--चौं रे चम्पू! जे तेरे हाथ में कागज कैसे ऐं रे? कोई कबता लिख मारी का?
--चचा! इंश्योरैंस के काग़ज़ हैं। कल एक बच्चा मेरी गाड़ी का शीशा फोड़ गया। पार्किंग में खड़ी थी। बड़ी गाड़ी है। शीशा भी कई हज़ार का आएगा। अब ठीक तो करानी पड़ेगी।
--किरकिट खेल रए हुंगे।
--नहीं चचा! मोटा पत्थर मारा। पिछला तो चकनाचूर हुआ, अगला भी दरक गया। दो सौ चौदह वालों का बिगड़ैल बच्चा है।
--तोय कैसै मालुम कै वाई नै तोड़ौ ओ, तेरे सामनै तोड़ौ का?
--प्रैस वाली ने इस शर्त पर बताया कि मैं उसका नाम नहीं लूंगा। बच्चे की मां उसे धमका गई थी, ख़बरदार जो तूने उनको बताया कि हमारे बच्चे ने तोड़ा है। अब मेरी मुसीबत देखिए। अगर मैं इंश्योरैंस वालों को बताता हूं कि खड़ी गाड़ी में बच्चे ने पत्थर मार दिया तो वो पैसे देने से रहे। जानबूझ कर तोड़ा गया शीशा, वो क्लेम क्यों मानेंगे? झूठ बोलना पड़ेगा कि ऐक्सीडेण्ट हुआ। दो सौ चौदह नंबर में जाता हूं तो वे भी क्यों मानेंगे और मान गए तो क्या दे देंगे। धोबन की भी ख़ैर नहीं। उसकी मेज़ फेंक दी जाएगी, टंडीला उखाड़ दिया जाएगा। बड़ा धर्म-संकट है चचा।
--आगै बोल, चुप्प चौं है गयौ? धरम ते ई तौ संकट आंमैं। तोय जे नायं पतौ!
--क्या बात कह दी चचा! मैं भी सोच रहा था कि बच्चे जब गड़बड़ कर देते हैं तो जिस तरह मां-बाप उनकी रक्षा में सामने आ जाते हैं उसी तरह आतंकवादी बन चुके बच्चों की रक्षा में समुदाय के कुछ लोग आ जाते हैं। हमारे बच्चे ऐसा नहीं कर सकते। अरे, मान जाओ भैया कि उसने किया है। तुम्हारे सारे बच्चे ऐसे नहीं हैं। तुम भी ऐसे नहीं हो। कोई एक बच्चा है ख़ुराफ़ाती, तो उसे बचाने की कोशिश मत करो। उसे अगर दंड नहीं मिलेगा तो वह और शीशे तोड़ेगा। पहले मुझे क्लेम मिल जाए चचा, फिर जाऊंगा दो सौ चौदह वालों के पास।
--अब तू अपनी गाड़ी की बातन्नै छोड़, वोई बात बता जो बताय रह्यौ का ओ। वा बात में दम ऐ।
--चचा जामिआ मिल्लिआ एक ऐसी संस्था है जिसका जन्म सन उन्नीस सौ बीस में असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन के दौरान गांधी जी की प्रेरणा से अलीगढ़ में टैंटों में हुआ था। बाद में दिल्ली के करोलबाग़ इलाके में 13, बीडनपुरा की एक पक्की इमारत में आ गई। सन उन्नीस सौ इकत्तीस में ओखला में इसकी संगे-बुनियाद अब्दुल अजीज़ नाम के एक बच्चे के हाथों रखवाई गई। और चचा आपको हैरानी होगी कि आज जो सड़क मथुरा रोड से ओखला और बटला हाउस तक जाती है वह छोटे-छोटे बच्चों के श्रमदान से बनी है।
क्या ही जज़्बा रहा होगा, हमारा मुल्क है, हमारा इदारा है। तालीमी मेला लगता था। हिन्दोस्तान पर प्रोजेक्ट दिए जाते थे। अली बंधुओं की मां इस बात पर गर्व करती थीं कि उनके बेटे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ मुहिम में जेल चले गए। जामिआ में एक ख़िलाफ़त बैंड था, जो अंग्रेज़ों के विरुद्ध तराने गाता-बजाता था। जामिआ का तराना मुहब्बत की बात करता है। जामिआ में जितने भी रहनुमा हुए उन्होंने प्रेम और मुहब्बत का पाठ पढ़ाया और जामिआ के बारे में ये कहा कि पूरे भारत में यह एकमात्र संस्थान है जहां हर मज़हब का आदर करना सिखाया जाता है। इंसान-दोस्ती और वतन-परस्ती सिखाई जाती है। तालीमी आज़ादी, वतन-दोस्ती, क़ौमी यक़जहती, सांस्कृतिक आदान-प्रदान,ज्ञान की विविधता, सादगी और किफ़ायत, समानता, उदारता, धर्मनिरपेक्षता, सहभागिता और प्रयोगधर्मिता यहां के जीवन-मूल्य हैं। वो बच्चे जिन्होंने सड़क बनाई, अब उनमें से कुछ सड़क किनारे बम रखने लगे। मुझे सुबह-सुबह जामिआ के एक उस्ताद मिले। बड़ी शर्मिन्दगी से कहने लगे— लोग हमसे सवाल करते हैं कि क्या आप बच्चों को यही सिखाते हैं। पूछने वालों को क्या जवाब दें? किसी के माथे पर तो कुछ लिखा नहीं होता। लेकिन ये जो नई नस्ल आई है, हिंदू हो या मुसलमान, इसमें कई तरह का कच्चापन है। जामिआ के सभी कुलपतियों ने विश्वविद्यालय के विकास को लगातार गति दी और इस मुकाम तक ला दिया कि इसकी एक अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी। तरह-तरह के सैंटर, नए-नए विभाग, बहुत तरक़्क़ी की जामिआ ने। और अब देखिए। बिगड़ैल बच्चों के कारण मां-बाप को भी शर्मिंदगी का सा सामना करना पड़ रहा है। यह जो अतीफ़ था, जो मारा गया, राजनीति विभाग में ह्यूमन राइट्स में एम.ए. कर रहा था। वो ह्यूमन राइट्स कितना समझ पाया? शायद उसके ज़ेहन में ह्यूमन की परिभाषा कुछ और ही रही होगी। इंसान-दोस्ती सिखाने वाले अध्यापक क्या करें कि बच्चे का कच्चा दिमाग़ इंसान-दुश्मनी तक न पंहुच पाए। जामिआ के उसूलों की कहानी देश के हर मज़हब के बच्चे को फिर से सुनानी चाहिए और उनसे एक ऐसी सड़क बनवानी चाहिए जो देशवासियों के दिलों तक पंहुचे, जिसपर मुहब्बत के सीमेंट की गाढ़ी और मोटी परत चढ़ी हो।
--हां, सनसनी फैलाइबे ते का होयगौ रे!
Wednesday, September 24, 2008
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19 comments:
respected sir
you r great writer and got vision
we just read u r lines
i still remember u r yantra
akale aaya chappan chrui nahi laya
great sir
charan sparsh
aapki kalam par kya comment kru....
great .....
choton ka bhi khayaal kren
unhe bhi ashishsh bachan kahe
bahut khoob. badhiya mara hai.
बात में दर्द है,बात में दम है।
sansani nahi ye to maha sansani hai- bauram ji...
आप ने बहुत बड़ी बात को बहुत ही सही रूप में लिखा है। लोगों को समझ भी आ रहा है।
आप का बहुत आभार।
first time aapke blog par aayi...bahut achha laga, shaandar post....
गुरुवर!
सादर प्रणाम!
अतिउत्तम रचना के लिए बधाई...
This is one of the best perspectives I have read on the entire issue !!!
No wonder you are such a respected person !!!
Thank you for sharing !
pehli baar aapka blog padha. Aaj IP college mein aapki prastuti ne muhje sambhavit kiya hai aur main koshish karungi ki apna bhi ek hindi blog banau.
Antara
guruji ko juicy ka parnaam
sir kya khub likha aapna
zamiya ka itihaas
aap bhi yahan professor the
or ye wo jageh hai jaha ka itihaas jitna kaho kam hai
or guru ka kaam shiksha dena hota hai or uske liye sab samaan hote hai ab ye to student par nirbhar hota hai ki usne kya accha shikha gavaya or kya bura apnaya
ismein guru ki kya galti jaisa
वाह गुरुदेव यही वो मरहम है जो दिल्लीवालों और दिलवालों के लिए ज़रूरी था. अतीक ने जो कुछ भी किया सचमुच उसके लिए तमाम क़ौम को शर्मिंदा होना पड़ रहा है. वास्तव में अपने ही भाइयो को शर्मिंदा करके सबसे ज़्यादा शर्मिंदा तो हम हो रहे हैं. दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन पर चेक्किंग कर रहे सिपाही ने जब चार पाँच लोगो की सतही चेक्किंग की और एक नमाजी टोपी लगाये कुरता पायजामा पहने शख्स की बड़े ध्यान से तलाशी ली तो सच कहूँ मुझे शर्मिंदगी हो रही थी. बस महसूस ही कर सकता था की अगर कल कहीं बजरंग दल, शिव सेना, या विश्व हिंदू परिषद् के किन्ही बच्चो की वजह से हमारे साथ ऐसा हुआ तो कितना बुरा लगेगा. चलिए भगवान् से प्रार्थना करते हैं की हमे इतनी शक्ति दें की हम अपने बच्चो को भटकाव के रास्ते पर जाने से रोक सकें. -अमित माथुर http://vicharokatrafficjam.blogspot.com
sir ji. aaj fir bam phat para hai. mujhe sankeerna mansikta waalon ki manodasha hi samajh nahi aati.
kya hoga is watan ka??
सुनिये साहिबान,
मेहरबान, कदरदान
भारत के नौजवान,
मेरे भाई जान
आतंकियों का कोई
धर्म नहीं होता,
उनमें दया का
कोई मर्म नहीं होता
वो लेना चाहते हैं
सभी की जान
चाहे हिंदू हो
या फ़िर मुसलमान।
गुरुदेव, दिल्लीवालों को इन दहशतगर्दो ने बहुत शर्मिंदा किया है. दुःख की बात तो ये है हम अभी भी शर्मिदा हुए जा रहे हैं. पता नहीं क्यूँ किसी मुसलमान भाई को देखते ही मन करता है की 'राजकुमार का काला चश्मा' हमें मिल जाए तो वो लगा लें. नमाजी टोपी पहन ली तो तमाम सेक्युरिटी वालो की तमाम अट्टेंशन उसी तरफ़ हो जाती है. वैसे भी आजकल रमजान के पाक दिन चल रहे हैं. अल्लाह की पनाह में जाने का बेहतरीन मौका है मगर ये दहशतगर्द हैं की लगातार धमाके पर धमाके किए जा रहे हैं. दिल्ली के अखलाक और प्यार को पता नहीं किस की नज़र लग गई है. आपका मेरे ब्लॉग http://vicharokatrafficjam.blogspot.com पर स्वागत है. एक बार आइये तो सही. -अमित माथुर
sir ur writing is very good.
आप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, इसके लिए साधुवाद। हिन्दुस्तानी एकेडेमी से जुड़कर हिन्दी के उन्नयन में अपना सक्रिय सहयोग करें।
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सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते॥
शारदीय नवरात्र में माँ दुर्गा की कृपा से आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हों। हार्दिक शुभकामना!
(हिन्दुस्तानी एकेडेमी)
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सर जी /बरसों बाद आपके दर्शन कर मैं धन्य हुआ बरसों पहले आप गुना आए थे - तब आपने एक रचना सुनाई थी "" पोल खोलक यंत्र " एक बो जो मिलट्री का आदमी लौटा था उसकी पत्नी वर्फ लेने गई थी वह वापस लौट जाता है और एक और वो पुलिसवाले ने + अरे वाह धारा वहाने पर भी धारा = गवई गाव की अनपढ़ औरत वो उसने अँगुलियों के पोरों से ख़त पढा था ये बात होगी अंदाजन तीस साल पुरानी /आज मेरे भाग्य खुल गए अब तो अभी तक आपने जो लिखा है उसे पढूना=साथ ही नई खुराक भी मिलती रहेगी =एक बात और बतादूँ मैंने आज से ५५ साल पहले दो किताबें ख़रीदी थे "पिल्ला " तथा ""म्याऊँ "" अंदाज़ लगाइए कितना पुराना चाहने वाला हूँ / वैसे कुछ दिनों टी बी पर भी देखा है आपको =अब मैं क्या देखूं आपको या भाग्दढ़ की खबरें /आज ही तो राजस्थान के मन्दिर में दुर्घटना हुई है = एक बात जरूर पूछना चाहूंगा ये फोटो तीस साल पुराना है या आज कल भी आप वैसे ही लगते है जैसे तीस साल पहले दीखते थे
wah .. I am speech less.. Jo baat bade bade patakaar badi mushkil se kah paate hai vo aapne itni aasani se kah di..
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