वयं से कहता हूं कि स्थितियों का सामना करो, सामना के जरिए किसी दूसरे का साम-दाम-दण्ड-भेद मत बिगाड़ो।
बाला बोली— उलझा-उलझा कर सुलझी-सुलझी बातें करने का कौशल तुम्हें खूब आता है, पर बाय-द-वे बता दूं कि पार्क में बिठाकर मुझे बोर कर रहे हो। होली मनानी है तो चलो यहां से। जितने तुम्हारे दोस्त हैं उनके यहां चलेंगे। फिर मैं ले चलूंगी अपनी सहेलियों के यहां।
बालक बोला— चलो, पहले तुम्हारी सहेलियों के यहां चलते हैं।

Thursday, February 25, 2010

कम्प्यूटर की डगर पर हिन्दी

इन दिनों हिंदी अकादमी के गतिविधियों में तेजी आई है और यह एक अच्छी बात हुई कि पिछले दिनों अकादमी ने 'कम्प्यूटर की डगर पर हिन्दी' विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया। प्रस्तुत है अजय कुमार शर्मा और महेश्वर की एक संक्षिप्त रिपोर्ट।











कम्प्यूटर से हिन्दी वैश्विक होगी

कम्प्यूटर के जरिए हिन्दी एक वैश्विक भाषा का रूप ले सकेगी और संसार की महत्वपूर्ण भाषाओं के समक्ष सर उठा कर खड़ी हो सकेगी'। यह निष्कर्ष 24 फरवरी 2010 को हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा आयोजित संगोष्ठी 'कम्प्यूटर की डगर पर हिन्दी' से निकल कर सामने आए।
कार्यक्रम के आरम्भ में 'पावर प्वाईंट' प्रस्तुति के साथ प्रो. अशोक चक्रधर ने कम्प्यूटर और उसमें हिन्दी के प्रयोग का इतिहास प्रस्तुत किया। वर्तमान में कम्प्यूटरों में हिन्दी में अनुवाद, शब्द कोश, बोलकर लिखने की सुविधा की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि अब कम्प्यूटर में हिन्दी के प्रयोग को लेकर शंकालू' न होकर 'जिज्ञासू' होने की जरूरत है।
इस संगोष्ठी में हिन्दी कम्प्यूटिंग से जुड़े सभी महत्वपूर्ण लोग प्रो. अशोक चक्रधर, विजय कुमार मल्होत्रा, डॉ. बालेन्दु दाधीच, आलोक पुराणिक, मीता लाल उपस्थित थे। अध्यक्षता डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा ने की।
प्रसिद्ध भाषाविद् अरविन्द कुमार की पुत्री मीता लाल ने उनके द्वारा तैयार किए जा रहे साफ्टवेयर 'अरविन्द लैक्सिकन' की प्रस्तुति दी जिसमें हिन्दी के छह लाख से ज्यादा शब्द हैं और जो अंग्रेजी-हिन्दी-रोमन तीनों कमाण्ड में काम करता है। इसके सहारे हम केवल अर्थ ही नहीं उनके वैश्विक अर्थ, अंर्तसांस्कृतिक संदर्भ, समानार्थी और विलोम शब्द भी ढूंढ सकेंगे। यह 'एन्साइक्लोपिडिया' का भी काम करेगा।
हिन्दी अकादमी के सचिव प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव 'परिचय दास' ने सभी को धन्यवाद देते हुए कहा कि कम्प्यूटर तकनीक के जरिए हम हिन्दी को भविष्य की भाषा बना सकते हैं। उन्होंने विश्वास दिलाते हुए कहा कि अकादमी 'यूनिकोड' के इस्तेमाल व अन्य सुझावों को पूरा करने की कोशिश करेगी। प्रो. श्रीवास्तव ने यह सूचना भी दी कि माइक्रोसाफ्ट के उत्पादों का सर्वाधिक उपयोग करने तथा हिंदी कम्प्यूटिंग के विकास हेतु उल्लेखनीय शोध-कार्यों के लिए प्रो. अशोक चक्रधर को पिछले तीन वर्षों से लगातार माइक्रोसाफ्ट का 'मोस्ट वैल्यूएबल प्रोफेशनल अवार्ड' मिल रहा है। ज्ञात हो कि इस वर्ष भी प्रो. अशोक चक्रधर, श्री विजय कुमार मल्होत्रा और श्री बालेन्दु दाधीच को मिला है
अजय कुमार शर्मा और हेश्वर

Wednesday, February 24, 2010

मेरी यह तस्वीर श्री रघुवीर चन्द्र ने बनाई है।

मेरी यह तस्वीर हैदराबाद के श्री रघुवीर चन्द्र ने बनाई है। उनको धन्यवाद और बधाई है। इससे क्या कि चित्र में उम्र थोड़ी-सी बढ़ाई है। दुख देते हुए भी चित्र सुखदाई है।

चौं रे चम्पू

इनायत हिदायत शिकायत न करना





—चौं रे चम्पू! भरपूर बुढ़ापौ आय गयौ, लेकिन मन अबहु दौरि कै पतंग लूटिबे कौ होय। हालत जे ऐ कै बिना बेंत के उठौई नायं जाय। का करैं लल्ला?
—बुढ़ापा भी कुदरत का एक वरदान है चचा, इसके भी मज़े लो। एक शायर ने कहा था— ‘सताता है क्या-क्या मुझे दर्दे घुटना, जो इक बार बैठूं तो मुश्किल है उठना।’
—उड़ाय लै मजाक, उड़ाय लै चम्पू! सवाल जे ऐ कै मन की बाल तरंगन्नै कैसै रोकें?
—माफ़ करना चचा, अपनी इसी बेंत से मुझे ख़राब शेर सुनाने के लिए पीट लीजिए, लेकिन अपनी बाल-तरंगों को मत रोकिए। पिछले दिनों ‘ओल्ड एज फाउंडेशन’ का एक जलसा हुआ। मुझे बनाया हुआ था चीफ़ गैस्ट। सारे श्रोता आपकी उम्र के या आपसे ज्यादा उम्र के ही रहे होंगे। यानी पिचहत्तर से ऊपर के। कार्यक्रम से पहले चाय-समोसे का इंतज़ाम था। मैं भी था उनके बीच। कई ने मुझे टीवी के कारण पहचान लिया। बताने लगे कि कब-कब उन्होंने मुझसे क्या-कया सुना। एक बुजुर्गवार कंपकंपाते हाथों में चाय का कप लिए हुए मेरी तरफ आए। कहने लगे आप तो हास्य के कवि हैं, उदासियों के इस जंगल में आपका क्या काम?
—जादा ई निरास होयगौ।
—मैं तो हर चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था चचा। मैंने उनसे हंसते हुए कहा कि लीजिए मैं भी उदास हो जाता हूं। इस पर वे मुस्कुरा दिए। फिर जी सारे बुजुर्ग लोग हॉल में आकर चुपचाप बैठ गए। संचालिका ने अपनी संस्था का ब्यौरा दिया कि वृद्धों के लिए क्या-क्या किया जा रहा है। फिर एक मनोविज्ञान विशेषज्ञ महिला ने तरह-तरह के तरीके बताए कि इस अवस्था का सामना किस प्रकार किया जाना चाहिए। सारे बुजुर्ग शांत भाव से सुनते रहे। अंत में आई मेरी बारी।
—तैंनैं का कही?
—मैंने कहा, कहते हैं कि वृद्ध व्यक्ति दुगुना बच्चा हो जाता है। तो मेरे प्यारे बच्चो। कविसम्मेलनों में जाते-जाते मेरी एक खराब आदत पड़ गई है, तालियों की आवाज सुनने की। यहां अब तक एक बार भी ताली नहीं बजी। तुम लोग डबल बच्चे हो तो डबल ताली बजाओ।
—तारी बजाईं?
—क्या पूछो चचा, तालियों की गूंज हॉल के बाहर दूर-दूर तक गई होगी। फिर मैंने कहा कि ये उम्र का मामला आक्रांत और अशांत होने वाला नहीं है। चालीस वर्ष पहले साठ वर्ष की उम्र में चले जाना बहुत स्वाभाविक माना जाता था। आप सत्तर से ऊपर वाले हैं। ये उम्र तो अब फोकट में मिली हुई उम्र है। मैं भी ग्यारह महीने बाद साठ का हो जाऊंगा। तो ये जो उम्र मिली है, किसलिए मिली है? दूसरों को कोसने के लिए या अपने आपको खुशियां परोसने के लिए। आपके अंदर अनुभवों का ख़जाना है। बांटिए, लेकिन ख़जाना उसी को देना जो लेना चाहे। भैया, तेरे पास वक्त नहीं है लेने का, तो मेरे पास भी वक्त नहीं है देने का। मैं जानता हूं डबल बच्चो! आपकी समस्या है अकेलापन, लोनलीनैस।




—बिल्कुल ठीक। बुद्ध के दिना तू बगीची पै नायं आवै तौ मन बड़ौ अकुलाय। हम है जायं लोनली।
—चचा, ये लोनली वाला मामला आजकल जवान लोगों में ज़्यादा है। पैसा कमाने की ललक में अठारह से बीस घंटे तक काम करते हैं। नई जीवन शैली ने पूरे के पूरे समाज को अकेला बना दिया है। लोनली वे ज्यादा हैं जिन्होंने वैभव भरी जिन्दगी की दौड़ में रकम लोन ली और फंस गए लेकर। मैंने उनसे आगे कहा कि आपको क्या फिक्र है? न लोन लेना है, न लोन देना है। इस पर बजीं ताली। मैंने कहा ये हुई न बात। याद रखिए, एक होती है उपेक्षा, एक होती है अपेक्षा। आप लोग क्योंकि डबल बच्चे हैं इसलिए उपेक्षा से रूठ जाते हैं। अपेक्षाएं पूरी न हों तो टूट जाते हैं।
—कोई कबता सुनाई?
—हां चचा, एक मुक्तक सुनाया। बातें उनकी समझ में आईं और डबल बच्चों ने ट्रिपल तालियां बजाईं—
मदद करना सबकी, इनायत न करना।
न चाहे कोई तो हिदायत न करना।
शिकायत अगर कोई रखता हो तुमसे,
पलट के तुम उससे शिकायत न करना।

Tuesday, February 23, 2010

संगोष्ठी

कम्प्यूटर की डगर पर हिन्दी
पर आयोजित विचार संगोष्ठी में आप सादर आमंत्रित हैं

अध्यक्षता : डॉ. विमलेश कांति वर्मा
सान्निध्य : प्रो. अशोक चक्रधर, उपाध्यक्ष, हिन्दी अकादमी, दिल्ली
वक्ता : श्री विजय कुमार मल्होत्रा, श्री आलोक पुराणिक, सुश्री मीता लाल एवं श्री बालेन्दु दाधीच

बुधवार, 24 फरवरी, 2010
सायं 5.30 बजे
त्रिवेणी सभागार, तानसेन मार्ग (निकट मंडी हाउस), नयी दिल्ली – 110001
चाय : 5.30 बजे

Monday, February 22, 2010

पुस्तक लोकार्पण

'कुछ कर न चम्पू' और 'चम्पू कोई बयान नहीं देगा' का विमोचन


8 फरवरी, 2010 को सुविख्यात लोकप्रिय कवि तथा आलोचक अशोक चक्रधर के दो व्यंग्य संग्रहों का विमोचन इंडिया हैबिटाट सेंटर के गुलमोहर सभागार में दिल्ली की मुख्यमंत्री सुश्री शीला दीक्षित ने किया। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 'कुछ कर न चम्पू' और 'चम्पू कोई बयान नहीं देगा'--इन संग्रहों पर विचार रखते हुए सुश्री दीक्षित ने अशोक जी को 'कला से भरपूर व्यक्ति' के पद से नवाजते हुए कहा कि 'उनकी कविताएं या लेखन शुरू मे देखने में भले, हल्के-फुल्के लगें परंतु बाद में उसकी गहराई धीरे-धीरे खुलती है। इस पुस्तक की भाषा का आनंद मैं भी उठा सकती हूं, हालांकि मेरी सारी शिक्षा अंग्रेजी में हुई थी।' सुश्री दीक्षित ने पुस्तक संस्कृति की पैरवी करते हुए कहा कि 'इंटरनेट पर पुस्तक से वह संबंध नहीं बन पाता, जो पुस्तक को हाथ में लेकर बनता है, वह सीधे मन में उतर जाती है।

फूहड़ लतीफों और स्तरहीन स्त्री विरोध की तमाम मंचीय कविताओं के विपरीत अशोक चक्रधर को 'पॉपुलर' कविता में एक अलग स्कूल की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। हास्य को व्यंज्ञ में रचाने-बसाने वाले चक्रधर जी ने माना कि बात करने के लिए दो व्यक्तियों का होना जरूरी है। पुस्तक में मैंने यह दोनों अपने ही भीतर उत्पन्न किए चंपू और चाचा के रूप में यह पुस्तक प्रश्नोत्तर शैली में है। इन दोनों की बातचीत का आधार मूलभूत और सामाजिक समस्याएं हैं। यह पुस्तक हिन्दी पुस्तक संसार में यूनीकोड फॉण्ट में आने वाली पहली पुस्तक है।

सुधीश पचौरी ने लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व की यात्रा पर बात करते हुए कहा कि 'ऐसे आशुकवि बहुत कम हैं जो व्यंग्य की ऐसी पैनी धार बनाए रखते हैं।' उन्होंने लेखक को श्रमशील, मेधावी और रचनात्मक कहते हुए कहा कि 'हास्य को मैं जीवन के लिए अनिवार्य मानता हूं।' पुस्तक की भाषा को उन्होंने ब्रज और खड़ी बोली की मैत्री का गद्य कहा। 'चंपू' को उन्होंने अंग्रेजी के 'चैम्प' शब्द के समानार्थक स्वीकार करने की जरूरत बताया।
अन्य वक्ताओं में अरुण माहेश्वरी और उदय प्रताप सिंह रहे। 8 फरवरी का दिन, संयोग से, अशोक चक्रधर का जन्म दिवस भी है, अतः भारी संख्या में उनके मित्रों-शुभचिंतकों के मध्य उन्होंने केक काटने की रस्म भी अदा की। इस दिन के साथ ही वे 60वें वर्ष में प्रवेश कर गए। कार्यक्रम का संचालन युवा कवयित्री-चित्रकार गीतिका गोयल ने दक्षतापूर्वक किया। कार्यक्रम के अंत में काव्य-गोष्ठी भी आयोजित की गई। बागेश्वरी चक्रधर ने अपने संस्मरणों के साथ कुछ मुक्तक भी पढ़े।

हंस, मार्च 2010 से साभार