इस चक्रधर के मस्तिष्क के ब्रह्म-लोक में एक हैं बौड़म जी। माफ करिए, बौड़म जी भी एक नहीं हैं, अनेक रूप हैं उनके। सब मिलकर चकल्लस करते हैं। कभी जीवन-जगत की समीक्षाई हो जाती है तो कभी कविताई हो जाती है। जीवंत चकल्लस, घर के बेलन से लेकर विश्व हिन्दी सम्मेलन तक, किसी के जीवन-मरण से लेकर उसके संस्मरण तक, कुछ न कुछ मिलेगा। कभी-कभी कुछ विदुषी नारियां अनाड़ी चक्रधर से सवाल करती हैं, उनके जवाब भी इस चकल्लस में मिल सकते हैं। यह चकल्लस आपको रस देगी, चाहें तो आप भी इसमें कूद पड़िए। लवस्कार!
8 comments:
waah waah
sabse jaldi pachne wali cheese ke to kya kahne...........iska to koi jawab hi nhi.
यदि जूते भी पचनीय हो जायें तो अगला हथियार पत्थर ही बचता है! चित्र बहुत शानदार है, कविता के साथ ऐसे फिट हो रहा है जैसे तेंदुलकर के साथ सेहवाग!
mast mahol! thnx pra ji! o ji tussi great ho!!
चकल्लस में
चप्पलों से भेद भाव
और खड़ाऊं
आऊं आऊं ।
ग़लत बात अशोक जी! जल्दी नहीं पचता पत्रकार का जूता. अपच कर जाता है, अकसर.
bahut hee khubsurati se baate rakhate hai..........aapka koee jabaab pure desh me nahi hai.............
hamesha ki tarah lajawab!
देश क्या संध्या जी
विदेश में भी नहीं है
न किसी और ग्रह
अथवा तारे में
क्या कहें चक्रधर के
चक्कर के बारे में।
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