Wednesday, October 01, 2008

फन न फैलाएं फ़न दिखाएं

--चौं रे चम्पू! साम्प्रदाइकता और आतंकबाद में का अंतर और का संबंध? प्रस्न पै प्रकास डाल।
--ये भी कह दो समय तीन घंटे और अंक सौ। चचा, मुझे सही जवाब देकर ज़्यादा नम्बर नहीं लाने। लेकिन आपके सवाल का जवाब अब मात्र तीन घंटे में नहीं दिया जा सकता। हर आदमी के मन में अलग-अलग रूपों में डर समाया होता है। डर ही डराता है। विषहीन और दंतहीन सांप भी जब सामने कोई ख़तरा देखता है तो फन फैला लेता है कि सामने वाला डर जाएगा।
--अंधेरे में रस्सी ऊ सांप दीखै।
--ये आपने सांप के दूसरी तरफ खड़े जीवधारी, या कहें आदमी का वर्णन किया। सांप डर के मारे आक्रामक मुद्रा बनाता है और जीवधारी अंधकार के कारण रस्सी को सांप समझता है। अंधेरा, रस्सी, सांप, दूसरा जीवधारी, भय और आक्रामकता। पहले लो अंधेरा। अंधेरा कोई महत्व नहीं रखता अगर दिमाग में उजाला हो। हम अंधेरे में भी हालात की नब्ज़ टटोल सकते हैं। लेकिन अँधेरा अगर अविश्वास से पैदा हुए विश्वासों से घिर जाए तो अन्धविश्वास बन जाता है। अन्धविश्वास से पैदा होता है भय। भय भविष्य का, निकट भविष्य का, सन्निकट भविष्य का, सुदूर भविष्य का और दूरातिदूर भविष्य का, यानी नरक का जहन्नुम का हैल का। और ये सारा खेल है मन के मैल का।
--तू तौ बातन्नै उलझावै ऐ रे लल्ला।
--चलो! फिर से समझाता हूं। आदिम युग का आदमी समूह में खुश रहता था। सब मिल-बांट कर खाते थे। आहार की छीना-झपटी के बाद किसी कपटी ने इस चपटी दुनिया को धर्म का विचार लाकर और पिचका दिया। डरो! क़ानून से, जेल से, दण्ड से, ईश्वर से, नरक से लेकिन धरती को स्वर्ग भी बनाया उसी आदमी ने और सबसे बड़ी चीज़ बनाई आदमियत, इंसानियत।
--प्रवचन तौ दै मती, जो बात पूछी काई वो बता।
--चचा, तुम चलती गाड़ी में बहुत ज़ोर का ब्रेक मारते हो। आदमी के समूहों का बनना और समूहों से सम्प्रदाय बनना कोई बुरी बात नहीं थी। सम्प्रदाय से आदमी की पहचान बनती थी। उसका रहन-सहन, उसका तौर-तरीका क्या है, उसकी तालीम, उसके आध्यात्मिक विचार क्या हैं और कैसे हैं। कोई भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं था जो इंसानियत की भावना से लबरेज़ न रहा हो। साम्प्रदायिकता का कारण होता है रस्सी में सांप का भय। दूसरे सम्प्रदायों की रस्सियां भी सांप नज़र आती हैं और ख़ामख़ां वह सम्प्रदाय विष फेंकने और दांत मारने की इच्छा न रखने के बावजूद फन फैला लेता है। किसी सम्प्रदाय का डर कर फन फैला लेना साम्प्रदायिकता बन जाता है। आज स्वर्ग जैसे इस देश में नरक और जहन्नुम का नज़ारा आतंकवाद के कारण हो गया है।
--वोई तौ मैं पूछ रयौ ऊं कै आतंकबाद कहां ते आयौ?
--चचा सुनो तो सही। जब अलग-अलग साम्प्रदायिकताएं आमने-सामने अन्धविश्वासजनित डर के कारण फन फैला लेती हैं तो दोनों तरफ के अण्डों से निकले हुए संपोले समझते हैं कि हमारे मम्मी-डैडी ने फन फैलाए हैं, ज़रूर इन पर कोई संकट है। चलो सामने वाले को काट के आते हैं। अब ये छोटे-छोटे से सांप, इतने छोटे कि घास में भी न दिखाई दें, एक दूसरे की ओर जाते हैं और विष-विस्फोट करके चले आते हैं। सांप हैरान! हमने तो सिर्फ फन फैलाया था। ये विष-विस्फोट कैसे हुआ?


चचा आतंकवाद साम्प्रदायिकता का मानसिक विकलांग बच्चा है। इसलिए होना ये चाहिए कि हर सम्प्रदाय ये सोचे कि क्या फन फैलाने से पहले अकारण उत्पन्न भय को रोका नहीं जा सकता। फन फैलाने की जगह कुछ ऐसा फ़न आना चाहिए आदमी के पास कि वो भय की जगह एक आत्मीयता का संसार रचे। परमाणु करार होने को है। शांति उसका मकसद बताया जा रहा है। ताक़त आदमी को आदमी के निकट लाए उसे आदिम और बर्बर न बनाए। कल गांधी जयंती है चचा, गांधी जी ने सी. एफ. एंड्र्यूज़ को बाईस अगस्त उन्नीस सौ उन्नीस को भेजे गए अपने एक पत्र में लिखा था— ‘पाशविक बल जिसके पास जितना अधिक होता है, वह उतना ही अधिक कायर बन जाता है’। सो चचा आतंकवाद है सबसे बड़ी कायरता और रास्ता वही ठीक है जो गांधी ने दिखाया था। राजघाट पर तो इन दिनों ज़्यादातर पापी लोग फूल चढ़ाते हैं। अपन कल मन के राजघाट पर गांधी को पुनर्जीवित करेंगे।
--कल्ल चौं करै, आजई कल्लै रे।

13 comments:

संजय बेंगाणी said...

चाचा-चम्पू ने सही कही.

Jaidev Jonwal said...

guruji ko parnaam
chand dimago mein ye fitur basta hai ham ham hai baaki koi kuch nahi hai jaha rehna wahan ka hokar nahi rehna jaha khana wahan ka gun nahi gaana jo khud pyar kare wo khahein ke sherdil ye to dar hai khud se agar sabne hamare kilaaf bagawat kar di to hamara harsh kkya hoga
dobhi ka kutta na ghar ka na khaat ka "yehi hai mere pyare atanki bhaiya"

Vinay said...

वाह चक्रधर का चक्र आतंकवाद के ख़िलाफ़ क्या ख़ूब!

Mohinder56 said...

अशोक जी,

किसी भी विषय को आत्मसात कर उस पर बखूबी कलम चलाने के आपके फ़न से ही तो हम आपके फ़ैन हैं..
हास्य में एक गंभीर चिंतन की झलक.. आभार

Suneel R. Karmele said...

वाह वाह अशोक जी, आपके इसी शैली के लोग दीवाने हैं, आपके प्रस्‍तुतीकरण का तरीका ही नि‍राला है, दीखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर

आभार

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने बात को सही अंदाज में लोगों तक पहुँचाया है।

Sumit Pratap Singh said...

हे ब्लॉगर बाबा,
सादर ब्लॉगस्ते,
आपकी चचा-चम्पू की जोड़ी संग आप और हम सभी ब्लॉगर आज मन के राजघाट पर गांधी को पुनर्जीवित करेंगे।

अमित माथुर said...

गुरुदेव को प्रणाम, मुझे लगता है की उपभोक्तावाद का आज का दौर साम्प्रदायिकता के अंधेरे को मिटा सकता है और अगर एक बार अँधेरा मिट गया तो सभी संप्रदाय सांप-रस्सी के डर से मुक्त हो जायेंगे. आज त्यौहार का दिन है "उपभोक्तावादी मानसिकता" को इस से कोई मतलब नहीं है की त्यौहार किस संप्रदाय से सम्बंधित है. हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो, इसाई हो या कोई और धर्म या संप्रदाय बाज़ार को सिर्फ़ अपना समान और सेवाए बेचने से मतलब है. ईद के दिन मुसलमान परिवार ईद की नमाज़ के बाद पारिवारिक समारोहों में अपने रिश्तेदारो के साथ बाज़ार में किसी अच्छे रेस्तरां में खाना खाते हैं और घूमते फिरते हैं. यही बाकी सम्प्रदायों और त्योहारों में भी होता है. आज वैश्वीकरण की देखा देखि बाज़ार भी ब्रांड कोंशेस हो गए हैं. ये मैं मानता हूँ की मुसलमानों को अभी उपभोक्तावादी मानसिकता ने अपनी गिरफ्त में नहीं लिया है और इसकी वजह शायद ये है मुसलमान कौम के पास बाज़ार को देने के लिए पैसे कम हैं. मगर पैसेवाले मुस्लिम परिवारों ने बाजारों की रौनक को बढ़ाना शुरू कर दिया है. मेरी दुआ है की आने वाला वक्त चाहे उपभोक्तावादी को मगर वो साम्प्रदायिकता के अंधेरे को मिटा दे. एक ऐसा वक्त आए जब खुशिया मज़हब की मुहताज न रहे. आपके आमीन कहने का शुक्रिया.

अमित माथुर said...

प्रणाम गुरुदेव, मानस की मनःस्थिति को आपसे अधिक समझ पाऊं ऐसा ना तो मेरा सोचना है और ना ही सपना. इसलिए आप ही बताइए ये कलर्स टीवी पर आ रहे 'बिग बॉस २' के बारे में आप क्या सोचते हैं? मैं आपसे सतही तौर पर ये नहीं जानना चाहता की कौन जीतेगा? क्यूंकि मैंने कहीं पढ़ा है की गुणीजनों से प्रश्न पूछने की और भगवान् से वरदान मांगे की अपनी एक कला है. कृष्ण से प्रश्न पूछेंगे तो आपका अर्जुन होना और ब्रह्म से वरदान मांगेंगे तो कुम्भकरण ना होना अनिवार्य है. इसलिए मेरा आपसे प्रश्न ये है की आख़िर बिग बॉस के पीछे की मानसिकता क्या है? इतने सारे सितारे (इस बार तो अपराधी) एक साथ एक घर में तीन महीनो के लिए, सितारे क्यूँ हैं इसका कारण तो स्पष्ट है, मगर दर्शक क्यूँ देख रहे हैं? और देख रहे हैं तो वोट क्यूँ कर रहे हैं? आपसे निवेदन है की इस पर प्रकाश डालिए. -अमित माथुर, Email: saiamit@in.com

शैली said...

लो मैं भी आ गई आपके ब्लॉग पर।

cartoonist ABHISHEK said...

आदरणीय अशोक जी अभिवादन
आतंकवाद अब धंधा हो गया है.
पढ़े-लिखे लोग भी अब इसमें कूद रहे हें,
स्वाभाविक है तगड़ा पैकेज मिल रहा होगा..
करना क्या है... आदमी ही तो मारना है
वो भी आम आदमी....
आम आदमी तो होता ही है बे मौत मरने के लिए. धर्म के नाम पर किसी
बम से बचेगा तो किसी मन्दिर की चौखट पर कुचल कर मरेगा..
या सड़क पर भारी वाहन से दब कर मरेगा..या किसी अस्पताल में
मलेरिया-डेंगू से इलाज के आभाव में मर जाएगा.......

hitesh jain said...

kavi mashay ko is naye reader ka pranam.cho saab e chacha kaha ko he, moye to aiso lage saab e ya to kaman ko he ya deeg,kumher ya bharatpur ko he.kyunki aise sawali pandit yahi mile hate.cho saab

dr v k pande said...

adarneeya chacha chakradhar ji,
Aise TO mai tha accidental visitor,LEKIN AAP KI CHAUPAL se uth ker jane ka asanyam nahi kar pa raha hoon. jaise guru vaise chela, yahan to sab mast mast par sabhya sabhya hain.Rasta dikhaye rahiye hum sab sath-sath hain...adhikter likhane ke kanjoos...kintu adhisankhya aap ke kaayal . kaheen kaheen to lagta hai kaka hathrasi gadya par utar ayen hain.