—चौं रे चम्पू, पंडित भीमसेन जोसी के जाइबे पै खूब दुखी भयौ होयगौ तू तौ?
—भारत का ऐसा कौन सा शास्त्रीय-संगीत-प्रेमी होगा जो दुखी न हुआ हो। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ की घन-गरज वाणी आज छब्बीस जनवरी पर भी गूंजेगी। सबके सुर मिलाने का आवाहन करने वाले गायक को कोई भुला नहीं सकता। शताब्दियां गुज़र जाती हैं तब कहीं ऐसा रत्न भारत को उपलब्ध होता है।
—तेरी कबहुँ उनते मुलाक़ात भई का?
—हाँ चचा, अनेक बार। धुर बचपन में लावनी-नौटंकी के कलाकारों के लोक-संगीत से तो परिचित हुआ था, लेकिन शास्त्रीय संगीत की वर्णमाला मुझे नहीं आती थी। यह श्रेय तो आपकी बहूरानी को जाता है, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय संगीत की रही है। उनके भाई मुकेश गर्ग के साथ दिल्ली में बहत्तर से पिचहत्तर तक आईटीसी संगीत सम्मेलनों में जाता रहा। देश के महान संगीतकारों को सुनने का मौका मिला। पिचहत्तर में बागेश्री के साथ एक समारोह में गया था, जहाँ पंडित जी ने गाया था। उनकी वाणी में ऐसी गूँज थी जिससे अनुमान लगता था कि अनहद नाद कैसा हो सकता है। उनके सुरों में वह ताकत थी कि अगर आप जुड़ जाएँ तो पता ही न चलेगा कि कब आपकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। चचा उनके जाने से कितने ही दिलों में बैठे सा रे गा मा सुर रो रहे होंगे। किसी महान कलाकार के जाने के बाद वह कला भी रोती है जिसका उस कलाकार ने संवर्धन किया हो। पिचहत्तर से पिचासी तक मैं उन्हें विभिन्न समारोहों में सुनता रहा। मेरे शास्त्रीय-संगीत-प्रेम में उनके गायन का बहुत योगदान है चचा।
—उन्ते बातचीत कौ मौकौ नायं मिलौ का?
—मिला चचा मिला। कई अवसर आए। सन पिचासी-छियासी की बात होगी, मैं पूना के एयरपोर्ट पर दिल्ली की उड़ान की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक पंडित जी सपत्नीक दिखाई दिए। ढीला पायजामा, सफ़ेद कुर्ता, देसी स्टाइल का एक ऐसा थैला, जैसा आमतौर से हवाई यात्री नहीं रखते। एक कोने में बैठे पति-पत्नी धीमी आवाज़ में बेतकल्लुफ़ी से बतिया रहे थे। मैंने सोचा मंच पर तो कभी व्यक्तिगत रूप से मिलने का मौका नहीं मिला, ये अच्छा अवसर है, प्रणाम करके आता हूँ। मैंने जाकर दोनों के पैर छुए और बिना किसी संवाद के अपनी कुर्सी पर लौट आया। उस पावन स्पर्श की मीठी अनुभूतियों का रस आँख मूँद कर ले रहा था कि तभी अपने कंधे पर एक वरदहस्त का कोमल स्पर्श महसूस किया। मेरे सामने आदरणीया खड़ी थीं। बड़े मीठे स्वर में उन्होंने पूछा, आप टीवी पर कविता सुनाते हैं न? मैंने कहा, जी हाँ! कहने लगीं मुझे आपकी बीयर वाली कविता बहुत पसंद आई। कमाल है पंडित जी ने आपको नहीं पहचाना। मैंने कहा, वे महान सुर-साधक हैं, दूरदर्शन के सारे कार्यक्रम देख पाने का समय कहाँ मिल पाता होगा। ख़ैर, वे ले आईं मुझे पंडित जी के पास। स्नेह से बिठाया। चचा, तुम्हारे चंपू की कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ें करने लगीं। पंडित जी बोले, मैंने कभी आपकी कविता नहीं सुनी, पर जिस तरह से ये आपकी प्रशंसा कर रही हैं, और आपसे मिलकर इनके चेहरे पर चमक आई है, उसे देख कर आपका महत्व पता लग रहा है। ये आसानी से प्रशंसा नहीं करती हैं। चचा, मैं अपने रोमांच की हालत बता नहीं सकता। उन्होंने स्नेह से गले लगाया। थोड़ी देर साथ बैठे। आदरणीया ने थैले से निकाल कर पूरनपोली नाम की ललित दाल वाली रोटी वत्सलभाव से खिलाई। मेरे अंदर पंडित जी के प्रिय राग पूरिया और ललित गूंजने लगे। —और कोई खास मुलाक़ात भई?
—होती रहीं चचा, कभी दूरदर्शन में, कभी हवाईअड्डों पर, लेकिन जब भी होती थीं उन्हें पूना एयरपोर्ट की बात याद रहती थी। मैं उनके पैर छूता था, वे अन्तर्मन से प्रसन्न होते थे और कहते थे कि कि मुझे खेद है कि मैंने आपकी कविता आज तक नहीं सुनी पर मैं आपको पसंद करता हूँ। कई बार मन करता था कि अपनी कविता का एक तो नमूना दिखा दूँ, पर मुलाकातें व्यस्तताओं की अस्तताओं में हुईं प्राय:।
—तौ उन्नैं तेरी एक ऊ कबता नायं सुनी?
—सुनीं! दूरदर्शन पर सुनी होंगी शायद, लेकिन पहली बार साक्षात सुनीं, बारह अक्टूबर उन्नीस सौ इक्यानवै को, अयोध्या में। उसके बारे में फिर कभी बताऊंगा. अभी तो उनको विनम्र श्रद्धांजलि!
—भारत का ऐसा कौन सा शास्त्रीय-संगीत-प्रेमी होगा जो दुखी न हुआ हो। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ की घन-गरज वाणी आज छब्बीस जनवरी पर भी गूंजेगी। सबके सुर मिलाने का आवाहन करने वाले गायक को कोई भुला नहीं सकता। शताब्दियां गुज़र जाती हैं तब कहीं ऐसा रत्न भारत को उपलब्ध होता है।
—तेरी कबहुँ उनते मुलाक़ात भई का?
—हाँ चचा, अनेक बार। धुर बचपन में लावनी-नौटंकी के कलाकारों के लोक-संगीत से तो परिचित हुआ था, लेकिन शास्त्रीय संगीत की वर्णमाला मुझे नहीं आती थी। यह श्रेय तो आपकी बहूरानी को जाता है, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय संगीत की रही है। उनके भाई मुकेश गर्ग के साथ दिल्ली में बहत्तर से पिचहत्तर तक आईटीसी संगीत सम्मेलनों में जाता रहा। देश के महान संगीतकारों को सुनने का मौका मिला। पिचहत्तर में बागेश्री के साथ एक समारोह में गया था, जहाँ पंडित जी ने गाया था। उनकी वाणी में ऐसी गूँज थी जिससे अनुमान लगता था कि अनहद नाद कैसा हो सकता है। उनके सुरों में वह ताकत थी कि अगर आप जुड़ जाएँ तो पता ही न चलेगा कि कब आपकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। चचा उनके जाने से कितने ही दिलों में बैठे सा रे गा मा सुर रो रहे होंगे। किसी महान कलाकार के जाने के बाद वह कला भी रोती है जिसका उस कलाकार ने संवर्धन किया हो। पिचहत्तर से पिचासी तक मैं उन्हें विभिन्न समारोहों में सुनता रहा। मेरे शास्त्रीय-संगीत-प्रेम में उनके गायन का बहुत योगदान है चचा।
—उन्ते बातचीत कौ मौकौ नायं मिलौ का?
—मिला चचा मिला। कई अवसर आए। सन पिचासी-छियासी की बात होगी, मैं पूना के एयरपोर्ट पर दिल्ली की उड़ान की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक पंडित जी सपत्नीक दिखाई दिए। ढीला पायजामा, सफ़ेद कुर्ता, देसी स्टाइल का एक ऐसा थैला, जैसा आमतौर से हवाई यात्री नहीं रखते। एक कोने में बैठे पति-पत्नी धीमी आवाज़ में बेतकल्लुफ़ी से बतिया रहे थे। मैंने सोचा मंच पर तो कभी व्यक्तिगत रूप से मिलने का मौका नहीं मिला, ये अच्छा अवसर है, प्रणाम करके आता हूँ। मैंने जाकर दोनों के पैर छुए और बिना किसी संवाद के अपनी कुर्सी पर लौट आया। उस पावन स्पर्श की मीठी अनुभूतियों का रस आँख मूँद कर ले रहा था कि तभी अपने कंधे पर एक वरदहस्त का कोमल स्पर्श महसूस किया। मेरे सामने आदरणीया खड़ी थीं। बड़े मीठे स्वर में उन्होंने पूछा, आप टीवी पर कविता सुनाते हैं न? मैंने कहा, जी हाँ! कहने लगीं मुझे आपकी बीयर वाली कविता बहुत पसंद आई। कमाल है पंडित जी ने आपको नहीं पहचाना। मैंने कहा, वे महान सुर-साधक हैं, दूरदर्शन के सारे कार्यक्रम देख पाने का समय कहाँ मिल पाता होगा। ख़ैर, वे ले आईं मुझे पंडित जी के पास। स्नेह से बिठाया। चचा, तुम्हारे चंपू की कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ें करने लगीं। पंडित जी बोले, मैंने कभी आपकी कविता नहीं सुनी, पर जिस तरह से ये आपकी प्रशंसा कर रही हैं, और आपसे मिलकर इनके चेहरे पर चमक आई है, उसे देख कर आपका महत्व पता लग रहा है। ये आसानी से प्रशंसा नहीं करती हैं। चचा, मैं अपने रोमांच की हालत बता नहीं सकता। उन्होंने स्नेह से गले लगाया। थोड़ी देर साथ बैठे। आदरणीया ने थैले से निकाल कर पूरनपोली नाम की ललित दाल वाली रोटी वत्सलभाव से खिलाई। मेरे अंदर पंडित जी के प्रिय राग पूरिया और ललित गूंजने लगे। —और कोई खास मुलाक़ात भई?
—होती रहीं चचा, कभी दूरदर्शन में, कभी हवाईअड्डों पर, लेकिन जब भी होती थीं उन्हें पूना एयरपोर्ट की बात याद रहती थी। मैं उनके पैर छूता था, वे अन्तर्मन से प्रसन्न होते थे और कहते थे कि कि मुझे खेद है कि मैंने आपकी कविता आज तक नहीं सुनी पर मैं आपको पसंद करता हूँ। कई बार मन करता था कि अपनी कविता का एक तो नमूना दिखा दूँ, पर मुलाकातें व्यस्तताओं की अस्तताओं में हुईं प्राय:।
—तौ उन्नैं तेरी एक ऊ कबता नायं सुनी?
—सुनीं! दूरदर्शन पर सुनी होंगी शायद, लेकिन पहली बार साक्षात सुनीं, बारह अक्टूबर उन्नीस सौ इक्यानवै को, अयोध्या में। उसके बारे में फिर कभी बताऊंगा. अभी तो उनको विनम्र श्रद्धांजलि!