—चौं रे चम्पू! दिल्ली में आज खेल खतम है जांगे, कौन सौ खेल अच्छौ लगै तोय?
—चचा, खेलों में खेल होता है इश्क़ का खेल। फ़ारसी में इश्क़-बाख्तन कहा जाता है, हिन्दी में प्रेम-क्रीडा। प्रेम-क्रीडा के भेद-उपभेदों से विश्व-साहित्य भरा पड़ा है। ये खेल ऐसा है चचा जिसमें हार भी जीत का मज़ा देती है। इश्क में सारे खेल आ जाते हैं। कल्पनाओं में तैरना, एक-दूसरे के पीछे दौड़ना, भावनाओं की मुक्केबाजी, उलाहनों के भाले फेंकना, नैनों की तीरंदाजी, दिल की निशानेबाजी, दिमागी दांव-पेच की कुश्तियाँ, इश्क़ के मैदान में कौन सा खेल नहीं है, बताइए?
—हाँ, कुस्ती में हमारे जवान हारिबे वारे नायं। पर सही जवाब नाय दियौ तैनैं। जे उमर नायं इसक-फिसक को खेल खेलिबे की।
—चचा, आप अपने चिंतन में यहीं मार खा गए। इश्क़ तो मानवता का मूलाधार है। दिल कभी बूढ़ा नहीं होता। एक शेर सुना था, जो सौदा ने लिखा या नहीं, पता नहीं, पर बुढ़ापे की दिल-क्रीडा का एक उदाहरण है, ‘सौदा के पास सौदा अब कुछ रहा न बाकी, इक दिल ही रह गया है, लो छीन लो छिनालो’। उम्र के साथ इश्क का खेल स्मृतियों के खेल में बदल जाता है। कल्पनाएँ खिलाड़ी के लिए वाहन का काम करती हैं। कल्पनाएं स्मृतियों के मैदान को देश-काल से परे एक विस्तार देती हैं। आप कहीं से कहीं जाकर कोई सा खेल खेल सकते हैं। अतीत के ग्राउंड में बिना मीटर देखे दौड़ लगा सकते हैं। गंगाधर जसवानी की एक बहुत अच्छी कविता है ‘ग्रामोफोन’।
—सुना, कबता सुना।
—उन्होंने कहा था, बचपन में बिछुड़े शहर कीगलियों, सड़कों और रास्तों पर, अपने कदमों की सुइयों से मैंने अतीत के रिकॉर्ड खूब बजाए और जी भरकर, उन पर घूम-घूम कर, आँसू बहाए, सुना अतीत का संगीत। चचा, ज़रा ग्रामोफोन के बिम्ब के विस्तार में जाइए, रिकॉर्ड घूम रहा है, ध्वनियों की अनुगूँज तो तब उठती हैं जब घूमते रिकॉर्ड पर सुई रख दी जाए। सुई अपने ही स्थान पर काँपते हुए लगभग स्थिर रहती है। अपनी धुरी पर घूम रहा है स्मृतियों का रिकॉर्ड। कल्पना करिए कि अचानक रिकॉर्ड रुक जाता है। नहीं, नहीं, रिकॉर्ड नहीं रुक सकता चचा!ये स्मृतियों का रिकॉर्ड है। रुक जाएगा तो सुई दौड़ने लगेगी पाँव बनकर, रिकॉर्ड के हर गलियारे में।कल्पनाएँ कभी गतिशून्य नहीं होतीं। प्रवासी के पाँव गलियों, सड़कों और रास्तों पर सुई की तरह दौड़ लगाने लगेंगे।अतीत को आपादमस्तक गुंजाने लगेंगे। सब कुछ संगीतमय हो उठेगा।
—ग्रामोफोन रिकॉर्ड तो गायब ई है गए रे!
—मैगनेटिक टेप का ज़माना आया, फिर टेप से सीडी में आ गईं आवाजें और चित्रशालाएँ, सीडी से डीवीडी, अब है छोटी सी चिप। बचपन में सिनेमा टॉकीज के पिछवाड़े फिल्म के टुकड़े बीना करते थे। एक ही तस्वीर जरा-जरा से अन्तर से फिल्म की पट्टी में दिखाई देती थी। हम बच्चों ने रात के अंधेरे में तरह-तरह के प्रयोग किए। फिल्म के पीछे से टॉर्च मारते थे, दीवार पर बिम्ब बनाने की कोशिश करते थे। मैं आपको बता नहीं सकता चचा कि उस वक्त कितनी खुशी हुई थी, जब फिल्म के आगे डिप्टी साहब का मोटा चश्मा लगाने से दीवार पर धुंधली-धुंधली छायाएँ बन गईं थीं। रेडियो-टेलीविजन का विकास हमारे सामने हुआ। अब तो कंप्यूटर ने दृश्य-श्रव्य संचार के विकास में क्रांति ही ला दी है। कल राष्ट्रकुल खेलों का समापन समारोह है। वहाँ नवविकसित परम-चरम यंत्र देखने को मिलेगा ‘एयरोस्टेट’।
—हाँ, वा कौ बड़ौ हल्ला सुनौ ऐ रे!
—उद्घाटन समारोह में रंग जमा दिया था ‘एयरोस्टेट’ ने। भारत में पहली बार हीलियम गैस से भरे गुब्बारे का खेलों और मनोरंजन के लिए इस्तेमाल हुआ। सुनते हैं कि इस बार गैस तीस मीटर की ऊँचाई तक इस दृश्य-श्रव्य सुविधा-सम्पन्न गुब्बारे को उठा देगी। मामूली गुब्बारा नहीं है चचा। तीन सौ साठ डिग्री देखने वाले कैमरे लगे हैं इसमें। पैवेलियन में चल रहे इश्क़ के खेल भी दिखाएगा और खेलों से इश्क़ भी पैदा करेगा। बाद में धुरी पर घूमता रहेगा स्मृतियों का रिकॉर्ड! याद रहेगा ये गुब्बारा।
—चौदह के बाद हवा निकर जाएगी कै नायं?
—लोग आलपिन मारने से बाज़ आएं तब न! बहुतेरे तो पहले से ही हवा निकालने पर आमादा हैं।
Wednesday, October 13, 2010
धुरी पर घूमेगा स्मृतियों का रिकॉर्ड
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4 comments:
‘ फ़ारसी में इश्क़-बाख्तन कहा जाता है, हिन्दी में प्रेम-क्रीडा। ’
इश्किया कम्बख्त हो या प्रेम का कीडा, लग मया तो पिन से फूटेगा का ???
guru shreshth ji ko pranaam
khoob kahi prem -krida , maja aa gaya guru ji
aur ant me alpin bhi chubho hi dari
बहुत ही खूबसूरती से बयान कर दी ये दास्ताँ
waah..kya baat hai!
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