Wednesday, October 27, 2010

आशाओं के विकल्पों में दो पाखी


—चौं रे चम्पू! चालीसमे सिरीराम कबसम्मेलन में हम तौनायं आ सके,कैसौ भयौ?
—अद्भुत था चचा,अद्भुत! चालीस वर्ष से वाचिक परम्परा की अच्छी कविता को जनता तक पहुंचाने का इस बार का प्रयास पिछले अनेक वर्षों की तुलना में अच्छा रहा। श्रोता भी शुद्ध कविता सुनने यहाँ इसलिए आते हैं क्योंकि न तो बहुत लतीफेबाजी होती है और न कविसम्मेलन में आए हुए दुर्गुणों के दर्शन होते हैं। हर साल देश के किसी एक भाग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मंचसज्जा के रूप में रहती है। इस साल चूंकि रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक सौ पचासवीं जयंती चल रही है, इसलिए पृष्ठभूमि में बंगाल था। कविसम्मेलन के प्रारंभ में किसी एक महान दिवंगत कवि की कविताओं के पाठ की परंपरा भी यहाँ वर्षों से चल रही है। इस बार जब टैगोर कि ‘दुई पाखी’ कविता का भवानी दादा द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद सुनाया जा रहाथा, तब मुझे कवि प्रदीप की याद आई।
—टैगौर की कबता ते प्रदीप कैसै याद आए भइया?
—चचा उन्होंने एक गाना लिखा और गाया था, ‘पिंजरे के पंछी रे, तेरा दरद न जाने कोय। विधि ने तेरी कथा लिखी, आंसू में कलम डबोय। चुपके-चुपके रोने वाले, रखना छुपा के दिल के छाले। ये पत्थर का देस है पगले, कोई न अपना होय।’ पिंजरे के पंछी की व्यथा‘दुई पाखी’ नामक कविता में भी थी। प्रदीप अपने पंछी को चुप रहने की सलाह देते हैं, जबकि रवीन्द्र बाबू की कविता में दोनों पंछी चुप न रहने को लेकरसंवाद करते हैं। पिंजरे का पंछी पिंजरे की सुविधाओं का आदी हो चुका है,वनपाखी उन्मुक्त गगन में गाता है। इस कविता के दोनों पाखियों को प्रतीक के तौर पर देखें तो स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि और नवजागरण के दौर की मानसिकता सामने आती हैकि किस प्रकार कविता धीरे-धीरे परिवर्तन का एक औज़ार बन रही थी। भारतेंदु थोड़ा सा उनसे पहले हुए थे। उनके मन में भी पीड़ा थी कि अंग्रेज राज वैसे तो सुख साज है पर ख़्वारी की बात यह है कि धन विदेश चला जाता है। अंग्रेजों के राज में सुख साज का पिंजरा था, लेकिन धन बाहर चला जाता था यह बात उन्मुक्त गगन के पंछी ही जानते थे।
—बता का बात भई दोऊपच्छिन में?
—सोने के पिंजरे में पिंजरे का पंछी था और वन का पंछी था वन में, लेकिन न जाने क्या आया विधाता के मन में, कि दोनों का मिलन हुआ। बाहर का पंछीआज़ादी के गाने गाए और पिंजरे का पंछी रटी-रटाई बातें दोहराए। उन दोनों की भाषाओं में कोई तालमेल नहीं था। उपलब्ध सुखों का आदी व्यक्ति उस सुख को नहीं जानता जो पिंजरे के बाहर होता है। दोनों में डॉयलॉग हुआ। वन के पंछी ने कहा कि पिंजरे के पंछी चल आ जा हम वन में चलें! आकाश गहरा नीला है आ जा, अपने आप को बादलों के हवाले कर दे! लेकिन पिंजरे के पंछी ने कहा कि तू अंदर आ जा यहां सुख हैं, सुविधाएं हैं। सब कुछ मिलता है। भला मैं जंगली गीत कैसे गा सकता हूं? बादलों में बैठूँगा कहां? तू पिंजरे में आ जा! वन पाखी कहता है कि मैं उड़ूंगा कैसे?बहरहाल,दोनों पाखियों ने चोंचे मिलाई। एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर ताका। एक बार मन भी किया वनपाखी का कि पिंजरे में आ जाए पर घबरा गया कि कोई बंद न कर दे पिंजरे की खिड़की, पिंजरे के पंछी को डराती थी मालिक की झिड़की।
—सही तस्बीर खैंची गुरदेब नै!
—सोने के पिंजरे में हमारा समाज आज भी सोया हुआ है। मध्य-वर्ग में लोन एक ऐसा सोने का पिंजरा है जिसमें कितने ही पंछी फड़फड़ाते हुए इन दिनों आत्महत्याएँ कर रहे हैं। आजकल ये विदेशी कंपनियां भी सोने का पिंजरा बनाकर क़ैद कर रही हैं हमारे जवानों को। जब भी ये कविता सुनो, नए नए अर्थ दे। और चाचा! उस कविसम्मेलन में पवन दीक्षित ने भी एक शेर सुनाया,‘उड़ने से मुझे रोकता सैयाद क्या भला! मैं ही तो क़ैद था मेरा एहसास तो नहीं।’ प्रदीप ने आंसुओं में कलम डुबाकर लिखा, पवन ने हालात की मजबूरी में डुबा करऔर रवीन्द्र ने आशाओं के विकल्पों में डुबा कर।
—एक सौ पचास साल है गए, रवीन्द्र की जे कबता तौ हाल की सी कबता लगै चंपू!

Tuesday, October 19, 2010

चंपू चक दे फट्टे

—चौं रे चम्पू! सबते मधुर और सबते ख़तरनाक चीज कौन सी ऐ, बता।
—परीक्षा लेते रहते हो चचा! अपने एकदम ताजा अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि सबसे मधुर और सबसे ख़तरनाक होती है भोर की बेला में यानी सुबह साढ़े चार से साढ़े पांच के बीच आने वाली चार सैकिण्ड की झपकी। संसार में सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं इसी काल में होती हैं। यह झपकी देर से किए गए भोजन और थकान के कारण आती है। इतनी मधुर होती है कि इसका रोकना असम्भव सा हो जाता है। परिणाम ख़तरनाक होते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ दो दिन पहले।
—का भयौ तेरे संग?
—मैं गया था कानपुर एक कविसम्मेलन में। कानपुर की देर तक कविसम्मेलन चलने की परम्परा देखते हुए मैंने अपना आरक्षण ए.सी. प्रथम श्रेणी में कराया, पांच बजकर अठारह मिनट पर चलने वाली स्यालदाह राजधानी से। कुछ कवियों को ढाई बजे वाली राजधानी एक्सप्रेस से राजधानी लौटना था। संचालक सुरेंद्र शर्मा का आरक्षण भी उसी में था, सो दो बजे ही कार्यक्रम समाप्त करवा दिया उनकी रेल ने। हमें थे तीन घंटे और झेलने। खैर जी, पांच बजकर पांच मिनट पर अपन प्लेटफॉर्म नम्बर वन पर थे। सूचना बोर्ड बता रहा था कि गाड़ी इसी प्लेटफॉर्म पर ही पांच बजकर तेरह मिनट पर आएगी। मैं अपनी अटैची और एक छोटा बैग अपने पैरों के पास रखकर एक बेंच पर बैठ गया। पांच बजकर नौ मिनट पर मुझे वही पांच सेकिण्ड वाली झपकी आई। इस बीच घोषणा हुई कि तेईस तेरह स्यालदाह राजधानी प्लेटफॉर्म वन के स्थान पर दो पर आ रही है और चचा मैं वह उदघोषणा सुनने से चूक गया। गाड़ी मेरे सामने समय पर आई और मेरे सामने ही निकल गई। कुली से पूछा कि है कोई गाड़ी दिल्ली के लिए? उसने बताया तीन नम्बर प्लेटफॉर्म पर खड़ी भुवनेश्वर राजधानी दिल्ली जाएगी। मैं लबड़-धबड़ सीढ़ियां चढ़ और उतर कर प्लेटफॉर्म तीन पर आया। अधिकांश डिब्बों के दरवाजे बंद थे। चार-पांच लोगों से घिरे एक टीटी महोदय झल्लाते हुए बता रहे थे कि किसी क्लास में कोई जगह नहीं है। वेटिंग टिकिट वाले चढ़ने की कोशिश न करें। अचानक एक नौजवान ने मेरा सामान लिया और पैंट्रीकार में ऊपर चढ़ गया। वह मेरा प्रशंसक एक वेटर था।
—बन गयौ तेरौ काम!
—हां चचा बन गया। पैंट्रीकार में रात्रिकालीन सेवाओं के बाद वेटरों के सोने के लिए पुराने थ्री टायर डिब्बे जैसे लकड़ी के फट्टे लगे होते हैं। मेरा प्रेमी वेटर मुझे बिठाकर टीटी महोदय को ढूंढने निकला। तभी एक दूसरा वेटर नींद से उठा और सामान सहित मुझे देखकर कहने लगा, नहीं-नहीं, यहां नहीं बैठ सकते, उतर जाइए। मैंने मजाक में कहा भैया मैं यात्री नहीं हूं पैंट्रीकार में नई-नई नौकरी लगी है, बताओ किस डिब्बे में चाय पहुंचानी है? वह कंफ्यूज हो गया। दूसरे वेटर उठे उनमें से दो-तीन मुझे पहचान गए। एक कहने लगा, सर ऊपर आराम से लेट जाइए। मैं ऊपर चढ़कर लकड़ी के फट्टे पर लेट गया।
—चम्पू! तेरी तौ चक दे फट्टे है गई।
—ए.सी. प्रथम श्रेणी में उत्कृष्ट कोटि की व्यावसासिक सेवाएं मिलती हैं, लेकिन पैंट्रीकार के फट्टे पर जो प्यार मिला उसका वर्णन करना मुश्किल है चचा। बीस साल पुराने दिन याद आ गए जब रेलगाड़ी में आरक्षण ना होने पर फट्टे पर बैठ कर रात निकाली जाती थी। लेटने को मिल जाए तो बल्ले-बल्ले हो जाती थी। मुझे ए.सी. प्रथम श्रेणी से ज्यादा मजा आया चचा। टीटी महोदय भी पुराने प्रेमी निकले। उनके हाथ में कानपुर से लिया हुआ अख़बार था जिसमें दीपप्रज्ज्वलन के समय मंत्री जी के साथ खड़े आपके चम्पू की तस्वीर भी थी। मैंने उन्हे टिकिट दिखाई और नई बनाने का अनुरोध किया। वे मुस्कुराते हुए बोले बना देंगे, पर अभी आप बी-सिक्स में मेरी बर्थ पर जाकर सो जाइए। मैंने कहा चला जाऊंगा, अभी अपने वेटर मित्रों का आतिथ्य प्राप्त कर लूं। मेरे लिए बिना चीनी की चाय आने वाली है। लेकिन चचा चाय आने से पहले ही मैं ऐसी मधुर झपकी का शिकार हुआ जो नींद में बदल गई। सपने में क्या कर रहा था पता है?
—बता!
—यात्रियों को भोजन परोस रहा था।

Wednesday, October 13, 2010

धुरी पर घूमेगा स्मृतियों का रिकॉर्ड

—चौं रे चम्पू! दिल्ली में आज खेल खतम है जांगे, कौन सौ खेल अच्छौ लगै तोय?
—चचा, खेलों में खेल होता है इश्क़ का खेल। फ़ारसी में इश्क़-बाख्तन कहा जाता है, हिन्दी में प्रेम-क्रीडा। प्रेम-क्रीडा के भेद-उपभेदों से विश्व-साहित्य भरा पड़ा है। ये खेल ऐसा है चचा जिसमें हार भी जीत का मज़ा देती है। इश्क में सारे खेल आ जाते हैं। कल्पनाओं में तैरना, एक-दूसरे के पीछे दौड़ना, भावनाओं की मुक्केबाजी, उलाहनों के भाले फेंकना, नैनों की तीरंदाजी, दिल की निशानेबाजी, दिमागी दांव-पेच की कुश्तियाँ, इश्क़ के मैदान में कौन सा खेल नहीं है, बताइए?
—हाँ, कुस्ती में हमारे जवान हारिबे वारे नायं। पर सही जवाब नाय दियौ तैनैं। जे उमर नायं इसक-फिसक को खेल खेलिबे की।
—चचा, आप अपने चिंतन में यहीं मार खा गए। इश्क़ तो मानवता का मूलाधार है। दिल कभी बूढ़ा नहीं होता। एक शेर सुना था, जो सौदा ने लिखा या नहीं, पता नहीं, पर बुढ़ापे की दिल-क्रीडा का एक उदाहरण है, ‘सौदा के पास सौदा अब कुछ रहा न बाकी, इक दिल ही रह गया है, लो छीन लो छिनालो’। उम्र के साथ इश्क का खेल स्मृतियों के खेल में बदल जाता है। कल्पनाएँ खिलाड़ी के लिए वाहन का काम करती हैं। कल्पनाएं स्मृतियों के मैदान को देश-काल से परे एक विस्तार देती हैं। आप कहीं से कहीं जाकर कोई सा खेल खेल सकते हैं। अतीत के ग्राउंड में बिना मीटर देखे दौड़ लगा सकते हैं। गंगाधर जसवानी की एक बहुत अच्छी कविता है ‘ग्रामोफोन’।
—सुना, कबता सुना।
—उन्होंने कहा था, बचपन में बिछुड़े शहर कीगलियों, सड़कों और रास्तों पर, अपने कदमों की सुइयों से मैंने अतीत के रिकॉर्ड खूब बजाए और जी भरकर, उन पर घूम-घूम कर, आँसू बहाए, सुना अतीत का संगीत। चचा, ज़रा ग्रामोफोन के बिम्ब के विस्तार में जाइए, रिकॉर्ड घूम रहा है, ध्वनियों की अनुगूँज तो तब उठती हैं जब घूमते रिकॉर्ड पर सुई रख दी जाए। सुई अपने ही स्थान पर काँपते हुए लगभग स्थिर रहती है। अपनी धुरी पर घूम रहा है स्मृतियों का रिकॉर्ड। कल्पना करिए कि अचानक रिकॉर्ड रुक जाता है। नहीं, नहीं, रिकॉर्ड नहीं रुक सकता चचा!ये स्मृतियों का रिकॉर्ड है। रुक जाएगा तो सुई दौड़ने लगेगी पाँव बनकर, रिकॉर्ड के हर गलियारे में।कल्पनाएँ कभी गतिशून्य नहीं होतीं। प्रवासी के पाँव गलियों, सड़कों और रास्तों पर सुई की तरह दौड़ लगाने लगेंगे।अतीत को आपादमस्तक गुंजाने लगेंगे। सब कुछ संगीतमय हो उठेगा।
—ग्रामोफोन रिकॉर्ड तो गायब ई है गए रे!
—मैगनेटिक टेप का ज़माना आया, फिर टेप से सीडी में आ गईं आवाजें और चित्रशालाएँ, सीडी से डीवीडी, अब है छोटी सी चिप। बचपन में सिनेमा टॉकीज के पिछवाड़े फिल्म के टुकड़े बीना करते थे। एक ही तस्वीर जरा-जरा से अन्तर से फिल्म की पट्टी में दिखाई देती थी। हम बच्चों ने रात के अंधेरे में तरह-तरह के प्रयोग किए। फिल्म के पीछे से टॉर्च मारते थे, दीवार पर बिम्ब बनाने की कोशिश करते थे। मैं आपको बता नहीं सकता चचा कि उस वक्त कितनी खुशी हुई थी, जब फिल्म के आगे डिप्टी साहब का मोटा चश्मा लगाने से दीवार पर धुंधली-धुंधली छायाएँ बन गईं थीं। रेडियो-टेलीविजन का विकास हमारे सामने हुआ। अब तो कंप्यूटर ने दृश्य-श्रव्य संचार के विकास में क्रांति ही ला दी है। कल राष्ट्रकुल खेलों का समापन समारोह है। वहाँ नवविकसित परम-चरम यंत्र देखने को मिलेगा ‘एयरोस्टेट’।
—हाँ, वा कौ बड़ौ हल्ला सुनौ ऐ रे!
—उद्घाटन समारोह में रंग जमा दिया था ‘एयरोस्टेट’ ने। भारत में पहली बार हीलियम गैस से भरे गुब्बारे का खेलों और मनोरंजन के लिए इस्तेमाल हुआ। सुनते हैं कि इस बार गैस तीस मीटर की ऊँचाई तक इस दृश्य-श्रव्य सुविधा-सम्पन्न गुब्बारे को उठा देगी। मामूली गुब्बारा नहीं है चचा। तीन सौ साठ डिग्री देखने वाले कैमरे लगे हैं इसमें। पैवेलियन में चल रहे इश्क़ के खेल भी दिखाएगा और खेलों से इश्क़ भी पैदा करेगा। बाद में धुरी पर घूमता रहेगा स्मृतियों का रिकॉर्ड! याद रहेगा ये गुब्बारा।
—चौदह के बाद हवा निकर जाएगी कै नायं?
—लोग आलपिन मारने से बाज़ आएं तब न! बहुतेरे तो पहले से ही हवा निकालने पर आमादा हैं।

Thursday, October 07, 2010

तुम रहो, हम रहें


तुम रहो
हम रहें
देश रहे!
नहीं कोई क्लेश रहे!

Wednesday, October 06, 2010

आनंद में ज़्यादा नहीं सूझता


—चौं रे चम्पू! चांदी कांसे के बाद बिंद्रा नै सौने की सुरूआत तौ करी। तू गयौ ओ उद्घाटन समारोह देखिबे?
—वहाँ तो नहीं गया चचा, पर कल्पनाओं में कहाँ-कहाँ नहीं गया चचा! अद्भुत से ऊपर कोई शब्द मिले तो बताऊँ। सन बयासी के एशियाड खेलों के दौरान भारत में रंगीन टीवी दिखा था और अब, दो हज़ार दस में, टीवी के ज़रिए पूरी दुनिया ने भारत की रंगीनी देखी। अतुलनीय भारत!इंक्रेडेबिल इंडिया!
—बगीची पै बिजरी ई नाय हती! देखते कैसै? पाँच दिना ते खम्बा गिरौ परौ ऐ, बिजरी वारेन कूं पइसा खवामैं तौ उठै!
—रहने भी दो चचा! माना कि बरसात और खुदाई के कारण पोल गिर गया था, लेकिन अब किसी बदइंतज़ामी की पोल मत खोलो। भारत की जय बोलो! हमारे अंदर आत्मविश्वास और भारत जगेगा तो हर तरफ का पोल जल्दी से जल्दी लगेगा। संक्रमण के इस काल में अंदर की बिजली मत बुझने दो चचा। भावना ही भावना की ज्योति जगाती है। ईमानदारी लादी नहीं जाती अंदर से आती है। ये भी तो देखो कि खेल से पहले ही सरिता विहार तक मैट्रो आ गई। काम हुए न पूरे। और भी हो जाएँगे धीरे-धीरे। मीडिया ने तो ऐसी छवि बना दी थी जैसे सब कुछ की ऐसीतैसी हो गई हो। खेलों की भी डैमोक्रेसी हो गई हो।
—जाकौ का मतलब भयौ?
—अरे मेरी एक कविता है न चचा, ‘अब मैं ये नहीं कहता कि मेरे ऐसीतैसी हो गई है, कहता हूँ मेरी डैमोक्रेसी हो गई है। अनुभव लेकर लूट-पाट का, रस्ता लेकर राजघाट का, गद्दी तक पहुँचे अपराधी, लोकतंत्र की डोरी साधी। डैमोक्रेसी चली ग्रीक से, भारत में चल रही ठीक से। अभी चौदह तारीख तक निंदा मत करो चचा।
—मंजूर! नायं खोलिंगे पोल, आगै बोल!
—नयनाभिराम नज़ारा था, पूरी दुनिया में छाया हुआ भारत हमारा था। चालीस करोड़ की लागत वाले ऐरोस्टेट ने जलवा कर दिया चचा। भारत की सम्पन्न संस्कृति की कुण्डलिनी जागृत होती हुई दिखाई गई और बोधि वृक्ष के नीचे परंपरा-प्रदान-प्रक्रिया सम्पन्न हुई। सात हज़ार कलाकारों ने आनंद के सातवें आसमान तक चढ़ा दिया। तालियों ने बता दिया कि दिल्ली दिल से शीला जी को और अपनी प्यारी हिन्दी को प्यार करती है। सबसे ज़्यादा तालियाँ तीन बार बजीं, एक बार तब जब बिंद्रा भारत का झंडा लेकर स्टेडियम में आए, दूसरी बार तब जब शीला जी नाम लिया गया और तीसरी बार तब जब राष्ट्रपति महोदया ने अपने भाषण के अंत में हिन्दी बोली। मीडिया ने तो खेल गाँव के बिस्तर पर सोता हुआ कुत्ता दिखाया था। दिखाए थे अपनी निंदाओं के पंजों के निशान। वह सब कुछ क्यों नहीं दिखाया जो उद्घाटन समारोह में अचानक दिखा। क्या वह बिना तैयारियों के हो गया था? अब सबके सुर बदल गए हैं। हमें अपनी सिक मानसिकता से निकलना होगा। गरीबी, बेरोज़गारी, असमानता और अज्ञान से पूरी दुनिया जूझ रही है। वह दिन भी आएगा जब हमारे देश के सभी मानव सुखी, सुंदर और शोषणमुक्त होंगे।
—तू तौ समारोह के सावन में अंधौ है गयौ ऐ लल्ला!
—हो सकता है चचा! लेकिन मुझे सन सतासी में सोवियत संघ के मॉस्को में हुआ ’भारत महोत्सव’ का नज़ारा याद आ रहा है। भारत से दो हज़ार लोक और शास्त्रीय कलाकार गए थे। मैं दूरदर्शन की ओर से आँखों देखा हाल सुनाने गया था। लेनिन स्टेडियम की सजावट और तकनीक का कमाल देख कर सोच रहा था कि क्या कभी हमारे देश में भी इस स्तर के कार्यक्रम हो सकते हैं। तेईस साल पुरानी तमन्ना इस समारोह ने पूरी कर दी चचा। अंधा कहो या सूजता। आनंद में कुछ ज़्यादा नहीं सूझता।
—लोग खुस ऐं, जे बात तौ मानी जायगी रे।
—चचा, नन्हें उस्ताद केशव के तबले को प्रणाम! उसकी उंगलियों पर थिरकते हुए भविष्य को प्रणाम। समारोह को सफल बनाने वाले सारे लोगों को प्रणाम। अंजाने-अनदेखे प्रयत्नों को प्रणाम। गारे सने हाथों को, डामर सने पाँवों को, उन सबको प्रणाम, जिन सबने सड़कें, सुरंगें बनाईं कमाल की, दिल्ली में माया फैला दी फ्लाईओवर-मैट्रो के जाल की।
—हाँ माया कहाँ-कहाँ फैली, कौन जानै?
—चचा सब जानते हैं खेल खतम, पैसा हजम, लेकिन अभी कान में डालो कुप्पी, चौदह तक रखो चुप्पी।