Wednesday, April 28, 2010

एक सवाल को घुमा गई रोटी

—चौं रे चम्पू, आजकल्ल भौत लोग तेरे पीछे परे भए ऐं, आरोपन ते घिरौ भयौ ऐ, चक्कर का ऐ?
—चक्कर तो वही लोग जानें चचा! मुझे तो मुल्ला नसीरुद्दीन का एक किस्सा याद आ रहा है।
—मुल्ला नसीरुद्दीन, जाके किस्सा एक ते एक हसीन।
—हां चचा, उन पर आरोप भी लगाए जाते थे संगीन। दरबार में सारे के सारे मनसबदार, शायर, सूफ़ी, अलग़ज़ाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी, आलिमोफाज़िल, सब के सब सरदार, सिपहसालार, ओहदेदार मुल्ला से चिढ़े-कुढ़े रहते थे। क्योंकि मुल्ला उन्हें अज्ञानी और झूठा मानते थे। सबने मिलकर बादशाह से शिकायत कर दी कि मुल्ला नसीरूद्दीन हुकूमत के लिए खतरा बन चुका है आलमपनाह। सो जी उन पर राजदरबार में मुकदमा चलाया गया। दरबार में बादशाह ने मुल्ला से कहा— मुल्ला नसीरुद्दीन! पहले तुम अपनी बात दरबार के सामने रखो। मुल्ला ने कहा— कुछ कागज़ और कलम मंगा लीजिए। कागज़-कलम मंगा लिए गए। मुल्ला ने कहा कि अब दस बुद्धिमान लोगों को एक-एक कागज़ और कलम दे दीजिए। ऐसा ही किया गया। अब दसों से मुल्ला ने कहा कि अपने-अपने कागज़ पर इस सवाल का जवाब लिख दें कि रोटी क्या है?
—फिर का भयौ?
—सबने जवाब लिख दिए और् दरबार में राजा और जनता के सामने पढ़कर सुनाए गए। पहले ने लिखा— रोटी भोजन का सामान है। दूसरे ने लिखा— यह ईश्वर का वरदान है। तीसरे ने लिखा— यह आटे और पानी का घोल है। चौथे ने लिखा— कहीं चपटी, कहीं गोल है। पाँचवे ने लिखा— रोटी की वजह से ही खुशहाल घर और घरौंदा है। छठवें ने लिखा— यह एक पकाया हुआ आटे का लौंदा है। सातवें ने लिखा— रोटी न मिले तो इंसान रो देता है। आठवें ने लिखा— इसके आगे सब कुछ को खो देता है। नौवें ने लिखा— यह पौष्टिक आहार है और दसवें ने लिखा— कुछ कहा नहीं जा सकता इसकी महिमा अपार है।
—सबन्नै सही बात लिखी!
—लेकिन मुल्ला ने भरे दरबार में कहा— अगर इतने विद्वान और गुणी लोग इस पर एकमत नहीं हैं कि रोटी क्या है तो वे यह कैसे कह सकते हैं कि मैं अपनी हंसाने वाली बातों से लोगों को गलत राह दिखाता हूं, लोगों की मति भ्रष्ट करता हूं। मुल्ला का मुकदमा ख़ारिज़ हो गया।
—यानी तेरौ ऊ मुकद्दमा खारिज है जायगौ?
—मेरी बात छोड़िए, पर इतना तय है कि रोटी न मिले तो मति को कर सकती है भ्रष्ट, दे सकती है अपार कष्ट और कर सकती है नष्ट। मिलती रहे तो मां होती है, न मिले तो हत्यारी होती है। अच्छी है या बुरी है, रोटी ही दुनिया की धुरी है।
—वाह भई वाह!
—मैंने फेसबुक पर अपने मित्रों के बीच में सवाल दागा कि रोटी क्या होती है। लगभग सौ लोगों ने अपनी-अपनी तरह से रोटी की व्याख्या की। एक से एक लाजवाब।
अशोक गोयल ने लिखा कि रोटी वो चीज है जो पेट में जाने के बाद परांठे की हवस को जन्म देती है।
तरुण भारद्वाज ने लिखा, रोटी किसी के लिए खाना है, किसी के लिए खज़ाना। अमित कुमार त्रिपाठी कहते हैं कि रोटी भूख का अंत और लालच की शुरुआत है। बिन्दु अरोड़ा बोले कि पैसे से रोटी तो बन सकती है मगर पैसे की रोटी नही बन सकती। नन्दलाल भारती ने कहा कि रोटी का असली मतलब तो वही जानता है, जिसका चूल्हा पसीने से गरमाता है। अंशु माला ने बड़ी मार्मिक बात कही— अमीर का बच्चा जिसे चुपके से कूड़ेदान में डाल आता है गरीब कूड़ा बीनने वाला बच्चा चुपके से कूड़ेदान से उठा लाता है। मुल्ला नसीरुद्दीन का सवाल इंटरनेट की मेहरबानी से हजारों लोगों तक पहुंच गया।













—तू का लिखतौ?
—मैं क्या लिखता! रोटी खुद ही एक सवाल है। मेरी चंद पंक्तियां सुन लीजिए— गांव में अकाल था, बुरा हाल था। एक बुढ़ऊ ने समय बिताने को, यों ही पूछा मन बहलाने को— ख़ाली पेट पर कितनी रोटी खा सकते हो गंगानाथ? गंगानाथ बोला— सात! बुढ़ऊ बोला— गलत। बिलकुल गलत कहा, पहली रोटी खाने के बाद पेट खाली कहां रहा? गंगानाथ, यही तो मलाल है, इस समय तो सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।

Friday, April 23, 2010

विश्व-प्रेम की दिशा में आगे बढ़ने की सीढ़ी

—चौं रे चम्पू, सानिया-सुऐब कौ ब्याह ठीक भयौ का? तू का मानै?
—चचा, विवाह तो हर प्रकार से विचार करने के बाद ही किया जाता है। सानिया ने सोचा है कि ठीक है, तो बिल्कुल ठीक है। उसने किसी अन्य जीवधारी से तो विवाह नहीं किया! समलिंगी से तो नहीं किया! प्रकृति के नियमों का पालन किया। एक पुरुष से प्रेम किया। मुश्किल में उसका साथ दिया। इसमें क्या बुराई है?
—एक पाकिस्तानी ते कियौ, जे गल्त बात नायं का?

—ग़लत क्यों है? कोई नई बात है क्या? विभाजन के बाद से दो देशों के युवाओं में विवाह होते आ रहे हैं। परस्पर ख़ून के प्यासे कबीलों के युवाओं ने युद्ध भी कराए हैं और मैत्रियां भी। कहानियों में अमर हो गए ऐसे प्रेमी। इन प्रेमियों ने भविष्य के नज़रिए बदल दिए। चचा, ये बताइए कि अगर नई पीढ़ी नहीं बदलेगी तो कौन बदलेगा इस दुनिया को?
सानिया कौ एक खेल-प्रेमी समाज ऊ तौ हतै अपने देस कौ? सो बिचार नायं कियौ?
—क्या बात करते हैं चचा! मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप तो जानते हैं कि धरती सूरज से छिटक कर एक आग के गोले के रूप में अरबों खरबों वर्ष तक अपने ठण्डे होने की प्रतीक्षा करती रही होगी तब कहीं उसमें जलचर, नभचर, थलचर पैदा हुए होंगे। उस धरती में देश नहीं थे, सीमा रेखाएं नहीं थीं। आदि मानव ने आज का मानव बनने में हजारों-लाखों वर्ष लगाए हैं, उसी ने सीमा रेखाएं खींची हैं, उसी ने देश बनाए हैं। हमारा देश तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत को मानने वाला रहा है। पूरी वसुधा एक कुटुम्ब है। तो फिर क्या हिन्दुस्तानी और क्या पाकिस्तानी?
—बहुत ऊंची मत छोड़ रे, जमीन की हकीकत बता।
—चचा! ज़मीन पहले आई या वो हकीकत पहले आई, जिसका आप ज़िक्र कर रहे हैं? ज़मीन अपने आप में एक हकीकत है। विवाहों के इतिहास पलट कर देखिए। मोहनमाला नाम की किताब के पेज एक सौ छ: पर महात्मा गांधी ने लिखा है— ’विवाह जिस आदर्श तक पहुंचाने का लक्ष्य सामने रखता है, वह है शरीरों के द्वारा आत्मा की संयोग-साधना। विवाह जिस मानव-प्रेम को मूर्त रूप प्रदान करता है, उसे दिव्य-प्रेम अथवा विश्व-प्रेम की दिशा में आगे बढ़ने की सीढ़ी बनाया जाना चाहिए।’ सानिया-शोएब विवाह से युद्धोन्मादियों को सबक लेना चाहिए।
—तू अपने देस के लोगन कूं जानैं नायं का? जब सानिया खेलेगी तौ भारत में तारी बजिंगी का, बता?
—अगर नहीं बजती हैं तो हमें अपने आपको समझाना होगा कि वह हमारे देश की बालिका है, कॉमनवेल्थ गेम्स में हमें उसका मनोबल बढ़ाना है। अगर हमने उसका मनोबल न बढ़ाया तो अच्छा खेल नहीं दिखा पाएगी। उसने स्वयं कहा है कि मैं पाक की बहू नहीं, शोएब की पत्नी हूं। मैंने किसी पाकिस्तानी से नहीं, एक इंसान से शादी की है। दो लोग दो देशों का प्रतिनिधित्व करते हुए भी पति-पत्नी बने रह सकते हैं। यह भविष्य की संस्कृति का संकेत है। हर चीज में बुराई देखना अच्छी बात नहीं होती है चचा। और वे घर भी बसाना चाहते हैं ऐसी जगह जो न भारत है, न पाकिस्तान। मेरी कामना तो ये है कि पूरी धरती पर जो भी अपने कौशल को जिस तरह से दिखाना चाहता है, उसको मौका मिले। अब यह तो प्यार की, आत्मीयता की और एकमेक हो जाने की भावना पर निर्भर करता है कि शोएब भी सानिया को उतना ही स्पेस देता है कि नहीं। मैं तो समझता हूं, जब भारत की ओर से खेलते समय कॉमनवेल्थ गेम्स में सानिया लगातार जीतेगी तो शोएब भारत के लिए तालियां बजाएगा और शोएब ने अगर हमारी सानिया के लिए तालियां बजाईं तो हम उसे सिर आंखों पर रखेंगे और कामना करेंगे कि आजादी से पहले जो प्यार, सद्भाव हम सबमें था, वह वापस आ जाए। किसी कठमुल्ले या कठपंडित के फतबों से ऊपर उठकर ये युगल अपना रुतबा दिखाए और पूरी दुनिया को बताए कि प्रेम एक बड़ी ताकत है जो राजनीति को नीति में बदल सकती है और युद्ध को शांति में।
—ऐसे ख्वाब मत देखै, जो पूरे नायं है सकैं।
—चचा तुम मेरे गुब्बारे में पिन मारते रहते हो, मैं अच्छी-अच्छी सोच की हवा भर के फुलाता हूं, तुम फिस्स कर देते हो।
—अरे तेरे सोचिबै ते का ऐ? फिस्स करिबे वारे ठस्स लोगन की कमी ऐ का हिन्दुस्तान में!

Friday, April 16, 2010

संकल्प लेने वाले लोगों ने काश…

—चौं रे चम्पू! बता आज के दिन की महत्ता का ऐ रे?
—महत्ता ये है चचा कि आज चौदह अप्रैल को बाबा साहब भीम राव अंबेडकर का जन्मदिन है।
—संविधान के जनक अंबेडकर जी कौ!
—हां चचा! लेकिन वे स्वयं को जनक नहीं मानते थे। वे तो बड़ी सौम्यता से कहते थे कि मैं प्रारूप समिति का अध्यक्ष हूं। जो मुझसे कहा गया मैंने लिख दिया। संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष तो डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हैं। चचा, दो सौ चौरासी सदस्यों को संविधान बनाने में दो वर्ष, ग्यारह महीने और सत्रह दिन लगे। वक़्त ज़्यादा लग रहा था तब एक नजीरुद्दीन अहमद साहब ने तो यहां तक कह दिया कि इस कमेटी का नाम ड्रिलिंग कमेटी रख दो, ड्रिल कर रही है। पता नहीं कब बन पाएगा। आलोचनाएं तो हर काम की होती हैं चचा। अंबेडकर साहब ने अपने भाषण में विलम्ब के कारण बताए और साथ में कह दिया कि मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है, यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। यानी चचा, फर्क इससे पड़ता है कि चलाने वाले लोग कौन हैं, कैसे हैं, उनकी नीयत कैसी है।
—ठीक बात। लेकिन हमारे लोगन कूं कोई खास जानकारी है नायं संविधान के बारे में।
—जानकारी कैसे हो? मूल तो अंग्रेजी में बनाया गया। हिन्दी अनुवाद हुआ तो मुश्किल भाषा में हुआ। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की तो पीड़ा ही यह थी कि इसका मूल प्रारूप हिन्दी में क्यों नहीं बना। अब कुछ लोग कहते हैं कि पुराना हो गया है, नई ज़रूरतों के अनुसार इसको बदल देना चाहिए। दरसल, हमारे संविधान की बुनियाद इतनी मज़बूत रखी गई है कि बदलना आसान नहीं है। दो तिहाई बहुमत दोनों सदनों में हो तब कुछ हो सकता है। सरकारें खुद बैसाखियों के सहारे चल रही हैं, बैसाखी के दिन ऐसा कैसे हो सकता है कि सब कुछ आपकी इच्छा के अनुरूप हो जाए।
—जे बात तौ है।
—चचा, मेरे एक मित्र हैं गोरखनाथ जी। उन्होंने मुझे संविधान की अंग्रेजी में हस्तलिखित मूल प्रति की एक प्रतिलिपि भेंट की। हर पृष्ठ पर शानदार बौर्डर बना हुआ है। कलात्मक संरचना है। एक फुट बाई सवा फुट की होगी। मोटी किताब है। वज़न भी तीन-चार किलो से कम नहीं होगा। मैंने यह सोच कर कि कोई मार न ले जाए, उसके पहले ख़ाली पृष्ठ पर ‘मेरा आस्था ग्रंथ’ लिख कर नीचे अपने हस्थाक्षर कर दिए। फिर पन्ने पलटने लगा, अंतिम पृष्ठ पर कुछ हस्ताक्षर थे, जिनमें अंतिम हस्ताक्षर फ़ीरोज गांधी का था।
—कुल्ल कित्ते दस्कत हते?
—दो सौ चौरासी। पहला हस्ताक्षर ससुर जी का यानी पंडित नेहरू का था और अंतिम दामाद जी यानी फ़ीरोज गांधी का था। पहला हस्ताक्षर अध्यक्ष जी का होना चाहिए था लेकिन कहते हैं कि सबसे पहले नेहरू जी ने कर दिए। भाषाओं की सूची के नीचे जरा सी भी जगह नहीं थी। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उनसे ऊपर भाषाओं की सूची के सामने एक टेढ़ी लाइन खींच कर पहले हिन्दी में हस्ताक्षर किए और उसके नीचे अंग्रेज़ी में। मैं घंटों तक उन हस्ताक्षरों को देखता रहा। हस्ताक्षरों में अतीत झांक रहा था। मुझे सारे के सारे सदस्य सैंट्रल हॉल में बैठे हुए नज़र आने लगे। दो सौ चौरासी में से पैंतीस लोगों ने हिन्दी में हस्ताक्षर किए और पांच ऐसे थे जिन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में किए। पर एक चीज देखने में बड़ी मजेदार लगी।
—बता!
—जहां-जहां हिन्दी के हस्ताक्षर आते थे, आमतौर से चार-पांच एक साथ आते थे। यानी हिन्दी के पक्षधर, एक साथ बैठते थे। हिन्दी वाले थे दो सौ चौरासी में से केवल चालीस। संविधान में हिन्दी को राजभाषा का संकल्प लेने वाले सारे लोगों ने काश हिन्दी में हस्ताक्षर किए होते तो हिन्दी देश में एकता की भाषा बन जाती। उस समय दिल से कोई भी उन्हें सलाह देता तो शायद सब मान जाते चचा।
—दो सौ चौरासी में ते कौन-कौन चौरासी योनीन में कहां-कहां भटक रह्यौ ऐ, का पतौ?

Wednesday, April 07, 2010

कविता कवि की है या मठाधीशी की

—चौं रे चम्पू! जे अचरज कौ गणित का होय लल्ला?
—अहंकारी गणितज्ञों को अक्सर अचरज होता है चचा। प्रमेय बनाते हैं, बड़े श्रम से अपनी गणनाओं का गणित बिठाते हैं। वे अपने उस गणित पर परम आश्वस्त रहते हैं। सोचते हैं कि सूरज चांद सितारों को उन्हीं के गणित से चलना होगा। उन्हें अचरज होता है जब वे देखते हैं कि ये सूरज चांद सितारे अपने नियमों से कैसे चल रहे हैं। इन्हें अपने गणित पर इतना गर्व होता है कि मात्र दो मिनिट में किसी भी बड़ी से बड़ी संस्था को अप्रासंगिक करार दे सकते हैं। ये सूर्य से भी तेजस्वी महसूस करते हैं स्वयं को। इनके आगे खद्योतों की क्या बिसात। इनके स्वयं के अहंकार और निहित स्वार्थों के कारण बिसात जब पलट जाती है तो औंधे मुंह गिरते हैं। जीवन अपनी गति से चलता है, सिर्फ़ गणित की गोटियों से नहीं। कभी-कभार चल जाता है, सदा-सदैव नहीं चल पाता चचा।
—इनकौ का इलाज ऐ?
—लाइलाज हैं चचा। जो इनका इलाज करे, स्वयं बीमार हो जाए। अहंकारी की उपेक्षा करनी चाहिए क्योंकि वह अपनी गलती नहीं देखता। दूसरों में खोट निकालता है। अपना अंतःकरण नहीं टटोलता, दूसरों के अंतःकरण में अंधेरा देखता है।
—अहंकारी कूं कबहुं अहंकार नायं दिखानौ चइऐ।
—बिल्कुल ठीक चचा। अहंकार सहजता, आनन्द और समूह से डरता है। पिछले दिनों दिल्ली की हिन्दी अकादमी ने भारतीय कविता उत्सव किया। देश भर से संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, सिंधी, पंजाबी, डोगरी, कश्मीरी, नेपाली और हिन्दी के एक से एक तेजस्वी कवि आए। उद्घाटन किया उड़िया के वरिष्ठ कवि डॉ. सीताकांत महापात्र ने। उन्होंने बड़ी अच्छी बातें कहीं।
—हमें ऊ बता।
—पहले तो उन्होंने कहा कि भारतीय कविता उत्सव, ये नाम उन्हें बहुत अच्छा लगा। उत्सव में आनन्द आता है। ये सिर्फ कविता के लिए ज़रूरी नहीं है, सारी कलाओं के लिए है। अभी सब ऐसा सोचने लगे हैं, पाठक भी सोचने लगे हैं कि कविता प्रीस्टहुड (मठाधीशी) की है, कवियों की नहीं। वे जो समीक्षक हैं, कविता के चिंतक हैं, ऐसा लगता है कि सबमें प्रीस्टहुड है। हम सबको आगे बढ़कर पाठकों को अपने पास लाना है। समूहों को अपने पास लाना है।
—भौत अच्छी बात कही।
—लेकिन अहंकारी मठाधीशी तो समूहों से डरती है चचा। सही बात कहां सुनती है? आनन्द उसे रास नहीं आता। सहजता से कांप-कांप जाती है। एक ही समय में होने वाले विभिन्न प्रयत्नों में स्वयं को महान और दूसरों को ओछा दिखाती है। डॉ. महापात्र अक्सर कहते हैं कि एक समय में कई समय होते हैं और सभी समयों के अलग-अलग आयाम होते हैं। एक हमारा काव्य-समय होता है जिसे हम खुद रचते हैं। कविता का आनन्द छोटी-छोटी चीजों में है। जीवन समाज में आनन्द बहुत ज़रूरी है।
—चल सबकूं आनन्द लैन दै। और का कही सीताकांत जी ने।
—उन्होंने कहा कि भारत का हर भाषा-भाषी कवि चाहता है कि उसके लिखे को सब भारतीय पढ़ें। एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा में जब तक सीधे अनुवाद संभव नहीं हो पा रहा है तब तक एक फिल्टर लैंग़्वैज से काम चलाया जा सकता है। और वह फिल्टर लैंग़्वैज अभी हिन्दी ही है। इसी के ज़रिए एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा तक पहुंचा जा सकता है। यह बात अंग्रेजी में नहीं है। इसके बाद चचा उन्होंने अपनी पांच कविताएं उड़िया भाषा में सुनाईं। अकादमी के सचिव साहित्यकार डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव परिचयदास ने उनका हिन्दी अनुवाद सुनाया। अनुवाद पर ज़्यादा तालियां बजीं।
—अनुवाद पै जादा चौं बजीं रे?
—क्योंकि अनुवाद अच्छा था, पाठ अच्छा था और असल बात ये कि कविताएं संप्रेषित हुईं। अद्भुत कविताएं थीं। चचा, संप्रेषण कविता का मूल धर्म है। डॉ. महापात्र भी चाहते थे कि कविता पाठकों तक और उत्सवों के ज़रिए समूहों तक पहुंचे और आपके इस चंपू की तमन्ना भी यही है कि कविसम्मेलन इतने स्तरीय हुआ करें कि हमारी संस्कृति और जीवन के सुख-दुख के बिम्बों और प्रतीकों का आनन्द संप्रेषित कर सकें।
—फिकर मत कर चम्पू, लग्यौ रह ईमान्दारी ते। फसलता मिलैगी।