Tuesday, May 27, 2008

नीति बाग में अनीति

चौं रे चम्पू!

—चौं रे चम्पू! अब आयौ ऐ जब हमारे जाइबे कौ टैम है गयौ!

—अरे चचा! तुम्हारे जाने का टाइम अभी कहां आया है। टाइम तो आ गया हमारे नामराशि का।

—का भयौ?

—अनीति हो गई नीति बाग में। अशोक गोयल और लता गोयल, परिचित थे अपने। उन्नीस सौ चौरानवे में अपनी भतीजी की शादी उनके भतीजे से कराई थी। सगाई का बायना ले के गए थे सी-61 में। मेरे घर के दरवाज़े पर वो बरात ले के आए थे। नाम अशोक था तो अशोक ही थे। हंसमुख, खुशमिजाज़।

—अच्छा वोई जिनके बारे में हल्ला है रयौ ऐ कै बुजुर्ग दम्पति कूं नौकर मार गयौ?

—हां चचा! ज़माना बदल गया। आजकल नौकर वो जो नोंक मारे चाकू की। चाकर वो जो चाक-चाक कर दे कलेजा। तीमारदार वो जो एक नहीं तीन बार मारे। टहलदार वो जो वारदात करके टहल जाए। नाचीज़ वो जो घर की एक चीज़ न छोड़े। ख़ाकसार वो जो ख़ाक में मिला दे। बंदगी वो जो बंद करके भग जाए। ज़रख़रीद वो जो सारा ज़र बेच खाए। दास वो जो दशा बिगाड़ दे। अनुचर वो जो अणु-अणु चर जाए। सेवक वो जो खुद के लिए सेव करे। चेट वो जो अचेत कर दे। ख़िदमती वो जो जिसकी मति खुदगर्ज़ी की हो। घरजाया वो जो घर से सारा माल लेकर जाया हो जाए। मुलाज़िम वो जो मुल्ज़िम हो।

—बुरौ भयौ। पर जेऊ बुरौ भय कै नौकर-चाकरन के प्रति तेरी सहानुभूति खतम है गई रे!

—मुझे तो रह-रह कर उन अशो जी की बातें याद आ रही हैं चचा। कितने हंसमुख और मिलनसार थे। दो योग्य बेटियों के पिता। राखी और पूजा का रुदन नहीं देखा जा रहा था। जुल्म हो गया चचा।

—तसल्ली रख चम्पू! हैरानी की बात जे ऐ कै जब तेरे खुद के ऊपर आ पड़ी तौ तेरी विचारधारा ई बदल गई।

—माफ करना चचा, आप ठीक कहते हैं। जब खुद पर आ पड़ती है तो विचारधारा बदल जाती है। लोग अब विचारधारा को अपने अनुभव से ऊपर नहीं मानते। धन्यवाद आपका जो आपने मुझे दुरुस्त किया। मीडिया भी अति कर देता है मेरी तरह। हम अपने समाज के दोष नहीं देखते जो इन अपराधों के मूल में होते हैं। जो नौकर आपके घर में

आता

है वो टीवी पर वही देखता है जो आप देख रहे होते हैं। वही.... जुर्म, वारदात, सनसनी। इन कार्यक्रमों में सनी-सनी चेतना की गिरफ़्त में वो भी आ सकता है, पर कुल मिला कर आंकड़े इतने भयावह नहीं हैं। अकेली दिल्ली में पूर्णकालिक और पार्ट-टाइम नौकर आठ लाख से ज़्यादा हैं। कोई संगठन नहीं है उनका, कोई यूनियन नहीं है। न कोई बीमा, न पैंशन.... भाड़े के टट्टू। पुराने ज़माने में जब कोई दास खरीदा जाता था तो उसके कान में कौड़ी डालते थे।

—तभी तौ कहावत बनी-- दो कौड़ी कौ आदमी।

—चुटिया काट देते थे ताकि भरी भीड़ में पहचान लिया जाए। सभ्य समाज में यही ऐसे मानव हैं जिसके पास मानवीय अधिकार नहीं हैं। पुराने ज़माने में दास होते थे, उन्हें महज़ बोलने वाला औज़ार माना जाता था। किसके दिल में दर्द है उनके लिए? आठ-दस लाख में से अगर पंद्रह-बीस वारदात हो गईं तो सचमुच कोई बड़ा आंकड़ा नहीं बनता। अफसोस कि इस आंकड़े में हमारे निहायत शरीफ़ मित्र आ गए।

—सारे मालिक सरीफ नांय होयं चम्पू!

—हां, नौकर भी देखते हैं कि हमारा मालिक कितना बड़ा चोर है। बहुत ही सभ्य मालिक अपने नौकर से बिजली की चोरी कराते हैं। मेरे एक पड़ौसी बिना इस बात की फिक्र किए कि नीचे भी लोग रहते हैं, अपनी नौकरानी से डण्डे से कपड़े कुटवाते हैं। वाशिंग मशीन सजावट के लिए घर पर रखी है।

नौकर है तो क्यों बिजली फूंकी जाए। चोरियों के शिक्षा-केन्द्र तो घरों में ही खुले हुए हैं। मुकेश का मासूम चेहरा देख कर लगता नहीं है कि इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे सकता है। इसके पीछे रहा होगा कोई गिरोह। और जरायमपेशा लोगों ने मार दिए हमारे दोस्त। पर चचा तुम ठीक कहते हो अपने निजी अनुभव से विचारधारा नहीं बदलनी चाहिए। ये भी सोचें कि दिल्ली के आठ लाख घरेलू नौकरों पर क्या बीत रही होगी। चचा, तुमने कभी नौकर रखा?

—वैसौ मिलौ ई नांय जैसौ चहियै!

—कैसा चाहिए?

—नौकर ऐसौ चाहिए, ना मांगै ना खाय।

चार पहर हाज़िर रहै, घर भी कभी न जाय।

Friday, May 23, 2008

बदले पुलिस बयान

चक्र सुदर्शन

बदले पुलिस बयान
हो कैसे विश्वास अब, सच क्या था श्रीमान,
दुहरे हत्याकांड में बदले पुलिस बयान।
बदले पुलिस बयान, मची है आपा धापी,
साक्ष्य मिटाती बेदर्दी वर्दी है पापी।
चक्र सुदर्शन कहे तरीका यही बैस्ट हो,
पुलिस कर्मियों का पहले नारको टैस्ट हो।


Thursday, May 22, 2008

डर-डर के मरो

चौं रे चम्पू!

--चौं रे चम्पू! तेरी बंडरफुल खोपड़ी में का चल रयौ ऐ रे? भौत दे ते गुम्म ऐ!

--खोपड़ी वंडरफुल नहीं है चचा, बवंडरफुल है। चीज़ें गड्डमड्ड हैं। समझ में नहीं आ रहा कुछ।

--का समझ में नांय़ आय रौ चम्पू?

--कि मर-मर के डरो या डर-डर के मरो। पहले डर फिर मर। आगे मर और पीछे डर हो तो डर किस बात का रह गया? ‘मरडर’ तो हो ही गया न! मरडर का सिरा पकड़ में आ नहीं रहा। शक के घेरे में मर भी है और डर भी है।

--चम्पू। शक कौ घेरा बड़ौ अदृस्य घेरा ऐ।

--शक धरती के दूसरे छोर तक जाता है। जितना बड़ा डर ह, उतना ही बड़ा घेरा। शक आगे-आगे भागता है, घेरा पीछे-पीछे दौड़ता है। पता नहीं शक कब घेरे से बाहर निकल जाता है और घेरे में दूसरा शक आ जाता है। किसने मारा? किसको मारा? नौकर ने नौकर को मारा? मालिक ने नौकर को मारा? ज़माने ने नौकर को मारा? मरा तो अपने नौ करों से काम करने वाला नौकर ही न! बच्ची मरी। क्यों मरी? क्या उसकी इज़्ज़त गई या घर वालों को लगा कि इज़्ज़त चली जाएगी, सो गई। चचा कहते हैं कि झगड़ की वजह होती हैं तीन-- जर, जोरू और ज़मीन।

--नौएडा में तौ बच्ची चली गई बिचारी। जोरू कहां बन पाई?

--ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे पर आजकल की बच्चियां भी बच्चियां कहां रह गई हैं? मोबाइल हो गई हैं। बतियाना हो गया है सुपर आसान। पहले मोहल्ले-पड़ोस के छोरे की एक झलक पाने के लिए कई-कई दिन इंतज़ार करना पड़ता था। मुलाक़ात होती थी साल छ: महीने में। किसी मेले-ठेले में। बात हुई भी तो कितनी— ‘कैसा है रे तू?’ –‘तू कैसी है? झुमका बड़ा अच्छा है तेरा।‘ –‘तेरी नेकर भी तो अच्छी है।‘ बस खत्म हो गई बात। अब माता-पिता ने दे दिए मोबाइल। करो प्यारे, घंटों बात करो।

--जे बता चम्पू कि जे छोरा-छोरी का बात करत होंगे?

--चचा देखो! बात करेंगे— ‘देख एक नई मॉल खुली है।‘ –‘वहां सीढ़ियां कितना ऊपर ले जाती हैं?’ –‘एक सीढ़ी तो वहां भी जाती है, जहां अक्सर कोई नहीं जाता।‘ –‘जहां बेसमेंट होता है?’ –‘हाँ, चल तो उस सीढ़ी पर उतरेंगे। बोल कब आ रही है?’ –‘मम्मी-डैडी जब क्लीनिक पर जाएंगे तब आऊंगी।‘ –‘अभी आ जा।‘ –‘अभी सीढ़ी कहां शुरू हुई होगी!‘ –‘अरे हम कर लेंगे न! मुझे मालूम है कि जैनरेटर कहां है।‘ –‘तो वहां शोर नहीं हो जाएगा?’ –‘अरे शोर हो जाएगा तो क्या? दुनिया से नहीं डरेगा, हम तो मुहब्बत करेगा।‘ –‘हे! देख तू मुझसे ऐसी बातें मत किया कर। मम्मी पापा को बता दूंगी।‘ –‘अच्छा! तेरे मम्मी-पापा तो मुहब्बत करते ही नहीं हैं जैसे।‘ –‘हां मैंने देखा था कल।‘ –‘क्या देखा था? बता न!‘ –‘मैं नहीं बता सकती।‘ बस इसी तरह के डॉयलॉग होते हैं चचा, और क्या। जब बात करने का मिले मौका, तो कैसा ड्राइंग रूम और कैसा चौका। बच्चे लोग चौका-छक्का लगाने की फिराक में रहते हैं। कुछ ऊंच-नीच हो जाए या ज़्यादा ही ऊंच क़िस्म की नीच हो जाए तो गुत्थी सुलझाना पुलिस के लिए भारी पड़ जाता है। विष्णु ने लड़की को चालीस बार फोन क्यों किया? छत पर किसके पंजों के निशान थे। सोचो कुछ लेकिन सच्चाई निकलेगी कुछ और..।

--तोए का पतौ कै सच्चाई का ऐ?

--चचा इस धरती पर कुछ भी ऐसा नहीं जिसे कहें अनहोनी। मेरे दिमाग में एक बात आती है कि दोनों की हत्या एक तरीके से हुई। हत्यारा डॉक्टरी औज़ारों का इस्तेमाल करना जानता है। पता चलेगा कि न तो दोषी बालिका और न दोषी नौकर। उनका दोष ये था कि उन्होंने कोई सच्चाई देख ली। मुक्तिबोध की लाइन है— ‘मैंने उन्हें नंगा देख लिया, इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।‘ पता नहीं बेचारों ने क्या देख लिया कि ज़िंदगी ने उन्हें फ़ाइनली देख लिया।

--चम्पू अगर मेरौ मरडर है जाऐ तौ सक के घेरा में कौन आयगौ?

--वैसे तो चचा तुम्हें मारेगा कौन? न तुम्हारे पास न जर न जोरू न ज़मीन। पर शक आएगा मेरे ऊपर। ज़रूर इसी चम्पू ने सुना-सुना के मार डाला है, इसलिए ख़बरदार, जो अपना मर्डर करवाया।

Saturday, May 10, 2008

जायज़ नाराज़ी

चक्र सुदर्शन
जायज़ नाराज़ी
बाजी पल्टी कोर्ट में, लौटे वेणु गुपाल,
एम हुआ पूरा, उधर, एम्स बजे घड़ियाल।
एम्स बजे घड़ियाल, मरीज़ों की क्या चिन्ता,
अहंकार का युद्ध, कराहें कोइ न गिन्ता।
चक्र सुदर्शन, जायज़ है उनकी नाराज़ी,
क्यों होने दी, अस्पताल में आतिशबाज़ी?
-अशोक चक्रधर