Wednesday, September 29, 2010

साधना की अवधि पूरी हो गई

—चौं रे चम्पू! भौत याद आय रई ऐ नंदन जी की, उनकी सबते अच्छी पंक्ती कौन सी लगैं तोय?
—वे अक्सर सुनाया करते थे— ‘अजब सी छटपटाहट, घुटन, कसकन, है असह पीड़ा, समझ लो साधना की अवधि पूरी है। अरे, घबरा न मन!चुपचाप सहता जा, सृजन में दर्द का होना ज़रूरी है।’
—जे बात उन्नैं सिरजन के बारे में कही कै अपने बारे में?
—चचा! उन्होंने अपनी ज़िंदगी और अपने सृजन में कोई अंतर नहीं किया। लोग कुछ भी कहें, कुछ भी मानें, उन्होंने अपनी साधना को अवधि देने में कोई कमी नहीं की। जिस दिन वे गए उस दिन उन्हें दिनेश मिश्र जी की गोष्ठी में आईआईसी आना था, उससे एक दिन पहले रूसी सांस्कृतिक केंद्र के एक कार्यक्रम में जाना था। बारह अक्टूबर के लिए हिंदी अकादमी को हां भरी थी। साधना की अवधि जल्दी पूरी हो गई। अभी दो साल पहले जब उनका पिचहत्तरवां जन्म-दिन मनाया गया तो कई लोगों का मानना था कि उन्हें पिचहत्तर का होने का कोई अधिकार नहीं है। लगते ही नहीं थे साठ से ज़्यादा। काम इतना करते थे जैसे तीस-चालीस के हों। पिछले दो साल में ही अस्सी के से लगने लगे।
—बो अपनी तकलीफन पै ध्यान नायं देते लल्ला!
--ठीक कह रहे हो चचा! डायलिसिस की मशीन से सीधे उठकर कार्यक्रमों में पहुंचने का सिलसिला वर्षों से चल रहा था। न अपनी तकलीफ़ों का गायन करते थे न कभी मदद के लिए गुहार लगाते थे, ज़माने के दर्दों को गीतों और कविताओं में ढाल कर ज़रूर गाते थे। सही बात के लिए अपने आत्मीयों की मदद के लिए सही समय पर हाज़िर। वे कहते थे कि कविता लिखना मेरा जीवंत और मानवीय बने रहने की प्रक्रिया का ही एक अंग रहा है। आदमी बने रहना मेरे लिए कवि होने से बड़ी चीज़ है। बिरले इंसान होते हैं ऐसे। डॉ. कन्हैया लाल नंदन जैसे।
—आड़े बखत पै तेरौ साथ निभायौ उन्नै, मोय याद ऐ।
—समझिए, साढ़े तीन दशक से उनका सान्निध्य सुख मिला और इस अंतराल में मैंने उन्हें एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी और उदारमना व्यक्ति पाया। वे वाचिक परंपरा से जुड़े होने के बावजूद साहित्यिक हल्कों में भी स्वीकार किए जाते थे। सबसे बड़ा काम उन्होंने जनमानस के एक सांस्कृतिक शिक्षक के रूप में किया। उन्होंने अच्छी कविता सुनने का सलीक़ा पैदा किया। वे एक सांस्कृतिक, सामाजिक और सौन्दर्यशास्त्रीय मनोवैज्ञानिक थे। बच्चों की पत्रिका पराग से लेकर बुद्धिजीवियों की पत्रिका दिनमान के संपादन के अलावा उन्होंने संचार, संवाद और संप्रेषण की दुनिया में क्या-क्या किया सब जानते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि उनका मित्र-परिकर बहुत बड़ा था। अहंकार से शून्य थे चूंकि जनता से सीधे जुड़े हुए थे। अहंकार तब आता है जब आप अपने कोटर में बन्द होकर अपने आपको बहुत बड़ा साहित्यकार मानने लगते हैं। मैं जानता हूं कि लोकमन का, सांस्कृतिक उत्थान की चाहत के साथ, रंजन करना एक चुनौती की तरह होता है। इस दुरूह कार्य को वे बड़े संयम और गंभीरता से करते थे। संप्रेषण को मानते थे प्रमुख, लेकिन कठिन बिम्बों को भी बोधगम्य बनाने का कार्य उन्होंने मंच पर किया। मंच की कविता प्रायः सपाट सी हो जाया करती है, लेकिन उन्होंने सपाट पाट पर भी अपना घाट अलग बनाया और ठाठ से पूरा जीवन जिया। पूरे समय तक मंच पर रहते थे, ऐसा नहीं कि अपनी कविता सुनाई और चल दिए। वे सबको बहुत ध्यान से सुनते थे और सबसे बात करते थे। नए कवियों को न केवल प्रोत्साहित करते थे, बल्कि नया सीखने को भी सदैव तैयार रहते थे।
—नयौ सीखिबे कू कैसै तैयार रहते?
—कम्प्यूटर की ही लो चचा! उन्होंने बच्चों से सीखा। ‘जयजयवंती’ से उन्हें जो लैपटॉप मिला, यात्राओं में अपने साथ रखते थे। भारत में ऐसे बहुत कम हिंदी साहित्यकार होंगे जो पिचहत्तर पार करने के बाद कम्प्यूटर में दक्षता के लिए प्रयत्नशील रहे हों। मेरी उनसे कम्प्यूटर आधारित चर्चाएं खूब होती थीं। मुझसे बहुत स्नेह मानते थे। ठहाकों के, उल्लास-उमंग और विषाद के बहुत अंतरंग क्षण मैंने उनके साथ बिताए हैं। चचा। वे जो करते थे, पूरे मन से करते थे। उनका जाना मेरे लिए तो व्यक्तिगत रूप से बहुत ही बड़ा नुकसान है।
—तेरौ क, पूरी बगीची कौ ई नुकसान ऐ रे!

Wednesday, September 22, 2010

हिन्दी की हिन्दी अंग्रेज़ी की अंग्रेज़ी

—चौं रे चम्पू! हिन्दी पखवारे में हिन्दी की कित्ती हिन्दी करी तैनैं?
—चचा मज़ाक मत बनाओ। हिन्दी की हिन्दी से क्या मतलब है? माना कि आजकल अंग्रेज़ी की अंग्रेज़ी हो रही है, लेकिन अंग्रेज़ी की हिन्दी भी हो रही है और हिन्दी की अंग्रेज़ी भी हो रही है। कम्प्यूटर ने भाषाओं के विकास के रास्ते खोल दिए हैं। किसी नीची निगाह से न देखना हिन्दी को!
—तौ का हिन्दी को स्वर्ण काल आय गयौ?
—व्यंग्य मत करो चचा! सब कुछ तो जानते हो। लेकिन मान जाओ कि स्वर्ण काल भले ही न आया हो पर यदि हम चाहें तो हिन्दी का भविष्य स्वर्णिम बना सकते हैं।
—चल मजाक करूं न ब्यंग, बता का कियौ जाय?
—हिन्दी आज एक वैश्विक भाषा है और पूरे संसार में बोलने वाले लोगों की संख्या की दृष्टि से दूसरे नम्बर पर आती है। लेकिन अपनी हैसियत में किस नम्बर पर आती है! सच्चाई ये है चचा कि बहुत पिछड़ी हुई है, प्रगति के ग्राफ में बहुत नीचे है। विदेशी कंपनियां आती हैं, यहां हिन्दी चैनल चलाती हैं। चकाचक मुनाफ़ा कमाती हैं। मनोरंजन की दुनिया में हिन्दी के पौबारह हैं। लेकिन हिन्दी पठन-पाठन, रोज़गार, कारोबार में पौपांच भी नहीं है। विदेशी सॉफ्टवेयर कंपनियों ने हिन्दी के लिए एक से एक शानदार सॉफ्टवेयर बनाए, यहाँ आकर बनवाए, शोध कराई, आर.एन.डी. कराई, लेकिन उनकी दिक्कत ये है कि हिन्दी सॉफ्टवेर ज़्यादा बिकते ही नहीं हैं भारत में। कंपनियां समझने लगती हैं कि हिन्दी की भारत में ज़रूरत ही नहीं है।
—ऐसौ कैसै समझ सकैं?
—बिक्री चाचा बिक्री! बिक्री नहीं होती उनकी! हर उन्नत भाषा, प्रौद्योगिकी की नवीनतम खोजों का लाभ उठाती है। खुद को अपडेट करती है, लेकिन हमारी हिन्दी पुरानी पद्धतियों से ही चिपकी हुई है। हिन्दी के प्रकाशन जगत ने अभी तक यूनिकोड को नहीं अपनाया है।
—चौं नायं अपनायौ?
—नए उत्पाद ज़्यादा पैसे में ख़रीदने पड़ते हैं न! हिन्दी प्रकाशन के लिए पुराने सॉफ्टवेर नेहरू प्लेस से पचास रुपए में मिल जाते हैं तो नए के लिए पाँच हज़ार कौन खर्च करेगा? लाखों रुपए के कम्प्यूटर खरीद लेंगे, पर कुछ हज़ार के सॉफ्टवेयर नहीं खरीद सकते! कार तो ख़रीद लीं, पर चला रहे हैं चोरी की पेट्रोल से। अभी पिछले दिनों मैं माइक्रोसॉफ़्ट के एक सीनियर बंदे से मिला। उसने बताया कि जब भी उनका कोई नया भाषाई उत्पाद आता है, तो वो एक साथ कई सारी भाषाओं में उसको लॉंच करते हैं। चीनी भाषा में, जापानी में, कोरियन में, जर्मन में। विश्व की कुछ समुन्नत भाषाएं निर्धारित और निश्चित हैं कि उत्पाद को इन सारी भाषाओं में एक साथ लाया जाएगा। इन भाषाओं को वे कहते हैं फर्स्ट टीयर, यानी पहली श्रेणी की भाषाएं। दूसरी श्रेणी में उन भाषाओं को लेते हैं जहां ठीकठाक सा मार्केट है। मुझे वहां यह जानकर आश्चर्य हुआ कि टीयर सिस्टम में हिन्दी सबसे नीचे तीसरी श्रेणी में आती है। डिमांड होगी तभी तो बनाएंगे। सरकार उनके हिन्दी उत्पादों की मुख्य ग्राहक होती है। सरकार को ये लोग अधपकी सामग्री बेच कर मुनाफा कमा लेते हैं। सरकारी फाइलों में हिन्दी लालफीते से बंध कर घुटती रहती है।
—बता, का करैं?
--सबसे बड़ी ज़रूरत है जन-जागृति की। पढ़े-लिखे तबकों में यूनिकोड का प्रचार और प्रसार प्राथमिकता पर किया जाए। पूरे देश में यूनिकोड मशाल घुमा दी जाए। माँग बढ़ेगी तो सॉफ्टवेयरों की कीमतें अपने आप कम होंगी। यूनिकोड पर आधारित नए-नए फॉन्ट बनने चाहिए। पुस्तकों और समाचार जगत के प्रकाशकों को जब इसकी महत्ता समझ में आएगी तब बात बनेगी। माइक्रोसॉफ़्ट के साथ अडोबी और आईबीएम भी अपने उत्पादों को यूनिकोड समर्थित करें। अडोबी उदासीन है क्योंकि उसका पेजमेकर और फॉटोशॉप चोरी से इस्तेमाल होता है और वे भारत में कुछ नहीं कर सकते। भारत में कुछ चोरियाँ चोरी नहीं मानी जातीं। बौद्धिक सम्पदा की निजता को नीची निगाह से देखा जाता है। कॉपीराइट की ऐसी-तैसी!
—जे तौ चोरी और सीनाजोरी भई।
—कॉपीराइट नहीं है, कॉपी करने का राइट है चचा।

Wednesday, September 15, 2010

हिन्दी में देश की एकता का रस

—चौं रे चम्पू, कल्ल बिग्यान भबन में हिन्दी दिबस कौ समारोह भयौ, तू ग्यौ के नायं?
—गया था चचा! और आनन्दित नहीं परमानन्दित हो गया।
—इत्ती खुसी की का बात है गई रे?
—सबसे ज़्यादा ख़ुशी की बात ये रही चचा कि हमारे गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने अपना भाषण हिन्दी में शुरु किया। पूरा एक पैराग्राफ हिन्दी में बोला। क्या शुद्ध उच्चारण था चचा! ‘मैं राजभाषा को अंगीकार करने वाले कार्यालयों में उत्कृष्ट कार्यों के लिए सभी कार्मिकों को आभार ज्ञापित करता हूं।’ कुछ ऐसा सा बोल रहे थे। शब्दशः तो नहीं बता सकता पर एक कुशल हिन्दी ज्ञाता जैसा उच्चारण था। पिछले साल उन्होंने हिन्दी के समर्थन में अंग्रेज़ी में भाषण दिया था। पूरे सभागार में मायूसी छा गई थी। एक ओर तो हिन्दी का प्रयोग करने के लिए अनेक हिन्दीतर क्षेत्र से आए कर्मचारियों को पुरस्कृत किया गया दूसरी ओर अध्यक्ष महोदय बोल रहे थे अंग़्रेजी। किसी को यह बात पच नहीं रही थी कि वे ज़रा सी भी हिन्दी नहीं बोल सकते।
—बोलिबे में हिंचक रही होयगी लल्ला! समझ तौ पाते ई हुंगे! राजनीति कौ दबाब ऊ है सकै।
—कैसी भी हिचक क्यों न हो। हिन्दी दिवस पर हिन्दी न बोलना एक अपराध जैसा लगा था चचा। आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ के बान की मून ने हिन्दी बोल कर सबका मन जीत लिया था। इतनी तालियां बजीं थी कि शायद संयुक्त राष्ट्र संघ के उस सभागार में कभी न बजी हों। सच बताऊं चचा, पिछले साल कार्यक्रम के बाद विज्ञान भवन का भोजन अच्छा नहीं लगा। सभी के चेहरे पर एक कसक थी। वहां अधिकांश सरकारी कर्मचारी थे। खुलकर बोल नहीं सकते थे लेकिन गुपचुप चर्चा यही थी कि कम से कम एक वाक्य तो बोल देते हिन्दी में। हिन्दी दिवस की मर्यादा रह जाती। आपकी दूसरी बात मुझे ठीक लग रही है चचा। राजनीतिक मजबूरियां भी होती हैं। दक्षिण के अपने जनाधार की चिंता रही होगी। हालांकि उन्होंने गत वर्ष बातें हिन्दी के पक्ष में ही कही थीं, कही भले ही अंग्रेज़ी में हों। फिर भी चचा बातें मन को ठुकी नहीं। कार्यक्रम के बाद सरकारी कर्मचारी खाने में लग गए, यानी खाने की लाइनों में लग गए और मैं बिना खाए ही निकल आया।
—पिछली छोड़, अबकी बता!
—इस बार तो संयुक्त राष्ट्र संघ का सभागार याद आ गया। अपने अध्यक्षीय भाषण में जब चिदम्बरम जी ने कहा— मानयीय उपराष्ट्रपति महोदय! ’माननीय’ और ’महोदय’ सुनकर ही लोग झूम उठे। क्या तालियां बजीं चचा, बता नहीं सकते। अगले संबोधनों का मौका ही नहीं दे रहे थे। दे ताली और दे ताली। चिदमबरम सिर झुकाए मुस्कराते रहे। संबोधन श्रृंखला का पूरा वाक्य हिन्दी में सम्पन्न हुआ तो फिर से तालियों का ज्वार।
—दाबत उड़ाय कै आयौ कै नायं?
—चकाचक चचा! मीठे पर पाबंदी है लेकिन दो गुलाबजामुन खाईं और आइसक्रीम भी सपोट गया।
—पूरौ भासन हिन्दी में नायं दियौ न?
—पूरा भाषण तो हिन्दी में नहीं दिया। बीच में अंग्रेज़ी भी बोली। उतने भर के लिए हिन्दी के लोग बड़े उदार होते हैं। अंग्रेज़ी भी हमारे देश की भाषा है। उससे वैर थोड़े ही है। लेकिन भाषण का अंत फिर से हिन्दी बोल कर किया। दिल जीत लिया उन्होंने। मेरा दिल तो एक दूसरे कारण से भी जीत लिया।
—दूसरौ कारन बता!
—अपनी दुखती रग है चचा! यूनीकोड एंकोंडिंग प्रणाली। दस साल हो गए कम्प्यूटर पर इस प्रणाली को आए लेकिन हिन्दी है कि इसे हृदय से लगा नहीं पाई। उन्होंने यूनीकोड को सरकारी कार्यालयों में जब अनिवार्य रूप से अपनाने की बात कही तो जी खुश हो गया। गृहराज्य मंत्री अजय माकन द्वारा दिए गए आंकड़े भी पिछले वर्ष की तुलना में उत्साह बढ़ाने वाले थे। हिन्दी निरंतर बढ़ रही है चचा, लेकिन कुछ लोग हैं जो अंग्रेज़ी का हउआ दिखाने से बाज नहीं आते हैं। खाते हिन्दी की हैं, बजाते अंग्रेज़ी की हैं। खत्म हो जाएगी हिन्दी, खत्म हो जाएगी हिन्दी। कैसे खत्म हो जाएगी हिन्दी। लोग खत्म हो जाएंगे, आपस की लड़ाइयां खत्म हो जाएंगी, हिन्दी कहीं नहीं जाने वाली।
—और का अच्छी बात भई?
—अच्छी बातें तो बहुत हुई। एक बात अजय माकन ने कही मार्के की। वे बोले— जैसे फूल में छिपा रहता है मकरन्द उसी तरह हिन्दी में छिपा है देश की एकता का रस।
—बस्स! आगै मत बोल। मोय अजय की बात को रस लैन दै रे।

Tuesday, September 07, 2010

कौन सुनता विस्फोट

—चौं रे चम्पू! दिल और दिमाग में कौन जादा ताकतवर ऐ?
—दोनों ताक़तवर हैं, दोनों ही कमज़ोर हैं। चचा, जो इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं वे गलती करते हैं। दोनों ही स्रोत हैं, दोनों ही धारा हैं। दोनों ही बांध हैं, दोनों ही एक-दूसरे का किनारा हैं। लोग समझते हैं कि दिल धड़कता है और दिमाग सोचता है, पर मामला उल्टा है चचा। दरअसल, दिमाग धड़कता है और दिल सोचता है, यानी दिल में एक दिमाग होता है और दिमाग में एक दिल। इसी से जिंदगी खिल-खिल जाती है और इसी से होती है कांटा किल-किल।
—लोग कह्यौ करैं कै दिल टूट गयौ।दिमाग टूट गयौ, चौं नांय कहैं?
—यही तो महान गलती है। दिल नहीं टूटता, दिमाग चकनाचूर होता है। दिमाग में सबसे ज़्यादा हिस्से होते हैं। उनमें बहुत सारे क़िस्से होते हैं। क़िस्से जब क़िस्सों से टकराते हैं तो तरह-तरह के घिस्से होते हैं, इसीलिए दिल के इतने नाम नहीं हैं जितने दिमाग के हैं।
—बता!
—बुद्धि, अक़्ल, भेजा, मगज़, मन, मस्तिष्क, दिमाग। ज्ञान, बोध, अंत:करण, मनसा, दीप, चिराग। ज़हन, शीश, मति, खोपड़ी, अंतर्दृष्टि, विवेक। समझ, चेतना, मनीषा, तेरे नाम अनेक। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि दिमाग का दायाँ हिस्सा असीम कल्पनाओं का पहाड़ और बहुरंगी भावनाओं-आस्थाओं का अखाड़ा होता है, जबकि बायाँ हिस्सा तर्क और गणित का पहाड़ा होता है। दिमाग चिंतन करता है दिल के अनुसार। उन स्मृतियों को संजोता है जो दिल को अच्छी या बुरी लगें। बेलगाम कल्पनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण भी करता है। दिमाग कोरा दिमाग नहीं होता, दिलात्मक दिमाग होता है, जो दिमागात्मक दिल की सुनता है। चीजें जब नियंत्रण से परे होने लगती हैं तब लोग उसे कहते हैं दिल और दिमाग की मुठभेड़। खोपड़ी घूम जाती है चचा।


—बगीची पे चंपी कराय लै!बादाम के तेल की। खोपड़ी तर, दिमाग ठीक!
—उससे कुछ नहीं होता चचा। बादाम का तेल दिमाग का भोजन नहीं है। दिमाग खोपडी के जरिए आहार नहीं पाता।
—जानी वाकर कौ चंपी वारौ गानौ याद ऐ?
—सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए, आजा प्यारे पास हमारे, काहे घबराए? चंपी तेल मालिश। इस गाने को ही लो। जो बात मैंने कही, ये गाना भी कहता है। सिर चकराना और दिल डूबना दोनों साथ-साथ कहे गए हैं। दोनों चीज़ें अंदर घटित होती हैं। चंपी बाहरी प्रयास है। जिसके पास दाम नहीं होंगे, बादामरोगन का इंतज़ाम कहाँ से करेगा? महँगाई के कारण उसका दिमाग और चकरा जाएगा, दिल और डूब जाएगा। दिल-दिमाग का भोजन न खोपड़ी के जरिए जाता है न मुख के। ये मामले हैं अंदरूनी सुख और दुख के। दिल-दिमाग का भोजन आँख-कान के ज़रिए जाता है चचा। आत्मीय छवियां दिखें, मनोनुकूल और मीठी बातें सुनने को मिलें तो बड़े-बड़े घाव भर जाते हैं, पर दूसरे का घाव भरने वाले शब्द बड़ी मुश्किल से निकलकर आते हैं। आजकल महानगरों में बढ़ रहा है पैसा और गुरूर। सब के सब मगरूर। मज़े लेते हैं, जब सामने वाला हो जाता है चकनाचूर। यह मज़ा उनके दिल-दिमाग को सुकून देता है। ताने और सताने में समय बिताने में आनंद आता है। उसी से अपनी ताक़त का अंदाज़ा होता है।देखा, हम किसी को कितना दुख पहुँचा सकते हैं। यह दुख पहुँचाने का भाव असीमित सुख देता है। आजकल हृदय रोगियों से कहा जाता है कि मनोचिकित्सक के पास भी जाओ। तुम्हारे अन्दर जो तनाव है, वही तुम्हारे दिल का घाव है, क्योंकि तुमने जो कुछ गुपचुप सोचा है, उसी में कैमिकल लोचा है।
—दिल और दिमाग तौ अब गड्डमड्ड है गए ऐं, पहले अलग-अलग हते। दिल आ जाय तौ दिमाग की ऐसी-तैसी। दिमाग में कोई बात बैठ जाय तौ भाड़ में जाय दिल।
—सही कह रहे हो चचा। ज़माने ने सब कुछ गड्डमड्ड कर दिया है। स्वार्थ, कैरियर, भविष्य-निर्माण, अनेकनिष्ठता का बुलडोजर जब किसी अंतरंग के दिल पर चलता है तो उसका दिमाग ही सहारा दे सकता है, वरना जाएगा काम से। ये दिमाग ही है जो दिल टूटने की आवाज नहीं होने देता। तरुण जी की पंक्तियाँ बड़ी अच्छी हैं, ‘एक चूड़ी टूटती तो हाय हो जाता अमंगल, मेघ में बिजली कड़कती, कांपता संपूर्ण जंगल। भाग्य के लेखे लगाते, एक तारा टूटता तो, अपशकुन शृंगारिणी के हाथ दर्पण छूटता तो। दीप की चिमनी चटकती, चट तिमिर का भय सताता, कौन सुनता विस्फोट, जब कोई हृदय है टूट जाता।
—अब आयौ ना लाइन पै!

Friday, September 03, 2010

बाबा ते काका दी हट्टी

—चौं रे चम्पू! और बता ना, चुप्प चौं है गयौ? नागार्जुन जन्म-सती समारोह की योजना आगै बढ़ा।
—चचा, मैं तो बता रहा था, आप ही उठकर चले गए।
—बता, बता और का का इंतजाम कन्ने परिंगे?
—का का इंतजाम! काका हाथरसी जी को भी बुलाना पड़ेगा! वे आ गए तो रौनक लग जाएगी। बहुत कम लोगों को पता होगा कि बाबा और काका की मुलाकातें उत्तरी दिल्ली के टैगोर पार्क में हुआ करती थीं। कामरेड ज़हूर सिद्दीक़ी की छत पर बाबा ते काका दी हट्टी लगती थी। बाबा रहते थे सुधीश पचौरी के फ़ौट्टी एट टैगोर पार्क में और काका रहते थे मुकेश गर्ग के टू फ़ौट्टी टू में। दोनों पैदल चलने के शौकीन। काका स्वास्थ्य के लिए नियमित रूप से सुबह शाम टहला करते थे। बाबा का तो वाहन ही उनके दो पैर थे। कोई बस न मिले तो ग्यारह नंबर की बस ज़िंदाबाद। काका को अपने स्वास्थ्य पर बड़ा गुरूर था। बाबा को छोटे-मोटे रोग घेरे रहते थे। दाढ़ी-मूंछ दोनों रखते थे। काका थोड़ी लंबी दाढ़ी रखते थे, बाबा की हल्की रहती थी। दोनों के बाल खिचड़ी थे। दोनों को निशात जी के हाथ की बनी काली दाल की खड़ी खिचड़ी पसंद थी।
—चल बगीची पै खीचरी ऊ बनवाय लिंगे। और बता!
—बाबा जो ओवरकोट पहनते थे उसकी डिजायन भी काली खिचड़ी जैसी ही थी। काका आमतौर से गरम शॉलों से बने कुर्ते पहनते थे। काका को सर्दी ज्यादा नहीं लगती थी जबकि बाबा की दुश्मन थी सर्दी।
—बगीची पै एक ओवरकोट और एक गरम कुर्ता टांग दिंगे।
—चचा, एक बात बताऊँ! बाबा ने जो सलेटी से रंग का ओवरकोट अंत तक पहना उसे जामा मस्जिद से खरीद कर आपका चम्पू लाया था, पच्चीस रुपए में। पैसे सुधीश या करण ने दिए होंगे। काफी दिन तक मेरे और बाबा के बीच में समझौता रहा कि कभी तुम पहन लो, कभी मैं पहन लूँ। कड़ाके की ठंड में जो बाहर जाएगा वो पहनेगा। बाबा को कमरे के अंदर भी कड़ाके की ठंड लगती थी। जब उन्होंने उतारकर टाँगना बंद कर दिया तो ओवरकोट उन्हीं का हो गया।
—बात चल रही है बाबा और काका की तू बीच में अपनी कहाँ ते ले आयौ?
—काका को दूसरों की उम्र पूछने का बड़ा शौक था। ज़हूर साहब की छत पर काका ने बाबा से भी उनकी उम्र पूछी थी। जब उन्हें पता चला कि बाबा चार साल छोटे हैं तो वे बच्चों की तरह खुश हुए। देखा, हो तो छोटे, पर काका से बड़े लगते हो। बाबा सहजता से उत्तर देते कि लोगों ने बाबा कहना शुरू कर दिया है तो बड़ा तो लगूँगा ही। दरअसल दोनों ही बड़े थे। दोनों शीर्षस्थ। दोनों कड़ियल और अपने-अपने सोच में अड़ियल। बाबा जनकवि थे काका जन-प्रिय कवि। काका को बाबा की महत्ता का बोध नहीं था और बाबा को काका की लोकप्रियता का अधिक अंदाज़ा नहीं था, लेकिन बातचीत दिलचस्प रहती थीं।
—बातचीत बता!
—काका कहते थे कि रोज़ नहाया करो तो कम उम्र के लगोगे बाबा। अच्छी सेहत के लिए साफ-सुथरा रहना जरूरी है। बाबा को साफ-सुथरा सोच अच्छा लगता था। काका कांग्रेसी थे, बाबा मार्क्सवादी। बाबा समझ जाते थे कि काका की जानकारी कितनी है और काका समझ जाते थे कि बाबा का हास्यबोध जनता वाला नहीं है। बातचीत साहित्येत्तर विषयों पर ही अधिक हो पाती थी। असहमति के मुद्दे बढ़ने लगते थे तो बातचीत पर विराम लगा दिया जाता था। दोनों के बीच विचारधाराओं की एक गहरी खाई थी, लेकिन एक चीज जो दोनों के अन्दर समान थी, वह था दोनों का मानवीय दृष्टिकोण और आम आदमी के प्रति गहरी सहानुभूति। इस बात पर दोनों सहमत हो जाते थे कि ‘चाहे दक्षिण हो या वाम, जनता को रोटी से काम’। काका दाद देते, ये तुमने लाख टके की बात कह दी बाबा। बाबा कहते थे कि चलो हमारी कोई बात तो पसन्द आई। काका कहते, हमारी तुम्हारी शक्ल मिलती है बाबा! साफ रहना शुरू कर दो तो हम सगे भाई लगें। बाबा आक्रामक मुद्रा में कुछ बोलें इससे पहले काका अपनी छड़ी उठाकर चल देते थे। लेकिन एक बात थी, एक-दूसरे के पीठ पीछे दोनों एक-दूसरे की प्रशंसा करते थे।
—जेई बात तौ बगीची पै सिखानी ऐ!