—चौं रे चम्पू, बडौ भासा-सास्त्री बनै है तू! जे बता कै भासा जानिबे के ताईं ब्याकरन सीखिबौ जरूरी ऐ का?
—चचा, मातृभाषा के लिए व्याकरण सीखना क़तई ज़रूरी नहीं है। मातृभाषा अपने आप आ जाती है। व्याकरण के नियमों से बच्चा बोलना नहीं सीखता। वह तो गोदी में लेटे-लेटे आमोदी स्टाइल में ऐसे ही सीख जाता है। दूसरी भाषाओं को सीखने के लिए व्याकरण देखनी पड़ें तो देखनी पड़ें। वैसे संसार की हर भाषा की व्याकरण में अपवादों का मवाद भरा हुआ है। वचन, लिंग और वर्तनी के मामले में इतने एक्सैप्शंस हैं कि नियम जानने से ज़्यादा ज़रूरी अपवादों को जानना होता है। जो व्यक्ति भाषाओं को विधिवत नहीं सीखता, जीवन-समाज या अंतरंगों के साथ बोलचाल से सीखता है, वह उस भाषा के मानक, स्वीकृत और परिनिष्ठित रूप से पूरी तरह से परिचित नहीं हो पाता। भले ही वह उसकी अपनी मातृभाषा ही क्यों न हो। जाने-अनजाने वह भाषा के फोड़ों से अपवादों के मवाद को निकालता रहता है और कई बार स्वयं नए शब्दों, शब्द-पदों या शब्द-रूपों का निर्माण करता है।
—तेरी जे गहरी बात मेरी समझ में नायं आई रे!
—चलिए उदाहरण देकर समझाता हूँ। चचा मैं गया था कानपुर एक कविसम्मेलन में। चार्टर्ड एकाउंटेंट्स का कार्यक्रम था। हर किसी का मन करता है कि अपनी भाषा को अच्छी तरह बोले। वे बड़ी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोल रहे थे, भाषा से ही हम संस्कृति को जान पाते हैं और कविसम्मेलन की यह परम्परा हमारी संस्कृति को हमारे सामने लाती है। हमारे देश के महान कवि सामने बैठे हुए हैं। मैंने अगल-बगल बैठे ’महान’ कवियों को कनखियों से देखा और मुस्कुरा दिया। अपने आप पर भी मुस्कुराया कि कहां के ‘महान’ हो यार, ये कुछ ज्यादा ही भाव दे रहे हैं। फिर उन्होंने कहा कि क्या कारण है कि कविसम्मेलन में इतने श्रोते आते हैं।
—श्रोता का बहुवचन श्रोते!
—सुन कर हंसी आई। मेरी पहले वाली हंसी पर ये दूसरी वाली हंसी भारी पड़ गई। नियमों के हिसाब से देखा जाए तो बिल्कुल सही कह रहा है। जब तोता का बहुवचन तोते हो सकता है श्रोता का श्रोते क्यों नहीं। लेकिन भाषा-व्यवहार के हाथों से तोते उड़ गए। उसने बिना व्याकरण जाने नियमपूर्वक कार्य किया और श्रोता का श्रोते कर दिया। उसने तो एक ही बार श्रोते बोला था, लेकिन मैं मन ही मन श्रोते शब्द के विविध वाक्य-प्रयोग करने लगा। पंडाल में अभी श्रोते थोड़े कम हैं। श्रोते थोड़े बढ़ेंगे तो हम कार्यक्रम प्रारम्भ करेंगे। जो श्रोते खड़े हैं, कृपया बैठ जाएं। सारे श्रोते ताली बजाएं।
—श्रोते! प्रयोग तौ अच्छौ कियौ।
—चचा, उसी समय मुझे याद आया कि सन तिरानवै में राजीव कपूर के लिए मैं ‘वंश’ नाम का सीरियल लिख रहा था। आर.के.बैनर से राजीव कपूर की फिल्म ‘प्रेमग्रंथ’ उन दिनों निर्माणाधीन थी। उन्होंने फिल्म का एक मार्मिक सीन बताया कि माधुरी दीक्षित की गोदी में एक बच्चा है। मरा हुआ बच्चा। बस वाले लोग माधुरी को उतार देते हैं कि मरे बच्चे के कारण कहीं जर्म्स न फैल जाएं बस में। अंधेरी रात है, ब्लू लाइट्स, धुंआ-धुंआ-धुंआ और हवे चल रही हैं हवे।
—हवे चल रई ऐं!
—हां, हवाएं नहीं कहा उन्होंने। तवा का बहुवचन जब तवे हो सकता है, जवा का जवे हो सकता है, तो हवा का हवे क्यों नहीं हो सकता? दवा का भी दवे कर देना चहिए? क्यों कहते हैं दवाइयां? व्याकरण के नियम से चलें! भाषा प्रयोग से बनती है। व्यवहार से बनती है। एकवचन बहुवचन के नियम कई बार निरस्त भी हो जाते हैं। लड़का एकवचन है, लड़के बहुवचन, लेकिन लड़के शब्द एकवचन भी हो सकता है।
—सो कैसै?
—ए लड़के, क्या कर रहा है? रहा कि नहीं एकवचन? खैर छोड़ो चचा, ये बताओ दवे खाईं या नहीं?
—चम्पू, दवा कौ दवे मत कर, मेरे डाक्टर दवे नाराज है जांगे रे!
Wednesday, January 19, 2011
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9 comments:
एक वचन...बहुवचन ...
भाषा के व्याकरण को बिगाड़ा नहीं जा सकता...हाँ कभी-कभी तुकबंदी में प्रयोग जरूर होते हैं ...जब भाषा के प्रचलित प्रयोग से इतर प्रयोग कर चमत्कार पैदा करने की कोशिश की जाती है ।
—श्रोते! प्रयोग तौ अच्छौ कियौ।
`व्याकरण के नियमों से बच्चा बोलना नहीं सीखता।'
तभी तो.... तभी तो... हाथ के तोते उडते और सम्मेलन से श्रोते उठते देखा है हमने :)
श्रोता का बहुवचन श्रोते तक तो ठीक है कहीं अगर श्रोताज़ हो गया फिर ज्यादा पहुँच वाली हो जायेगी अपनी हिंदी. ऐसे ही "दवाज़" "हवाज़" और "लड्काज़".
मुझे याद है आपने अपने एक लेख में शब्द इस्तेमाल किया था "बगीची" वो भी मजेदार था और ये भी है, हमेशा की तरह.
यद् आया एक और मजेदार शब्द है ऐसा.....
कमर का बहुवचन कमरे हो तो बड़ा funny हो जाएगा.
अच्छा तो आपने धारावाहिक भी लिखे हैँ अब उनके नाम भी बता दिजिये बड़ी जिज्ञासा हो रही है
ghazipurkiawaz.blogpost.com
आप सब को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएं.
be practical ka bodh karwati aapki ye ek-vachan/bahuvach ki rachna
anand aa gio guru shresht ji
bahut din bad aaya , so "mafian" de !
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