Saturday, July 26, 2008

राज रस ही रसराज

चौं रे चम्पू! कल्ल चौं नांय आयौ रे?

टीवी से चिपक-चिंतन करता रहा। उधर साहित्य में पुरस्कारों की राजनीति हो रही थी और इधर करारों की राजनीति में साहित्य चल रहा था। कल लोकसभा टीवी की टी.आर.पी. सबसे ज़्यादा रही होगी। भूत-प्रेत, अपराध, भविष्य, मनी, सनसनी, सैक्स और सैंसैक्स सबकी छुट्टी हो गई। कोई राजू ते पम्मी ते पिंकी दी गड्डी में बैठ कर आया और दस दस लाख की गड्डियां फेंक गया, बड़ा रस आया राजनीति में।

तौ फिर रस-बिमर्स है जाय।

हां रस-विमर्श हो जाय। रस-सिद्धांत की पुनर्व्याख्या अब आवश्यक हो भी हो गई है चचा।आज़ादी के साठ साल बाद राजनीति भी एक रस बन चुकी है। रचनात्मक साहित्य में इस रस की उपेक्षा नहीं हुई पर काव्य-शास्त्र ने इसे अभी तक स्वीकार नहीं किया। नव-रस में से किसी एक को हटा कर 'राज रस' को जोड़ा जाना चाहिए।

राजनीति तौ सदा ते रही ऐ रे! फिर अब तक 'राज रस' चौ बनौ?

'राज रस' पहले भी था, लेकिन परिपक्व नहीं हुआ था। प्रारंभ में ये रस शृंगार में समा गया, क्योंकि दूसरों की लुगाइयां उठाने के लिए ही लड़ाइयां होती थीं। फिर बुद् को काल में शांत रस में और आदिकाल यह रस वीर रस में समा गया। भक्तिकाल रीतिकाल में भक्ति, वात्सल्य और रति-भाव ने इसे दबा दिया। ब्रिटिश शासन के दौरान यह रौद्र भयानक और करुण रसों के कारण नहीं पनप सका। आज़ादी मिलने के बाद लगभग तीन दशक तक यह अद्भुत रस जैसा लगता रहा। पिछले तीन दशकों की डैमोक्रैसी में 'राज रस' हास्य रस में घुसा रहा। लेकिन अब इसने सारे रसों से बाहर निकल कर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। शृंगार को कहा जाता रहा है रसराज लेकिन चचा असली रसराज यह 'राज रस' ही है। इसमें सारे रस समा जाते हैं। जिस तरह शृंगार का स्थायी भाव है 'रति', इसी प्रकार 'राज रस' का स्थायी भाव है 'आस'। श्वांस छोड़ देना पर कुर्सी की आस मत छोड़ना।

--रसराज सिंगार के दो भेद हतैं, संयोग और बियोग, 'राज रस' केऊ ऐं का?

--'राज रस' के भी दो भेद होते हैं चचा—'विश्वास राज रस' और 'अविश्वास राज रस'। जिस तरह वियोग में संयोग की अनुभूति होती है और संयोग में वियोग की, इसी प्रकार 'राज रस' के विश्वास में अविश्वास की और अविश्वास में विश्वास की अनुभूतियां चलती रहती हैं। शांडिल्य ने कहा है— 'योगेवियोगवृत्ति: विश्वासे अविश्वास वृत्ति:', वह संयोग सबसे अच्छा है जिसमें वियोग बना रहे। अगली बात उन्होंने संभवत: 'राज रस' के बारे में कही होगी। जिस पर विश्वास करो उस पर अविश्वास बनाए रखो, और जिस पर अविश्वास हो उस पर तात्कालिक विश्वास कर सकते हो। पता नहीं कब अविश्वासी विश्वासी बन जाए और कब विश्वासी अविश्वासी बन जाए। संसद में लाल-हरे-पीले बटन के दबने तक तुम्हारे रस का कौन सा वाला स्थायी भाव चला, दूसरे संशय में रहेंगे। यही इस रस का गुण है कि इस रस का स्थायी भाव स्थायी नहीं होता।

—'राज रस' के आलंबन और उद्दीपन का भए?

—आलंबन नहीं होता 'राज रस' में। इसमें आलंब ना, कोई आलंब ना। उद्दीपन कभी सपा के लिए बसपा कभी बसपा के लिए सपा। माकपा, भाकपा और भाजपा कभी खो-खो कभी पा-पा। उनमें संचारी भाव आते-जाते दिखते रहे। अब इसके जो तेंतीस संचारी भाव हैं उनके नाम गिनाता हूं— 1. अधर्म, 2. अपराध, 3. कल्मष, 4. पाप, 5. पातक, 6. रज, 7. विकार, 8. हरम, 9. पंक, 10. काम, 11. क्रोध, 12. मत्सर, 13. मद, 14. मोह, 15. लोभ, 16. अकार्य, 17. कुकृत्य 18. व्यतिक्रम 19. हवस, 20. इल्लत 21. खोट, 22. व्यसन 23. तामस, 24. भ्रष्टत्व, 25. अमर्ष, 26. ईर्ष्या 27. बदकार, 28. दुरिता, 29. पापिष्ठा 30. करारी , 31. बेकरारी, 32. आइएईए और 33. जाइएईए। सरकार बच गई या जैसी बची वैसी नहीं बची इससे क्या फ़र्क पड़ता है। चुनाव तो होने ही हैं। एक तरफ ब्रह्म है दूसरी तरफ माया है। निर्जीव मतदाता जब तक वोटानुभूति करता रहेगा भरपूर 'राज रस' आता रहेगा।

15 comments:

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है। अशोक जी। मुझे आपकी हास्य रचनाएँ बहुत पसन्द हैं। क्या आप इस ब्लाग पर उनका प्रसारण करेंगें?।सस्नेह

eSwami said...

त्सुनामी रे त्सुनामी! घनघोर सराबोर पैरा-दर-पैरा

Nitish Raj said...
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कामोद Kaamod said...

राजनीति, राज रस, भाव रस, राजरस.

बहुत बड़िया. हम तो रस में डूबकर रसीले हो गये:)

Nitish Raj said...

'.....लेकिन चचा असली रसराज यह 'राज रस' ही है।' गुरूजी क्या मारा है...। गुरूजी कहां थे। जब ज़ी न्यूज में हुआ करते थे तो आपसे भेंट भी हो जाती थी...लेकिन अब तो मिलना हो ही नहीं पाता। गुरूजी हंसी के ब्रह्मास्त्र थोड़े हो जाएं तो फिर पुरानी याद ताजा होजाए। (थोड़ा परिवर्तन करना था इसलिए पुराना comment हटा दिया)

समयचक्र said...

बहुत सुन्दर .

डा ’मणि said...

आदरणीय अशोक जी
सादर प्रणाम
मैं कोटा से डॉ. उदय 'मणि'कौशिक हूँ ,पेशे से एक चिकित्सक हूँ , लेखन पिता जी जनकवि स्व. विपिन 'मणि' से विरासत मे मिला है , जितना समय मिलता है , उसी की साधना करता हूँ ,बहुत लंबे समय से आपका घोर प्रशंसक हूँ
आज सुखद संयोग से आपके ब्लॉग से परिचय हुआ
चलिया आज परचे का एक मुक्तक भेज रहा हूँ देखिएगा
मुक्तक
हमारी कोशिशें हैं इस, अंधेरे को मिटाने की
हमारी कोशिशें हैं इस, धरा को जगमगाने की
हमारी आँख ने काफी, बड़ा सा ख्वाब देखा है
हमारी कोशिशें हैं इक, नया सूरज उगाने की .

प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा मे
डॉ उदय 'मणि' कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
mkaushik@gmail.com

डा ’मणि said...

e mail
umkaushik@gmail.com , hai

Neelima said...

चौं रे चम्पू राज रस का साधारणीकरन तौ आराम से ह्वै जातौ है न ? सहिरदयों को कौनू कठिनाई तौ नहीं आती रसास्वादन में ..?

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया!राज रस मे बहुत रस है।पढकर आनंद आ गया।

Rajesh said...

Excellent...As usual!

Sumit Pratap Singh said...

गुरुदेव! हमने निरे रस पढ़े हते। पर आज राज रस के बारे में जानबे कोऊ मौका मिल गओ। हमाओ सामान्य ज्ञान बढ़ाइबे के लायें ढेर सारो धन्यबाद।
आपके चेलाराम

Sumit Pratap Singh said...
This comment has been removed by the author.
Ashok Chakradhar said...

@ शोभा जी, अपनी कविताओं के प्रसारण के लिए, एक दूसरे पोर्टल पर कार्य चल रहा है, जिसका नाम होगा कविता.टीवी। मुझे ही नहीं आप अन्य कवियों को भी सुन पाएंगी।

@ हे ईस्वामी, पैरा-दर-पैरा मेरी रचना आपको लगी त्सुनामी। आपको धन्यवाद और प्रणामी।

@ कामोद जी, प्रतिक्रिया से मिला आमोद जी।

@ महेन्द्र मिश्रा जी, परमजीत बाली जी, नीलिमा जी, राजेश कमल जी आपको रचना अच्छी लगी तो लिखना सार्थक हो गया।

@ उदय मणि जी आपकी कोशिशों से सूरज उग कर ही मानेगा, मुझे पूरा भरोसा है।

@ और प्यारे सुमित, तुम्हारे साथ रस-विमर्श और भी करना है।

meamitk said...

आदरणीय अशोक जी
बहुत सुन्दर लिखा है। मुझे आपकी हास्य रचनाएँ बहुत पसन्द हैं। ,आपका बहुत प्रशंसक हूँ