—इंसान की बात पूछ रहे हो न चचा?
—और का जिनाबर की पूछ रए ऐं!
—नहीं चचा, कुछ इंसान कहे जाने वाले लोगों में भी दरिंदे छिपे होते हैं, उनकी बात तो नहीं कर रहे न?
— दरिंदन ते हमें का मतबल!
—हां, अब मैं आपकी बात का जवाब दे सकता हूं। माफ करना, आपकी बगीची पर उससे बड़ा ताकतवर इंसान नहीं है, जितना ताकतवर इंसान मैं अभी देख कर आ रहा हूं। हरप्यारी के घर।
—अच्छा! हरप्यारी के घर कहां के पहलवान आए ऐं रे? का उमर होयगी उनकी?
—हरप्यारी की पोती हुई है चचा, उम्र है एक महीना।
—तू तौ पहलवान की बात कर रयौ ओ।
—चचा यकीन मानिए उससे ज्यादा ताकतवर इंसान पूरे इलाक़े में इस वक्त कोई नहीं है।
—मजाक मती ना कर।
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—देखिए चचा, नन्हा बच्चा जिस भी उंगली को पकड़े, कस लेता है। और अपनी पकड़ की मजबूती का रस लेता है। आप कोशिश करिए अपनी उंगली छुड़ाने की। नहीं छुड़ा पाए न! वो आपकी नाकामयाबी पर फट से हंस देता है। ....और चचा अपनी पकड़ की मजबूती का भरपूर रस लेता है।
—वा भई वा! भौत बेहतर बात कही।
—इसीलिए मैंने सबसे पहले पूछा था कि इंसानों की बात कर रहे हैं या जानवरों की। अगर सच्चा इंसान होगा तो नहीं छुड़ा सकता, दरिंदे को एक पल नहीं लगेगा....
—अब का सोच मैं परि गयौ?
—सोचना क्या है चचा! एक चिंता सी होती है। इलाक़े की सबसे बड़ी पहलवान को हम इस सदी में क्या देने वाले हैं। अभी इतनी छोटी है कि उसे पता ही नहीं है कि उसके पास कितनी ताकत है, क्योंकि अभी विवेक नहीं है उसके पास। जिंदगी से संघर्ष करने के ये उसके सबसे मुश्किल दिन होंगे। दूध पिएगी, बतासा खाएगी, आशा जानेगी, निराशा भोगेगी। भाषा सीखेगी, शब्दों के अर्थों को जिज्ञासा से जानेगी। चचा जिज्ञासा या तो बचपन में होती है या फिर उद्भट प्रतिभा में। बचपन में जिज्ञासा हर किसी के पास होती है, लेकिन अच्छे खाद-पानी के अभाव में हमारे देश में बचपन की फसल पर वक्त से पहले ही पाला मार जाता है।
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शुद्ध हवा, हंसी, हिम्मत और हौसले की हकदार बने, प्रतिभा के नए-नए द्वार खुलें उसके लिए, तो इसकी जिज्ञासा कभी नहीं मरेगी। फिर ये जैसे-जैसे बड़ी होगी, देश और समाज की समस्याओं के बारे में जिज्ञासाओं से भर उठेगी और निदान सोचेगी। अच्छी शिक्षा, अच्छी सेहत, अच्छा पर्यावास, अच्छा सांस्कृतिक घर-आवास अगर उसे दे सकें तो इस दुनिया को ये नन्हीं पहलवान बदल कर दिखा सकती है। पर आंकड़े निकालो हमारे देश के। देश में चौंतीस करोड़ बच्चे हैं। अस्सी लाख तो स्कूल ही नहीं जा पाते। पैंतीस लाख सड़कों पर रहते हैं। ज्यादातर ऐसे हैं जो कक्षा पांच तक भी नहीं पहुंच पाते। कितने कुपोषण से जूझ कर मर जाते हैं, आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किसी तरह बच गए तो अमानवीय शोषण उनकी क्षमताओं को लील जाता है।
—ये तो धरती पर आ भी गई, हरप्यारी के खसम ने तो कह दिया था कि लड़की हो गई तो दावत नहीं करने का। चचा, अगर उसका मर्द अपनी पोती की दावत नहीं करता है तो अपन बगीची पर कर लेते हैं।
—हां बगीची फण्ड में तौ भौत पइसा धरौ ऐ ना? दावत! ...पर तू कहै तौ चल कर लिंगे। बेटी के होइबे की दावत तौ हौनी चइऐ।
—थैंक्यू चचा! कभी आपने ये बात सोची है कि बेटे के जन्म के तो कितने ही गीत और लोकगीत हैं, पर क्या कभी बेटी के जन्म का कोई गीत तुमने सुना है?
—तू सुना!
—सुनो, गाओ-गाओ बधाई लली आई,
घर की बगिया में कोमल कली आई ।
फर्क करना ही नहीं, हो लली या कि लला,
बेवजह इस तरह से, सास तू जी न जला।
मीठा मुंह कर सभी का, और तू संग में गा,
तू भी लड़की थी कभी, भूलती क्यों है भला?
जैसे मिश्री की झिलमिल डली आई।
गाओ-गाओ बधाई लली आई।
—रुक जा, रुक जा! ढोलक लाय रयौ ऊं भीतर ते।