—चौं रे चम्पू! कपरा-लत्ता की महत्ता का ऐ?
—चचा इंसान नंगा ही आया था, नंगा ही जाएगा। कपड़ा इंसान के दिल और दिमाग की बातचीत के बाद आंखों के कारण अस्तित्व में आया होगा। जब दिल ने चाहा होगा कि दूसरे शरीर को यहां-वहां देखा जाए, दिमाग ने कहा होगा मत देख या एकटक देखता ही रह, तब दूसरे शरीर ने भी देखा होगा कि यह कहां-कहां देखना चाहता है। आंखों की लुकाछिपी कुंठाएं पैदा करने लगीं तो लताओं ने पत्ते के रूप में लत्ते प्रदान कर दिए, बुद्धि ने तन ढकना शुरू कर दिया। कपड़ा सभ्यता बन गया।
—तौ सारौ दोस आंखिन कौ ऐ? आंख तौ पसु-पच्छीन के पास ऊ हतैं!
—उनके दिमाग में कुंठाएं नहीं हैं न! वे अकुंठ हैं, इसलिए अवगुंठन की ज़रूरत नहीं पड़ी। आपकी बहूरानी ने एक मुक्तक लिखा है— ’किस तरफ कितनी हैं राहें, सब उसे मालूम है। किसके मन में कैसी चाहें, सब उसे मालूम है। भीड़ में बैठी है गुमसुम, नज़र नीचे हैं मगर, उसपे हैं कितनी निगाहें, सब उसे मालूम है।’ वस्त्र संस्कृति की महायात्रा में सदी दर सदी, नदी दर नदी बहते हुए हमारे पास आए हैं। हमने उन्हें समय के घाट पर धोया है। वस्त्रों ने घाट-घाट का पानी पिया है। गांधी जी सूट-बूट और पगड़ी में रहा करते थे, लेकिन एक अर्धवसना स्त्री को देखकर संकल्प किया कि अर्धवसन रहेंगे। ताउम्र संकल्प निभाया। चचा, उस महिला की तो मजबूरी थी, पर इस नवधनाढ्य संस्कृति में किसने मजबूर किया है कि कम कपड़े पहनें। चलिए, मज़ेदार लतीफे सुनाता हूं आपको।
—सुना, लतीफा जरूर सुना।
—एक आयकर अधिकारी जब किसी फिल्मी तारिका की इन्कम टैक्स रिटर्न देख रहा था तो अचानक हंसने लगा। उसके सहायक ने पूछा, क्यों हंसते हैं सर? अधिकारी बोला कि कपड़े तो पहनती नहीं है और लाउण्ड्री का खर्चा दस लाख का दिखाया है। दूसरा सुनो, एक धोबी ने हीरोइन के वस्त्र प्रेस करने से मना कर दिया। प्रोड्यूसर ने पूछा, क्यों, क्या तकलीफ है तुझे? धोबी बोला— जी कम से कम इतना बड़ा तो हो कि पकड़ में आए, पूरा कपड़ा तो प्रेस के नीचे दब जाता है, कहां से पकड़ूं इसे।
—मजाक मत कर चम्पू। मैंने तौ गंभीर बात करी।
—सबसे ज्यादा गंभीर बात खलील जिब्रान ने कह दी। उन्होंने कहा कि वस्त्र हमारे शरीर के असुन्दर को नहीं, सुन्दर को ढक लेते हैं। असुन्दर हो जाता है चेहरा, जिस पर आते-जाते भाव हमारे अंतर्लोक को उजागर कर देते हैं। घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थ, सुख-दुख चेहरा बता देता है, आंखें बता देती हैं। मेरा नाम जोकर में अपने आंसू छिपाने के लिए राजकपूर ने काला चश्मा लगाया था। लेकिन चचा, नंगापन और नंगपना दो अलग-अलग चीजें हैं। कपड़ों से नंगापन ढक सकता है, नंगई नहीं। मुक्तिबोध की दो पंक्तियां मुझे रह-रह कर अनेक प्रसंगों में याद आती रहती हैं चचा— मैंने उन्हें नंगा देख लिया, इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी। आजकल लोग हमाम के बाहर भी नंगे हैं और आपने अगर उनको देख लिया तो कसूरवार आप ही ठहराए जाएंगे। थरूर का गुरूर हो या मोदी की गोदी। आई.पी.एल. मायने इंडियन पैसा लीग। हर कोई कपड़ों के बावजूद नंगा है, ऐसा लफड़ा है। अखबार हर दिन कितने लोगों को नंगा करते हैं, गंगा फिर भी बह रही है। कपड़े धोने के लिए नहीं, उनके मैल काटने के लिए। बेचारी खुद मैली हो जाती है। मैली गंगा में क्या मैल साफ होगा? आश्चर्य होता है किसी के घर डेढ़ टन सोना निकल रहा है, किसी के पास डेढ़ सौ ग्राम गेहूं नहीं है। किसी का वार्डरोब हजार साड़ियों हजार सूटों से भरा है, किसी के पास एक कपड़ा ही नहीं है। वह किस वार्ड में जाकर अपना रौब दिखाए! एक शायर ने कहा है— वादा लपेट तनपे लंगोटी नहीं तो क्या? विषमताएं हैं, समाज में बहुत विषमताएं हैं।
—तू बात कूं फैलावै भौत ऐ चम्पू! बात हौनी चइयै सारगर्भित और छोटी, जैसै कै हमाई बगीची के पहलवान की लंगोटी।
Wednesday, May 05, 2010
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11 comments:
Pranam Chacha.
Ab to bhukam aane lage hain. ab wo din door nahi . ijjat dar wahi log honge jo nage ghuma karenge.
किसी के घर डेढ किलो सोना किसी के यहा डेढ किलो गेहूँ नही ..,,.,.
मजेदार ।
नंगापन और नंगपना --वाह अशोक जी , क्या प्रसंग छेड़ा है।
आजकल सब जगह यही दो चीज़ें नज़र आ रही हैं।
कैसी विडम्बना है कि --
जो फटे कपडे , विलेजर्स का तन ढकने का एकमात्र साधन है ,
वही शहर के टीनेजर्स का लेटेस्ट फैशन है।
अब नंगा कौन और नंग कौन , ये तो समझ ही सकते हैं।
sone or genhu me achi tulna
bich me insan
hakikat ki dharti par
प्रणाम..आप की रचना पढना ही ,सौभाग्य है...पढ-पढ के बडे हुए है...
पता ही नहीं लगता कि आपका गद्य पढ़ रहे हैं या आप कविता पढ़वा रहे हैं. टू इन वन के मज़े रहते हैं. सादर.
'एक बोतल बीयर' और छोटी सी उम्र ,आपको सुना था पहली बार जब १७ का था , बहुत खूब महाशय आज भी वही ताज़गी ...
आपनें तो नंगों को और नंगा कर दिया,
लत्ते तो उतारे ही मन चंगा कर दिया ।
बेशर्मो का नंगपना क्या दूर होगा कभी,
तन का क्या है, लोग तो मन ढके बैठे है अभी ।
इसीलिए तो कहा गया है कि
एक ढूढों तो हजार मिलते हैं भई ।
अरविन्द पारीक
http://bhaijikahin.jagranjunction.com
किसी के घर डेढ़ टन सोना निकल रहा है, किसी के पास डेढ़ सौ ग्राम गेहूं नहीं है। किसी का वार्डरोब हजार साड़ियों हजार सूटों से भरा है, किसी के पास एक कपड़ा ही नहीं है। बहुत ही अच्छा कटाक्ष किया हॆ आपने, आप का लतीफा पढकर मजा आ गया..
प्रणाम.
श्रधेय प्रणाम
"अखबार हर दिन कितने लोगों को नंगा करते हैं, गंगा फिर भी बह रही है। कपड़े धोने के लिए नहीं, उनके मैल काटने के लिए। बेचारी खुद मैली हो जाती है। मैली गंगा में क्या मैल साफ होगा?"
फिर एक ऐसा सवाल जिसके लिए जवाब भी जवाब ढूढ़ रहें हैं ......क्या कहूं कुछ कहा नहीं नहीं जाता आपको पढ़कर या सुनकर ..बस मुह की त्रिज्या या व्यास के सहारे क्षेत्रफल को मापने की असफल कोशिश रह जाती है ...........
या यूँ कहें की अल्फाज़ खुद अल्फाज़ ढूढ़ते हैं
कुछ पक्तियां आप पर कहीं गयी थी कभी mere dwara उन्ही में से एक दो जो आज मैं आपके श्री चरणों को अर्पित करता हूँ...
तुम हर विधान के वक्ता हो तुम हर विधान के ज्ञाता हो
वो उस युग के निर्माता थे, तुम इस युग के निर्माता हो
हे हिंदी युग के संचालक, तुम से हर दिन मंगलमय हो
जयजयवंती के जयकुमार तेरी जय हो तेरी जय हो
बस सच तुमको ही भाता है, तुम सच के ही पक्षधर हो
वह द्वापर के चक्रधर थे, तुम कलियुग के चक्रधर हो
अब इतने रूप तुम्हरे हैं, कि क्या क्या दूं मैं नाम तुम्हे
हे हिंदी युग के युग पुरुष, है कोटि कोटि प्रणाम तुम्हे
प्रणाम
नंगा नहये क्या और निचोडे क्या और जो नंगे नहीं वह नंगपने से समृद्ध हैं ... वाह क्या बात कही है .. चुटीला धारपार सत्य
बहुत दिनो बाद मैं पुन: ब्लोग से जुद पाया हूँ अनुपस्तिथि के लिये क्षमा
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