Wednesday, July 07, 2010

इर्द-गिर्द की गर्द

—चौं रे चम्पू! सिडनी में सिरफ रंगल-मंगल ई कर रह्यौ ऐ कै कोई कबता-फबता ऊ लिखी ऐ?
—चचा, यहां सपने में ग़ज़ल हो रही हैं। जब एक-दो शेर हो जाते हैं तब याद आता है कि अरे ये तो सपना है, कहीं सुबह तक भूल न जाऊं, मुझे उठकर काग़ज़-कलम लेने चाहिए। उठकर कागज-कलम लाता हूं और लिखने लगता हूं। ग़ज़ल पूरी हो जाती है। खुश होता हूं। अपने अशार पर मुग्ध होता हूं। अब किसे सुनाऊं? किसे जगाऊं? बिस्तर से उठकर डैक्स्टर के पास जाता हूं….
—जे कौन ऐ?
—डैक्स्टर! सबरीना का एक बड़ा प्यारा सा टॉय पूडुल कुत्ता है चचा। उसे दो दिन के लिए कहीं जाना था सो हमारे यहां छोड़ गई। तो मैं डैक्स्टर महाशय के सामने अपना हासिले-गज़ल शेर गुनगुनाता हूं। फुसफुसाते हुए सुनाता हूं, ताकि कोई जग न जाय। डैक्स्टर एक बेहद समझदार कुत्ता है, पर मेरी ग़ज़ल वह बेचारा क्या समझता, कूं-कूं करके अपने बिस्तर में सो जाता है। फिर मैं भी काग़ज़-कलम तकिए के नीचे रखकर सो जाता हूं। सुबह जब उठता हूं तो देखता हूं कि डैक्स्टर मियां अपने झबरीले बालों में छिपी आंखों से मुझे इस आशा में निहार रहे हैं कि मैं उन्हें प्रात:कर्म के लिए बाहर घुमाने ले जाऊंगा। ले जाऊंगा भैया, ले जाऊंगा! तसल्ली रख! ज़रा अपनी ग़ज़ल तो देख लूं। तकिया हटाता हूं, पर वहां से कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। वहां कुछ नहीं है। यानी सब कुछ सपना था, सपने में उठना सपना था, ग़ज़ल सपना थी। सचाई के रूप में रह गए तकिया, बिस्तर, मैं और डैक्स्टर!
—एक ऊ सेर याद नायं रह्यौ का?
—याद था चचा, एक शेर थोड़ी देर तक याद था, लेकिन दिन की चकाचौंध से घबरा कर दिमाग के गलियारों में जाकर कहीं छिप गया। चचा, दिल-दिमाग में रहेगा तो किसी न किसी रूप में, कभी न कभी निकलेगा ज़रूर। उसके लिए फिर से सपना देखना पड़ेगा, लेकिन दिन में। सपना देखे बिना कविता नहीं आती।
—तुम कबियन की बात निराली। आगे बोल!
—दिन में जब हम सपनीले होते हैं तो भावनाओं से गीले और पनीले होते हैं और दिमाग की सवारी पर शब्दों के पीछे सरपट दौड़ लगाने लगते हैं। आखेट करते हैं शब्दों का, लेकिन चचा, रचना तब दमदार बनती है जब शब्द तुम्हारे पीछे भागें। शब्द तुमसे कहें कि हम तुम्हारे हैं। तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं। हमें रख लो, अपने दिल में, अपने दिमाग में। और कहीं जगह नहीं है तो कुर्ते की जेब में ही रख लो। बटुए में रख लो। घर जाकर निकालना दिल-मन की अलग-अलग जेबों से और सहेज कर सजा देना एक काग़ज़ पर। हम तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराते रहेंगे अगर तुम अपने इर्द-गिर्द पर गहरी निगाह रखोगे।
—इर्द-गिर्द पै निगाह रखि कै का देखौ फिर तैंनैं?
—चचा, यहां व्यवहार का खुलापन देखकर अच्छा लगता है। अजनबियों से भी मुस्कान का आदान-प्रदान करते हुए हालचाल का पूछना, यह एक ऐसी संस्कृति है जो पूरी धरती पर होनी चाहिए। धरा के हर जीवधारी में अपने आप होती है। अपना कोई स्वजातीय मिल जाए तो सब कितने प्रसन्न होते हैं। मैं डैक्स्टर को सिडनी पार्क में घुमाने ले गया तो बड़ा मजा आया। वहां देखा कि कितनी ही जातियों और प्रजातियों के कुत्ते अपने मालिकों के साथ उस पार्क में आए हुए थे। आश्चर्य कि कुत्ते एक-दूसरे को देखकर भौंक नहीं रहे थे। हमारे ब्लॉक की गली में तो अगर दूसरे ब्लॉक का कुत्ता आ जाए फाड़ खाने को दौड़ते हैं। वहां के कुत्तों पर भी वहां के इर्द-गिर्द की गर्द का प्रभाव पड़ चुका है और यहां आदमी ने अपने इर्द-गिर्द के गर्दविहीन स्वभाव को कुत्तों में स्थानांतरित किया है। क्यों भौंकते हो बिना बात? कहा— बैठ जाओ, तो बैठ जाते हैं। उन्हें मनुष्य और मनुष्यता के साथ रहने की एक ट्रेनिंग दी जाती है। उनकी अपने स्वजातीयों के साथ सोशलाइजिंग कराई जाती है ताकि वे दूसरों पर बेवजह आक्रामक न हों। यहां वे एक-दूसरे के आनंद में खलल डाले बिना खेलते-कूदते हैं।
—तेरौ डस्टर खेलौ?
—डस्टर नहीं चचा डैक्स्टर! मैं भी दूसरे श्वान-पालकों के समान एक बॉल लेकर गया था। बहुतों के पास बॉल होती हैं। बॉल दूर फेंकी जाती है, कुत्ता उसके पीछे भागता है, उठाकर मालिक को लाकर देता है। मजाल क्या कि कोई कुत्ता किसी दूसरे की बॉल छीने। ट्रेनिंग ही ऐसी है।
—यहां तौ गैंद में बम बनाइबे की टिरेनिंग दई जाय लल्ला। वहां तोय इर्द-गिर्द की गर्द नायं दिखी का?

7 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

भोत बढिया रही

राम राम

डॉ टी एस दराल said...

मुझे तो कुत्ता एक सदाचारी प्राणी लगता है ।
बढ़िया चल रहा है , ऑस्ट्रेलिया भ्रमण ।
शुभकामनायें ।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

यह इर्द गिर्द की गर्द ही तो आपको लिखने का मसाला देती है। आप उस मसाले से तड़का अच्छा लगाते हैं। छौंक की सुगन्ध दूर-दूर तक फैल जाती है।

ZEAL said...

उन्हें मनुष्य और मनुष्यता के साथ रहने की एक ट्रेनिंग दी जाती है। उनकी अपने स्वजातीयों के साथ सोशलाइजिंग कराई जाती है ताकि वे दूसरों पर बेवजह आक्रामक न हों। यहां वे एक-दूसरे के आनंद में खलल डाले बिना खेलते-कूदते हैं।...

Wonderful post !

अरुणेश मिश्र said...

आनन्ददायक ।

Aditya Tikku said...
This comment has been removed by the author.
Aditya Tikku said...

Namskar,

aap ki lekhni pe tipadi kar saku asi na shamta hai na icha.

Per aap ko nhi lagta - Aap ki lekhni mai samajik chintan va sandesh khote ja rhe hai.Bharti se Indian hote jarhe hai.