Wednesday, October 06, 2010

आनंद में ज़्यादा नहीं सूझता


—चौं रे चम्पू! चांदी कांसे के बाद बिंद्रा नै सौने की सुरूआत तौ करी। तू गयौ ओ उद्घाटन समारोह देखिबे?
—वहाँ तो नहीं गया चचा, पर कल्पनाओं में कहाँ-कहाँ नहीं गया चचा! अद्भुत से ऊपर कोई शब्द मिले तो बताऊँ। सन बयासी के एशियाड खेलों के दौरान भारत में रंगीन टीवी दिखा था और अब, दो हज़ार दस में, टीवी के ज़रिए पूरी दुनिया ने भारत की रंगीनी देखी। अतुलनीय भारत!इंक्रेडेबिल इंडिया!
—बगीची पै बिजरी ई नाय हती! देखते कैसै? पाँच दिना ते खम्बा गिरौ परौ ऐ, बिजरी वारेन कूं पइसा खवामैं तौ उठै!
—रहने भी दो चचा! माना कि बरसात और खुदाई के कारण पोल गिर गया था, लेकिन अब किसी बदइंतज़ामी की पोल मत खोलो। भारत की जय बोलो! हमारे अंदर आत्मविश्वास और भारत जगेगा तो हर तरफ का पोल जल्दी से जल्दी लगेगा। संक्रमण के इस काल में अंदर की बिजली मत बुझने दो चचा। भावना ही भावना की ज्योति जगाती है। ईमानदारी लादी नहीं जाती अंदर से आती है। ये भी तो देखो कि खेल से पहले ही सरिता विहार तक मैट्रो आ गई। काम हुए न पूरे। और भी हो जाएँगे धीरे-धीरे। मीडिया ने तो ऐसी छवि बना दी थी जैसे सब कुछ की ऐसीतैसी हो गई हो। खेलों की भी डैमोक्रेसी हो गई हो।
—जाकौ का मतलब भयौ?
—अरे मेरी एक कविता है न चचा, ‘अब मैं ये नहीं कहता कि मेरे ऐसीतैसी हो गई है, कहता हूँ मेरी डैमोक्रेसी हो गई है। अनुभव लेकर लूट-पाट का, रस्ता लेकर राजघाट का, गद्दी तक पहुँचे अपराधी, लोकतंत्र की डोरी साधी। डैमोक्रेसी चली ग्रीक से, भारत में चल रही ठीक से। अभी चौदह तारीख तक निंदा मत करो चचा।
—मंजूर! नायं खोलिंगे पोल, आगै बोल!
—नयनाभिराम नज़ारा था, पूरी दुनिया में छाया हुआ भारत हमारा था। चालीस करोड़ की लागत वाले ऐरोस्टेट ने जलवा कर दिया चचा। भारत की सम्पन्न संस्कृति की कुण्डलिनी जागृत होती हुई दिखाई गई और बोधि वृक्ष के नीचे परंपरा-प्रदान-प्रक्रिया सम्पन्न हुई। सात हज़ार कलाकारों ने आनंद के सातवें आसमान तक चढ़ा दिया। तालियों ने बता दिया कि दिल्ली दिल से शीला जी को और अपनी प्यारी हिन्दी को प्यार करती है। सबसे ज़्यादा तालियाँ तीन बार बजीं, एक बार तब जब बिंद्रा भारत का झंडा लेकर स्टेडियम में आए, दूसरी बार तब जब शीला जी नाम लिया गया और तीसरी बार तब जब राष्ट्रपति महोदया ने अपने भाषण के अंत में हिन्दी बोली। मीडिया ने तो खेल गाँव के बिस्तर पर सोता हुआ कुत्ता दिखाया था। दिखाए थे अपनी निंदाओं के पंजों के निशान। वह सब कुछ क्यों नहीं दिखाया जो उद्घाटन समारोह में अचानक दिखा। क्या वह बिना तैयारियों के हो गया था? अब सबके सुर बदल गए हैं। हमें अपनी सिक मानसिकता से निकलना होगा। गरीबी, बेरोज़गारी, असमानता और अज्ञान से पूरी दुनिया जूझ रही है। वह दिन भी आएगा जब हमारे देश के सभी मानव सुखी, सुंदर और शोषणमुक्त होंगे।
—तू तौ समारोह के सावन में अंधौ है गयौ ऐ लल्ला!
—हो सकता है चचा! लेकिन मुझे सन सतासी में सोवियत संघ के मॉस्को में हुआ ’भारत महोत्सव’ का नज़ारा याद आ रहा है। भारत से दो हज़ार लोक और शास्त्रीय कलाकार गए थे। मैं दूरदर्शन की ओर से आँखों देखा हाल सुनाने गया था। लेनिन स्टेडियम की सजावट और तकनीक का कमाल देख कर सोच रहा था कि क्या कभी हमारे देश में भी इस स्तर के कार्यक्रम हो सकते हैं। तेईस साल पुरानी तमन्ना इस समारोह ने पूरी कर दी चचा। अंधा कहो या सूजता। आनंद में कुछ ज़्यादा नहीं सूझता।
—लोग खुस ऐं, जे बात तौ मानी जायगी रे।
—चचा, नन्हें उस्ताद केशव के तबले को प्रणाम! उसकी उंगलियों पर थिरकते हुए भविष्य को प्रणाम। समारोह को सफल बनाने वाले सारे लोगों को प्रणाम। अंजाने-अनदेखे प्रयत्नों को प्रणाम। गारे सने हाथों को, डामर सने पाँवों को, उन सबको प्रणाम, जिन सबने सड़कें, सुरंगें बनाईं कमाल की, दिल्ली में माया फैला दी फ्लाईओवर-मैट्रो के जाल की।
—हाँ माया कहाँ-कहाँ फैली, कौन जानै?
—चचा सब जानते हैं खेल खतम, पैसा हजम, लेकिन अभी कान में डालो कुप्पी, चौदह तक रखो चुप्पी।

6 comments:

monali said...

Sahi h.. ek dusre ki malamat fajihat to medis k zariye 14 k baad honi hi h... filhaal to CWG aur us se judi mazedaar posts ka maza lijiye aur Metro me add huye pink compartment k liye Government ko dhanyavaad dijiye..... :)

Khare A said...

बगीची पै बिजरी ई नाय हती! देखते कैसै? पाँच दिना ते खम्बा गिरौ परौ ऐ, बिजरी वारेन कूं पइसा खवामैं तौ उठै!

धीरे से सरका ही दियो बांस, गुरु जी, यही कमाल हे आपकी लेखनी को!

—हाँ माया कहाँ-कहाँ फैली, कौन जानै?
—चचा सब जानते हैं खेल खतम, पैसा हजम, लेकिन अभी कान में डालो कुप्पी, चौदह तक रखो चुप्पी।

सच कहू इब जाइके मन्ने तसल्ली हुई हते, गुरु जी आपने ओपनिंग तो सही कि हते,
में ए सोच रहा था कि गुरु जी चुप रेहान वालो में ते न ए, कछु न कछु खिचड़ी पकाए रहे होंगे, में आपकी बातन से सहमत हूँ गुरु जी, पूरा सीरियल १४ अक्टूबर के बाद ही दिखियेगा
हमें इंतजार रहेगा,
गुरु श्रेष्ठ कि प्रणाम !

anshumala said...

जी यही तो कलमाड़ी का असल खेल था एक बार गेम हो जाने दो कई बड़े विदेशी खिलाडी के ना आने से भारत कि झोली में जो मैडलो कि भरमार होगी उसी से सबके चहरे खिले होंगे और लोग सब पिछला भूले होंगे |

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

‘लोग खुस ऐं, जे बात तौ मानी जायगी’

बस चचा, खेल खतम पैसा हज्जाम :)

शरद कोकास said...

मज़ा आ गया ।

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

Prastutikaran ka jawab nahi.
-Gyan Chand Marmagya