Wednesday, January 26, 2011

वे अन्तर्मन से प्रसन्न होते थे

—चौं रे चम्पू, पंडित भीमसेन जोसी के जाइबे पै खूब दुखी भयौ होयगौ तू तौ?
—भारत का ऐसा कौन सा शास्त्रीय-संगीत-प्रेमी होगा जो दुखी न हुआ हो। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ की घन-गरज वाणी आज छब्बीस जनवरी पर भी गूंजेगी। सबके सुर मिलाने का आवाहन करने वाले गायक को कोई भुला नहीं सकता। शताब्दियां गुज़र जाती हैं तब कहीं ऐसा रत्न भारत को उपलब्ध होता है।
—तेरी कबहुँ उनते मुलाक़ात भई का?
—हाँ चचा, अनेक बार। धुर बचपन में लावनी-नौटंकी के कलाकारों के लोक-संगीत से तो परिचित हुआ था, लेकिन शास्त्रीय संगीत की वर्णमाला मुझे नहीं आती थी। यह श्रेय तो आपकी बहूरानी को जाता है, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय संगीत की रही है। उनके भाई मुकेश गर्ग के साथ दिल्ली में बहत्तर से पिचहत्तर तक आईटीसी संगीत सम्मेलनों में जाता रहा। देश के महान संगीतकारों को सुनने का मौका मिला। पिचहत्तर में बागेश्री के साथ एक समारोह में गया था, जहाँ पंडित जी ने गाया था। उनकी वाणी में ऐसी गूँज थी जिससे अनुमान लगता था कि अनहद नाद कैसा हो सकता है। उनके सुरों में वह ताकत थी कि अगर आप जुड़ जाएँ तो पता ही न चलेगा कि कब आपकी कुण्डलिनी जागृत हो गई। चचा उनके जाने से कितने ही दिलों में बैठे सा रे गा मा सुर रो रहे होंगे। किसी महान कलाकार के जाने के बाद वह कला भी रोती है जिसका उस कलाकार ने संवर्धन किया हो। पिचहत्तर से पिचासी तक मैं उन्हें विभिन्न समारोहों में सुनता रहा। मेरे शास्त्रीय-संगीत-प्रेम में उनके गायन का बहुत योगदान है चचा।
—उन्ते बातचीत कौ मौकौ नायं मिलौ का?
—मिला चचा मिला। कई अवसर आए। सन पिचासी-छियासी की बात होगी, मैं पूना के एयरपोर्ट पर दिल्ली की उड़ान की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक पंडित जी सपत्नीक दिखाई दिए। ढीला पायजामा, सफ़ेद कुर्ता, देसी स्टाइल का एक ऐसा थैला, जैसा आमतौर से हवाई यात्री नहीं रखते। एक कोने में बैठे पति-पत्नी धीमी आवाज़ में बेतकल्लुफ़ी से बतिया रहे थे। मैंने सोचा मंच पर तो कभी व्यक्तिगत रूप से मिलने का मौका नहीं मिला, ये अच्छा अवसर है, प्रणाम करके आता हूँ। मैंने जाकर दोनों के पैर छुए और बिना किसी संवाद के अपनी कुर्सी पर लौट आया। उस पावन स्पर्श की मीठी अनुभूतियों का रस आँख मूँद कर ले रहा था कि तभी अपने कंधे पर एक वरदहस्त का कोमल स्पर्श महसूस किया। मेरे सामने आदरणीया खड़ी थीं। बड़े मीठे स्वर में उन्होंने पूछा, आप टीवी पर कविता सुनाते हैं न? मैंने कहा, जी हाँ! कहने लगीं मुझे आपकी बीयर वाली कविता बहुत पसंद आई। कमाल है पंडित जी ने आपको नहीं पहचाना। मैंने कहा, वे महान सुर-साधक हैं, दूरदर्शन के सारे कार्यक्रम देख पाने का समय कहाँ मिल पाता होगा। ख़ैर, वे ले आईं मुझे पंडित जी के पास। स्नेह से बिठाया। चचा, तुम्हारे चंपू की कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ें करने लगीं। पंडित जी बोले, मैंने कभी आपकी कविता नहीं सुनी, पर जिस तरह से ये आपकी प्रशंसा कर रही हैं, और आपसे मिलकर इनके चेहरे पर चमक आई है, उसे देख कर आपका महत्व पता लग रहा है। ये आसानी से प्रशंसा नहीं करती हैं। चचा, मैं अपने रोमांच की हालत बता नहीं सकता। उन्होंने स्नेह से गले लगाया। थोड़ी देर साथ बैठे। आदरणीया ने थैले से निकाल कर पूरनपोली नाम की ललित दाल वाली रोटी वत्सलभाव से खिलाई। मेरे अंदर पंडित जी के प्रिय राग पूरिया और ललित गूंजने लगे। —और कोई खास मुलाक़ात भई?
—होती रहीं चचा, कभी दूरदर्शन में, कभी हवाईअड्डों पर, लेकिन जब भी होती थीं उन्हें पूना एयरपोर्ट की बात याद रहती थी। मैं उनके पैर छूता था, वे अन्तर्मन से प्रसन्न होते थे और कहते थे कि कि मुझे खेद है कि मैंने आपकी कविता आज तक नहीं सुनी पर मैं आपको पसंद करता हूँ। कई बार मन करता था कि अपनी कविता का एक तो नमूना दिखा दूँ, पर मुलाकातें व्यस्तताओं की अस्तताओं में हुईं प्राय:।
—तौ उन्नैं तेरी एक ऊ कबता नायं सुनी?
—सुनीं! दूरदर्शन पर सुनी होंगी शायद, लेकिन पहली बार साक्षात सुनीं, बारह अक्टूबर उन्नीस सौ इक्यानवै को, अयोध्या में। उसके बारे में फिर कभी बताऊंगा. अभी तो उनको विनम्र श्रद्धांजलि!

Wednesday, January 19, 2011

एकवचन बहुवचन

—चौं रे चम्पू, बडौ भासा-सास्त्री बनै है तू! जे बता कै भासा जानिबे के ताईं ब्याकरन सीखिबौ जरूरी ऐ का?
—चचा, मातृभाषा के लिए व्याकरण सीखना क़तई ज़रूरी नहीं है। मातृभाषा अपने आप आ जाती है। व्याकरण के नियमों से बच्चा बोलना नहीं सीखता। वह तो गोदी में लेटे-लेटे आमोदी स्टाइल में ऐसे ही सीख जाता है। दूसरी भाषाओं को सीखने के लिए व्याकरण देखनी पड़ें तो देखनी पड़ें। वैसे संसार की हर भाषा की व्याकरण में अपवादों का मवाद भरा हुआ है। वचन, लिंग और वर्तनी के मामले में इतने एक्सैप्शंस हैं कि नियम जानने से ज़्यादा ज़रूरी अपवादों को जानना होता है। जो व्यक्ति भाषाओं को विधिवत नहीं सीखता, जीवन-समाज या अंतरंगों के साथ बोलचाल से सीखता है, वह उस भाषा के मानक, स्वीकृत और परिनिष्ठित रूप से पूरी तरह से परिचित नहीं हो पाता। भले ही वह उसकी अपनी मातृभाषा ही क्यों न हो। जाने-अनजाने वह भाषा के फोड़ों से अपवादों के मवाद को निकालता रहता है और कई बार स्वयं नए शब्दों, शब्द-पदों या शब्द-रूपों का निर्माण करता है।
—तेरी जे गहरी बात मेरी समझ में नायं आई रे!
—चलिए उदाहरण देकर समझाता हूँ। चचा मैं गया था कानपुर एक कविसम्मेलन में। चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कार्यक्रम था। हर किसी का मन करता है कि अपनी भाषा को अच्छी तरह बोले। वे बड़ी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोल रहे थे, भाषा से ही हम संस्कृति को जान पाते हैं और कविसम्मेलन की यह परम्परा हमारी संस्कृति को हमारे सामने लाती है। हमारे देश के महान कवि सामने बैठे हुए हैं। मैंने अगल-बगल बैठे ’महान’ कवियों को कनखियों से देखा और मुस्कुरा दिया। अपने आप पर भी मुस्कुराया कि कहां के ‘महान’ हो यार, ये कुछ ज्यादा ही भाव दे रहे हैं। फिर उन्होंने कहा कि क्या कारण है कि कविसम्मेलन में इतने श्रोते आते हैं।
—श्रोता का बहुवचन श्रोते!
—सुन कर हंसी आई। मेरी पहले वाली हंसी पर ये दूसरी वाली हंसी भारी पड़ गई। नियमों के हिसाब से देखा जाए तो बिल्कुल सही कह रहा है। जब तोता का बहुवचन तोते हो सकता है श्रोता का श्रोते क्यों नहीं। लेकिन भाषा-व्यवहार के हाथों से तोते उड़ गए। उसने बिना व्याकरण जाने नियमपूर्वक कार्य किया और श्रोता का श्रोते कर दिया। उसने तो एक ही बार श्रोते बोला था, लेकिन मैं मन ही मन श्रोते शब्द के विविध वाक्य-प्रयोग करने लगा। पंडाल में अभी श्रोते थोड़े कम हैं। श्रोते थोड़े बढ़ेंगे तो हम कार्यक्रम प्रारम्भ करेंगे। जो श्रोते खड़े हैं, कृपया बैठ जाएं। सारे श्रोते ताली बजाएं।
—श्रोते! प्रयोग तौ अच्छौ कियौ।
—चचा, उसी समय मुझे याद आया कि सन तिरानवै में राजीव कपूर के लिए मैं ‘वंश’ नाम का सीरियल लिख रहा था। आर.के.बैनर से राजीव कपूर की फिल्म ‘प्रेमग्रंथ’ उन दिनों निर्माणाधीन थी। उन्होंने फिल्म का एक मार्मिक सीन बताया कि माधुरी दीक्षित की गोदी में एक बच्चा है। मरा हुआ बच्चा। बस वाले लोग माधुरी को उतार देते हैं कि मरे बच्चे के कारण कहीं जर्म्स न फैल जाएं बस में। अंधेरी रात है, ब्लू लाइट्स, धुंआ-धुंआ-धुंआ और हवे चल रही हैं हवे।
—हवे चल रई ऐं!
—हां, हवाएं नहीं कहा उन्होंने। तवा का बहुवचन जब तवे हो सकता है, जवा का जवे हो सकता है, तो हवा का हवे क्यों नहीं हो सकता? दवा का भी दवे कर देना चहिए? क्यों कहते हैं दवाइयां? व्याकरण के नियम से चलें! भाषा प्रयोग से बनती है। व्यवहार से बनती है। एकवचन बहुवचन के नियम कई बार निरस्त भी हो जाते हैं। लड़का एकवचन है, लड़के बहुवचन, लेकिन लड़के शब्द एकवचन भी हो सकता है।
—सो कैसै?
—ए लड़के, क्या कर रहा है? रहा कि नहीं एकवचन? खैर छोड़ो चचा, ये बताओ दवे खाईं या नहीं?
—चम्पू, दवा कौ दवे मत कर, मेरे डाक्टर दवे नाराज है जांगे रे!

Wednesday, January 12, 2011

बर्फ़ पर खेलती तमन्नाएं

—चौं रे चम्पू! गजब की ठण्ड ऐ, तैनैं चिल्ला सीत में कछू अजब-गजब कियौ कै नायं?
—अरे चचा, रजाई में बैठे रहने के अलावा और कर ही क्या सकते थे! टीवी देखते रहे। रिमोट का इस्तेमाल करने के लिए रज़ाई से हाथ निकालने में भी परेशानी हो रही थी। एक न्यूज़ चैनल लगा के हाथ रिमोट समेत रज़ाई में कर लिए।
—टीवी पै का देखौ?
—कहां याद रहता है! हां, एक बताने लायक बात है। सुख-दुख में चेहरे पर समभाव रखने वाली एक न्यूज़वाचिका बोल रही थी, कश्मीर में मायनस तेरह डिग्री टैम्परेचर हो जाने के कारण डल झील सूख गई है।
—सूख गई कै जम गई?
—तभी तो मुझे भी हंसी आई चचा। झीलों का पानी कम हुआ करता है, वे सूखती कहां हैं! सूख गई तो झील कहां रही, तालाब हो गई! नदियां सूख जाती हैं, तालाब सूख जाते हैं, लेकिन झील कहां सूखती हैं!
—ठीक कहि रह्यौ ऐ रे। गल्ती ते बोलि गई, माफ कर छोरी ऐ।
—बिल्कुल माफ कर दिया चचा, क्योंकि अगले ही पल उसने मेरी कल्पना को दूसरी ओर का रास्ता दिखा दिया, जब वह बोली कि झील की सूखी हुई सतह पर बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं। आगे वह क्या बोली मुझे सुनाई नहीं दिया। कल्पना दृश्यों में खो गया। बच्चे बर्फ पर क्रिकेट खेल रहे हैं। कैसे बाउंड्री बनाएंगे? विकेट कैसे गाड़ेंगे? पिच कैसे बनेगी? इतना तो तय है कि पिच पर रोलर फिराने की आवश्यकता न पड़ेगी क्योंकि कुदरत ने अपने आप झील को एक समतल मैदान बना दिया है। वहां कोई वाटर-लेवल पारा-मशीन नहीं रखनी पड़ेगी। बर्फ में खरोंच-खरोंच कर पिच को आकार दिया जा सकता है। बॉल कितनी भारी होगी? यहां तो बार-बार चौके लगाना बेहद आसान रहेगा क्योंकि उस फिसलनशील बर्फ पर बॉल रुकेगी कैसे? बच्चे भी बॉल के पीछे फिसलते-फिसलते ही जाएंगे। बॉल की गति बच्चों की फिसलन-गति से ज़्यादा तेज़ होगी। कैसे दौड़ेंगे बर्फ पर? स्कैट्स लगा लें तो शायद तेज़ी से दौड़ सकें! स्कैट्स कहां ख़रीद पाते होंगे कश्मीर के गरीब बच्चे। फिर बाउंड्री कैसे खींचते होंगे झील में? नियम-कायदे कौन से लागू होते होंगे। हमारी क्रिकेट का ही अनुसरण करते होंगे क्या? क्या सचिन-सौरभ ने कभी बर्फ पर क्रिकेट खेली है? मैं कल्पनाओं में बच्चों की आइस क्रिकेट देखने लगा।
-प्रबल तमन्ना होय, तौ का पानी का बरफ! खेलिबे की इच्छा कौ पानी नायं जम्यौ करै।
—डल झील पहले भी जमी होगी पर शायद इतनी कठोर न हुई होगी कि उस पर क्रिकेट खेली जा सके। दुनिया में बहुत सारे ऐसे देश हैं जहां झीलें जम जाती हैं। अंटार्कटिका में तो बर्फ ही बर्फ होती है। वहां किसी के मन में यह विचार क्यों नहीं आया कि क्रिकेट खेली जाए। जरूर कहीं न कहीं कुछ होता होगा। आइस क्रिकेट भी कहीं न कहीं खेली जाती होगी।
—पतौ निकार।
—लो अभी पता करता हूं। लैपटॉप खुला है। गूगल सर्च पर ये डाला, आइस क्रिकेट। एक मिनिट रुको। अरे चचा, ये तो निकल आया। आइस क्रिकेट का वर्ल्ड टूर्नामेंट बाईस जनवरी को होने जा रहा है। यह खेल सन दो हजार चार से एस्टोनिया की राजधानी ताल्लिन में हार्कू नाम की झील पर खेला जाता है जो बर्फ से ढक जाती है। आइस क्रिकेट में लाल रंग की विंड बॉल का इस्तेमाल होता है। नेट पर यूट्यूब खोल कर आपको नज़ारा भी दिखा सकता हूं। साक्षात देखना हो तो उसके लिए फ्लाइट के निजी खर्च के अलावा दो सौ साठ पाउंड की टिकिट है। चार दिन तक रुको और आइस क्रिकेट का मजा लो।
—अरे छोड़ लल्ला, इत्ते पइसा जोरिबे में तौ आंसू निकरि आमिंगे।
—तुम आंसू मत निकालो चचा। कल मैं काफी आंसू निकाल चुका हूं। कल अंतरराष्ट्रीय हास्य दिवस था। हास्य के नाम पर जो चीजें परोसी जा रही थीं उन पर मुझे ज़रा सी भी हंसी नहीं आई। परसों भी आंसू बहाए थे क्योंकि विश्व हिन्दी दिवस था और एक छोटे से सभागार में संपन्न हो गया। न व्यापक प्रचार, न उसकी कोई खबर लोगों को। ऐसे ही जैसे कश्मीर के बच्चे बर्फ पड़ने पर आइस क्रिकेट खेल लेते हैं। लोकप्रिय हो तभी आनन्द आता है न चचा। विश्व हिन्दी दिवस, हास्य दिवस या आइस क्रिकेट का डल झील टूर्नामैंट।
—सई कही सौ परसैंट!

Wednesday, January 05, 2011

वर्धा हुआ आनंदवर्धा

-- चौ रे रे चम्पू! तीन दिनां ते दिखाई नायं दियौ, कहां गायब है गयौ ओ रे?
—वर्धा गया था चचा! वहां के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का नाम आपने सुना होगा। उसके बारे में लोगों की धारणा थी कि वह सिर्फ कागज़ों पर चलता है। यह भी माना जाता रहा है कि उसको चलाने वाले शीर्ष व्यक्तित्व वहां बड़ी मुश्किल से जाते हैं, लेकिन मैंने तो देखा कि वह एक सुंदर आकार लेता हुआ दिव्य स्थान है। साहित्य में एक अलंकार जोड़ने का प्रस्ताव मैं आपके सामने पहले भी रख चुका हूं।
—कौन सौ अलंकार?
—भ्रांतिमान अलंकार! भ्रांति यह कि वह सिर्फ कागज़ी विश्वविद्यालय है, लेकिन यहां तो धरती की सतहों से अंगड़ाइयां लेते हुए सुरुचिपूर्ण स्थापत्य ने प्रकट होकर विश्वविद्यालय का रूप दिखाना शुरू कर दिया है। लगभग दो सौ एकड़ में फैला यह व्यापक परिसर हिन्दी के भविष्य और भविष्य की हिंदी का प्रमुख केंद्र बनने जा रहा है चचा।
—केंद्र कौ केंद्र पुरुस को ऐ रे?
—विभूति नारायण राय हैं। वहां के कुलपति। कुलाधिपति हैं डॉ॰ नामवर सिंह। उन्हीं के निमित्त बने कक्ष में रुका था चचा!
—अच्छा जी!
—वे तो मार्गदर्शन के लिए यदाकदा ही आते हैं, असल काम तो कुलपति का होता है। ....और आप तो जानते हैं कि जो आदमी काम करने लगे उसे विभूति मानने के बजाय उस पर भभूत चढ़ाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। काम करने वाला कभी-कभी ग़लती भी कर जाता है और ग़लतियों से सीख भी लेता है। राही मासूम रज़ा ने कहा था, भले से हारे जो हारे, हमीं तो हार गए, लो आप जीत गए, कचकुलाह कर लीजे।
—जे कचकुलाह का भयौ रे?
—कचकुलाह का मतलब है टोपी टेढ़ी कर लीजिए। पुराने ज़माने में तीतर-मुर्गे लड़ाने वाले लोग ऐसा करते थे। जिसका मुर्गा या तीतर जीत जाता था वह बांकी अदा में अपनी टोपी तिरछी कर लेता था। कर ले भैया, टोपी तिरछी कर ले, पर बरछी तो मत चला। हम अपने काम में लगे हुए हैं। करने दे!
—का काम देखौ तैनैं?
—पंचटीला कहलाती थी ये जगह। अब इसे कहते हैं गांधी हिल। यहां महात्मा गांधी की प्रतिमाओं के चलन को एक नया रूप दिया गया है। गांधी जी तो खड़े ही हैं, लेकिन उनके साथ उनकी बकरी की भी बकरीकद प्रतिमा है। नकली गांधीवादियों ने जिस बकरी को खाद्य-वस्तु बनाया और व्यंग्यकारों ने जिसे विषय-वस्तु बनाया, वह यहां निर्भीक और निरे आनंद में है। चश्मा चश्माकद नहीं है। घड़ी घड़ीकद नहीं है। चप्पल चप्पलकद नहीं हैं। ये तीनों मूर्तियां विराट आकार में बनाई गई हैं। घड़ी की टिकी हुई प्रतिमा में ढाई आखर के प्रेम की टिक-टिक है, क्योंकि वह हर समय ढाई बजाते हुए दिखती है। यह मूर्ति स्थिर रहते हुए भी समय को गतिमयता दे रही है। गति दे रही है चप्पलों की प्रतिमा भी। गांधी-पथ पर गांधी-पाठ और पुनर्पाठ का न्यौता देते हुए। चश्मा अलौकिक है। इस चश्मे में से दिखती हैं वे पहाड़ियां जिन पर अभी इस परिसर का शेष निर्माण-कार्य होना है। इस चश्मे में से दिखती है एक विश्व-दृष्टि जो हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का संकल्प रखती है। इस चश्मे से दिखाई देता है हिन्दी शिक्षा जगत में एक आमूलचूल नई दृष्टि लाने वाला एक बनता हुआ, आकार लेता हुआ, नया कुछ देता हुआ विश्वविद्यालय। हालांकि तेरह साल पुराना है, लेकिन पिछले दो ही साल में साकार हुआ है। अभी तक यह महाप्रभुओं का निराकार ब्रह्म था। अब यहां के साहित्य विद्यापीठ में साहित्य के साथ नाटक और फिल्म अध्ययन विभाग भी प्रकट हो गया है। प्रकट हो गया है, महापंडित राहुल सांकृत्यायन केंद्रीय पुस्तकालय। यहां निर्कुंठ भाव से नए-नए पाठ्यक्रम प्रकट हो रहे हैं। मैं तो चचा प्रसन्न हुआ एक और चीज़ देखकर।
—वो ऊ बताय दै!
—परिसर में प्रविष्ट होते ही हम देखते हैं कि सीमेंट की गऊ माता खड़ी हैं। लगता है गोदान उपन्यास से निकलकर सीधे सड़क के किनारे खड़ी हो गई हैं। उनकी पीठ पर लिखा है, प्रेमचन्द मार्ग। आगे बढ़ो तो मिलता है भारतेन्दु हरिश्चंद्र मार्ग। फिर बने हैं केदार संकुल, शमशेर संकुल और अज्ञेय संकुल। चित्त प्रसन्न हो गया वहां जाके। वर्धा तो आनंदवर्धा हो गया मेरे लिए। अगली बार चलना आप मेरे साथ।
—साथ में सेवाग्राम ऊ दिखाय तौ चलिंगे रे!