—चौं रे चम्पू!! राजतंत्र और जनतंत्र कौ कोई एक मुख्य अंतर बता?
—चचा, राजतंत्र में किसी निर्णय को लागू कराने में एक दिन क्या, एक मिनट नहीं लगता, लेकिन जनतंत्र में किसी योजना को अमल में लाने के लिए सौ दिन भी कम पड़ते हैं।
—तेरे दिमाग में नई सरकार के सौ दिन के एजेण्डा की बात ऐ का?
—बिल्कुल वही है। ये सरकार कुछ कर गुज़रना चाहती है, लेकिन ऐसे लोग, जो गुज़र गए और कुछ कर न पाए, उनके पेट में मरोड़ है। नए प्रस्ताव उन्हें दिशाहीन, अतार्किक और अव्यावहारिक लगते हैं। उन्हें तो विरोध के लिए विरोध करना है बस। यशपाल जैसे अनुभवी और वरिष्ठ शिक्षा-शास्त्री ने हर स्तर की शिक्षा के लिए वर्षों के अनुसंधान के बाद कुछ सिफ़ारिशें की हैं। जाने माने शिक्षा-शास्त्री कृष्ण कुमार समर्थन कर रहे हैं और मानव-संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने ऐलान कर दिया कि नई शिक्षा नीति सौ दिन के अन्दर लागू हो जाएगी।
विरोधी तो विरोधी, कुछ अंतरंग भी हो गए क्रोधी।
—तौ मुद्दा का ऐ?
—तुम्हें मालूम तो है चचा! किशोर बच्चों पर और उनके अभिभावकों पर परीक्षा का भारी तनाव रहता है। बहुत सोच-समझ कर ये फैसला लिया जा रहा है कि दसवीं के बोर्ड की परीक्षा से बच्चों को मुक्त किया जाए। स्थानीय शिक्षक ही उनके काम का मूल्यांकन करें। वो फिल्म देखी थी चचा, ‘तारे ज़मीं पर’। क्या शानदार सन्देश था उसका। हर बच्चे में कोई चमक होती है। समय रहते अगर उस पर आपकी निगाह न जाए तो चमक फीकी पड़ने लगती है। मुक्तिबोध ने कहा था— ‘मिट्टी के ढेले में भी होते हैं किरणीले कण’।
अगर उन दीप्तिमान कणों की पहचान न हो पाए तो ढेला या तो उपेक्षित रह जाता है या बुलडोज़र के नीचे आ जाता है। हमारी शिक्षा-प्रणाली कई बार अंकुरित होती प्रतिभाओं पर बुलडोज़र फिरा देती है। दसवीं कक्षा तक स्कूल का शिक्षक बच्चों का आदर्श होता है क्योंकि बच्चों से उसका सीधा और आत्मीय संबंध होता है। वह हर बच्चे के अलग-अलग किरणीले कणों को पहचानता है इसलिए उन्हें आगे की राह सुझा सकता है। चचा, मैं इस बात से सहमत हूं कि दसवीं की परीक्षा को बोर्ड की परीक्षा न बनाया जाए। बच्चा परिपक्व होकर प्रतियोगिता में निकले और अपनी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार अपना भविष्य चुने। चचा, हमारा अतीत होता है आचार-विचार-पत्र, वर्तमान समाचार-पत्र, भविष्य प्रश्न-पत्र और हमारी ज़िंदगी है उत्तर-पुस्तिका। उत्तर-पुस्तिका पर लिखते समय इतना तो बोध हो जाए कि भविष्य के प्रश्न-पत्र को कैसे हल करना है। एक किशोर पर आप अपने निर्णय नहीं लाद सकते। बारहवीं का बोर्ड एकदम ठीक है और मैं इस बात से भी सहमत हूं कि खूब सारे विकल्पों की सुविधा देते हुए कुछ अनिवार्य विषयों के साथ, पूरे देश में एक पाठ्यक्रम और एक बोर्ड होना चाहिए। प्रांतीयतावाद और क्षेत्रीयतावाद को समाप्त करने का इससे बढ़िया कोई तरीका नहीं है।
—तौ बिरोध का बात कौ?
—विरोधी भिन्नता की दुहाई देते हैं। चचा, दसवीं ग्याहरवीं में सिखाई जाती थी जटिल-भिन्न, आजकल के बच्चे जिसे कहते हैं कॉम्प्लेक्स ईक्वेशन।
देश भर के सारे बच्चे इन्हें सरल करना सीखते हैं। हमारा देश भी किसी जटिल-भिन्न से कम नहीं है। भिन्नताएं हैं, विभिन्नताएं हैं लेकिन अगर वे अभिन्न होने की दिशा में नहीं बढ़ेंगी तो भुनभुनाती रहेंगी, परिणामत: जीवन की उत्तर-पुस्तिका पर संकीर्ण सोच की ज़हरीली मक्खियां भिनभिनाने लगेंगी। माना कि असम और केरल की संस्कृति भिन्न हैं लेकिन देश की आस्था और राष्ट्रीय मानकीकृत जीवन-मूल्यों का स्वर तो एक है। हमारे राष्ट्रीय आईकॉन तो एक हैं। केरल का युवा असम जाए तो चिंतन की, व्यवहार की, और भविष्य के लक्ष्य की एक समता तो महसूस करे। एक चीज़ और है जिस पर मैं बल देना चाहता हूं और इसमें कोई राजनैतिक रोड़ा नहीं अटकना चाहिए। वह है हिन्दी भाषा। हम सब आज अपने इस आज़ाद देश की हवा और हंसी के हकदार हैं, हमें याद रखना चाहिए कि आज़ादी दिलाने में हिन्दी ने पूरे देश को एक धागे में पिरोने का काम किया था। पूरे देश के लिए जो एक पाठ्यक्रम बने उसमें राज्य की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार वैकल्पिक विषय ज़रूर हों, लेकिन हिन्दी हो अनिवार्य।
—तू चौं झगड़िबे के इंतजाम कर रयौ ऐ?
—सारे झगड़े मिट जाएंगे चचा! मैं तो जनाब कपिल सिब्बल से कहता हूं कि वक्त गुज़र जाएगा, सौ दिन बहुत होते हैं, इंटरनेट के ज़रिए राज्यों से तत्काल सहमति-असहमति पर विचार करो और कर गुज़रो।
Wednesday, July 15, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
14 comments:
चक्रधर साहब, बिल्कुल सही कहा आपने।
चक्रधर जी आप इन्तज़ार कहे को करे हो तो यही लेख मेल कर दो न सि्ब्बलजी को मगर वो इतनी आसान भाषा कैसे समझेंगे----बहुत खूब आभार
ये १०० दिन इस देश को ले न डूबे, १०० दिन पहले ही दाल कि कीमत 54 से 85 हो गयी और क्या क्या बताएं पट्रोल बताये कि डीजल बताये, आलू बताएं कि प्याज बताये . टमाटर बताये कि गाजर बताएं, अरे अब तो तेल ने भी तेल निकाला, अब दिया वोट है तो उनको गलत कैसे ठहराएँ, अरे देश के कर्णधार पहले आम जनता कि समानता से पेट कि आग बुझायें, तब जाके पढाई कि घुट्टी पिलायें, क्योंकि 'भूखे भजन न होहियें गोपाला'
रत्नेश त्रिपाठी
चक्रधर जी जब तक हम अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा पारदर्शिता से नहीं कहेंगे बदलाव नहीं होगा .
जब तक यह मूलाधार नहीं तय होगा कि अध्ययन किस लिए और क्यों ये बहस चलती रहेगी और हम शिक्षित बेरोजगारों की अनावश्यक फौज खड़ी करते रहेंगे
Sir ji you r Right.But the important thing is that your's feelling should be reach to minister of our's country.
चौं जी एक चीज बताऔ .
आप हर सवाल बिचारे चम्पू तेई चौं पूछतौ !
चक्रधर जी आपने बिलकुल सही कहा है : "आज़ादी दिलाने में हिन्दी ने पूरे देश को एक धागे में पिरोने का काम किया था। पूरे देश के लिए जो एक पाठ्यक्रम बने उसमें राज्य की सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुसार वैकल्पिक विषय ज़रूर हों, लेकिन हिन्दी हो अनिवार्य।"
लेकिन क्या आपको लगता है की कांग्रेस पार्टी दिल से हिंदी अनिवार्य करना चाहती है ? मुझे तो ऐशा नहीं लगता | नेहरु जी तो खुले आम बोल गए की " हिन्दी तब तक पुरे देश के कम-काज की भाषा नहीं बन सकती जब तक की हिन्दी के विरोधी वाले हिन्दी को काम-काज की भाषा ना बनायें " |
phir भी इश्वर से प्रार्थना करता हूँ की इनको सदबुद्धी दे और हिंदी को अनिवार्य भाषा बनायें |
बरोबर बात ।
विषय से थोड़ी हट के टिप्पणी....मातृभाषा शिक्षा की सर्वोत्त्म माध्यम है, मगर शिक्षित इस बात को समझे तब ना....
बहुत ही बेहतरीन ।
आप मुझे नहीं जानते पर् मैं आपको जानती हूँ ।कर गुजरना हरेक के बस की बात नहीं।कहना सरल है पर करना मुश्किल ।
आप मुझे नहीं जानते पर् मैं आपको जानती हूँ ।कर गुजरना हरेक के बस की बात नहीं।कहना सरल है पर करना मुश्किल ।
aap
Post a Comment