Friday, January 08, 2010

हवा, हंसी, हिम्मत और हौसले की हकदार

—चौं रे चम्पू! हमारी बगीची पै सबते जादा ताकतवर पहलवान कौन ऐ? चल छोड़, आसपास के इलाक़े मैं ई बता, सबते जादा ताकतवर इंसान कौन?
—इंसान की बात पूछ रहे हो न चचा?
—और का जिनाबर की पूछ रए ऐं!
—नहीं चचा, कुछ इंसान कहे जाने वाले लोगों में भी दरिंदे छिपे होते हैं, उनकी बात तो नहीं कर रहे न?
— दरिंदन ते हमें का मतबल!
—हां, अब मैं आपकी बात का जवाब दे सकता हूं। माफ करना, आपकी बगीची पर उससे बड़ा ताकतवर इंसान नहीं है, जितना ताकतवर इंसान मैं अभी देख कर आ रहा हूं। हरप्यारी के घर।
—अच्छा! हरप्यारी के घर कहां के पहलवान आए ऐं रे? का उमर होयगी उनकी?
—हरप्यारी की पोती हुई है चचा, उम्र है एक महीना।
—तू तौ पहलवान की बात कर रयौ ओ।
—चचा यकीन मानिए उससे ज्यादा ताकतवर इंसान पूरे इलाक़े में इस वक्त कोई नहीं है।
—मजाक मती ना कर।

—देखिए चचा, नन्हा बच्चा जिस भी उंगली को पकड़े, कस लेता है। और अपनी पकड़ की मजबूती का रस लेता है। आप कोशिश करिए अपनी उंगली छुड़ाने की। नहीं छुड़ा पाए न! वो आपकी नाकामयाबी पर फट से हंस देता है। ....और चचा अपनी पकड़ की मजबूती का भरपूर रस लेता है।
—वा भई वा! भौत बेहतर बात कही।
—इसीलिए मैंने सबसे पहले पूछा था कि इंसानों की बात कर रहे हैं या जानवरों की। अगर सच्चा इंसान होगा तो नहीं छुड़ा सकता, दरिंदे को एक पल नहीं लगेगा....
—अब का सोच मैं परि गयौ?
—सोचना क्या है चचा! एक चिंता सी होती है। इलाक़े की सबसे बड़ी पहलवान को हम इस सदी में क्या देने वाले हैं। अभी इतनी छोटी है कि उसे पता ही नहीं है कि उसके पास कितनी ताकत है, क्योंकि अभी विवेक नहीं है उसके पास। जिंदगी से संघर्ष करने के ये उसके सबसे मुश्किल दिन होंगे। दूध पिएगी, बतासा खाएगी, आशा जानेगी, निराशा भोगेगी। भाषा सीखेगी, शब्दों के अर्थों को जिज्ञासा से जानेगी। चचा जिज्ञासा या तो बचपन में होती है या फिर उद्भट प्रतिभा में। बचपन में जिज्ञासा हर किसी के पास होती है, लेकिन अच्छे खाद-पानी के अभाव में हमारे देश में बचपन की फसल पर वक्त से पहले ही पाला मार जाता है।

शुद्ध हवा, हंसी, हिम्मत और हौसले की हकदार बने, प्रतिभा के नए-नए द्वार खुलें उसके लिए, तो इसकी जिज्ञासा कभी नहीं मरेगी। फिर ये जैसे-जैसे बड़ी होगी, देश और समाज की समस्याओं के बारे में जिज्ञासाओं से भर उठेगी और निदान सोचेगी। अच्छी शिक्षा, अच्छी सेहत, अच्छा पर्यावास, अच्छा सांस्कृतिक घर-आवास अगर उसे दे सकें तो इस दुनिया को ये नन्हीं पहलवान बदल कर दिखा सकती है। पर आंकड़े निकालो हमारे देश के। देश में चौंतीस करोड़ बच्चे हैं। अस्सी लाख तो स्कूल ही नहीं जा पाते। पैंतीस लाख सड़कों पर रहते हैं। ज्यादातर ऐसे हैं जो कक्षा पांच तक भी नहीं पहुंच पाते। कितने कुपोषण से जूझ कर मर जाते हैं, आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। किसी तरह बच गए तो अमानवीय शोषण उनकी क्षमताओं को लील जाता है।
—ये तो धरती पर आ भी गई, हरप्यारी के खसम ने तो कह दिया था कि लड़की हो गई तो दावत नहीं करने का। चचा, अगर उसका मर्द अपनी पोती की दावत नहीं करता है तो अपन बगीची पर कर लेते हैं।
—हां बगीची फण्ड में तौ भौत पइसा धरौ ऐ ना? दावत! ...पर तू कहै तौ चल कर लिंगे। बेटी के होइबे की दावत तौ हौनी चइऐ।
—थैंक्यू चचा! कभी आपने ये बात सोची है कि बेटे के जन्म के तो कितने ही गीत और लोकगीत हैं, पर क्या कभी बेटी के जन्म का कोई गीत तुमने सुना है?
—तू सुना!
—सुनो, गाओ-गाओ बधाई लली आई,
घर की बगिया में कोमल कली आई ।
फर्क करना ही नहीं, हो लली या कि लला,
बेवजह इस तरह से, सास तू जी न जला।
मीठा मुंह कर सभी का, और तू संग में गा,
तू भी लड़की थी कभी, भूलती क्यों है भला?
जैसे मिश्री की झिलमिल डली आई।
गाओ-गाओ बधाई लली आई।
—रुक जा, रुक जा! ढोलक लाय रयौ ऊं भीतर ते।

Saturday, January 02, 2010

पिच और घिचपिच

चौं रे चम्पू


—चौं रे चम्पू! कहां ते आय रह्यौ ऐ रे? और हाथ में का ऐ?
—आ रहा हूं दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान से और हाथ में हैं बरमूडा की घास के ठूंठ।
—चौं गयौ ओ वहां पै?

—टिकिट के पैसे वापस मिल जाएंगे, यह सोच कर गया था। मैदान में सन्नाटा था। एक तरफ बोतलों, टोपियों, कागजों और चिप्स के खाली पॉलिथिनों का ढेर लगा हुआ था, जिस पर झुण्ड के झुण्ड कौवे बैठे हुए थे। वे भी गुस्से में चोंच न मार दें, यह सोच कर उस तरफ तो नहीं गया, लेकिन पिच पर काफी देर टहल कर आया। समझ में नहीं आया कि पिच में गड़बड़ी क्या थी? हज़ारों दर्शकों की तमन्नाओं पर क्यों पानी फेरा गया? पिच पर ही पानी फेर देते तो बॉल उछाल नहीं लेती। मैं तो समझता था कि क्रिकेट ऐसा खेल है जो कहीं भी, किन्हीं भी, स्थितियों में खेला जा सकता है— बल्ला भी है बॉल भी, संग में डंडे चार, अब देरी किस बात की, किरकिट खेलो यार। खेल ये ठुक ठुक वाला, बड़ा दिलचस्प निराला।

—खेल रोक दियौ, बुरी बात भई!
—बारिश के कारण रोक देते हैं तब भी बुरा लगता है। अरे भीगते-भीगते खेलो, कीचड़ में एकाध फिसल जाएगा और क्या होगा। दर्शकों को दुगुना मजा आएगा— बचपन में खेलें सभी, गली मुहल्ले बीच, पिच की चिन्ता ही नहीं, सूखा है या कीच। लगन यदि सच्ची जागे, फील्ड में दिनभर भागे। क्यों चचा?
—गली-मौहल्ला में जो किरकिट खेलौ करैं, नखरा थोड़े ई दिखामें!
—पर चचा खिलाड़ी लोग जितनी ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं उतने ही नखरे बढ़ जाते हैं। राधा अगर चाहे तो दूसरों को छछिया भर छाछ पर नचा ले, खुद नाचने की बारी आई तो नौ मन तेल चाहिए। उछलती बॉल को देखने के लिए परमात्मा ने दो आंखें दी हैं, पर खिलाड़ी आजकल रिस्क नहीं लेते। प्रसिद्धि पाने के बाद उन्हें तो नूरा कुश्ती रोज दिखानी है— डब्ल्यू डबल्यू एफ की, कुश्ती देखें आप। शीघ्र पता चल जाएगा, पहलवान का पाप। चित्त है चारों ख़ाने, भर लिए मगर ख़ज़ाने। लेकिन नूरा क्रिकेट में दर्शकों की जेब पर मार भले ही पड़े, पर खुद मार नहीं खानी— कर थोड़ी सी साधना, पा थोड़ी सी सिद्धि, मिल जाती आराम से चारों ओर प्रसिद्धि। बाद में गोलमाल है, क्रिकिट का यही हाल है। पिच तो दोनों टीमों के लिए एक ही थी। हम भी बड़ी जल्दी विदेशी नखरों की गिरफ्त में आ जाते हैं। बिना बात हल्ला मचा दिया, कोटला में क्रिकेट कलंकित हो गई, क्रिकेट में काला दिन आया। अरे पिच ऊबड़-खाबड़ है या सपाट, खेल के दिखाओ ऑन द स्पॉट। ये क्या कि साहब बरमूडा से घास आएगी, पिच पर लगाई जाएगी, फिर काटी जाएगी, फिर नखरा दिखा के दर्शकों की तमन्ना पर रोलर फिरा दिया जाएगा। वो तो हमारे दर्शक पानी की खाली बोतलें और कुछ कागज फेंक कर ही संतुष्ट हो गए वरना पिच के मिजाज से उनका मिजाज ज्यादा खतरनाक हो सकता था। पहले भी जयसूर्या की उपस्थिति में इसी तरह खेल रोका गया था। क्रिकेट के नाजुक मसीहा, नाजुक सी मामूली बात को कठोर किए दे रहे हैं, बड़े-बड़े सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं, नियम कड़े कर रहे हैं। दो हजार ग्यारह में इसी मैदान पर विश्व कप होना है, कहते हैं कि नहीं होने देंगे।
—भली चलाई! पिच की घिचपिच समझ में नायं आई।
—दो हजार ग्यारह से पहले तो दो हजार दस के राष्ट्रकुल के खेल होने हैं। जिस तरह की हमारी तैयारियां हैं उन्हें देखते हुए तो एक भी खेल न हो पाएगा।

जरा-जरा सी बात पर नुक्ताचीनी करेंगे तो खेल भावना कहां रही। देखना यह चाहिए कि सुविधा या असुविधा हर टीम को समान मिल रही है या नहीं। समान स्थितियों में सम्मान के साथ खेल कर दिखाओ। लंगड़ लड़ाओ, बतंगड़ मत बनाओ। दिल की पिच सही रहनी चाहिए— खेलों का उद्देश्य है, आपस का सद्भाव, ताव दिखाकर जो करें, दिल के पिच पर घाव, प्रेम सीखें कुछ अरसे।
—हां, भेज देओ उनैं मदरसे।