Wednesday, January 05, 2011

वर्धा हुआ आनंदवर्धा

-- चौ रे रे चम्पू! तीन दिनां ते दिखाई नायं दियौ, कहां गायब है गयौ ओ रे?
—वर्धा गया था चचा! वहां के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का नाम आपने सुना होगा। उसके बारे में लोगों की धारणा थी कि वह सिर्फ कागज़ों पर चलता है। यह भी माना जाता रहा है कि उसको चलाने वाले शीर्ष व्यक्तित्व वहां बड़ी मुश्किल से जाते हैं, लेकिन मैंने तो देखा कि वह एक सुंदर आकार लेता हुआ दिव्य स्थान है। साहित्य में एक अलंकार जोड़ने का प्रस्ताव मैं आपके सामने पहले भी रख चुका हूं।
—कौन सौ अलंकार?
—भ्रांतिमान अलंकार! भ्रांति यह कि वह सिर्फ कागज़ी विश्वविद्यालय है, लेकिन यहां तो धरती की सतहों से अंगड़ाइयां लेते हुए सुरुचिपूर्ण स्थापत्य ने प्रकट होकर विश्वविद्यालय का रूप दिखाना शुरू कर दिया है। लगभग दो सौ एकड़ में फैला यह व्यापक परिसर हिन्दी के भविष्य और भविष्य की हिंदी का प्रमुख केंद्र बनने जा रहा है चचा।
—केंद्र कौ केंद्र पुरुस को ऐ रे?
—विभूति नारायण राय हैं। वहां के कुलपति। कुलाधिपति हैं डॉ॰ नामवर सिंह। उन्हीं के निमित्त बने कक्ष में रुका था चचा!
—अच्छा जी!
—वे तो मार्गदर्शन के लिए यदाकदा ही आते हैं, असल काम तो कुलपति का होता है। ....और आप तो जानते हैं कि जो आदमी काम करने लगे उसे विभूति मानने के बजाय उस पर भभूत चढ़ाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। काम करने वाला कभी-कभी ग़लती भी कर जाता है और ग़लतियों से सीख भी लेता है। राही मासूम रज़ा ने कहा था, भले से हारे जो हारे, हमीं तो हार गए, लो आप जीत गए, कचकुलाह कर लीजे।
—जे कचकुलाह का भयौ रे?
—कचकुलाह का मतलब है टोपी टेढ़ी कर लीजिए। पुराने ज़माने में तीतर-मुर्गे लड़ाने वाले लोग ऐसा करते थे। जिसका मुर्गा या तीतर जीत जाता था वह बांकी अदा में अपनी टोपी तिरछी कर लेता था। कर ले भैया, टोपी तिरछी कर ले, पर बरछी तो मत चला। हम अपने काम में लगे हुए हैं। करने दे!
—का काम देखौ तैनैं?
—पंचटीला कहलाती थी ये जगह। अब इसे कहते हैं गांधी हिल। यहां महात्मा गांधी की प्रतिमाओं के चलन को एक नया रूप दिया गया है। गांधी जी तो खड़े ही हैं, लेकिन उनके साथ उनकी बकरी की भी बकरीकद प्रतिमा है। नकली गांधीवादियों ने जिस बकरी को खाद्य-वस्तु बनाया और व्यंग्यकारों ने जिसे विषय-वस्तु बनाया, वह यहां निर्भीक और निरे आनंद में है। चश्मा चश्माकद नहीं है। घड़ी घड़ीकद नहीं है। चप्पल चप्पलकद नहीं हैं। ये तीनों मूर्तियां विराट आकार में बनाई गई हैं। घड़ी की टिकी हुई प्रतिमा में ढाई आखर के प्रेम की टिक-टिक है, क्योंकि वह हर समय ढाई बजाते हुए दिखती है। यह मूर्ति स्थिर रहते हुए भी समय को गतिमयता दे रही है। गति दे रही है चप्पलों की प्रतिमा भी। गांधी-पथ पर गांधी-पाठ और पुनर्पाठ का न्यौता देते हुए। चश्मा अलौकिक है। इस चश्मे में से दिखती हैं वे पहाड़ियां जिन पर अभी इस परिसर का शेष निर्माण-कार्य होना है। इस चश्मे में से दिखती है एक विश्व-दृष्टि जो हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का संकल्प रखती है। इस चश्मे से दिखाई देता है हिन्दी शिक्षा जगत में एक आमूलचूल नई दृष्टि लाने वाला एक बनता हुआ, आकार लेता हुआ, नया कुछ देता हुआ विश्वविद्यालय। हालांकि तेरह साल पुराना है, लेकिन पिछले दो ही साल में साकार हुआ है। अभी तक यह महाप्रभुओं का निराकार ब्रह्म था। अब यहां के साहित्य विद्यापीठ में साहित्य के साथ नाटक और फिल्म अध्ययन विभाग भी प्रकट हो गया है। प्रकट हो गया है, महापंडित राहुल सांकृत्यायन केंद्रीय पुस्तकालय। यहां निर्कुंठ भाव से नए-नए पाठ्यक्रम प्रकट हो रहे हैं। मैं तो चचा प्रसन्न हुआ एक और चीज़ देखकर।
—वो ऊ बताय दै!
—परिसर में प्रविष्ट होते ही हम देखते हैं कि सीमेंट की गऊ माता खड़ी हैं। लगता है गोदान उपन्यास से निकलकर सीधे सड़क के किनारे खड़ी हो गई हैं। उनकी पीठ पर लिखा है, प्रेमचन्द मार्ग। आगे बढ़ो तो मिलता है भारतेन्दु हरिश्चंद्र मार्ग। फिर बने हैं केदार संकुल, शमशेर संकुल और अज्ञेय संकुल। चित्त प्रसन्न हो गया वहां जाके। वर्धा तो आनंदवर्धा हो गया मेरे लिए। अगली बार चलना आप मेरे साथ।
—साथ में सेवाग्राम ऊ दिखाय तौ चलिंगे रे!

9 comments:

डॉ टी एस दराल said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति । एक कवि की नज़रों से उत्कृष्ट विश्लेषण ।

हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा said...

निश्चित ही वर्तमान कुलपति ने अपने दो साल के कार्यकाल में बहुत बड़ा परिवर्तन ला दिया है इस परिसर के रूप-रंग और भाव-भंगिमा में भी। एक तरफ़ सीमेंट और कंक्रीट से बने आकर्षक भवन आकार ले रहे हैं तो दूसरी ओर गोष्ठियों, सेमिनारों, कार्यशालाओं, अभिविन्यास कार्यक्रमों और अनौपचारिक अध्ययन-अध्यापन की निरंतर चल रही गतिविधियों से इस शिक्षामंदिर का असली उद्देश्य भी पूरा हो रहा है। कंप्यूटर की शब्दावली में कहें तो यहाँ हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर दोनो को विकसित करने का प्रयास जोर-शोर से हो रहा है।

एक अन्य गतिविधि जो दूसरे विश्वविद्यालयों में कम दिखायी देती है वह है इंटरनेट का सदुपयोग। पूरा परिसर वाई-फाई कनेक्टिविटी से लैस तो है ही अलग-अलग उद्देश्यों को पूरा करती इसकी तीन वेबसाइट्स और एक सामूहिक ब्लॉग पूरी दुनिया से संवाद करने के लिए भी सक्रिय है।

आपकी वर्धा यात्रा पर ब्लॉग रिपोर्टयहाँ है।

http://hindi-vishwa.blogspot.com/2011/01/blog-post_4436.html

सुनील गज्जाणी said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति । एक कवि की नज़रों से उत्कृष्ट विश्लेषण ,एवं चित्रण किया है ,चित्र भी रुक कर देखने का मन करता है साधुवाद !

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

इस विश्वविद्यालय का दुर्भाग्य यह रहा कि उसे सदा से नॉन-रेसिडेंट चांसलर/वैस चांसलर मिले जो वर्धा में टिके ही नहीं :(

Khare A said...

guru shresth ko sadar pranaam,
sundar vivehna/vishleshna, anand aaya

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

@cmpershad
चंद्रमौलेश्वर जी, अब यह बात पुरानी हो गयी। नयी बात यह है कि कुलपति यहाँ जमकर सपरिवार रहते हैं; और दो-दो राइटर्स इन रेजीडेंस भी यहाँ की शोभा बढ़ा रहे हैं। परिसर जीवंत हो उठा है। एक छटा यहाँ देख सकते हैं।

Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Sumit Pratap Singh said...

Guru ji give me ur blessing! I have started to write in english also. I have made a blog named www.sumitpratapsingh.blogspot.com. You are welcome n requested for giving me your kind suggestions by ur valuable comment...
thanx wid regard

Harshkant tripathi"Pawan" said...

वर्धा विश्वविद्यालय के बारे में पिछले एक डेढ़ सालों में जो कुछ जाना,सुना और सोचा आज वही सब कुछ आपके इस यात्रा वृतांत में भी पढ़ने को मिला. अगली यात्रा से जुड़े अनुभव भी जरुर बताइयेगा. हिंदुस्तान का उत्थान हिन्दी के उत्थान के साथ ही संभव है और इसका एक रास्ता इस विश्वविद्यालय से होकर भी जाता है.