—चौं रे चम्पू! जे अचरज कौ गणित का होय लल्ला?
—अहंकारी गणितज्ञों को अक्सर अचरज होता है चचा। प्रमेय बनाते हैं, बड़े श्रम से अपनी गणनाओं का गणित बिठाते हैं। वे अपने उस गणित पर परम आश्वस्त रहते हैं। सोचते हैं कि सूरज चांद सितारों को उन्हीं के गणित से चलना होगा। उन्हें अचरज होता है जब वे देखते हैं कि ये सूरज चांद सितारे अपने नियमों से कैसे चल रहे हैं। इन्हें अपने गणित पर इतना गर्व होता है कि मात्र दो मिनिट में किसी भी बड़ी से बड़ी संस्था को अप्रासंगिक करार दे सकते हैं। ये सूर्य से भी तेजस्वी महसूस करते हैं स्वयं को। इनके आगे खद्योतों की क्या बिसात। इनके स्वयं के अहंकार और निहित स्वार्थों के कारण बिसात जब पलट जाती है तो औंधे मुंह गिरते हैं। जीवन अपनी गति से चलता है, सिर्फ़ गणित की गोटियों से नहीं। कभी-कभार चल जाता है, सदा-सदैव नहीं चल पाता चचा।
—इनकौ का इलाज ऐ?
—लाइलाज हैं चचा। जो इनका इलाज करे, स्वयं बीमार हो जाए। अहंकारी की उपेक्षा करनी चाहिए क्योंकि वह अपनी गलती नहीं देखता। दूसरों में खोट निकालता है। अपना अंतःकरण नहीं टटोलता, दूसरों के अंतःकरण में अंधेरा देखता है।
—अहंकारी कूं कबहुं अहंकार नायं दिखानौ चइऐ।
—बिल्कुल ठीक चचा। अहंकार सहजता, आनन्द और समूह से डरता है। पिछले दिनों दिल्ली की हिन्दी अकादमी ने भारतीय कविता उत्सव किया। देश भर से संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, मराठी, राजस्थानी, सिंधी, पंजाबी, डोगरी, कश्मीरी, नेपाली और हिन्दी के एक से एक तेजस्वी कवि आए। उद्घाटन किया उड़िया के वरिष्ठ कवि डॉ. सीताकांत महापात्र ने। उन्होंने बड़ी अच्छी बातें कहीं।
—हमें ऊ बता।
—पहले तो उन्होंने कहा कि भारतीय कविता उत्सव, ये नाम उन्हें बहुत अच्छा लगा। उत्सव में आनन्द आता है। ये सिर्फ कविता के लिए ज़रूरी नहीं है, सारी कलाओं के लिए है। अभी सब ऐसा सोचने लगे हैं, पाठक भी सोचने लगे हैं कि कविता प्रीस्टहुड (मठाधीशी) की है, कवियों की नहीं। वे जो समीक्षक हैं, कविता के चिंतक हैं, ऐसा लगता है कि सबमें प्रीस्टहुड है। हम सबको आगे बढ़कर पाठकों को अपने पास लाना है। समूहों को अपने पास लाना है।
—भौत अच्छी बात कही।
—लेकिन अहंकारी मठाधीशी तो समूहों से डरती है चचा। सही बात कहां सुनती है? आनन्द उसे रास नहीं आता। सहजता से कांप-कांप जाती है। एक ही समय में होने वाले विभिन्न प्रयत्नों में स्वयं को महान और दूसरों को ओछा दिखाती है। डॉ. महापात्र अक्सर कहते हैं कि एक समय में कई समय होते हैं और सभी समयों के अलग-अलग आयाम होते हैं। एक हमारा काव्य-समय होता है जिसे हम खुद रचते हैं। कविता का आनन्द छोटी-छोटी चीजों में है। जीवन समाज में आनन्द बहुत ज़रूरी है।
—चल सबकूं आनन्द लैन दै। और का कही सीताकांत जी ने।
—उन्होंने कहा कि भारत का हर भाषा-भाषी कवि चाहता है कि उसके लिखे को सब भारतीय पढ़ें। एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा में जब तक सीधे अनुवाद संभव नहीं हो पा रहा है तब तक एक फिल्टर लैंग़्वैज से काम चलाया जा सकता है। और वह फिल्टर लैंग़्वैज अभी हिन्दी ही है। इसी के ज़रिए एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय भाषा तक पहुंचा जा सकता है। यह बात अंग्रेजी में नहीं है। इसके बाद चचा उन्होंने अपनी पांच कविताएं उड़िया भाषा में सुनाईं। अकादमी के सचिव साहित्यकार डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव परिचयदास ने उनका हिन्दी अनुवाद सुनाया। अनुवाद पर ज़्यादा तालियां बजीं।
—अनुवाद पै जादा चौं बजीं रे?
—क्योंकि अनुवाद अच्छा था, पाठ अच्छा था और असल बात ये कि कविताएं संप्रेषित हुईं। अद्भुत कविताएं थीं। चचा, संप्रेषण कविता का मूल धर्म है। डॉ. महापात्र भी चाहते थे कि कविता पाठकों तक और उत्सवों के ज़रिए समूहों तक पहुंचे और आपके इस चंपू की तमन्ना भी यही है कि कविसम्मेलन इतने स्तरीय हुआ करें कि हमारी संस्कृति और जीवन के सुख-दुख के बिम्बों और प्रतीकों का आनन्द संप्रेषित कर सकें।
—फिकर मत कर चम्पू, लग्यौ रह ईमान्दारी ते। फसलता मिलैगी।
Wednesday, April 07, 2010
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3 comments:
GURU JI!
SAADAR BLOGASTE!
AAPKA YAH LEKH ACHCHHA LAGAA.KAAMNA KARTA HOON KI AAP JIS UDDESHYA KE LIYE PRAYAASRAT HAIN USME AAPKO SAFALTAA MILE...
naman hai dev aapke lekhan kon
अशोकजी,
आपकी पोस्ट तो सदैव की तरह ही लाजवाब है। किन्तु आज आपकी पोस्ट से अलग हटकर।
आपको व्यक्तिगत सन्देश देने के लिए मुझे आपका ई-मेल पता चाहिए जो मैं भरपूर कोशिशों के बाद भी तलाश नहीं कर पाया।
मैं रतलाम (मध्य प्रदेश) में हँ। कृपया अपना ई-मेल पता उपलब्ध कराऍं। मेरा ई-मेल पता है - bairagivishnu@gmail.com
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ। धन्यवाद।
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