—चचा, कसकों का पूरा बारहमासा है, जनवरी से दिसंबर तक का, और पूरा दिनतीसा है हर महीने का, कहो तो पूरा सुना दूं?
—चल, बारहमासा ई सुना!
—जनवरी की शुरुआत में ही ख़बर मिली कि ऑस्ट्रेलिया में जातीय हिंसा के शिकार हो रहे हैं भारतीय विद्यार्थी, निकल गईं परदेस में कई अर्थी। पढ़ने गए थे, जीवन खो दिया, यहां सारा देश रो दिया। चचा, समृद्ध दुनिया में जवान होती हुई पीढ़ी की तनो-धनो-मनोदशा बहुत खराब है। सस्ती रुचियों और मस्ती के लिए हिंसापरस्ती की राह पकड़ लेते हैं। उन्हें ज़िम्मेदारियों का वैसा अहसास नहीं होता जैसा भारतीय छात्रों को होता है। हमारे विद्यार्थियों के लिए मामला कर्तव्य का होता है न कि उनकी रुचि का। और जनवरी में ही याद होगी आपको रुचिका। राठौर केस वाली! उसके साथ तो अपने देश का प्रौढ़ ही हिंसक हो उठा। न्याय की किरण फूटी थी लेकिन वह किरण भी झूठी थी, क्योंकि देरी से मिला न्याय अन्याय ही होता है।
—हां, राठौर की मूंछन में कोई गिरावट नायं आई।
—जनवरी की ठण्ड, दे नहीं पाई उसे उचित दण्ड। फरवरी में फर फिर से बिखर गए मनुष्यता के। पंख छितर गए, खून में सन गए। याद है पुणे की जर्मन बेकरी! सिल्दा में भी नक्सली हिंसा! मार्च में गूंजता रहा ‘बीटी ब्रिंजल’ का किस्सा। दुखी जयराम रमेश, विरोध ने बढ़ा दिया चित्त को क्लेश। बेंगन निकले बेगुन! मजा नहीं आया। लेकिन जब आई अप्रैल, तो ख़ुश हो गईं झोंपड़ी-खपरैल, क्योंकि कपिल सिब्बल ने शिक्षा के अधिकार की घोषणा कर दी। कहा गया कि गरीब से गरीब आदमी के बच्चों को शिक्षा पाने का अधिकार है और राज्य इसके लिए जिम्मेदार है। अब सवाल ये है कि कपिल सिब्बल दिल्ली में बैठे-बैठे कैसे देश के सात लाख गाँवों की सात करोड़ खपरैलों को अप्रैल की घोषणा का सुख दे पाएंगे।
—सुरुआत तौ भई!
—फिर आई मई। लेकिन हिंसा नहीं गई। उसका केन्द्र बदल गया। नक्सलवादियों और माओवादियों के निशाने पर छत्तीसगढ़ आ गया। छत्तीसगढ़ में लौह खनिज बहुत है चचा, और लहू का रंग भी लाल होता है। पता नहीं ये कैसे कायर लौहपुरुष हैं जो पीछे से घात करके करते हैं निरीह लोगों का सफाया। समझ में नहीं आती हमें इस नक्सलवाद की माया। माया का खेल जून में दिखा गए श्रीमान ललित मोदी! जिन्होंने आईपीएल की सारी प्रतिष्ठा ही खो दी। जून में ही फेंकी गई एंडरसन की तरफ गुगली, उठाते रहे एक दूसरे की ओर उंगली। हमने नहीं उन्होंने भगाया। रहस्य सामने नहीं आया। भोपाल ने चखा अन्याय का स्वाद। अवसाद ही अवसाद। मनुष्यता की इतनी बड़ी त्रासदी को मिली चवन्नी। वो भी खोटी।
—जुलाई में महंगी है गई रोटी। मैंनैं ऊ तुक मिलाय दई रे!
—बिल्कुल सही मिलाई! खूब नाच दिखा गई सुरसा की मम्मी महंगाई। अगस्त में राष्ट्रवाद की लहर आई। मालेगांव में हिंसा लाई। अयोध्या के मामले में हाईकोर्ट ने भावनाओं को रखा हाई। जमीन बराबर-बराबर बांटने की दी गई दुहाई। सबको अच्छी लगी लेकिन बड़ी जल्दी सबने पलटी खाई। सितम्बर में खुल गए मुंह के ताले, क्योंकि सामने आने लगे कॉमनवैल्थ के घोटाले। अक्टूबर की जगर-मगर ने उस अगर-मगर को थोड़ा सा ठण्डा भी किया। लोगों ने दिल्ली की मैट्रो और बहते ट्रैफिक में विकास का मजा भी लिया।—नवम्बर नै का कमाल दिखाए रे?
—नवम्बर महीने ने टूजी घोटाले को टटोला। इसी महीने आया ओबामा का उड़नखटोला। कितनी चालाकियों से भरी है अमरीकी शैली। छिप नहीं पाती हैं भावनाएँ मैली। हमारे बच्चों के सवालों ने सारी चालाकियां बिखरा दीं, भविष्य के लिए आशाएं निखरा दीं। चचा, और अब ये जो दिसम्बर जा रहा है, इसमें भी मजा आ रहा है। बेचारे सुरेश कलमाडी को ब्लैकमेल किया जा रहा है। पता नहीं कौन सी सीडी है जिसके लिए चार करोड़ की तमन्ना का संदेशा आ रहा है! चार करोड़ तो चीनी के दाने के बराबर हैं, जहां चालीस हजार करोड़ के खजाने हुआ करें। तीन दिन और रह गए हैं चचा, चलो नए साल के लिए दुआ करें।
—हां लल्ला, दो हजार ग्यारै, कोई मार नायं मारै! कोसिस पक्की करौ, हर काम नक्की करौ और तान कै तरक्की करौ!