—क्यों नहीं चचा! अर्ज़ किया है— ‘इकहत्तर, बहत्तर, तिहत्तर, चौहत्तर....
—इरसाद, इरसाद, आगै!
—पिचहत्तर, छियत्तर, सतत्तर, अठत्तर।
—जे कैसौ सेर ऐ रे?
—इकहत्तर से अठत्तर तक का काल शानदार यादों का था। जिन चार महाकवियों का यह जन्मशती वर्ष है, बाबा नागार्जुन, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर, उनके साथ सत्संग का मौक़ा मिला। सबसे ज़्यादा सत्संग हुआ बाबा नागार्जुन के साथ।

—चचा, इनमें से कोई सौ साल पूरे नहीं कर पाया।
—अरे मानिबे में का हरज ऐ? मान कै चलो कै वो अभी हतैं। सबते पहलै बाबा नागार्जुन समारोह करौ। उनकी पसंद की चीज बगीची पै बनाऔ। उनकी पसंद के काम करौ।
—तो फिर चचा, मंगाओ एक स्टोव, मिट्टी के तेल वाला। वे कहते थे कि कविता में माटी की गंध होनी चाहिए और चाय में मिट्टी के तेल की, तभी अच्छी लगती है। सुधीश पचौरी के फोट्टी एट टैगोर पार्क नामक एक कमरे के कम्यून में एक लंगड़ी टाँग का स्टोव हुआ करता था। नोज़ल साफ करने के लिए पिन लगी टिन की पत्तियां आती थीं। कई बार पिन नोजल में रह जाती थी, कभी पत्ती टेढ़ी हो जाती थी। काफी युद्ध करने के बाद स्टोव की नाक जब ठीक होने लगती थी तो इधर-उधर तेज मात्रा में मिट्टी का तेल फेंकती थी जो दीवारों से बाउंस होकर बर्तनों पर गिरता था। इधर चाय की तलब में, ठण्ड के मारे, बाबा की नाक बहने लगती थी। बाबा की नाक उसी चाय को पीने से ठीक होती थी।

—और खाइबे के तांईं?
—स्टोव पर पकवान तो बनते नहीं थे। खिचड़ी बना लो या भीगे चने बघार लो। हरा धनिया, मिर्च मैं काटूं या सुधीश या भास्कर या राजपाल, नमक कितना डलेगा, वे बताएंगे। बाबा को थोड़ा चटक नमक पसंद है। जब तक चीज़ पक न जाय तब तक उनके अधैर्य को भी झेलना पड़ेगा। स्टोव बीच में कभी भी बुझ सकता है। मिट्टी का तेल कभी भी खत्म हो सकता है। कोई भी आकस्मिक विपदा चनों की रंधन-प्रक्रिया में रोधन डाल सकती है। अगर अचानक ही तीन कॉमरेड और आ गए तो संकट दूसरा। दरअसल, उनको लगता था कि उनको बहुत भूख लग रही है और वे बहुत ज्यादा खाएंगे, पर खाते वे खोड़ा सा ही थे। चार दाने पेट में गए नहीं कि उनकी आंखों में चमक आ जाएगी और अपने हिस्से का भी वे कॉमरेड्स में बांट देंगे। फिर कविता सुनाएंगे— आगामी युगों के मुक्ति-सैनिको! आओ, मैं तुम्हारा चुंबन लूँगा, जूतियाँ चमकाऊंगा तुम्हारी.....
—ठीक ऐ, मट्टी कौ तेल मगाय लिंगे। ...और माटी की गंध वारी कबता कौन सुनायगौ?
—एक तो मैं भी सुना सकता हूं। मेरी ‘खचेरा और उसकी फेंटेसी’ कविता को वे मिट्टी की गंध वाली कविता कहा करते थे। यह कविता एक दिन उन्होंने लगातार तीन बार सुनी। मैं हर बार अपने नाटकीय कौशल से उनको सुनाता था। एक अंश उनको बहुत भाता था— ‘वह बौहरे की जूती का तेल है, वह पंडित की लड़ावनी की सानी है, वह साह जी की बैठक की झाडू है, वह रमजिया के हुक्के का पानी है, वह बैज्जी के बैल का खरैरा है, वह कुमर साब के घोड़े की लीद है। --हमारा छप्पर छा देना खचेरा! --हमारा सन बट देना खचेरा! --हमारी खाट बुन देना खचेरा! खचेरा छा रहा है, बट रहा है, बुन रहा है, खचेरा अपना ही सिर धुन रहा है।’ इन पंक्तियों पर वे ठुमकने भी लगते थे।
—और बता।
—और क्या? उनसे बात करने के लिए लोग चाहिए। ऐसे लोग जो समाज की चिंता रखते हों। बात नहीं करोगे तो किसी और ठिकाने पर चल देंगे। जहाँ जहाँ जाना होगा, पोस्टकार्ड पर चार लाइन लिख कर सूचित कर देंगे। उनके खूब पोस्टकार्ड आते थे हमारे सनलाइट कॉलोनी वाले घर में। प्रिय अ॰च॰ और बा॰च॰ तुम्हारे पुत्र से अठखेली करने अमुक तिथि को आऊँगा। तुम्हारा... और नीचे बंगाली शैली में बहुत सुन्दर सा लिखा होता था— ‘ना’। हर पोस्टकार्ड-पाऊ को लगता था तुम्हारा ‘हां’।
—पोस्टकार्ड ऊ मंगाय लिंगे, और बता।