बची हुई है डैमोक्रैसी
डैमोक्रैसी ग्रीक से, निकली सदियों पूर्व,
भारत में यह ठीक से, चलती दिखे अपूर्व।
चलती दिखे अपूर्व, चलाते हैं अपराधी,
जब भी संकट आया, इसकी डोरी साधी।
चक्र सुदर्शन, आम जनों की ऐसी-तैसी,
गर्व करो तुम, बची हुई है डैमोक्रैसी|
बची हुई है डैमोक्रैसी
डैमोक्रैसी ग्रीक से, निकली सदियों पूर्व,
भारत में यह ठीक से, चलती दिखे अपूर्व।
चलती दिखे अपूर्व, चलाते हैं अपराधी,
जब भी संकट आया, इसकी डोरी साधी।
चक्र सुदर्शन, आम जनों की ऐसी-तैसी,
गर्व करो तुम, बची हुई है डैमोक्रैसी|
—चौं रे चम्पू! कल्ल चौं नांय आयौ रे?
—टीवी से चिपक-चिंतन करता रहा। उधर साहित्य में पुरस्कारों की राजनीति हो रही थी और इधर करारों की राजनीति में साहित्य चल रहा था। कल लोकसभा टीवी की टी.आर.पी. सबसे ज़्यादा रही होगी। भूत-प्रेत, अपराध, भविष्य, मनी, सनसनी, सैक्स और सैंसैक्स सबकी छुट्टी हो गई। कोई राजू ते पम्मी ते पिंकी दी गड्डी में बैठ कर आया और दस दस लाख की गड्डियां फेंक गया, बड़ा रस आया राजनीति में।
—तौ फिर रस-बिमर्स है जाय।
—हां रस-विमर्श हो जाय। रस-सिद्धांत की पुनर्व्याख्या अब आवश्यक हो भी हो गई है चचा।आज़ादी के साठ साल बाद राजनीति भी एक रस बन चुकी है। रचनात्मक साहित्य में इस रस की उपेक्षा नहीं हुई पर काव्य-शास्त्र ने इसे अभी तक स्वीकार नहीं किया। नव-रस में से किसी एक को हटा कर 'राज रस' को जोड़ा जाना चाहिए।
—राजनीति तौ सदा ते रही ऐ रे! फिर अब तक 'राज रस' चौ बनौ?
—'राज रस' पहले भी था, लेकिन परिपक्व नहीं हुआ था। प्रारंभ में ये रस शृंगार में समा गया, क्योंकि दूसरों की लुगाइयां उठाने के लिए ही लड़ाइयां होती थीं। फिर बुद्ध को काल में शांत रस में और आदिकाल यह रस वीर रस में समा गया। भक्तिकाल रीतिकाल में भक्ति, वात्सल्य और रति-भाव ने इसे दबा दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान यह रौद्र भयानक और करुण रसों के कारण नहीं पनप सका। आज़ादी मिलने के बाद लगभग तीन दशक तक यह अद्भुत रस जैसा लगता रहा। पिछले तीन दशकों की डैमोक्रैसी में 'राज रस' हास्य रस में घुसा रहा। लेकिन अब इसने सारे रसों से बाहर निकल कर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। शृंगार को कहा जाता रहा है रसराज लेकिन चचा असली रसराज यह 'राज रस' ही है। इसमें सारे रस समा जाते हैं। जिस तरह शृंगार का स्थायी भाव है 'रति', इसी प्रकार 'राज रस' का स्थायी भाव है 'आस'। श्वांस छोड़ देना पर कुर्सी की आस मत छोड़ना।
--रसराज सिंगार के दो भेद हतैं, संयोग और बियोग, 'राज रस' केऊ ऐं का?
--'राज रस' के भी दो भेद होते हैं चचा—'विश्वास राज रस' और 'अविश्वास राज रस'। जिस तरह वियोग में संयोग की अनुभूति होती है और संयोग में वियोग की, इसी प्रकार 'राज रस' के विश्वास में अविश्वास की और अविश्वास में विश्वास की अनुभूतियां चलती रहती हैं। शांडिल्य ने कहा है— 'योगेवियोगवृत्ति: विश्वासे अविश्वास वृत्ति:', वह संयोग सबसे अच्छा है जिसमें वियोग बना रहे। अगली बात उन्होंने संभवत: 'राज रस' के बारे में कही होगी। जिस पर विश्वास करो उस पर अविश्वास बनाए रखो, और जिस पर अविश्वास हो उस पर तात्कालिक विश्वास कर सकते हो। पता नहीं कब अविश्वासी विश्वासी बन जाए और कब विश्वासी अविश्वासी बन जाए। संसद में लाल-हरे-पीले बटन के दबने तक तुम्हारे रस का कौन सा वाला स्थायी भाव चला, दूसरे संशय में रहेंगे। यही इस रस का गुण है कि इस रस का स्थायी भाव स्थायी नहीं होता।
—'राज रस' के आलंबन और उद्दीपन का भए?
—आलंबन नहीं होता 'राज रस' में। इसमें आलंब ना, कोई आलंब ना। उद्दीपन कभी सपा के लिए बसपा कभी बसपा के लिए सपा। माकपा, भाकपा और भाजपा कभी खो-खो कभी पा-पा। उनमें संचारी भाव आते-जाते दिखते रहे। अब इसके जो तेंतीस संचारी भाव हैं उनके नाम गिनाता हूं— 1. अधर्म, 2. अपराध, 3. कल्मष, 4. पाप, 5. पातक, 6. रज, 7. विकार, 8. हरम, 9. पंक, 10. काम, 11. क्रोध, 12. मत्सर, 13. मद, 14. मोह, 15. लोभ, 16. अकार्य, 17. कुकृत्य 18. व्यतिक्रम 19. हवस, 20. इल्लत 21. खोट, 22. व्यसन 23. तामस, 24. भ्रष्टत्व, 25. अमर्ष, 26. ईर्ष्या 27. बदकार, 28. दुरिता, 29. पापिष्ठा 30. करारी , 31. बेकरारी, 32. आइएईए और 33. जाइएईए। सरकार बच गई या जैसी बची वैसी नहीं बची इससे क्या फ़र्क पड़ता है। चुनाव तो होने ही हैं। एक तरफ ब्रह्म है दूसरी तरफ माया है। निर्जीव मतदाता जब तक वोटानुभूति करता रहेगा भरपूर 'राज रस' आता रहेगा।
—चौं रे चम्पू! चेहरा चमकीलौ, चाल में फुर्तीबाजी, का चक्कर ऐ?
―चचा! एक दिव्य प्रवचन दे कर आ रहा हूं।
―कौन सी चैनल पै?
―चैनल पर नहीं चचा, म्युनिस्पैलिटी के नल पर। पानी नहीं आ रहा था। लोग अपने-अपने सब्र का घड़ा लेकर बैठे थे। समय का जल-गुड़ुप-योग चल रहा था। हमने समय का गुडुपयोग यानी गुड उपयोग करने के लिए प्रवचन देना शुरू कर दिया। ऐसी नीली-पनीली बातें कहीं, जैसे— ‘द लाल सलाम’ को बीजेपी ने ‘दलाल सलाम’ कर दिया है। शब्दों को तोड़ो-मरोड़ो या घुमाओ-फिराओ तो चचा बड़ा मज़ा आता है। भले ही दमदार बात न हो पर बात में दम आ जाता है। जैसे तुमने अभी कहा कि फुर्तीबाज़ी की चाल से आ रहा हूं, तुम्हारी इसी बात को मैं घुमा कर कह सकता हूं कि चचा! ये ज़माना फुर्तीबाज़ी की चाल का नहीं है, बल्कि चालबाज़ी में फुर्ती का है। बाईस को रब्बा-ईस नहीं बचाएंगे सरकार, सरक-यारों की फुर्ती बचाएगी। प्रवचन में मैंने इसी तरह की पांच बात बताईं।
—बता, बता! हमैं ऊ बता !
—मैंने कहा— हे जल-प्रतीक्षार्थियो! नभ का नहीं पता पर थल के आगे उ और पु है।
—उ और पु का?
—उथल-पुथल! पहली बात ये सुनो कि केस को क्राइम मत बनाओ, क्राइम पर केस करो। दूसरी बात, भेस को सन्यासी मत बनाओ, सन्यास को भेस करो। तीसरी बात, रेस को जीवन मत बनाओ, जीवन में रेस करो। चौथी बात, ऐश के, यानी राख के महल मत बनाओ, जहां रहते हो उसी महल में ऐश करो। और पांचवीं बात ये कि फ़ेस पर चेंज मत लाओ. चेंज को फ़ेस करो।
―चम्पू उदाहरन दिए कै नांय?।
―उदाहरण दिए चचा! मैंने कहा आरुषि मर्डर को बीहड़ क्राइम बना दिया पुलिस ने, इतनी तरह के बयान, बिना अनुसंधान के अनुमान। केस को ऐसा क्राइम बना डाला ऐसा कि भगवान जी के भी आंसू निकल आए। तलवार को लटकाया नहीं पर तलवार तो लटका ही दी थी। क्राइम पर केस होना चाहिए था जैसा कि सी.बी.आई. ने किया। दूसरी बात, सन्यासियों के भेस में कितने सन्यासी हैं, बताना ज़रा। सन्यासियों को भेस की ज़रूरत नहीं है, सोमनाथ चटर्जी को देख लो। तीसरी बात, आजकल नौजवान रेस को जीवन समझ कर जीवन से हाथ धो बैठते हैं। कल एक युवक एक रियलिटी शो में पानी में बैठ गया। रेस इस बात की कि कौन कितनी देर तक पानी में बैठ सकता है। बेहोश हो गया पानी में। अरे जीवन में जीते हुए रेस करनी पड़ती है मुन्ना। ऐसे थोड़े ही कि रेस के चक्कर में जीवन गंवा बैठो। चौथी बात नेपाल के राजा के लिए है, जहां रहो उसी को महल समझ कर ऐश करना प्यारे। अब लास्ट एण्ड फाइनल बात ये कि फ़ेस को चेंज मत करो, चेंज को फ़ेस करो। माना कि तुमको पच्चीस करोड़ का प्रस्ताव मिला, तुम्हारे चेहरे पर बल पड़ गए कि इतने से रुपयों में क्या छौंक लगेगा? मुद्रा-स्फीति और महंगाई के इस दौर में पच्चीस करोड़ क्या मायने रखते हैं । तो हे सांसद भैया, इस चेंज को फ़ेस करो। थोड़ा बारगेन करो। बारगेन से बार-बार गेन कर सकते हो।
—तौ ये प्रवचन दियौ तुमनै! बंडरफुल!!!
चौं रे चम्पू!
—चौं रे चम्पू! देर
—अटक जाता हूं चचा।
—वाह रे चम्पू! हिन्दी की
—लेकिन चचा!
—चम्पू! जादा कौसल मती दिखा, ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कौ कोई
—चचा! भूमण्डली भट्टीकरण। इससे न केवल अर्थबोध होता है बल्कि चेतावनी भी मिलती है कि हे भूलोक वासियो, भूमण्डल यदि भट्टी बन जाए तो क्या हालत होगी रे तुम्हारी।
—हम्म.... काबुल
—वह तो
—लो कल्लो बात।