—चचा, कम्प्यूटर तो करे की विद्या है। लगे रहो चम्पू भाई।जो साइट मैंने आपको बताई, वह सीधे ही मिलेगी, गूगल सर्च से नहीं। गूगल सर्च में होगी भी तो पड़ी होगी तीसरे चौथे पेज पर। गूगल सर्च की माया निराली है।
—हमैं ऊ बताय दै, माया की माया।
—सर्च की सर्च करने पर समझ में आती है माया।आंकड़े बताते हैं कि किसी भी नाम या विषय पर कोई खोजक सर्च करे तो वह पहले तीन या चार लिंक्स पर ही जाता है, भले ही सर्च परिणाम आपको बताएं कि इस विषय पर हज़ार पेज और बीस हज़ार लिंक्स हैं। तीन लिंक्स के बाद चौथे लिंक तक खोजक की खुजली मिट चुकी होती है। उसे लगता है कि उसका काम उन्हीं तीन में बन गया। इस तरह शेष और श्रेष्ठ सामग्री से वह वंचित रह जाता है।

—पहली तीन-चार ई सबते अच्छी होती हुंगी!
—यही तो गूगल खोज का खेल है चचा, सबसे अच्छी पिछड़ जाती हैं।ऊपर वही आती हैं जो गूगल को भाती हैं।उसके लिए मुनाफा लाती हैं।
—तेरी बात समझ में नायं आई रे!
—चचा! नुमाइश में दुकानें लगती हैं। वही दुकान ज्यादा कमाती है जिसको मौके की जगह मिले। अगर पिछवाड़े में पड़ गई दुकान तो अच्छा होने के बावजूद बिकेगा नहीं सामान। गूगल की मलाई इसमें है कि वह नुमाइश में प्लॉट देने का ठेकेदार बन गया है। अगर मैं एक वेबसाइट बनाता हूं चाचाचम्पू डॉट कॉमऔर चाचाचम्पू कम्पनी की ओर से मोटी राशि के विज्ञापन गूगल को देता हूं तो सर्च के दौरान पहले तीन लिंक्स में हमारी साइट आ जाएगी अन्यथा बीसवें नम्बर पर चली जाएगी। कर लो आप क्या करोगे।
—फिर पहली तीन चार पै कौनसी साइट आमिंगी रे?
—दुनिया में हज़ारों चम्पू हैं, लाखों करोड़ों चाचा हैं। सबके सब आ जाएंगे। सबसे पहले यू-ट्यूब, जो गूगल की हीलीला है, फिर आएंगी गूगल बुक्स, गूगल म्यूज़िक, गूगल क्रोम की साइट्स, जहां भी चाचा या चम्पू का नाम आया होगा। गूगल बुक्स में हुआ तो किताब बिकने की सम्भावना, गूगल म्यूज़िक में हुआ तो गीत बिकने के चांस। कॉपी राइट की जगह राइट टु कॉपी! चचा, ये पूरा तंत्र एक त्रिभुज की तरह है। आमने-सामने की भुजाओं में एक तरफ ऑथर यानी लेखक, गीतकार, संगीतकारऔरफिल्म निर्देशक दूसरी तरफ पाठक श्रोता दर्शक। जो आधार की भुजा है उसमें प्रकाशक हैं, वितरक हैं, गर्वनमेंट है, संस्थाएं हैं। गूगल जैसी खोज सुविधा देने वाली कम्पनी के आने के बाद आमने-सामने की भुजाओं का तो कोई सम्बंध रहा ही नहीं। ऑथर की रॉयल्टी का अधिकार मार दिया आधार भुजा के बीच के लोगों ने, बीच की संस्थाओं ने, जैसे पीपीएल, आईपीआरएस। ये संस्थाएंबनीं तो इसलिए थीं कि सबके हितों की रक्षा करें, पर अब तक निरीह ऑथर के बजाय प्रकाशकों, म्यूज़िक कम्पनियों और निर्माताओं को ही पोसती रहीं हैं। गूगल ने तीनों भुजाएं तोड़ दीं।
—तौ कोई रखवारौ नाएं ऑथर कौ?

—जैसे वाके दिन फिरे वैसे हर काऊ के फिरें।
—आईपीआरएसने पारदर्शिता से काम किया होता तो विधवा को रॉयल्टी लाखों में मिलती। लेकिन अब जब सब कुछ गूगल पर फोकट में मिलेगा तो चाचाचम्पू डॉट कॉम के दिन नहीं फिरने वाले चचा। आशा की किरण के रूप में सिद्धार्थ आर्य नाम के एक नौजवान ने कॉम्युनिटी फोर गवर्नेंस ऑफ इंटैलैक्चुएल प्रोपर्टी नाम की फोरम बनाई है, सीजीआईपी। देखें ये क्या कर पाती है।