—चौं रे चम्पू, जापान में तौ गज़ब है गयौ रे, का नई खबर ऐ?
—खबरें तो अच्छी नहीं हैं चचा! नुकसान का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। छब्बीस दिसंबर दो हज़ार चार को हम भी अपने देश के दक्षिण में सुनामी का कहर झेल चुके हैं। जापान में तो दोहरी मार पड़ी। वहां भयंकर भूकंप के साथ सर्वनाशी सुनामी भी आ गई।—सुनामी कायकी ऐ रे, पूरी कुनामी ऐ!—कुलक्षणी कुनामी ही है चचा। उन्नीस सौ सैंतालीस के हिरोशिमा-नागासाकी विध्वंस से ज़्यादा बड़ा संकट आया है जापान में। नाभिकीय रिएक्टरों पर ख़तरा अभी भी मंडरा रहा है। लाखों लोग गायब हैं। अरबों खरबों की सम्पदा कबाड़खाने में बदल गई है। धरती की धुरी इतनी खिसक गई कि जीपीआरएस के नेवीगेशन सॉफ्टवेयर गलत परिणाम दिखा रहे हैं। दुनिया भर में मौसम में क्या बदलाव आएँगे राम जाने। विनाश की तस्वीरें अविश्वसनीय लगती हैं। मुझे तो इसी नौ अप्रेल को जापान जाना था चचा। हो सकता है चला भी जाऊँ, राहत की कुछ कविताएँ सुना कर आऊँ।
—कबता सुनिबे की फुरसत कौनके पास होयगी रे!
—जाऊँगा तो कुछ तो करूँगा, मलवा उठवाने में ही मदद करूँगा। चचा, दो हज़ार चार में तेरह दिसंबर को मैं अपने पूरे परिवार के साथ दक्षिण की यात्रा पर गया था। महाबलीपुरम के जिस रिज़ॉर्ट में ठहरे थे उसका नामोनिशान नहीं बचा। तेरह दिन बाद गए होते तो सबकी तेरहवीं हो चुकी होती।
—उल्टी-सीदी बात मती कर। ढंग की बात कर!
—ढंग की बात तो ये है चचा कि जापानी नागरिक बड़े हौसले वाले होते हैं। बहुत जल्दी अपने देश को फिर से खड़ा करके दिखा देंगे। पूरी दुनिया उनके साथ है। वह अमरीका भी साथ है, जिसने बम बरसाए थे।
—तैनै कोई कबता लिखी का?
—एक लिखी थी, तभी दो हज़ार चार में, आज याद आ रही है।
—सुना!
—बहुत पहले, बहुत पहले! बहुत पहले से भी बहुत पहले!! इस असीम अपार अंतरिक्ष में, घूमती विचरती हमारी धरती! बड़े-बड़े ग्रह-नक्षत्रों के लिए एक नन्हा सा चिराग थी, जिसके चारों ओर आग ही आग थी। बहुत पहले, बहुत पहले! बहुत पहले से भी बहुत पहले!! जब प्रकृति की सर्वोत्तम कृति, मनुष्य का कोई हत्यारा नहीं था, तब समंदर का पानी भी खारा नहीं था। बहुत पहले, बहुत पहले! बहुत पहले से भी बहुत पहले!! जब बिना किसी पोथी के इंसान एक दूसरे की आंखों में प्यार के ढाई आखर बाँचता था तो समंदर अपनी उत्ताल लय ताल में नाचता था। लहर लहर बूंद बूंद उछलता था तट पर बैठे प्रेमियों के पैर छूने को मचलता था। अचानक किसी सुमात्रा में बेहद कुमात्रा में तलहटी कांपी, तो जाने कौन सी कुलक्षिणी कुनामी, पर कहने को सुनामी लहरों ने लंबी दूरी नापी। वो लहरें झोंपड़ियों मकानों बस्तियों को ढहा कर ले गईं, प्यारे-प्यारे इंसानों को बहा कर ले गईं। बहुत पहले बहुत पहले दिल दहले बहुत दहले। जिन्होंने भी अपने-अपने आत्मीय खोए, वे ख़ूब-ख़ूब रोए। झोंपड़ी के आंसू बहे, बस्ती के आंसू बहे, शहरों के आंसू बहे, मुल्कों के आंसू बहे। इतने सारे मानो रुके हुए हों सदियों से आंसू, पानी भरो तो मिलें नदियों से आंसू। और जैसे ही व्याकुल सिरफिरा पीड़ा का पहला आंसू, समंदर में गिरा, समंदर सारा का सारा, पलभर में हो गया खारा। बहुत पहले, बहुत पहले! बहुत पहले से भी बहुत पहले!! सारा का सारा, समंदर हो गया खारा। लेकिन ज़िंदगी नहीं हारी, न तो हुई खारी, बनी रही ज्यों कि त्यों, प्यारी की प्यारी, क्योंकि हर गीली आंख के कंधे पर, राहत की चाहत का हाथ था, इंसान का इंसानियत से, जन्म-जन्मान्तर का साथ था। फिर से चूल्हे सुलगे, और गर्म अंगीठी हो गईं, मुहब्बत की नदियां फिर से मीठी हो गईं। फिर से महके तंदूर, फिर से गूंजे और चहके संतूर, फिर से रचे गए उमंगों के गीत, फिर से गूंजा जीवन-संगीत। शापग्रस्त पापग्रस्त समंदर भले ही रहा खारे का खारा, लेकिन उसने भी देखा हौसला हमारा। मरने नहीं देंगे किसी को हम फिर से आ रहे हैं, तेरी छाती पर सवारी करने। इस बार ज़्यादा मज़बूत है, हमारी नौका। छोड़ेंगे नहीं जीने का एक भी मौका।
9 comments:
आँसू भी खारा।
एक आंसू से सारा समुन्द्र खारा ...बहुत भावभीनी प्रस्तुति
इस बार ज़्यादा मज़बूत है, हमारी नौका। छोड़ेंगे नहीं जीने का एक भी मौका।
अद्भुद !
bahut sudnar Guru ji
wah.bemisaal....
बहुत सुन्दर , सार्थक और उत्साहवर्धक कविता लिखकर आपने अपने काव्य धर्म का पालन बहुत खूबसूरती से किया है । इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं ।
कभी प्रकृति भी अपना क्रूर चेहरा दिखा ही देती है :(
bahut sundar. ek aansun mera bhi jod lijiye. Soch loonga thodi himmat aur badegi mere japani bhai behnon ki.
Bahut khoob...
bahut hi inspiring poem hai..
Great work
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