Monday, March 10, 2008

औरों को भी बुद्धि आनी चाहिए

--चौं रे चंपू! जमाने में आजकल्ल अच्‍छे काम जादा है रए ऐं कै बुरे?
--चचा, काम तो अच्छे ही ज़्यादा होते हैं, पर नज़र में आने की बात है। अच्‍छे कामों पर लोगों की नज़र कम जाती है बुरे कामों पर ज़्यादा जाती है, इसलिए ऐसा लगता है कि बुरे काम ही ज़्यादा हो रहे होंगे। और चचा, बुरी चीज़ देखने में, बुरी बात सुनने में बड़ा मज़ा आता है। अच्‍छी बात एक कान में घुसकर दूसरे कान से निकल जाती है। बुरी बात कान में जाने के बाद किसी दूसरे के सामने मुंह से निकलती है। दूसरे के मुंह से तीसरे के कान में, तीसरे के मुंह से चौथे के कान में... एंड सो ऑन। बात चौथे से चार हज़ार चार सौ चौथे कान तक चली जाती है।
ग़ैरों की बुराई जो करे सामने तेरे,
तेरी भी बुराई वो सरेआम करेगा।
बुराई में बड़ा मज़ा आता है चचा। अच्‍छाई की चर्चा में क्‍या रक्खा है? बताओ किसकी बुराई करूं?
--छोड़ बुराई। कोई ऐसी अच्‍छी बात सुना, जाय सुनिबे में मज़ा आवै।
--चचा, दिल्ली में आर. के. पुरम के सैक्‍टर पाँच में एक पार्क है, उसका नाम रख दिया गया है— 'काका हाथरसी उद्यान', ये एक बढ़िया काम हुआ है।
--अरे जि तौ सच्ची भौत भड़िया काम भयौ।
--हां चचा, पार्क में जाओ। घुसते ही जब काले संगमरमर पर काका हाथरसी का नाम खुदा हुआ देखोगे तुम्‍हारे चेहरे पर मुस्‍कान खिल जाएगी। क्‍या जलवे हुआ करते थे काका हाथरसी के। जिधर से निकलते थे काई-सी फट जाती थी। दूर से देखते ही लोग चिल्लाने लगते थे-- वो देखो काका। देखो, वो जा रहे काका। बहुत सारे लोग काका को पहचानते थे। वो भी चचा उस ज़माने में जब टेलीविज़न नहीं आया था। आवाज़ रेडियो से पहचानते थे और पत्र-पत्रिकाओं में छपे फोटो से चेहरा। 'धर्मयुग' 'साप्‍ताहिक हिन्दुस्‍तान' जैसी पत्रिकाएं जनसंचार का सबसे बड़ा माध्‍यम होती थीं। आज एक चौखटा टी.वी. पर सौ बार भी आ जाए तब भी न पहचानें।
--मोऊऐ लै चल काऊ दिना वा उद्यान में।
--क्‍यों नहीं चचा। पर वहां भाँग घोटने का जुगाड़ नहीं होगा, सिलबट्टा नहीं मिलेगा तुमको। महानगर का पार्क है चचा।
--कबितन कौ नसा का कम होय। नांय पींगे भाँग। काका की कबिता सुनइयो और संग टहलियो।
--पार्क में एक नज़ारा देख कर डर मत जाना चचा। आजकल लाफ्टर क्‍लब खुल गए हैं। लोग झुंड के झुंड हंसते हैं और बावले से दिखाई देते हैं।
--अरे तौ हम उनैं देखि-देखि कै हंस लिंगे। ऐसौ नजारौ देखिबे कूं मिलै कै लोग बिनाई बात के हंस रए ऐं तौ जाते भड़िया हंसी और का बात पै आयगी रे? और काका के नाम कौ उद्यान! फिर तौ और जादा आयगी।
--बिलकुल ठीक चचा! होना ये चाहिए कि वहां के लोग हर दिन बारी-बारी से काका की कोई कविता सुनाएं और नकली हंसी हंसने की बजाय असली का आनन्द लें।
--पर जे भयौ कैसै? हमारे देस में तौ महात्‍मा गांधी पार्क, अंबेडकर पार्क और नेतान के नाम के पार्कन कौ चलन ऐ?
--चचा, ये बहुत ही अच्‍छा हुआ है। नाम रखने का काम सरकारों का होता है। सरकार में कोई एक आदमी भी साहित्यिक रुचि वाला हो और लग जाय इस काम के पीछे, तो बात बन जाती है। दिल्ली की एक विधायिका बरखा सिंह स्वयं कवयित्री हैं, लग गईं इस अभियान पर। अपने क्षेत्र की एक सड़क का नाम 'कैफ़ी आज़मी मार्ग' रखवा दिया और पार्क का नाम रखवा दिया 'काका हाथरसी उद्यान'। अगल-बगल के विधायकों को भी बुद्धि आनी चाहिए कि वे भारतेन्‍दु हरिश्चंद्र उद्यान, निराला उद्यान, हरिशंकर परसाई मार्ग, शरद जोशी उद्यान, रमई काका उद्यान, साहिर लुधियानवी मार्ग और ऐसे लोगों के नाम पर सड़कों और पार्कों के नाम रखवाएं जिनकी स्‍मृति से ही जीवन खिल उठे। हजारी प्रसाद द्विवेदी पार्क बने तो चित्त में हजारी गुलदस्‍ता खिल जाए और पार्क में हर ऋतु में बसंत रहे। दक्षिण भारत के राज-नेताओं ने इस दिशा में पहल की थी पर हिन्दी के साहित्यकारों को कौन पूछता है?--ठीक कही लल्‍ला! बरखा सिंह तक हमारौ असीस पहुंचाय दइयो।






12 comments:

Ashish Maharishi said...

जय हो, जय हो

समयचक्र said...

आपके विचारो से सहमत हूँ और आपके इस महान विचार को भी नमन करता हूँ काश ऐसा हो सके

पंकज सुबीर said...

बरखा जी को हमारी तरु से भी ढेर सारी धन्‍यवादें दीजियेगा और कहियेगा कि इस दौर में जबकि लोग साहित्‍यकारों को गणमान्‍य नागरिक भी नहीं मानते तब ऐसा करना प्रशंसा की बात है । और हां दद्दा आप के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं । ब्‍लाग पर आपका आना ही इतना कम हो रहा है कि बस । आशा है आप ठीक होंगें आपकी ग्‍वालियर की निठारी वाली कविता एक बार मैंने अपने ब्‍लाग पर लगाई थी ।

Udan Tashtari said...

शायद आपकी बात सुन कर औरों को बुद्धि आ जाये. बरखा जी को साधुवाद.

Anita kumar said...

बरखा जी को धन्यवाद, आप बिल्कुल सही फ़र्मा रहे हैं

Ghost Buster said...

काका सबके आका हैं.

अजित वडनेरकर said...

महिलाएं संवेदनशील होती है।
बहुत खूब। काका सबके आका !

Srijan Shilpi said...

सही कहा, औरों को भी बुद्धि आनी चाहिए। वैसे तो कांग्रेस के लोग नेहरू-गांधी परिवार की हस्तियों के अलावा किसी और को इस गौरव के लायक समझते नहीं, पर साहित्यिक हस्तियों के नाम पर भी सड़कों-उद्यानों-संस्थाओं का नामकरण होना चाहिए। बरखा सिंह जी बधाई की पात्र हैं। वह हमारे क्षेत्र की विधायक भी हैं और जनहित के अच्छे काम भी करती दिखाई देती हैं। पिछले ही हफ्ते जब वह हमारी कॉलोनी के दौरे पर थीं तब एक उजाड़ पड़े पार्क को हरा-भरा बनाने के आइडिये पर चर्चा हुई थी। काका हाथरसी पार्क के नामकरण से प्रेरणा लेकर हमलोग अपने पार्क का भी कोई साहित्यिक नाम सोचते हैं।

कंचन सिंह चौहान said...

aapki kya prashansha ki jaye ..... bas jo bhi kahte hai.n satik hota hai.

vidooshak said...

चचा चक्रधर !
पैलें काका हाथरसी तौ है जाएं;भारतेन्‍दु हरिश्चंद्र और निराला के उद्यान भी है जाएंगे वा दिना जा दिना उनके भाई-भतीजे-जवांई जाग जाएंगे और लग लेंगे दिल्ली में काऊ ऐमिले-एमपी-महापौर-पार्षद के लैर दुम हलात भए . अपएं देस में खाली कविता सै कऊं मार्ग और उद्यान बनत हैं ?

जाई बात को तो रोयबो है .

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

विदूषक दद्दा ,
भली कही आपने.
जा दिल्ली में अभै तक तुलसी, सूर सों ले कें मैथिली शरण गुप्त, दिनकर तक कौ कछू नायं है पायो, वा दिल्ली सें का उम्मीद करी जाय ?
हां कैसें ऊ है गयो ,काका कौ नाम चल गयो ,जऊ अच्छौ ई भयो.

uthoveero said...

bahut acha MAHASYA CHAKRU