—चौं रे चम्पू! का नतीजा निकरौ? अखबार देखे पिछले बीस दिना के?
—हां चचा देखे। एक-एक पन्ना पलट कर देखा। एक-एक लाइन पढ़ कर देखी। ‘क्रांति’ शब्द ग़ायब हो गया अख़बारों से। बीस साल पहले तक हर पन्ने पर क्रांति होती थी। क्रांति एक सपना थी, एक विचारधारा थी। नौजवानों में, देश और विश्व समाज पर होते अत्याचारों के प्रति सात्विक समझदार क्रोध और दायित्व का बोध लाती थी क्रांति। अब टुइंया क़िस्म के आंदोलन होते हैं।
—अंगरेजी के अखबार देखे?
—वहां भी रिवौल्यूशन की जगह मूवमैंट शब्द आ गया। अब देखो चचा, रैवोल्यूशन का मतलब है रिवाल्व होना, घूमना। कोई एक चीज़ तुम्हारे आगे घूम-पलट कर बिल्कुल नए रूप में आई, दिपदिपाती हुई। और मूवमैंट है, जहां तुम हो, बस वहीं हिलते-हिलाते रहो। गोरखालैंड आंदोलन, डेरा राम रहीम आंदोलन, उत्तराखंड-झारखंड-नंदीग्राम आंदोलन, डॉक्टर-वकीलों के आंदोलन, गुर्जर आंदोलन, ऐसे आंदोलन दिखाई दे जाएंगे…… या ऐसे आतंकांदोलन जो दूसरों को बुरी तरह आंदोलित कर दें। बंगलूरू, अहमदाबाद के बाद सूरत की सूरत बिगाड़ने पर आमादा। दोस्तोव्स्की ने ‘अपराध और दंड’ उपन्यास की शुरुआत करने से पहले लिखा था कि समाज में अपराध बढ़ें तो समझो क्रांति आने वाली है। पर आएगी कहां से, जब तुम शब्द ही गायब कर दोगे? गद्दी पर लूटपाट के अनुभव ले के, राजघाट का रस्ता ले के, बैठ गए अपराधी। उनसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे ही इतने बड़े लोकतंत्र की रक्षा कर रहे हैं। डैमोक्रेसी चली ग्रीक से भारत में चल रही है ठीक से। हमारे रहनुमाओं के पास अपराधों के इतने अनुभव हैं कि हर बार लोकतंत्र की रक्षा में काम में आते हैं। लोकतंत्र के चार शेर हैं, चारों के चारों दिलेर हैं। आमजन को ये खा भी जाएं तो उन्हें खुश होना चाहिए कि वो महाशक्ति का हिस्सा बन गए और लोकतंत्र में कुर्बानी का क़िस्सा बन गए।
—रूस में अपराधन के बाद क्रांति आई और क्रांति के बाद अपराध आय गए, आए कै नांय? अपराधन ते कैसै लड़ौगे भैया?
—अपराध एक प्रकार का निजि हितसाधन है। प्राय: दो कारणों से सम्पन्न होता है, एक तो अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के नाम पर और दूसरे अपने सम्प्रदाय-समुदाय की उन्नति के नाम पर। आंदोलन अपराधों का मुखौटा बन जाते हैं। आतंकवाद एक सांप्रदायिक हितसाधन अपराध है और जातिवाद एक सामुदायिक हितसाधन अपराध है। ये आपराधिक आंदोलन भेदभाव की बुनियाद पर आदमी को आदमी से अलग करने का वाले हैं। क्रांति का विचार था तो सब कंधे से कंधा मिलाकर चलते थे। मैंने भी सफ़दर हाशमी के साथ गाने गाए हैं जामा मस्जिद के चौक में। धर्म-जाति-वर्ण का कोई मामला ही नहीं हुआ करता था। अब जो पुराने क्रांतिकारी साथी हैं उनके लिए क्या शब्द विशेषण लगाऊं, कहां नाराज़ होते हैं, कहां राज की कामना रखते हैं, कुछ समझ में नहीं आता। क्रांति आमूलचूल बदलाव की बात करती थी, अब आम आदमी की चूल हिलाई जा रही है।
—तौ का करें, बता!
—इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है कि एक क्रांतिकारी चेतना के साथ सद्भाव-बिगाड़ू तमाम ताकतों से लड़ा जाए। पर चचा, लड़ा कैसे जाए, ये बम-पटाखे फोड़ने वाले तरकीब भी नई-नई निकाल लाते हैं। साइकिल पर टिफ़िन में बम रखने लगे…. पूरे विश्व की पुलिस लग जाए तो भी तलाश नहीं सकती। साइकिलों पर बैन लगा दोगे और क्या करोगे? फिर पैदल ही हाथ में टिफिन रखकर चलेगा, तब क्या करोगे? अरे, बम टिफिन में नहीं है चचा। दिमाग में है। वहां डिएक्टीवेट करना पड़ेगा। मुक्तिबोध के शब्दों में— ‘स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता, क्रॉस एग्ज़ामिन हिम थॉरोली!!’ दिमाग़ में भ्रांति की जगह क्रांति ट्रांसप्लांट करानी पड़ेगी। ये नई क्रांति अख़बारों की अनेकता से नहीं, घरबारों की एकता से आएगी।
9 comments:
sir bahut behtarin likha hai....
gahri chot ki hai aapne.....
sir mere blog par bhi padhare
वाह!! संदेश के साथ मार्गदर्शन भी। रचना न केवल प्रेरक है अपितु संग्रहणीय भी..
फिर आपकी शैली का तो हिन्दुस्तान कायल है।
***राजीव रंजन प्रसाद
www.rajeevnhpc.blogspot.com
अच्छी लगी आपकी ये बातें
ashok jee,
tanik dekhte na rahiye ee haal raha na to abkee 15 auguast par log patangwa mein baandh kar bam uddaayegaa, bhai.
आपका एक नाचीज़ प्रशंसक हूँ! आपका ब्लॉगर पर ठिकाना हुआ हम तो धन्य हो गये!
सार्थक रचना के लिए बधाई। दो दिन पहले ही आप की एक रचना पर बहुत बुरी टिप्पणी कर चुका हूँ। नतीजा इतना अच्छा होगा सोचा नहीं था।
प्रिय मित्रो, प्रतिक्रियाओं के लिए आप सभी को धन्यवाद और लवस्कार।
Bade Bhai
Main to aapka 25 saal purana chela hoon.Shayad aap jaante hi honge. Aap ka aashirwaad chaiye is chote bhai ko........Abhi UAE main hoon wapas aate hi aapke darshan karoonga.........But hi Sahaj aur sateek lekhni hain aapki.......
Pranaam
Kavi Deepak Sharma
http://www.kavideepaksharma.co.in
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जब भी कोई बात डंके पे कही जाती है
न जाने क्यों ज़माने को अख़र जाती है ।
झूठ कहते हैं तो मुज़रिम करार देते हैं
सच कहते हैं तो बगा़वत कि बू आती है ।
फर्क कुछ भी नहीं अमीरी और ग़रीबी में
अमीरी रोती है ग़रीबी मुस्कुराती है ।
अम्मा ! मुझे चाँद नही बस एक रोटी चाहिऐ
बिटिया ग़रीब की रह - रहकर बुदबुदाती है
'दीपक' सो गई फुटपाथ पर थककर मेहनत
इधर नींद कि खा़तिर हवेली छ्टपटाती है ।
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