Thursday, May 27, 2010

मरने से पहले करने का मौका

—चौं रे चम्पू! मंगलौर गयौ ओ कै बंगलौर?
—बंगलौर गया था चचा, लेकिन मेरी फ्लाइट से पहले जब मंगलौर वाली फ्लाइट की घोषणा हुई तो निगाह बोर्डिंग गेट की ओर गई। सोच रहा था कि उस छोटे रनवे वाले हवाई-अड्डे से कुछ दिन तक तो यात्री शायद घबराएंगे, लेकिन गेट पर बड़ी लंबी लाइन थी चचा। बड़ी से बड़ी दुर्घटनाएं हो जाती हैं और हम भारतवासी अपनी जीवन की धारा में बहुत जल्दी लौट आते हैं। हां, एक कमाल हुआ चचा। इंडियन एयरलाइंस की दिल्ली बंगलौर की फ्लाइट आठ सौ तीन में जो परिचारक महोदय थे, देवेन्द्र भारद्वाज, मुझे पहचान गए। उन्होंने कहा, याद है बीस साल पहले की वह घटना, जब दो सौ सीरीज़ के बोइंग सेवेन थ्री सेवेन जहाज के पहिए नहीं खुले थे, मैं भी था आपके साथ। आप सबसे पिछली सीट पर बैठे थे। चचा, सचमुच, अभी दस मिनिट पहले मैं उस घटना को याद कर रहा था।
—का भयौ ओ?
—कलकत्ता, तब कलकत्ता को कोलकाता नहीं कहते थे। अंग्रेज़ीदां लोग कैलकटा कहते थे। हमारा जहाज कैलकटा से सीधे दिल्ली नहीं आ रहा था, गैल-कटा था। लखनऊ में रुका। वहां कुछ यात्री उतरे, कुछ सवार हुए। मैं खिड़की वाली सीट पर था। आकाश से धरती को देखना बड़ा अच्छा लगता था। कल्पनाओं में खोया रहता था। कालिदास पता नहीं कैसे धरती के टॉप एंगिल दृश्यों का इतना अद्भुत वर्णन कर पाए! मेघदूतम् और रघुवंशम् में देखिए।
—आगे की बात बता!
—वो ज़माना दूरदर्शन के एकाधिकार का था, इसलिए हिन्दीभाषी लोग मुझे खूब पहचानते थे। लेकिन, मेरी बगल में जो सज्जन आकर बैठे, उन्होंने मेरी मुस्कान का भी उत्तर नहीं दिया। मैंने सोचा टीवी न देखते होंगे।
—फिर वोई बात, दुर्घटना की चौं नायं बतावै?
—दुर्घटनाएं पलांश में हो जाती हैं। इस पल आप हैं और अगले पल नहीं हैं। झटके में मौत आ जाए तो ख़ास कष्ट नहीं होता, लेकिन अगर आपको पता हो कि कुछ देर बाद लगभग निश्चित है कि आप नहीं रहेंगे, ऐसी स्थिति विकट होती है। घोषणा हो चुकी थी कि विमान दिल्ली में उतरने वाला है, उतरने भी लगा, हवाई-पट्टी दिखाई देने लगी थी, लेकिन जहाज उतरा नहीं, हवाई-पट्टी तक जाकर अचानक ऊपर उठ गया। जानकारी में आया कि उसके पहिए नहीं खुल पाए थे। सब स्तब्ध। जहाज में हलचल मच गई।
—फिर का भयौ?
—पैंतालीस मिनट तक हवाई जहाज आकाश में उड़ता रहा। अपना ईंधन समाप्त करने के लिए, ताकि आपातकालीन लैंडिंग के समय जहाज में आग न लग जाए। फ्लाइट पर्सर देवेन्द्र जी ने बताया कि पायलट थे कैप्टेन विर्क और कंट्रोल टावर ने उनसे कह दिया गया था कि अपनी रिस्क पर ही वे लैंड करें। वे सोचते रहे कि किसी खेत में उतारें कि रेत में और यात्रियों के चेहरों से दहशत कैसे उतारें। लखनऊ से बैठे हुए सज्जन अचानक मुझसे लिपटकर रोने लगे— ‘कवि जी! मेरे पांच बच्चे हैं, एक पैट्रोल पम्प है, मैं मर गया तो सब बरबाद!’ मुझे उन कष्ट की घड़ियों में भी आंतरिक हंसी आई। अब जब मौत सिर पर आ गई है तब पहचान रहे हैं श्रीमान जी! ख़ैर, वे मेरे बड़े काम आए। अपने आप को डर से बचाने के लिए मैं उन्हें आध्यात्मिक प्रवचन देने लगा। देवेन्द्र जी ने ही बताया कि जब अधिकांश लोग रो रहे थे तब आपने खड़े होकर ज़िन्दगी से जुड़ी हुई एक कविता सुनाई थी, जो आपने वहां के हालात पर वहीं बनाई थी। मुझे तो चचा बिल्कुल याद नहीं, पर उस दिन आकाश से धरती बड़ी प्यारी लग रही थी।
—एअर हौस्टैस ऊ रोय रईं का?
—नहीं चचा बिलकुल नहीं। सब निर्भीक होकर प्रबंधों में लगी थीं। फर्स्ट एड बॉक्स, पैराशूट, एग्ज़िट गेट… सारे इंतज़ाम यात्रियों के सामने ही किए जा रहे थे। एक बात देवेन्द्र जी ने बहुत बढ़िया कही, वे बोले— ‘कुछ करने का मौका तो तभी होता है सर जी, जब मालूम हो कि मरना है, इसलिए मरने से पहले कर जाओ जो करना है।’ पैंतालीस मिनट तक जीवन-मृत्यु का संघर्ष कराते-कराते, अंतत: पहिये खुलने पर जहाज उतर गया। सबने तालियां बजाईं। कोई भी आदमी, कहीं भी शिकायत करने नहीं गया। कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई, न ये खबर किसी अख़बार में आई।
—अख़बार में तौ तब आती, जब कछू है जातौ।

Tuesday, May 18, 2010

ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो दंडित होय

—चौं रे चम्पू! ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय कै दंडित होय?
—चचा जवाब तुम्हारे पास है और सवाल मुझसे पूछते हो। पंडित कैसे हो जाएगा? पंडितों ने तो गोत्र, जाति, धर्म वाले सारे रगड़े फैलाए हुए हैं। वे कहां समझते हैं प्रेम-प्यार की भाषा, वे लाते हैं रार-तकरार की भाषा। अगर कहीं प्यार कर बैठे आप, तो खप से खा जाएगी खाप। उनका कहा मान लो चुपचाप, वरना बन जाओगे मसान की भाप।
—पहलै पाबन्दी बस्स दो-तीन गोत्रन की रहती।
—फिर पांच गोत्रों तक हो गई। सामाजिक समर्थों और आर्थिक रूप से शक्तिशाली लोगों ने पच्चीस गोत्रों तक मामला पहुंचा दिया। जो गोत्र समर्थ हैं, जिसके ज्यादा लोग हैं उन्हीं की खाप पंचायत में वकत होती है। उन्हीं का दबदबा होता है। ढाई आखर तो दब-दबा के रहते हैं। पंचायत में तो पंचाक्षर— ’ख़बरदार’! कितने प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, मानसिक कुंठाएं हैं चचा आप कल्पनाएं नहीं कर सकते। यही पंचायत के लोग चुपचाप दलित बस्तियों में मुंह मारते दिखाई दे सकते हैं। ये देह के धर्म को ढाई आखर से नहीं नापते। ये नापते हैं, सात फिट की लाठी के बल से। बाहुबली भुजाएं और भोग। उनके लिए ढाई आखर तो है एक रोग।
—तलवार दुधारी, कट्टा और कटारी!
—पहले प्यार करने वाले कहा करते थे— मार कटारी मर जाना, मगर हाय दिल न लगाना। ठीक कहा चचा, अब खुद कटारी मारने की जरूरत नहीं है, दूसरे ही कटारी मारने के लिए आ जाएंगे। मीरा बाईं कह गईं थीं— जो मैं ऐसा जाणंती, प्रीत किए दुख होय, नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न करियो कोय। मीरा बाईं तो बहुत पहले समझ गई थीं कि ये कानून को न मानने वाली पंचायतें प्रेमियों पर कुठाराघात करेंगी।
—अरे लल्ला, अगर प्यार में अड़ंगा न लगै तो संसार की आधी ते जादा कहानी तौ खतम है जांगी।
—लेकिन चचा कहानी इतनी दुखांत भी नहीं होनी चाहिए। प्रेम अभी परवान भी नहीं चढ़ा कि आपने उनको फांसी चढ़ा दिया। दिल जुड़ जाते हैं तो कई बार कुटुम्ब टूट जाते हैं, लेकिन फिर कुटुम्ब पिघल भी जाते हैं और प्रेम की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं। यह कहानी तो समझ में आती है, लेकिन मामला अगर गठबंधन के बजाए मूंछ ऐंठन का हो जाए और पंडित फेरे दिलाने से इंकार कर दे तो ढाई आखर क्या करेगा भला। ढाई घर चलने वाले घोड़ों पर सवार होकर पंच आ जाते हैं। शतरंज शत-रंज बन जाती है, जब मौत अपनी बिसात बिछाती है। ढाई घर की चाल चलने वाले घोड़े प्यार के ढाई आखर को कुचल देते हैं। आपने वो दोहा सुना होगा— दृग उरझत, टूटत कुटुम्ब, जुरत चतुर-चित प्रीत, परत गांठ दुर्जन हिए, दई नई यह रीत।
—सुनौ तौ ऐ, पर मतलब समझा।
—चचा जो चीज़ उलझती वही टूटती है, जो टूटती है वही जुड़ती है, और जो चीज जुड़ती है उसी में गांठ पड़ती है। यहां सारा मामला गड़बड़ है। उलझे तो दृग, टूट गए कुटुम्ब, जुड़ गए चतुर चित, गांठ पड़ गई दुर्जनों के हृदय में। अब ये बिहारी के जमाने में नई रीत रही होगी। तब से अब तक पुरानी पड़ चुकी है, लेकिन खत्म होने का नाम नहीं ले रही। दुर्जनों की गांठें कैसे खुलें चचा, सवाल ये है।
—सरकार चौं नाय कछू करै?
—अरे चचा सरकार में भी तो वही लोग होते हैं। जिस प्रांत में ऐसा सब हो उसके अधिकारी भी तो वहीं से निकल कर आते हैं, वे भी उसी समाज के हिस्से होते हैं, उनका दिमाग भी वही समाज बनाता है, वो कोई संविधान पढ़कर बैठते हैं वहां पर। वे कानून की किताबों के अनुसार समाज को थोड़े ही चलाते हैं। जब तक भयंकर हाहाकार और मारकाट न हो जाए, पुलिस भी एफआईआर नहीं लिखती है। पुलिस के जवान भी खाप पंचायत के चौधरियों की मूंछ के नीचे पले हुए बच्चे ही होते हैं। मूंछों के साए में पलने के बाद उनकी मूंछें कोई अलग किस्म की नहीं होती हैं। ठीक कहा आपने— ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो दंडित होय।
—चल मेरौ अगलौ सवाल सोचि कै रख कै महिमामंडित कब दंडित हुंगे?

Thursday, May 13, 2010

बीरबल हुए बलबीर रहमोकरम पर रहीम

—चौं रे चम्पू! आज बिना कलफ बिना प्रेस कौ कुर्ता पहरौ ऐ! का चक्कर ऐ? कपड़न समैत ई तेरी घर में धुलाई है गई का?
—चचा घर में मेरी धुलाई तो प्रेस के कपड़ों में भी हो जाती है। हुआ ये कि कल रात एक कविसम्मेलन में गया था। वहां इतना पानी बरसा कि सारा कलफ़ निकल गया। फिर कुर्ता बदला ही नहीं।
—तौ का खुले में औ कविसम्मेलन?
—हां चचा! मौसम बरसात का नहीं है, पर अचानक बारिश आ गई। पन्द्रह कवि थे। हल्की-हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। लग रहा था जैसे इस गर्मी के मौसम में आसमान गुलाब जल छिड़क रहा हो। श्रोता भी कई हज़ार थे। हल्की फुहारों में पहले दो कवियों ने सुदीर्घ काव्य-पाठ किया। मैंने देखा कि बिजली की कड़क मामूली नहीं थी। आभास होने लगा यह बिजली कविसम्मेलन पर भी गिर सकती है। संचालक से मैंने कहा कि सब कवियों से अनुरोध करो थोड़ा-थोड़ा ही सुनाएं, ताकि पहले चक्र में सबको अपनी एक कविता सुनाने का अवसर मिल जाए। बारिश न आई तो एक दूसरा दौर किया जा सकता है।
—पहलै तौ चार-चार दौर होते!
—अचानक बरसात तेज हुई। श्रोताओं में भगदड़ मची। अब संचालक को लगा कि अगर सारे कवियों ने काव्य-पाठ न किया तो आयोजक कवियों को लिफाफा न देंगे। सब कवियों से कहा गया कि अपनी चार-चार पंक्तियां सुना दें। भागती-दौड़ती भीड़ के बीच में दो कवियों ने एक-एक मुक्तक सुनाकर दो मिनट में काव्य-पाठ समाप्त कर दिया। इस दो मिनट में श्रोता रह गए चौथाई से भी कम। लेकिन बारिश थमी। जैसे थोड़ी देर के लिए धमकी देने आई हो। अगले कवि ने देखा कि श्रोता लौट रहे हैं। उन्हें भ्रम हुआ कि यह उनकी कविता की ताकत है जो श्रोताओं को वापस ला रही है। आधा घंटा ले गए। संचालक के इशारे काम न आए। मेरे ख्याल से बारिश भी नाराज हो गई — एक बार धमकाया था हे कवियो! मेरी धमकी का तुम पर कोई असर न हुआ। तो जी, घन-गरज के साथ छींटे पड़े। कविताएं हो रही थीं। श्रोता पानी के साथ-साथ कविताओं में भी भीग रहे थे। माइक पर खड़ी कवयित्री ने कहा कि यह मेरा अंतिम मुक्तक है। इस पर ज़्यादा तालियां बज गईं। वे इन तालियों का अर्थ न समझ पाईं। लीजिए दो मुक्तक और सुना रही हूं। चलते-चलते बोलीं— इधर एक ताजा गीत लिखा है उसे सुनाए बिना तो मैं बैठने वाली नहीं हूं।
—कबियन में बड़ी पढ़ास होय करै।
—संचालक माइक से इशारे करे। ऐसे में कविगण संचालक की ओर देखते ही नहीं हैं। बहरहाल रिम-झिम में श्रोता बैठे रहे। फिर जी एक आए भूतपूर्व कवि और वर्तमान लाफ्टर चैलेंज के ख्यातिनाम व्यक्ति। उन्होंने उस रिम-झिम में पौना घंटा खींच दिया। लतीफों की झड़ी लगा दी। सड़े-गले चुटकुले झेलते रहे श्रोता। हंसते भी रहे। लतीफेबाज़ का अभिनय भी काम में आ रहा था। अचानक…
—का भयौ अचानक?
—एक बहुत अच्छी बात हुई। श्रोताओं में से दो-तीन लोग आगे आए। उन्होंने चीखकर उस लाफ्टर चैंलेंज वाले कवि से कहा— बैठ जाइए। हम लतीफे सुनने नहीं आए। कविताएं सुननी हैं। अभी जो कवि बचे हैं, उनकी कविताओं के लिए लोग रुके हुए हैं। बन्द करिए लतीफेबाज़ी। उस हास्य कलाकार ने हास्य-मिश्रित क्रोध में उन लोगों की ओर इशारा करते हुए जनता से कहा हटाओ इन्हें। कौन आ गए प्रोग्राम बिगाड़ने? उसने समझा कि सारी भीड़ उसका साथ देगी। चचा मुझे प्रसन्नता इस बात की हुई कि जनता ने उसका साथ नहीं दिया। लाफ्टर वाले को आफ्टर ऑल बैठना पड़ा। उसके बाद अपनी भी बारी आई।
—तैंने का सुनाई?
—रिम-झिम जारी थी। कविता सुनाईं सो सुनाईं पर मैंने इतना कहा कि कविसम्मेलनों की जो परंपरा हमारे कस्बों और नगरों में है— लोग सचमुच कविता सुनने आते हैं। सम्पूर्ण भोजन की थाली चाहते हैं। सिर्फ चटनी, अचार, मुरब्बे के लिए नहीं आते। अकबर के दरबार में बीरबल भी थे और रहीम भी थे। दोनों मौलिक थे। अब मंच पर मौलिकता तो मुश्किल से दिखती है। ऐसा न हो कि बीरबल व्यर्थ ही बलबीर होने की कोशिश करें और रहीम इनके रहमोकरम पर रह जाएं। कविसम्मेलनों में कविता को बचाइए।
—तेरी बात सुनी लोगन नै।
—सुनी! चचा वहां तो तालियों की बरसात हो गई।

Wednesday, May 05, 2010

नंगापन और नंगपना

—चौं रे चम्पू! कपरा-लत्ता की महत्ता का ऐ?
—चचा इंसान नंगा ही आया था, नंगा ही जाएगा। कपड़ा इंसान के दिल और दिमाग की बातचीत के बाद आंखों के कारण अस्तित्व में आया होगा। जब दिल ने चाहा होगा कि दूसरे शरीर को यहां-वहां देखा जाए, दिमाग ने कहा होगा मत देख या एकटक देखता ही रह, तब दूसरे शरीर ने भी देखा होगा कि यह कहां-कहां देखना चाहता है। आंखों की लुकाछिपी कुंठाएं पैदा करने लगीं तो लताओं ने पत्ते के रूप में लत्ते प्रदान कर दिए, बुद्धि ने तन ढकना शुरू कर दिया। कपड़ा सभ्यता बन गया।
—तौ सारौ दोस आंखिन कौ ऐ? आंख तौ पसु-पच्छीन के पास ऊ हतैं!
—उनके दिमाग में कुंठाएं नहीं हैं न! वे अकुंठ हैं, इसलिए अवगुंठन की ज़रूरत नहीं पड़ी। आपकी बहूरानी ने एक मुक्तक लिखा है— ’किस तरफ कितनी हैं राहें, सब उसे मालूम है। किसके मन में कैसी चाहें, सब उसे मालूम है। भीड़ में बैठी है गुमसुम, नज़र नीचे हैं मगर, उसपे हैं कितनी निगाहें, सब उसे मालूम है।’ वस्त्र संस्कृति की महायात्रा में सदी दर सदी, नदी दर नदी बहते हुए हमारे पास आए हैं। हमने उन्हें समय के घाट पर धोया है। वस्त्रों ने घाट-घाट का पानी पिया है। गांधी जी सूट-बूट और पगड़ी में रहा करते थे, लेकिन एक अर्धवसना स्त्री को देखकर संकल्प किया कि अर्धवसन रहेंगे। ताउम्र संकल्प निभाया। चचा, उस महिला की तो मजबूरी थी, पर इस नवधनाढ्य संस्कृति में किसने मजबूर किया है कि कम कपड़े पहनें। चलिए, मज़ेदार लतीफे सुनाता हूं आपको।
—सुना, लतीफा जरूर सुना।
—एक आयकर अधिकारी जब किसी फिल्मी तारिका की इन्कम टैक्स रिटर्न देख रहा था तो अचानक हंसने लगा। उसके सहायक ने पूछा, क्यों हंसते हैं सर? अधिकारी बोला कि कपड़े तो पहनती नहीं है और लाउण्ड्री का खर्चा दस लाख का दिखाया है। दूसरा सुनो, एक धोबी ने हीरोइन के वस्त्र प्रेस करने से मना कर दिया। प्रोड्यूसर ने पूछा, क्यों, क्या तकलीफ है तुझे? धोबी बोला— जी कम से कम इतना बड़ा तो हो कि पकड़ में आए, पूरा कपड़ा तो प्रेस के नीचे दब जाता है, कहां से पकड़ूं इसे।
—मजाक मत कर चम्पू। मैंने तौ गंभीर बात करी।
—सबसे ज्यादा गंभीर बात खलील जिब्रान ने कह दी। उन्होंने कहा कि वस्त्र हमारे शरीर के असुन्दर को नहीं, सुन्दर को ढक लेते हैं। असुन्दर हो जाता है चेहरा, जिस पर आते-जाते भाव हमारे अंतर्लोक को उजागर कर देते हैं। घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थ, सुख-दुख चेहरा बता देता है, आंखें बता देती हैं। मेरा नाम जोकर में अपने आंसू छिपाने के लिए राजकपूर ने काला चश्मा लगाया था। लेकिन चचा, नंगापन और नंगपना दो अलग-अलग चीजें हैं। कपड़ों से नंगापन ढक सकता है, नंगई नहीं। मुक्तिबोध की दो पंक्तियां मुझे रह-रह कर अनेक प्रसंगों में याद आती रहती हैं चचा— मैंने उन्हें नंगा देख लिया, इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी। आजकल लोग हमाम के बाहर भी नंगे हैं और आपने अगर उनको देख लिया तो कसूरवार आप ही ठहराए जाएंगे। थरूर का गुरूर हो या मोदी की गोदी। आई.पी.एल. मायने इंडियन पैसा लीग। हर कोई कपड़ों के बावजूद नंगा है, ऐसा लफड़ा है। अखबार हर दिन कितने लोगों को नंगा करते हैं, गंगा फिर भी बह रही है। कपड़े धोने के लिए नहीं, उनके मैल काटने के लिए। बेचारी खुद मैली हो जाती है। मैली गंगा में क्या मैल साफ होगा? आश्चर्य होता है किसी के घर डेढ़ टन सोना निकल रहा है, किसी के पास डेढ़ सौ ग्राम गेहूं नहीं है। किसी का वार्डरोब हजार साड़ियों हजार सूटों से भरा है, किसी के पास एक कपड़ा ही नहीं है। वह किस वार्ड में जाकर अपना रौब दिखाए! एक शायर ने कहा है— वादा लपेट तनपे लंगोटी नहीं तो क्या? विषमताएं हैं, समाज में बहुत विषमताएं हैं।
—तू बात कूं फैलावै भौत ऐ चम्पू! बात हौनी चइयै सारगर्भित और छोटी, जैसै कै हमाई बगीची के पहलवान की लंगोटी।